2. परंपरा और विद्रोह: प्रथम सर्ग "धऱती माता" (उत्तरार्ध)
3. "परंपरा और विद्रोह" : द्वितीय सर्ग "मनुष्य का विकास"
अनवरत के पिछले अंकों में आप यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के दो सर्ग पढ़ चुके हैं। इन कड़ियों को ऊपर दिए गए लिंक पर क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग बदलने के साथ ही यादवचंद्र जी काव्य का रूप भी बदल देते हैं। यह इस के हर नए सर्ग को पढ़ते हुए आप स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का तृतीय सर्ग "पौरुष और कला" प्रस्तुत है .........परंपरा और विद्रोह
* यादवचंद्र *
तृतीय सर्ग
'पौरुष और कला'
ऊपर रोग-ग्रस्त पीला रवि
नीचे धवल धरा है
दृष्टि-पंथ पर दूर-दूर तक
हिम का जाल पड़ा है
हिम का निर्जन प्रान्त, शान्ति की
गति-विधि-हीन गिरा है
मौन दिशाएँ, कुहेलिका से
धूमिल क्षितिज घिरा है
किन्तु जागता भी है कोई हिम गव्हर के नीचे
भीमकाय मानवाकृति प्रत्यंचा-सी भौंहें खींचे
यह अभाव का पुतला, लिपटा
ऋण-चर्म में क्षुब्ध, विभुक्षित
पवि-वत् गौर भुजाओं को वह
(जीवन-यौवन की ममता ले)
देख रहा है हो कर चिंतित-
'भेड़ियों का होता आघात
दृगों में कटती भीषण रात
उफ, श्रम का भीषण मध्यान्ह
सुनहला सुखद् शान्ति का प्रात'
मगर यह
अनहोनी-सी बात
जागा पौरुष क्रुद्ध
पुरुष का सोया-सा अभिमान
और तब-
धनुष ने खींची कस कर डोर
डोर पर चढ़े नुकीले बाण
(बाण या प्राण रक्षिणी ढाल !
कला-जीने की उस की चाल)
अलौकिक युग का अनुसन्धान !
लौटते कहीं शिकार कराह
भेड़िए, भालू, ऋक्ष, वराह
कर अट्टहास
युग पुरुष बढ़ा
निर्माण--नाश
युग-चरण कढ़े
युग का विकास
युग पुरुष बढ़ा ........
* * * * * * * * * * * *
हिम सेवित गव्हर में घायल
संकुचित मानव समाज का व्यक्ति एक
शिला पर शान्ति विहग की देख
बनाता अपने नख से रेख
व्यक्ति के जीवन का हो गान
चाहता है वह निज सम्मान
परिस्थिति के हो कर अनुकूल
इसी से करता नव निर्माण
खींचता है पत्थर पर लीक
रंग दे भरता उस में प्राण
सुनहला, सुन्दर, सरस भविष्य
ढालने को करता मजबूर
चित्र के मिस उस का सम्मान
मगर यह मीठी मादक छाँव, किसे देगी न ललक कर ठाँव
अरे यह नवयुग का निर्माण ..........
* * * * * * * * * * * *
सबल ग्रीवा पर ले कर भक्ष्य
शिकारी, निज बाणों का लक्ष्य
पिनाकी का जलता आकार
कन्दरा का जब खोला द्वार
विहँसती-सी कल्पना अजान
लुटाती थी मदिरा की धार
चूमती थी पौरुष के भाल
वियोगिन-सी पाने को प्यार
जलाये मन-मन्दिर के दीप
खड़ी थी खोल नयन के द्वार
(अरे यह पौरुष का सम्मान ?)
* * * * * * * * * * * *
जीत कर पुरुष गया तब हार
हार में देखी अपनी जीत
प्रीत का मदमाता संसार
कला औ पौरुष की यह नाव
चली करने युग-धारा पार .............
* यादवचंद्र *
तृतीय सर्ग
'पौरुष और कला'
ऊपर रोग-ग्रस्त पीला रवि
नीचे धवल धरा है
दृष्टि-पंथ पर दूर-दूर तक
हिम का जाल पड़ा है
हिम का निर्जन प्रान्त, शान्ति की
गति-विधि-हीन गिरा है
मौन दिशाएँ, कुहेलिका से
धूमिल क्षितिज घिरा है
किन्तु जागता भी है कोई हिम गव्हर के नीचे
भीमकाय मानवाकृति प्रत्यंचा-सी भौंहें खींचे
यह अभाव का पुतला, लिपटा
ऋण-चर्म में क्षुब्ध, विभुक्षित
पवि-वत् गौर भुजाओं को वह
(जीवन-यौवन की ममता ले)
देख रहा है हो कर चिंतित-
'भेड़ियों का होता आघात
दृगों में कटती भीषण रात
उफ, श्रम का भीषण मध्यान्ह
सुनहला सुखद् शान्ति का प्रात'
मगर यह
अनहोनी-सी बात
जागा पौरुष क्रुद्ध
पुरुष का सोया-सा अभिमान
और तब-
धनुष ने खींची कस कर डोर
डोर पर चढ़े नुकीले बाण
(बाण या प्राण रक्षिणी ढाल !
कला-जीने की उस की चाल)
अलौकिक युग का अनुसन्धान !
लौटते कहीं शिकार कराह
भेड़िए, भालू, ऋक्ष, वराह
कर अट्टहास
युग पुरुष बढ़ा
निर्माण--नाश
युग-चरण कढ़े
युग का विकास
युग पुरुष बढ़ा ........
* * * * * * * * * * * *
हिम सेवित गव्हर में घायल
संकुचित मानव समाज का व्यक्ति एक
शिला पर शान्ति विहग की देख
बनाता अपने नख से रेख
व्यक्ति के जीवन का हो गान
चाहता है वह निज सम्मान
परिस्थिति के हो कर अनुकूल
इसी से करता नव निर्माण
खींचता है पत्थर पर लीक
रंग दे भरता उस में प्राण
सुनहला, सुन्दर, सरस भविष्य
ढालने को करता मजबूर
चित्र के मिस उस का सम्मान
मगर यह मीठी मादक छाँव, किसे देगी न ललक कर ठाँव
अरे यह नवयुग का निर्माण ..........
* * * * * * * * * * * *
सबल ग्रीवा पर ले कर भक्ष्य
शिकारी, निज बाणों का लक्ष्य
पिनाकी का जलता आकार
कन्दरा का जब खोला द्वार
विहँसती-सी कल्पना अजान
लुटाती थी मदिरा की धार
चूमती थी पौरुष के भाल
वियोगिन-सी पाने को प्यार
जलाये मन-मन्दिर के दीप
खड़ी थी खोल नयन के द्वार
(अरे यह पौरुष का सम्मान ?)
* * * * * * * * * * * *
जीत कर पुरुष गया तब हार
हार में देखी अपनी जीत
प्रीत का मदमाता संसार
कला औ पौरुष की यह नाव
चली करने युग-धारा पार .............