कल बोधि भाई का मेल मिला, उन्हों ने विनय पत्रिका पर अपने आलेख "बोलने पर जीभ और छीकने पर नाक काटने वाले शब्द हीन समाज में आपका स्वागत है" पढने का आग्रह किया था। मैं ने इस विषय पर लिखा बहुत पढ़ा है लेकिन मैं इस तरह के विवादों पर राय प्रकट करने से बचता रहा हूँ और उन से तब तक दूर रहने की कोशिश की है जब तक पानी सर से न गुजर जाए। हमेशा जुगाड़ों में विवादों की जड़ें छुपी रहती हैं। मैं कभी जुगाड़ी नहीं हो सका। पिता जी चाहते थे मैं नौकरी कर लूँ, वह भी सरकारी होनी चाहिए। पर जब राज्य सेवा जैसी नौकरी का वक्त आया तो घबरा गया कि यदि साक्षात्कार में किसी तरह चुन लिया गया तो नौकरी कैसे कर पाउंगा। जब न्यायिक सेवा में जाने का अवसर आया तो एक वरिष्ठ वकील साहब ने बैठ कर घंटे भर वक्तव्य दिया कि मैं कितनी भारी गलती कर रहा हूँ कि वकालत में मेरे जैसा कोई न होने पर भी मैं खुला मैदान छोड़ कर भाग रहा हूँ। मैं वकालत में बना रहा और वक्तव्य देने वाले वरिष्ठ वकील साहब कुछ माह बाद ही उच्च न्यायालय के जज हो गए। वकालत में भी मुझे सुझाव मिलते रहे कि मैं संस्थानिक वकालत करूँ। एक साथी की बदौलत जीवन बीमा निगम का वकील नियुक्त हुआ और आज तक अपने काम के आधार पर वहाँ टिका हूँ और इस लिए भी कि वहाँ जुगाड़ का कोई महत्व नहीं है। लेकिन यह जानता हूँ कि यदि मैं जरा भी जुगाड़ी होता और अपनी कमाई हुई शुल्क में से कुछ संस्थानिक अधिकारियों पर खर्च करने या फिर उन के साथ बांटने की चतुराई दिखाता तो बहुत सारे संस्थानों का सम्मानित वकील हो सकता था। ऐसे में जुगाड़ों का महत्व मैं अधिक जानता हूँ। विभूति जी आज जहाँ हैं जुगाड़ों के कारण हैं, यह वे भी जानते हैं और देश भी। वर्ना जहाँ वे हैं वहाँ होने के लायक और उन से बेहतर देश में दर्जनों व्यक्ति हैं। यदि वे जहाँ हैं वहाँ न होते तो उन का साक्षात्कार न तो नया ज्ञानोदय प्रकाशित करता और न ही प्रकाशन के उपरांत इतना हंगामा खड़ा होता। हो सकता था उन की कही बात का नोटिस भी न लिया जाता।
मैं इस विवाद पर शायद चुप रहना चाहता हूँ। क्यों कि मुझे अभी तक यह समझ में नहीं आया है कि गलती से भी विभूति जी ने जिन लेखिकाओं को छिनाल कहा वह किस संदर्भ में कहा? और वे लेखिकाएँ कौन हैं? इस तरह से संदर्भ को छिपा कर उन्हों ने सभी लेखिकाओं पर कीचड़ उछाल डाला। यह भी विचित्र बात है कि आप बिना संदर्भ बताए किसी को किसी उपाधि से विभूषित कर दें और फिर उसे गलती बता कर माफी मांग लें। मैं समझता हूँ कि ऐसी गलती तब तक नहीं हो सकती जब तक कि अवचेतन में कुछ कुसंस्कार न छुपे हुए हों या फिर आप इरादतन कुछ कहना चाहते हों।
मैं ने ऐसे बहुत लोग देखे हैं जो ईमानदारी के साथ वामपंथी हैं और बने रहना चाहते हैं, लेकिन अपने पारिवारिक सामंती संस्कारों से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सके हैं और यदा-कदा इन संस्कारों की झलक अपने व्यवहार में प्रदर्शित करते रहते हैं। जब उन्हें खुद पता लगता है कि वे क्या कर गए हैं? तो उस व्यवहार को छुपाने का प्रयत्न करते हैं। नहीं छुपा सकने पर गलती मान कर माफ कर देने को कहते हैं। ऐसे लोगों के पास प्रायश्चित के अलावा कोई मार्ग नहीं है। वे केवल प्रायश्चित कर के ही इन बीमारियों से छुटकारा प्राप्त कर सकते हैं।
विभूति जी ने गलती की, यह उन की समस्या है। उस गलती से बहुत सारी समस्याएँ खड़ी हो गई हैं, यह भी उन की समस्या है। उन्हों ने माफी मांग ली, इस से समस्या हल नहीं होती। उन्हें उस गलती के कारणों को खुद अपने अंदर तलाशना चाहिए, कि उन से गलती क्यों हुई? क्या यह गलती उन के उन संस्कारों के कारण हुई जिन्हें वे छोड़ना चाहते थे लेकिन नहीं छोड़ सके या फिर उन्होंने इरादतन किसी और इरादे से यह सब कहा था, यह तो वे ही बेहतर जानते हैं। उन्हें स्वयं आत्मालोचना करनी चाहिए औऱ गलती होने के कारण तलाश करना चाहिए। उस कारण से निजात पाने के लिए प्रायश्चित करना चाहिए।
रहा सवाल इस बात का कि वे विश्वविद्यालय के कुलपति पद को छोड़ दें या उन्हें हटा दिया जाए तो इस से कोई फर्क नहीं पड़ता। खुद पद छोड़ देने और हटा देने के बाद भी जुगाड़ी व्यक्ति हैं तो कुछ न कुछ ऐसा ही या इस से कुछ बेहतर जुगाड़ कर लेंगे। फिर उन के जाने के उपरांत विश्वविद्यालय में एक और कोई जुगाड़ी आ बैठेगा। हो सकता है आने वाला व्यक्ति अब सावधानी से व्यवहार करे और उन से निकृष्ठ होते हुए भी उन पर अपनी श्रेष्ठता साबित कर दे। वस्तुतः इस साक्षात्कार में की हुई गलतियों से जो कुछ उन्हों ने खोया है उस का शायद उन्हें या किसी अन्य को अनुमान भी नहीं है।
हाँ, एक बात विनम्रता पूर्वक मैं यह और कहना चाहता हूँ कि इतिहास में महान वे नहीं हुए जिन्हों ने कोई गलती नहीं की,अपितु वे हुए जिन्हों ने गलतियाँ कीं और पश्चताप की ज्वाला में जलते हुए खुद को कुंदन की तरह खरा बना लिया।
11 टिप्पणियां:
दिनेश जी बहुत अच्छी शिक्षा दी आप ने, बहुत अच्छा लगा,ऎसी बाते जिन्दगी मै उतारने के लायक होती है,आप के लेख से सहमत है जी, धन्यवाद
सई है जी। हम भी इसई लाइन की बात कह रहे है।
वकील साहब, आपका जजमेंट काबिले क़बूल है, 'छिनाल' की बहस में उलझे हुए लोगों को यह फ़ैसला पढ़ लेने के बाद अधिक माथा-पच्ची करने की ज़रूरत नहीं रह जाती. धन्यवाद.
-- mansoorali hashmi
बिल्कुल सही है वकील साहेब आपका स्टैंड.
प्रोफेशन अलग हैं लेकिन वरिष्ठ वकील जैसा हादसा मेरे साथ भी हुआ था :)
सामान्यतः विवादों से दूर रहने की पॉलिसी ही सही है ,क्योंकि ज्यादातर ऐसे विवादों का मूल , पारिवारिक संस्कार कम और हवाओं में छा जाना अधिक होता है ! जीवन के दूसरे जुगाड़ों की तरह ये भी एक जुगाड़ है जो हलकट को क्षण में ज्ञान परिपूर्ण छलकट बन देता है ! जिसे सैकड़ों भी मुश्किल से चीन्हते हों उसे करोड़ों जानने लग जाते हैं ! ख्याति/कुख्याति का शार्टकट है ये ...मजेदार बात ये कि इस प्रवृत्ति को गरियाने वाले भी घंटों चटखारे लेकर इस बहस भाग लेते हैं और बोधि ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा और नीति उपदेशक होने का दिखावा करते हैं !
विभूति जी के प्रकरण में मुझे सन्दर्भों का ज्ञान नहीं और ना ही मैं इसमें उलझने का इच्छुक हूं !
पर जुगाड़ पर आपके विचारों के चलते यह प्रतिक्रिया दे बैठा !
हाँ, एक बात विनम्रता पूर्वक मैं यह और कहना चाहता हूँ कि इतिहास में महान वे नहीं हुए जिन्हों ने कोई गलती नहीं की,अपितु वे हुए जिन्हों ने गलतियाँ कीं और पश्चताप की ज्वाला में जलते हुए खुद को कुंदन की तरह खरा बना लिया।
महान विचार है। स्वयं को तपा डालने से विकार भी वाष्पित हो जाते हैं।
बहुत बढिया पोस्ट है
अनिच्छा से खोली थी, लेकिन अंत आते-आते बहुत प्रेरक लगी।
धन्यवाद इस प्रेरणादायी पोस्ट के लिये
प्रणाम स्वीकार करें
बिल्कुल सही और सटीक बात.
रामराम.
उम्दा पोस्ट के लिए धन्यवाद
ब्लॉग4वार्ता की 150वीं पोस्ट पर आपका स्वागत है
दिनेश भाई,
आप तो वकील हैं जानते हैं कि ग़लती अगर जानबूझ कर की जाए अपराध होता है और विभूति जी ने यह गलती गलती से की है या किसी इरादे से पता नही. किंतु गलती भी की है तो भाषा की असावधानी तो है ही. बहरहाल, मामला कुछ ज़्यादा ही तूल पकड रहा है.
अभी तक इस मुद्दे पर पढ़ा गया सबसे संतुलित लेख लगा है मुझे.. वैसे अब इस मुद्दे पर कोई भी लेख देखकर मैं भाग लेता हूँ वहाँ से.. :)
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