@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शुक्रवार, 25 जून 2010

देवताओं को लोगों की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है

पिछली पोस्ट घमौरियों ने तोड़ा अहंकार - एक ग्रामयात्रा से आगे .......
चौपाल पर बैठे लोग आप में बतिया रहे थे। मैं अपरिचित था। इस लिए केवल सुनता रहा। कह रहे थे। जहाँ हम बैठे हैं वहाँ केवल खलिहान हुआ करता था। जहाँ गणेश जी की मूर्ति थी वहीं जागीरदार के कारिंदे अपना मुकाम लगाते।  गाँव नीचे होता था। गाँव जागीरी का था। जागीरदार किसानों से लगान तो वसूलता ही था जरूरत पड़ने पर खाने को अनाज बाढ़ी (यानी जितना अनाज दिया उस से सवाया या ड्योढ़ा फसल पर लौटाना होता)  पर उधार देता था। सारे गाँव की फसल कट कर पहले खलिहान पर आती जहाँ जागीरदार के कारिंदे मौजूद होते थे। फसल से दाने निकालने के बाद पहले लगान और बाढ़ी चुकता होती, उस के बाद ही किसान फसल घर ले जा सकते थे। कुल मिला कर फसल जो आती थी वह साल भर के लिए पर्याप्त नहीं होती थी। और घर चलाने के लिए फिर से कर्जे पर अनाज उधार लेना पड़ता था। कोई किसान न था जो कर्जे में न डूबा रहता हो। कुछ किसान फसल का हिस्सा चुराने की कोशिश भी करते थे। किसी समय कपड़े आदि में अनाज बांध कर कारिंदों की नजर बता कर खलिहान के बाहर डाल देते जहाँ दूसरा साथी मौजूद होता जो अनाज को घऱ पहुँचाता। पकड़े जाने पर जागीरदार सजा देता। लेकिन सजा का भय होते हुए भी लोग भूख से बचने को चोरी करते थे। फिर जागीरें खत्म हो गईं। धीरे-धीरे जागीरदार ने सब जमीनें बेच दीं। हवेली शेष रही उस का क्या करता सो उसे स्कूल को दान कर दिया। इस तरह जागीरी समाप्त हुई।
मैं ने पूछा-फसलें कैसी होती हैं, अब गाँव में? तो कहने लगे फसलें अच्छी होती हैं। मैं ने फिर पूछा -सब स्थानों पर भू-जल स्तर कम हो गया है, यहाँ की क्या स्थिति है। वे बताने लगे यहाँ पानी का तो वरदान है। जहाँ हम बैठे हैं वहाँ तीस-पैंतीस फुट पर पानी निकल आता है। साल भर हेंड पम्प चलते हैं। मैं ने गांव में एक भी  सार्वजनिक हेंड पम्प नहीं देखा था। इस लिए पूछा -मुझे तो एक भी नजर नहीं आया। एक बुजुर्ग बोले-कैसे नजर आएगा। बाहर कोई हेंड पम्प है ही नहीं। हर घर में कम से कम एक हेंड पम्प है। किसी किसी में दो भी हैं। उधर गांव की निचली तरफ तो कुईं खोदो तो इतना पानी है कि हाथ से लोटा-बाल्टी भर लो। उधर ही एक बोर पंचायत ने करवाया था। उस में इतना पानी है कि स्वतः ही बहता रहता है। हमने उस में पाइप लगा कर खेळ में भर रखा है जिस में जानवर पानी पीते हैं। वहीं कुछ जगह ऐसी बना दी है कि लोग पाइप लगा कर सीधे स्नान कर सकते हैं। जब जरूरत नहीं होती तो पानी खाळ (नाला) में बहता रहता है। वह खाळ एक छोटी नदी जैसा बन गया है। 
मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। इतना पानी जमीन में कहाँ से आ रहा है? मैं ने पूछा -आस पास कोई तालाब है? 
-नहीं, कोई नहीं।
-नदी कितनी दूर है? 
-नदी कोई दो कोस (लगभग तीन किलोमीटर) दूर है।
-तो जरूर पानी वहीं से आता होगा? 
-नदी तो बहुत नीचे है, वहाँ से पानी कैसे आएगा? यह तो भूमि ही ऐसी है कि बरसात में पानी सोख लेती है और साल भर देती रहती है।
मेरी इच्छा थी कि गाँव के दूसरे छोर पर, जा कर देखा जाए कि नलके से अपने आप पानी कैसे निकल रहा है। लेकिन कड़ी धूप थी। उस समय कोई मेरे साथ सहर्ष जाने को तैयार भी न था। कहने लगे शाम को चलेंगे। इतने में हवन का प्रथम खंड पूरा हो गया। गणेश जी को नीचे से उठा कर ऊपर लाने की तैयारी आरंभ हो गई। चौपाल  की बातें गणेश जी पर केंद्रित  हो गईँ।
लोग किस्सा सुना रहे थे, कैसे मेजबान के परदादा और उन के मित्र नदी से गणेश जी को उठा कर बैलगाड़ी में रख कर गाँव लाए थे? यूँ तो गणेश जी बहुत भारी हैं दो जनों के बस के नहीं है। फिर भी उन की खुद मर्जी थी इस लिए उन के साथ चले आए। इतने बरस नीम की जड़ में नीचे ही बैठे रहे। अब उन की मर्जी हुई तो चबूतरा भी बन गया और सिंहासन भी। 
मैं ने पूछा -अभी गणेश जी को नीचे से उठा कर ऊपर सिंहासन तक कैसे लाएँगे? 
वे कहने लगे -सब ले आएँगे। दो से न उठेंगे तो दस मिल कर उठा लेंगे। 
-और उन की मरजी न हुई तो? 
कुछ ऐसे ही थे वे गणेश
- नहीं कैसे नहीं होगी। उन की मरजी न होती तो चबूतरा-सिंहासन बनता? अब वे कैसे नखरे करेंगे। फिर ये कोई एक की मरजी थोड़े ही है। गाँव के पाँच लोगों ने तय कर के चबूतरा-सिंहासन बनाने की बात की है। गणेश जी को पाँच आदमियों की बात माननी होगी। 
मैं ने फिर कहा- और पाँच आदमियों की बात भी न मानी तो।
-कैसे न मानेंगे? पाँच आदमियों (पंचों) की बात वे टाल नहीं सकते। ऐसा हुआ तो गणेश जी पर से ही विश्वास उठ जाएगा। 
मैं सोचता रह गया, बहुत सारे देवताओं को मानने वाले  ग्रामीणों ने उन्हें खुला नहीं छोड़ रखा है। उन्हें भी लोगों  की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है और लोग रोजमर्रा के व्यवहारों को ले कर  पूरी तरह व्यवहारिक हैं। मुझे देवीप्रसाद चटोपाध्याय की 'लोकायत' के विवरण स्मरण आने लगे। तभी चौपाल के  सभी मर्द गणेश  जी को उन के सिंहासन पर बिठाने उधर चले गए। मैं एकांत पा कर लेट गया। नीम के नीचे छाहँ थी और हवा चल रही थी। मुझे  झपकी लग गई।
...... क्रमशः

घमौरियों ने तोड़ा अहंकार - एक ग्रामयात्रा

भी तीन दिन पहले की बात है, हम इतरा रहे थे, कि हमें घमौरियाँ नहीं होतीं। बस आज हो गईं। हमारे अहंकार को इतनी जल्दी झटका इस से पहले कभी न लगा था। हम कहते थे कि पहले हम जब बाराँ में रहते थे तो बहुत होती थी। लेकिन जब से कोटा आए हैं घमौरियाँ विदा ले गई हैं। शायद हमारी बात घमौरियों ने सुन ली। सोचने लगीं। बहुत इतरा रहे हो जनाब! अब चखो मजा। आज घमौरियाँ हो ही गईं। पीठ में सुरसुराहट हो रही है। उस की सोचता हूँ तो झट से छाती पर सुरसुराहट होने लगती है। अब मैं किस किस की सोचूँ, मैं ने सोचना छोड़ दिया ठीक भारत सरकार की तरह। वह एंडरसन की सोचती तो अमरीका नाराज हो जाता। अमरीका की सोचती तो जनता नाराज हो जाती। बस उसने जो चाहा कर लिया, सोचना बंद कर दिया। इसी तरह हमने भी घमौरियों के बारे में सोचना बंद कर दिया।
गाँव का आसमान
ज मुझे श्रीमती जी के साथ एक गांव में जाना पड़ा। यह राष्ट्रीय राजमार्ग सं. 76 पर कोटा से कोई 37 किलोमीटर बाराँ की ओर जाने के बाद उत्तर की ओर सात किलोमीटर अंदर पड़ता है। जैसे ही हम राजमार्ग से हट कर सड़क पर गए तो सड़क एक दम इकहरी हो गई। पर वह गाँव तक डामर की थी। बीच में जितने भी गाँव पड़े वहाँ डामर के स्थान पर हमें पत्थर का खुरंजा मिला। खुरंजे पर कार दूसरे या तीसरे गियर में ही चल सकती थी, अर्थात गति 20-30 किलोमीटर प्र.घं. से अधिक न हो सकती थी। फिर भी उन खुरंजों पर मिट्टी के बनाए स्पीड ब्रेकर मिले। आखिर स्पीड ब्रेकर नगरों में ही थोड़े बन सकते हैं, गाँव इन कामों में पीछे क्यूँ रहें?
गाँव में हमारे जिन रिश्तेदार के यहाँ हमें जाना था वे पिछले जून में उत्तराखंड के तीन धाम की यात्रा कर आए थे। वापस गाँव लौटे तो गणेश जी के दर्शन करने गए। पाया कि गणेश जी एक पेड़ की जड़ पर भूमि पर ही विराजमान  हैं और लगातार धूल-धूसरित होते रहते हैं। कभी कभी जब कोई मानववृन्द पास नहीं होता है तो कुकुर जैसे प्राणी भी उन्हें स्नान करा जाते हैं। ये गणेश जी पास की नदी से उन के परदादा कोई डेढ़ सौ बरस पहले उठा कर लाए थे और गांव के बाहर एक बाड़ी (बगीची) में स्थापित किया था। गाँव की प्रगति इतनी हो गई कि अब स्थापना स्थल गाँव की परिधि में आ चुका था। बगीची बिक चुकी थी, वहाँ मकान बन गए थे। बगीची की बाड़ उन की रक्षा करती थी वह नदारद हो चुकी थी। अब गणेश जी को स्थान की आवश्यकता थी। रिश्तेदार महोदय ने छोटे भाई को आदेश दिया कि गणेश जी के लिए ऊंचा चबूतरा बना दिया जाए खर्च सब भाई मिल कर भुगत लेंगे। चबूतरा बना, उस पर पक्का सिंहासन बन गया। उसी पर गणेश जी को विराजना था। पहले पूजा, हवन आदि हुए, फिर गणेश जी को नए सिंहासन पर बिठाया गया। फिर आगंतुकों और गाँव के लोगों को भोजन-प्रसादी का कार्यक्रम हुआ। 
गाँव की चौपाल पर एक बुजुर्ग
म गाँव पहुँचे तो दिन के ग्यारह बजे थे और अभी गणेश जी की पूजा आरंभ होनी थी। यानी हम कम से कम तीन-चार घंटे फालतू थे। गाँव में बिजली का दिन भर आना जाना लगा रहता है इस कारण से पंखाशऱण तो हो नहीं सकते थे। हम ने देखा पास ही एक चबूतरे पर नीम के पेड़ के नीचे तिरपाल और दरी बिछाई गई है और वहाँ लोग बैठे हैं। हम समझ गए यहीं ग्रामीणों की मेहमानों के साथ चौपाल लगनी है। हम भी वहीँ जा बैठे। पास ही शीतल जल की व्यवस्था थी। एक बीस लीटर की प्लास्टिक के आयल के खाली डिब्बे के आसपास जूट के टाट को सिल दिया गया था। टाट भीगा हुआ था जो पानी को शीतल कर रहा था। प्लास्टिक का डब्बा और जूट की टाट का टुकड़ा खेती के काम में आए वस्तुओँ का कचरा था जिस का उपयोग इस वाटरकूलर को बनाने में किया गया था। हम जैसे ही चौपाल पर बैठे एक ग्रामीण ने हम से पानी के लिए पूछा और एक लोटे में भर कर दिया। वह शीतल था। एक लोटे ने न केवल प्यास बुझाई अपितु रास्ते की थकान को भी दूर कर दिया।  
............क्रमशः

गुरुवार, 24 जून 2010

'काला शुक्ल पक्ष' यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का दशम् सर्ग

नवरत के पिछले अंकों में आप यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के नौ सर्ग पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का दशम् सर्ग ' काला शुक्ल पक्ष' प्रस्तुत है ......... 
परंपरा और विद्रोह  
* यादवचंद्र *

दशम् सर्ग

' काला शुक्ल पक्ष'


काव्य-न्याय, अलंकार-रक्षा स्तुत्य है कि,
सब कुछ सुखान्त पूर्ण, वाणी है गेय भी
स्वर्णयुग- भारत का लक्ष्यकाल, व्यास है
वृत्त विशद्, दिव्य पात्र, निष्ठा अजेय भी

अन्तर के तेजस से जगमग मिलिन्द है
ज्योतित कनिष्क का विस्तृत आदर्श देख
प्रखर ध्रुव युगादित्य भासित है विश्व में
शीतल समीर फैल गया हर्ष देख


भास, नाग, कालिदास, कवि बाणभट्ट से
अक्षर कृतिकारों की रचना अमर हुई
रत्नों का तेज जो न छीजता कभी भी
कि जो कुछ अव्यक्त-गेय, वाणी मुखर गई

वीणावर वादिनी किस की अनुगामिनी ?
भूपति के राज दण्ड, विधि-विद्या की। किन्तु 
सत्य शिव सुन्दर की परिणति नैराश्य क्यों
ऊसर पुण्य कुक्षि हाय, सूखा क्यों सिंधु

स्वर्णयुग-साधन सब सुंदरतम हैं
स्वर्णयुग-ब्राह्मण की शक्ति न कम है
स्वर्णयुग-कविगण वृत्ति मिल गई
स्वर्णयुग-राजा को भक्ति न कम है

शाश्वत, वृहत्तम तब साधनों की परिणति
अन्धकार घोर पतन, अनिश्चितता क्यों
स्वर्णयुग कि संकर गुण ऊर्ध्वमुख हो गये
सिंहासन बत्तीसी का ढूह बचा क्यों?


नाम हीन, गोत्र हीन वीर्य बने भूपति
'रक्षां मा चलऽ....'  द्विज सूत्र आबद्ध हो
स्वर्णयुग आज जनगण से कटा कटा है
समीपस्थ, सब प्रमाण दौड़ खड़े हो

बुद्धवाद के विरुद्ध तू चक्रवात है
साम्राज्यवाद के बीज-मंत्र देख !
तेरे अखण्ड जाप चल रहे आज भले
किन्तु रश्मि-हीन रवि होगा द्रुत शेष

देख! भवभूति, भास चीख रहे क्लेश से
 सत् जन गुणवान सुलभ, पारखी नहीं,
लेकिन अवरोधों की गोद पली लली कला
हुई कैद महलों में आज तक कहीं ?

स्वस्ति पाठ- 'द्रोह शांत युग के रहा करें
शास्त्रानुकूल हो मेनका प्रवृत्ति
तुंगऽस्तनी की दुन्दुभी बजा करें'
अपहृता नारियाँ निरीह भला कला कृति!

बोद्ध श्रमण-शीर्ष का उच्छेदन-घोर पाप!
धिक धिक ! रे स्वर्णयुग तू कितना निकृष्ट है
चाटुकार विधि-विधान खड़े क्लीव मुद्रा में
ऐसे में न्याय धर्म - धोखे का पृष्ठ है

बुद्धवाद गंदला है, फिर भी निःसीम है
व, गति औ विस्तार का बन्धन अधर्म है
स्वर्णयुग भारत का - बन्धन की क्रिया है
जो न तो साधन है, साध्य का सुकर्म है

बातें अजंता, ऐलोरा की व्यर्थ हैं
मूल बात दर्शन की व्यापकता, थिरता है
जन जीवन-दर्शन में साम्य नहीं होगा तो
कौतुहल मात्र से क्या बनता, बिगड़ता है

औ, पशु पक्षी पर बाह्य कला हावी है
मानव है सृष्टि का विशेष रत्न चिन्तन से
त्रस्त-दृष्टिकोण जन्य काव्य कला जो भी हो
सुघड़ पर दिशाहीन और हीन जीवन से

चांद क्षीण होता है, फिर भी सैद्धांतिक है
जीवन में प्रतिमाह पूनम ध्रुव, सत्य है
शासन के बनते इकाई-दहाई से 
होता क्या, जब तक जन-जीवन विभक्त है

गतिशील दृष्टिकोण जीवन का और है
देश-राज गौण वहाँ, धरती अविभाज्य है
उस का परिधि-मान पूर्णमुक्त शासक से 
बन्धन है पूर्वाग्रह और रूढ़ि त्याज्य है

शंबूक का शीश राम काटे अन्याय है
चाहे हो गुप्त काल या कि राम राज हो
भ्रम पर भी स्वर्णिम नक्काशी हो सकती है
तर्क भला मानेगा श्रद्धा के जाल को?


कौपणीय कर्म से न जीवन समावृत्त है
वह तो जगाता है मरघट, मसान को 
रूढ़ रीति नीत, बनी विमुख जमाने से 
कैसे उभारेगी उर्ध्वमुख ज्ञान को ?

बुद्ध की बगावत में जनता प्रतिबिंबित है
गुप्तकाल इस के विरुद्ध घोर मट्ठा है
यूनानी फरमा जो मध्य एशियाई को
राजतिलक दे दे कर राजपूत बनाता है

बनती-बिगड़ती चली गईं कलाकृतियाँ
किन्तु वह 'छठांश कर' अन्त तक समान है
ले कर चाणक्य से आवर्तक त्रिमूर्ति तक
एक ही व्यवस्था के भिन्न-भिन्न मान हैं

नश्वर है ! पतित है ! यह समुद्र गुप्त भी 
और राज तन्त्र भी, जनता की वाणी है
पूरब से पश्चिम औ उत्तर से दक्षिण तक
जीता है कौन, बनी किस की कहानी है?

कलियुग व स्वर्णकाल कहने से होता क्या
कहना ही है, तो दो उत्तर इन प्रश्नों का -
धरती की जोतों का हलधर से रिश्ता क्या,
कर विहीन कौन वर्ग वृत्त रहा जोतता ?


हस्तशिल्प जिस का सर्वाधिक महत्व है
वैसे शिल्पकारों की कैसी प्रतिष्ठा है
मूल श्रम, जिस पर युग कोई भी टिकता है
स्वर्णयुग की इस में प्रदर्शित क्या निष्ठा है ?

मूल प्रश्न का जो आधार वर्ग होता है
उस की उपेक्षा-विनाश, घोर पातक है
जिस का श्रम महलों का बनता कंगूरा है
उस की न चर्चा-जघन्य कर्म, घातक है

स्वर्णकाल दासों के शोषण  पर कुण्डलिस्थ
अन्तिम भू-भक्षक है, अन्तिम मणियारा है
रोमन साम्राज्य स्वतः अन्तर्विरोधों में
टिम्-टिम कर बुझता सुबह का सितारा है

दीर्घबाहु सिमटे हैं, मनु का जनाजा है
वर्णों का एकाधिकार देख, जलता है 
कटा-छटा दुनिया से, एक निष्ठ, आत्मसात
सत्ता के सिर पर विशाल विश्व चलता है

* * * * * * * * * *

यादवचन्द्र पाण्डेय

मंगलवार, 22 जून 2010

जनता के धन से चल रहे राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय केवल 'एंडरसनों' के सेवक तैयार कर रहे हैं

पिछले कुछ वर्षों में भारत के लगभग सभी राज्यों ने अपने यहाँ विधानसभाओं में कानून बना कर अपने-अपने राज्य में  कम से कम एक राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय स्थापित किया है। हालाँ कि ये सभी स्वायत्त निकाय हैं लेकिन इन में धन राज्य सरकारों और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं का ही लगा है। ये विश्वविद्यालय क्या कर रहे हैं? इस बात की जानकारी भी जनता को होनी चाहिए। लेकिन जनता इस से लगभग अनभिज्ञ है।  नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी जोधपुर ने अपनी वेबसाइट पर जो वक्तव्य दे रखा है वह निम्न  प्रकार है-
The National Law University, Jodhpur is an institution of national prominence established under the National Law University, Jodhpur, Act, 1999 (Act No. 22 of 1999) enacted by the Rajasthan State Legislature. The University is established for the advancement of learning, teaching, research and diffusion of knowledge in the field of law. It caters to the needs of the society by developing professional skills of persons intending to make a career in advocacy, judicial service, law officer / managers and legislative drafting as their profession.
ह वक्तव्य बताता है कि 'राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त यह संस्थान राजस्थान विधान सभा द्वारा पारित 1999 के कानून सं.22 से स्थापित किया गया है। इसे विधि क्षेत्र में शिक्षा, शिक्षण, शोध और ज्ञान के प्रसार की उन्नति के लिए स्थापित किया गया है। यह वकालत, न्यायिक सेवा, विधि प्रबंधन और विधायी प्रारूपण के क्षेत्र में कैरियर बनाने के इच्छुक व्यक्तियों की पेशेवर कुशलता को विकसित कर के समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है'। 
स संस्थान में शिक्षा का माध्यम केवल अंग्रेजी है। हिन्दी का वहाँ कोई महत्व नहीं। यहाँ तक कि  राज्य की राजभाषा हिन्दी और स्थानीय राजस्थानी भाषाओं की विद्यार्थियों की योग्यता पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। जब कि राजस्थान के सभी अधीनस्थ न्यायालयों की कामकाज की भाषा हि्न्दी है। अब जो विद्यार्थी इस संस्थान से निकलेंगे वे कैसे राजस्थान की जनता की समस्याओं को समझेंगे और किस तरह उन की मदद कर सकेंगे? यह समझ में आने वाली बात नहीं है। 
न संस्थानों में सर्वाधिक जोर प्लेसमेंट पर है। लगभग सभी विद्यार्थी उन का अध्ययन पूरा होने के पहले ही किसी न किसी निजि कंपनी द्वारा नियोजित कर लिए जाते हैं, उन के वेतन भी अच्छे होते हैं। इस विश्वविद्यालय का कोई भी स्नातक शायद ही अभी तक वकालत के व्यवसाय में आया हो, न्यायिक सेवा में भी अभी तक कोई नहीं आया है। न ही किसी सरकार के विधायी विभाग में किसी को नियोजन हासिल हुआ है। वे वहाँ आएँगे भी कैसे? उन्हें कारपोरेट सैक्टर में पहले ही अच्छे वेतनों पर नौकरियाँ जो मिल रही हैं। 
स तरह  इन विश्वविद्यालयों के जो उद्देश्य नियत किए गए थे उन में से वकालत, न्यायिक सेवा और विधायी प्रारूपण के लिए अच्छे कर्मी तैयार करने के उद्देश्य की पूर्ति बिलकुल नहीं हो रही है। केवल कॉरपोरेट सैक्टर की मदद के लिए विधिज्ञान से युक्त कर्मचारी तैयार करने के एक मात्र उद्देश्य की पूर्ति ये विधि विश्वविद्यालय कर रहे हैं। इस तरह जनता के धन से केवल देशी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सेवा के लिए कार्यकर्ता तैयार किए जा रहे हैं। हमारी सरकारें किस तरह से इन देशी विदेशी धनकुबेरों की सेवा के लिए संस्थान स्थापित करती है यह इसी से स्पष्ट है। इन विश्वविद्यालयों से निकलने वाले विधि विशेषज्ञ अपने कैरियर में यूनियन कार्बाइड जैसी कंपनियों को कानून के शिकंजे से बचाने, उन से पीड़ित जनता के हकों को प्राप्त करने के मार्ग में काँटे बिछाने और एंडरसन जैसे देश की जनता और संपूर्ण मानवता के अपराधियों को बचा कर निकालने का काम ही करेंगे, देश की जनता को उन के हक दिलाने, और जनता व मानवता के अपराधियों को दंडित कराने का काम नहीं।

सोमवार, 21 जून 2010

गरमी की भीषणता के बीच एक रात और दिन

र्मी का भीषण प्रकोप चल रहा है। सोचा था इस बार बरसात जल्दी आ जाएगी। पर मौसम का अनुमान है कि अभी एक सप्ताह और लगेगा। पारा फिर से 48 के नजदीक पहुँच रहा है। कल रात सोने के भी लाले पड़ गए। कूलर बिलकुल असफल हो चुका था। एक बजे तक फुटबॉल मैच देखता रहा। आँखें बन्द होने लगीं, तो टीवी बंद कर सोने की कोशिश की, लेकिन गर्मी सोने दे तब न। पन्द्रह मिनट इंतजार कर फिर से टीवी चला दिया। पूरा मैच देख कर सोने गया। फिर कब नींद आई पता नहीं। कोई पच्चीस-तीस बरस पहले कोटा इतना गरम न हुआ करता था। लेकिन जब से थर्मल पॉवर प्लांट शहर की छाती पर खड़ा हुआ है तब से गर्मी बढ़ती गई। अभी सात यूनिटें चल रही हैं। दो से तीन ट्रेन कोयला रोज फुँक जाता है। बैराज में बॉयलर का पानी आता है, तो बैराज का पानी भी चालीस डिग्री सैल्सियस से कम नहीं रहता। कोई तैरता हुआ दस फुट अंदर चला जाए तो ताप से रक्तचाप बढ़े और चक्कर खा कर वहीं डूब ले। इस भय से लोगों ने बैराज में नहाना भी बंद कर दिया। विशाल जलराशि सिर्फ देखने भर को रह गई।

 शायद ऐसे ही मिल जाए कुछ राहत
सुबह अदालत निकलने के पहले नाश्ता करने बैठा तो पूरा नहीं कर पाया। कुछ अंदर जा ही नहीं रहा था। मैं अपनी प्लेट या थाली में कभी कुछ नहीं छोड़ता, पर आज छोड़ना पड़ा। अन्न का निरादर करने का अफसोस तो बहुत हुआ। पर अब इन चीजों की परवाह कौन करता है? एक जमाना था, तब शास्त्री जी के आव्हान पर कम से कम आधे देश ने सोमवार को एक समय भोजन करने का नियम बना लिया था। अब वैसी जरूरत तो नहीं है। लेकिन फिर भी लाखों टन खाद्य प्रतिदिन देश में इसी तरह बरबाद कर दिया जाता है। हम होटलों में जा कर देखें, या फिर शादी विवाह की पार्टियों में जहाँ के कचरा-डब्बे इस बेकार हुई खाद्य सामग्री से भरे पड़े रहते हैं। यदि इस बेकार होने वाली खाद्य सामग्री को बचा लिया जाए तो भी बहुत हद तक हम खाद्य सामग्री की मांग को घटा सकते हैं जो निश्चित ही उस की कीमतों में कमी भी लाएगी। 

सूरज ही क्या कम था, जलाने को
स साल कूलरों के पैड नहीं बदले गए थे। शायद एक कारण यह भी था कि कूलर अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर रहे हैं। मैं अपने मिस्त्री से कह चुका हूँ लेकिन उसे फुरसत नहीं मिली शायद। बिटिया दो दिन का अवकाश ले कर आई है। सप्ताहांत के दो दिन मिला कर कुल चार दिन के लिए। कल रात की गर्मी की तड़पन से आज मिस्त्री को बुला लाने की बात हुई, लेकिन उस के बरामद होने में आज भी शंका हुई, तो कहने लगी, मैं बदल दूंगी। और सच में एक कूलर के पैड घर में पड़े थे वे बदल दिए। मैं शंका करता ही रह गया कि वह कर पाएगी या नहीं। कहने लगी, मैं सब कुछ कर लेती हूँ। वह पिछले छह वर्ष से घऱ से बाहर रह रही है। तीन वर्ष छात्रावसों में निकले फिर डेढ़ वर्ष अपनी सहकर्मियों के साथ रही, डेढ़ वर्ष से अकेली रहती है। सुबह उठ कर नाश्ता और दोपहर का टिफिन बनाना, तैयार हो कर अपने काम पर जाना, शाम को वापस लौट कर अपना खाना बनाना। इस के अतिरिक्त अपने आवास की सफाई, कपड़ों की धुलाई वगैरा सारे घर के काम वह स्वयं कर रही है। कितनी ऊर्जा होती है लड़कियों में कि वे घर और दफ्तर को पूरी कुशलता के साथ संभाल लेती हैं। कोई कमी रहती है तो शायद समय की जो इन सब कामों के लिए कम पड़ जाता है। इन सब के बाद, लगातार अपनी प्रोफेशनल योग्यता का विकास करते हुए नया ज्ञान और कुशलता अर्जित करते जाना। सच में उन्हें 'देवी' कहा जाना कदापि मिथ्या नहीं। आखिर मुझे बाजार जा कर दूसरे कूलर के लिए भी पैड लाने पड़े। अब वे बदले जा रहे हैं।

रविवार, 20 जून 2010

सरकारों की प्रतिबद्धता जनता के साथ भी है या नहीं? या केवल धनकुबेर ही उन के सब कुछ हैं?

भोपाल गैस त्रासदी के मामले में गृहमंत्री पी. चिदंबरम की अध्यक्षता वाले पुनर्गठित मंत्री समूह की बैठकें जारी हैं। खबरें आ रही हैं कि सोमवार को दोपहर बाद समूह अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंप देगा। जो खबरें छन कर आ रही हैं उन से पता लगा है कि अब केंद्र सरकार अमरीका पर एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिए दबाव बना सकता है। यह भी कि भोपाल में मौजूद जहरीले कचरे की सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। यह भी कि सुप्रीमकोर्ट के समक्ष पुनर्विचार याचिका दाखिल कर 1996 के उस निर्णय को बदलने के लिए निवेदन किया जाएगा जिस से आरोपियों पर आरोपों को हलका कर दिया गया था। यह भी कि भोपाल के हाल के निर्णय की रोशनी में ऐसी याचिका दायर की जाएगी।
सारी खबरें आ रही हैं। लेकिन यह खबर नदारद है कि एंडरसन की गिरफ्तारी के बाद धारा 304 भाग 2 का आरोप होते हुए भी पुलिस ने उसे जमानत पर क्यों छो़ड़ दिया, अदालत के समक्ष प्रस्तुत क्यों न कर दिया? एंडरसन को भारत से निकल जाने का रास्ता दिया गया तो क्यों दिया गया? हालांकि अब सब बात सामने आ चुकी है कि एंडरसन ने आने के पहले ही भारत सरकार से यह शर्त मंजूर करा ली थी कि उसे वापस आने दिया जाएगा। यदि ऐसा है तो फिर उसे कागजों पर गिरफ्तार दिखाना अपने आप में बड़ा काम था, जिस ने भी किया उसे ईनाम जरूर मिलना चाहिए। लेकिन यह प्रश्न तो फिर भी बना रहेगा कि भारत सरकार ने ऐसा क्यों किया कि अमरीका की यह शर्त मान ली कि अपराधी को भारत तो आने दिया जाए लेकिन उस की वापसी सुनिश्चित की जाए। यानी भारत का कानून कानून नहीं है। भारत में लोकतंत्र और कानून का शासन नहीं है और उसे अमरीका जैसे साम्राज्यवादी देश बात माननी पड़ती है। यह प्रश्न देश की संप्रभुता से समझौता करने तक जाता है। निश्चित ही भारत सरकार और कांग्रेस पार्टी इस आरोप का उत्तर देने की स्थिति में नहीं है।
वास्तव में भोपाल त्रासदी के मामले में जिस तरह भारत सरकार ने अमरीका के सामने घुटने टेके हैं उसे इतिहास और भारत की जनता कभी माफ नहीं कर सकेगी। उस ने केवल एंडरसन को ही नहीं जाने दिया। एक बहुत ही अपर्याप्त मुआवजा राशि के बदले यह भी स्वीकार कर लिया कि भोपाल दुर्घटना के सभी अपराधियों के विरुद्ध दांडिक मुकदमे वापस ले लिए जाएंगे। उस समझौते के आधार पर एक बार तो सभी दांडिक मुकदमे निरस्त कर ही दिए गए थे। सुप्रीमकोर्ट इन मुकदमों को पुनर्स्थापित करने का निर्णय नहीं करता तो शायद एक भी अपराधी को नाम मात्र की सजा भी नहीं मिलती और यह बखेड़ा फिर से खड़ा भी न होता। 
पुनर्गठित मंत्री समूह से आने वाले समाचारों में सब तरह की सूचनाएँ आ रही हैं। लेकिन इस बात पर कितना सोचा जा रहा है कि देश में इस तरह की औद्योगिक दुर्घटनाएँ नहीं घटें इस के लिए क्या किया जाए। ऐसा नहीं है कि देश में इन दुर्घटनाओं से सुरक्षा के लिए पर्याप्त कानून नहीं हैं। यदि नहीं भी हैं तो और बनाए जा सकते हैं। लेकिन देश की सरकारी मशीनरी जिस तरह से इन कानूनों की अनदेखी करती है उस का कोई इलाज क्या सरकार तलाश कर पाएगी? इस अनदेखी में केंद्र और राज्य सरकारों के मंत्रियों की भूमिका भी कम नहीं होती। आखिर सरकारी मशीनरी उन्हीं के नियंत्रण में तो काम करती है। भविष्य में आम जनता को सुरक्षित रखने के उपायों पर भी कोई बात केंद्र और राज्य सरकारों के मंत्रीमंडलों, संसद और विधायिका में होगी या नहीं यह तो समय ही बताएगा। समय यह भी सुनिश्चित करेगा कि हमारी इन सरकारों की प्रतिबद्धता जनता के साथ भी है या नहीं? या केवल धनकुबेर ही उन के सब कुछ हैं?

शनिवार, 19 जून 2010

कहीं आप बीमार तो नहीं ?

शाम तीन बजकर उन्नीस मिनट के बाद, पता नहीं क्या हुआ?
जैसे घड़ी की सुइयाँ अटक गई हों,
समय आगे ही नहीं खिसक रहा हो,

राम ने बंदूक तान रखी है
मणिरत्नम् की सीता दुविधा में है
बीच में आ कर खड़ी हो गई है
अब राम दुविधा में है
वह घोड़ा दबाए या न दबाए
रावण को कायदे से यहाँ अट्टहास करना चाहिए था
लेकिन उस के दसों चेहरे क्रोध से लाल हो रहा है
दसों चेहरों से पसीना टपक रहा है
और मक्खियाँ हैं कि चेहरों के
इर्द-गिर्द मंडरा रही हैं

इधर तरुणा अस्पताल में बिस्तर पर लेटी दुविधा में है
माँ-बाप लड़ कर गए हैं, उसे विनीत अच्छा लगता है
ये बात सारे वार्ड को बता गए हैं
वह सोच रही है जाऊँ तो जाऊँ कहाँ?
ससुराल? वहाँ सब उसे निचोड़ने को तैयार हैं
और देवर की क्षुधित आँखें?
नहीं वहाँ नहीं जाएगी
तो फिर, माँ-बाप के पास?
उन्हें छत के बदले एक नौकरानी चाहिए
सब लेने को तैयार हैं, देने को कोई नहीं
तभी विनीत आ जाता है,
वह भी उस से कुछ न कुछ लेने को बैठा है
पर वह है जो उसे कुछ दे सकता है

नीरज कुमार झा ने बीच में आ कर बोला
ईस्ट इंडिया कंपनी भारत की हो गई है
मैं सोचता हूँ ये भी कितना बड़ा भ्रम है,
यूनियन कार्बाइड भी तो भारतीय होने को तैयार थी
पहले ही टैंक फट गया
गिनती नहीं, कितने मरे और
कितने ही पीढ़ियों तक भुगतेंगे


जूनियर ब्लागर ऐसोसिएशन का गठन हो चुका है
आखिर
कब तक खून चूसेंगे परदेसी और परजीवी
हम नहीं चूसने देंगे
चूसना ही होगा तो आपस में चूसेंगे

पर गड़बड़ क्या हुई
अब तक रुकी पड़ी है सुई
कुछ भी हो सकती है

कुछ सोचते नहीं
कुछ समझते नहीं
बस करते रहते हैं
एक साथ कई काम
कहीं आप बीमार तो नहीं ?