@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

सोमवार, 8 जून 2009

विवाह का मंडल, दोपहर का भोजन और साप्ताहिक हाट बाजार

घर से निकलते निकलते ग्यारह बज गए। रास्ते में पेट्रोल लिया, टायरों में हवा पूरी ली और चल दिए। कुल पचपन किलोमीटर, पौन घंटे में पहुँच लिए।  ब्याह वाले घर में मंडल का कार्यक्रम चल रहा था।  इसी के लिए तो हमारा आना निहायत जरूरी था। वधू के घर भांवर के एक दिन पहले या उसी दिन सुबह और वर के घऱ बारात रवाना होने के दिन या एक दिन पहले मंडल होता है। घर के चौक में मंडप बनाया जाता है जिस के नीचे बैठ कर वर या वधू जो भी हो उस के माता-पिता,और परिवार के सभी युगल सदस्य पूजा और हवन करते हैं। पूजा की समाप्ति पर परिवार की सभी बहुओं के नैहर के रिश्तेदार उन्हें कपड़े उपहार में देते हैं।   इस परंपरा का कारण तो पता नहीं पर शायद यह रहा हो कि कपड़े उपहार में देने के दायित्व के कारण अधिक से अधिक लोग विवाह में उपस्थित हों और विवाह की सामाजिकता बनी रहे।  एक लाभ और यह होता है कि बहुत सारे संबंधी जो बहुत दिनों से नहीं मिले होते हैं, यहां मिलने का अवसर पा जाते है और कुछ समय साथ बिता लेते हैं।

अब हमारी साली साहिबा, शोभा की छोटी बहिन वर की चाची थी। शोभा का उसे और दूल्हे को यह उपहार समय पर देना था  इस लिए हमारा मंडल के समापन के पहले पहुँचना आवश्यक था।   खैर, मंडल सम्पन्न होते ही सब को भोजन के लिए कहा गया। उस के लिए फर्लांग भर दूर स्थित एक धर्मशाला जाना था।  हम चल दिए। रास्ते में साप्ताहिक हाट लगी थी।  मुझे छोटे कस्बे की साप्ताहिक हाट देखे बहुत दिन हो गए थे।  मैं उसे निहारता चला।

हाट बाजार

धर्मशाला बनाम स्कूल

कच्चे-पक्के माल का भंडार

और भंडारी बने साले साहब

धर्मशाला एक बगीची जैसे स्थान में बनी थी। बहुत खुला स्थान था।  इमारत में तीन बड़े-कमरे थे। पास में शौचालय और स्नानघऱ थे। अनवरत पानी के लिए टंकियाँ रखी गई थीं। इमारत पर धर्मशाला और विद्यालय दोनों के नाम प्रमुखता से लिखे थे।  इमारत दोनों कामों में आती थी।   इमारत के एक और खुले स्थान में तंबू तान कर पाक शाला बना दी गई थी।  वहाँ शाम के लिए सब्जियाँ बनाई जा रही थीं और दोपहर के भोजन के लिए गरम गरम पूरियां तली जा रही थीं।  एक बड़े कमरे को भोजन का भंडार बना दिया गया था।  जिस में भोजन बनाने का कच्चा माल और तैयार भोजन सामग्री का संग्रह था।  मेरे बड़े साले साहब वहाँ जिम्मेदारी से ड्यूटी कर रहे थे।  बीच बीच में साढ़ू भाई आ कर संभाल जाते थे।  सुबह नाश्ता किया था, भूख अधिक नहीं थी। फिर भी सब के साथ मामूली भोजन किया। कच्चे आम की लौंजी बहुत स्वादिष्ट बनी थी।  दो दोने भर वह खाई। गर्मी के मौसम में पेट को भला रखने के लिए उस से अच्छा साधन नहीं था। 

 
 शाम की सब्जी की तैयारी के लिए कद्दू के टुकड़े

गर्म-गर्म पूरियाँ तली जा रही हैं
भोजन के घंटे भर बाद इसी धर्मशाला में वर के ननिहाल से आए लोगों द्वारा भात (माहेरा) पहनाने का कार्यक्रम था।  भोजन कर लोग वहीं  सुस्ताने लगे। हम साले साहब को भंडार से मुक्ति दिलवा कर बाजार ले चले कॉफी पिलवाने के बहाने।  हमें हाट जो देखनी थी। रास्ते में एक मुवक्किल मिल गए, वे हमें चाय की दुकान ले गए और बहुत शौक से न केवल कॉफी पिलाई, ऊपर से पान भी खिलाया।  वापसी में हमने हाट देखी और चित्र भी लिए। लीजिए आप खुद देख लें हाट की कुछ बानगियाँ।


 
प्याज और अचार के लिए कच्चे आम खरीदें, अच्छे हैं, पर जरा महंगे हैं 

 
 आंधी में झड़े कच्चे आम, सस्ते हैं, बस पाँच रुपए प्रति किलोग्राम

  
 और अचार के लिए मसाला यहाँ से खरीद लें
 
कच्चे आम को काटना भी तो होगा, कैरी कट्टा यहाँ लुहारियों से खरीद लें 

   मीठे के लिए गुड़ और तीखे के लिए हरी मिर्च भी तो चाहिए

 
 विकलांग होने का खतरा मत उठाइए, जरा शंकर जी के वाहन नन्दी से बचिए 

 
घर की सुरक्षा के लिए ताला लेना न भूलें

शादी में आई हैं तो नई काँच की चूड़ियाँ तो पहन लें
यह बहुत नहीं हो गया?                                                                          शेष अगली किस्त में.......

शनिवार, 6 जून 2009

एक दम निजि पोस्ट : शादी में जाना है

साली के जेठूत की शादी है।  कोटा में मेरे घर से पचपन किलोमीटर दूर नेशनल हाई-वे पर है, कस्बा अन्ता।  आज वहाँ बारात रवाना होने के पहले होने वाली आखरी पारंपरिक रस्में होंगी।  कल बारात रवाना होनी है जो कोई पाँच सौ किलोमीटर का सड़क मार्ग तय कर मध्यप्रदेश के नगर सागर जाएगी। निमंत्रण तो बारात में जाने का भी है, पर अभी तो घर से निकलने के पहले ही पसीने छूट रहे हैं।  अखबार में कल पर्यावरण दिवस का टेम्परेचर चिपका है, अधिकतम 44 डिग्री और न्यूनतम 32.8 डिग्री सैल्सियस।  हवाएँ चल रही हैं, वरना यह शायद दो-दो डिग्री ऊपर होता।  साली साहिबा का बहुत आग्रह है, जाना होगा। बच सकने का कोई मार्ग नहीं है।  शोभा (पत्नी) पहले ही मेरी डायरी देख चुकी है कि उस में आज कोई मुकदमा दर्ज नहीं है।

कल एक संबंधी को फोन किया तो कहने लगे कि वे तो बाजार में व्यस्त रहेंगे। मैं उन की पत्नी और बेटे (4वर्ष) को साथ ले जाऊँ। इधर गर्मी के कारण अखबारों में रोज छपता है कि प्रदूषित पानी और भोजन से बचें। मुझे पता है कि अन्ता में इस का कोई ध्यान नहीं रखा जाएगा। वही कुएँ का पानी कपड़े से छाना हुआ और बर्फ डाल कर ठंडा किया हुआ ही मिलना है।  मैं उन को यही कहा कि कल सुबह बता दूंगा।  मुझे बच्चे का ध्यान आता है, वह कैसे गर्मी बर्दाश्त करेगा। कस्बे में चलती लू और उड़ते बरबूळों की धूल।  हलवाई का बना भोजन।  शोभा कहती है उन्हें बच्चे का बिलकुल ध्यान नहीं है।  बीमार हो गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे।  सुबह उन का फोन आता है। मैं तरकीब से मना कर देता हूँ कि अभी तो मेरा ही जाने का मन नहीं है।

लोग इतनी भीषण गर्मी में शादी क्यों कर रहे हैं? कोई अच्छा मौसम नहीं चुन सकते?  क्यों वे सैंकड़ा के लगभग लोगों की बारात ले कर 500-600 किलोमीटर की यात्रा कर रहे हैं? क्या लड़की वालों को यहाँ नहीं बुला सकते थे? इस सवाल का उत्तर तो वे दे चुके हैं कि वे लड़की वाले तैयार नहीं इतनी दूर आने को। 

अपना जाना तो कल ही तय हो चुका था।  जब हम साली जी के लिए एक अदद साड़ी खरीद लाए थे। अब जाना है तो जाना है।  घड़ी देखता हूँ, नौ बजने को है।  बस इस पोस्ट को प्रकाशित कर उठता हूँ। स्नान करना है, और कपड़े पहन निकल लेना है। आज सब काम की छुट्टी, न वकालत का दफ्तर और न ब्लागिरी। रात को जल्दी और बिना किसी लफड़े के लौट आए, और यहाँ कोई लफड़ा हाजिर न मिला तो टिपियाएँगे।  आज का दफ्तरी काम कल पर चढ़ जाएगा। बहुत से ब्लाग पढ़ने से छूट जाएंगे, और टिपियाने से  भी।  अब और आगे टिपियाना संभव नहीं है।  किचिन से आवाज नहीं लगाई जा रही है लेकिन मुझे पता है पारा चढ़ रहा है। कब थर्मामीटर बर्स्ट हो जाए भरोसा नहीं। अब चलता हूँ।  वापस लौट कर लिखता हूँ आज की दास्तान।।

गुरुवार, 4 जून 2009

डॉ. अरविन्द जी मिश्रा, तो सुनिए उस्ताद बिस्मिल्लाह खान से शहनाई पर राग मालकौंस

पिछली चिट्ठी "सुनें,राग मालकौंस ! तनाव शैथिल्य से मुक्ति पाने का प्रयास करें"  पर डॉक्टर अरविंद जी मिश्रा ने टिप्पणी करते हुए फरमाइश की थी ........
ये तो सुन लिया ! किसी और का गाया हुआ है दिनेश जी ? या फिर केवल वाद्ययंत्र से निकला मालकौंस सुनने को मिल सकता है ?
तो फिर देर किस बात की है? सुनिए आप के ही नगर बनारस के हीरक शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई पर राग मालकौंस में यह बंदिश...................
 
यह कैसा भी तनाव मिटा सकती है...
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सुनें,राग मालकौंस ! तनाव शैथिल्य से मुक्ति पाने का प्रयास करें।

आज डॉ0 अरविंद मिश्रा ने अपने ब्लाग क्वचिदन्यतोअपि..........! पर लिखा है कि बर्लिन और अमेरिका में विगत २५ वर्षों से शोधरत भारतीय मूल की अमेरिकन नागरिक वैज्ञानिक डॉ जैस्लीन ए मिश्रा ने  कल  बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के अकैडमी स्टाफ कालेज में संपन्न हुए एक रोचक व्याख्यान में शास्त्रीय संगीत के मानव शरीर पर प्रभावों के बारे में चर्चा की जिसे  टाईम्स आफ इंडिया के आज केअंक में भी कवर किया गया है।  डॉ जैस्लीन ए मिश्रा डॉ. अरविंद मिश्रा जी की चाची हैं। 

इस व्याख्यान में डॉ जैस्लीन ए मिश्रा कहा कि उन्हों ने अपने शोध के दौरान यह पाया  है की राग मालकौंस की तनाव शैथिल्य में अद्भुत भूमिका है !

यहाँ मैं उस्ताद आमिर खान द्वारा गाया गया राग मालकौंस सुनिए, इसे कुछ दिन दोहराएँ और देखें वास्तव में यह आप के तनाव को शिथिल करता है या नहीं।  प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराएँ।


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बुधवार, 3 जून 2009

अमिताभ ने उपाधि ठुकरा कर एक तीर से तीन निशाने साधे

आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों के प्रति जो अपमान जनक व्यवहार हो रहा है उस से प्रत्येक भारतीय आहत है। ऐसे में अमिताभ बच्चन  ने ऑस्ट्रेलिया की क्वीन्सलैंड यूनिवर्सिटी से मिलने वाली डॉक्टरेट की मानद उपाधि लेने से इनकार कर दिया। उन्हें यह उपाधि थी। अमिताभ ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर लगातार हो रहे हमलों से नाराज हैं।
ऑस्ट्रेलिया के शहरों में भारतीय छात्रों के खिलाफ नस्लवादी हमले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं ऑस्ट्रेलियाई सरकार इन्हें रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाने के स्थान पर सिर्फ यह साबित करने की कोशिश कर रही है कि ये हमले नस्लवादी नहीं है।
अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग पर लिखा कि वह उस संस्थान के खिलाफ कोई असम्मान नहीं दिखाना चाहते, लेकिन ऑस्ट्रेलिया में अपने देशवासियों पर हो रहे हमलों से दुखी हैं, ऐसे में उनकी अंतरात्मा यह स्वीकार नहीं करती कि उस देश के संस्थान से कोई उपाधि प्राप्त करें जहां उनके देशवासियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जा रहा हो।

क्वींसलैंड यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलजी ने बॉलिवुड सुपरस्टार अमिताभ बच्चन से कहा है कि वह आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर हो रहे हमलों के विरोध में उसकी ओर से दी जाने वाली डॉक्ट्रेट की उपाधि को नहीं लेने के अपने फैसले पर पुनर्विचार करें।
अमिताभ बच्चन  ने उपाधि स्वीकार नहीं कर पाने संबंधी अपनी विवशता के बारे में यूनिवर्सिटी को शनिवार को सूचित कर दिया था। यूनिवर्सिटी के कुलपति पीटर कोलड्रेक ने अमिताभ के उसी पत्र के जवाब में अपने फैसले पर 'हम आपकी मजबूरी समझ सकते हैं। हम आपके भावनाओं का सम्मान करते हैं लेकिन मैं इतना जरूर कहूंगा कि आप अपने फैसले पर एक बार फिर विचार करें। इससे दोनों देशों के रिश्ते सुधर सकते हैं। आपके हाथ में एक बड़ी जिम्मेदारी है और मेरा आग्रह है कि आप इसी को ध्यान में रखकर कोई फैसला करें।'
अमिताभ बच्चन ने उपाधि ठुकरा कर ठीक ही किया। ऐसे माहौल में यदि वे आस्ट्रेलिया जाते हैं तो वह किसी भी प्रकार से ठीक न होता। इस से उन की छवि पर भी विपरीत असर आता। लेकिन क्या यह इतनी सी बात है? नहीं। बात कुछ पीछे से आरंभ होती है। यह एक तीर से तीन शिकार है। इस से संपूर्ण भारत में उन की छवि और निखरती है, ऐसे माहौल में वे आस्ट्रेलिया जाने से बच गए और तीसरा यह भी कि यह राज ठाकरे को भी एक करारा जवाब है। जो खुद महाराष्ट्र में इस से भी खराब व्यवहार उत्तरभारतियों के साथ कर चुके हैं।

मंगलवार, 2 जून 2009

रेल बोर्ड के गलत निर्णयों से रेल संपत्ति का नुकसान और यात्रियों को परेशानी

"खुसरूपुर में रेल ठहराव बंद होने से गुस्साई भीड़ ने 3 ट्रेनों में लगाई आग"    
यह नवभारत टाइम्स में प्रकाशित समाचार का शीर्षक है।  समाचार यह है कि इन घटनाओं में कोई हताहत नहीं हुआ है।  लेकिन तीन ट्रेनों को रोक कर उन्हें आग के हवाले कर देना कोई मामूली घटनाएं नहीं है।  इस से न केवल राष्ट्रीय संपत्ति को हानि पहुँची है अपितु रेल यातायात बाधित हुआ है।  सैंकड़ो लोग गन्तव्य तक पहुँचने के पहले ही किसी अनजान स्थान पर उतार दिए गए।  यातायात बाधित होने से सैंकड़ो लोग स्टेशनों पर अटके पड़े होंगे।

यह सब हुआ रेलवे के एक निर्णय अथवा अनिर्णय से।  दानापुर रेलमंडल के जनसंपर्क अधिकारी आर.के. सिंह का कहना था कि बिहार के 33 विभिन्न रेलवे स्टेशनों पर विभिन्न ट्रेनों का अस्थायी तौर पर स्टॉपेज था। रेलवे बोर्ड ने गत 26 मई को एक आदेश जारी कर इस स्टॉपेज पर रोक लगा दी, जिसका नागरिकों ने विरोध किया। अंतत: सोमवार को बोर्ड ने अपने उस आदेश को तात्कालिक तौर पर वापस ले लिया है।  बाद में इन स्टेशनों पर होने वाली टिकटों की बिक्री की समीक्षा करने के बाद इस बारे में निर्णय लिया जाएगा कि यहां ट्रेनों के स्टॉपेज आगे भी जारी रखे जाएं या नहीं।
जब रेलवे किसी भी रूप में एक सुविधा को जारी करती है तो उसे बिना बिक्री की समीक्षा किए और जनता को पहले से सूचना दिए बिना बंद क्यों कर दिया जाता है।  एक सुविधा लोगों को बहुत कठिनाई से प्राप्त होती है।  यदि उसे अनायास ही छीन लिया जाए तो नागरिकों का गुस्साना स्वाभाविक लगता है।  लेकिन रेल प्रशासन को कतई यह गुमान न था कि इन सुविधाओं को छीन लेने मात्र से ऐसी प्रतिक्रिया देखने को मिलेगी।  यह रेलवे प्रशासन की सोच का दिवालियापन ही कहा जा सकता है।  रेलवे कोई निजि उद्योग नहीं है वह एक सार्वजनिक उद्योग है और उस में उसी जनता का धन निवेशित है जिस के एक हिस्से ने उस में आग लगा दी और अपना रोष जाहिर किया।

सार्वजनिक क्षेत्र के उन उद्योगों को जो नागरिक सेवाएं प्रदान करते हैं यह ध्यान तो रखना ही होगा कि उन के किसी प्रशासनिक निर्णय या अनिर्णय से जनता के किसी हिस्से को ऐसा धक्का न लगे कि वह हिंसा पर उतारू हो जाए।  इन प्रायोगिक ठहरावों को बंद करने के पहले समीक्षा की जा सकती थी और जनता को पर्याप्त नोटिस दिया जा सकता था कि इन स्टेशनों से एक निश्चित अवधि में यात्री मिलना निश्चित मात्रा से कम रहा तो इन टहरावों को बंद कर दिया जाएगा।  इस तरह से जनता को विश्वास में ले कर यह कदम उठाया जाता तो इस तरह की हिंसा से बचा जा सकता था और रेलवे का यह व्यवहार जनतांत्रिक भी होता। सार्वजनिक उद्यम होने के कारण उस से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा जनता रखती है।  आशा है नई रेल मंत्री रेलवे बोर्ड में जनता को प्रभावित करने वाले निर्णयों को जनतांत्रिक तरीके से लिए जाने की पद्यति विकसित करने का प्रयास करेंगी।

पुनश्चः
यह आलेख कल शाम 5.30 पर लिखा गया था, किन्तु इस के प्रकाशन के ठीक पूर्व चौड़ा पट्टा धोखा दे गया। बीएसएनएल के अधिकारी दफ्तर छोड़ चुके थे। आज उन्हों ने जाँच कर मेरा पोर्ट बदला, उस के बाद पास वर्ड की समस्या आ गई। अभी 5.12 पर चौड़ा पट्टा बहाल हो सका है। गति भी पहले से तेज मिल रही है। इस कारण से इसे देरी से प्रकाशित किया जा सका है।

रविवार, 31 मई 2009

जनतन्तर कथा की अन्तरकथा और फैज-अहमद-फैज का गीत, "हम मैहनतकश जग वालों से......"

26 मार्च, 2009 से इस चिट्ठे पर जनतन्तर कथा चल रही थी। पाठकों ने इसे पसंद किया इस  बीच इस चिट्ठे के पाठकों की संख्या में भी वृद्धि हुई।  इस कथा की जन्म-कथा बहुत मामूली है।   अचानक विचार आया कि देश में आम चुनाव हैं और देश की सरकार चुनी जा रही है।  इस बीच जनतंत्र और चुनाव को संदर्भ बना कर कुछ लिखा जाए।  बस यूँ ही मौज में आरंभ हुई इस जनतन्तर कथा की दो कड़ियों के बाद ही अनायास गणतंत्र बनने से ले कर इन चुनावों तक का इतिहास इस में प्रवेश कर गया।   इतिहास के इस प्रवेश से मुझे भी पुस्तकों में जाना पड़ा।  फिर अनायास पौराणिक पात्र सूत जी इस कथा में चले आए।  मैं ने जब इस कथा को टिपियाना आरंभ किया था तो मैं अपनी उंगलियों को नियंत्रित कर रहा था। लेकिन जब सूत जी का पदार्पण हुआ और पीछे पीछे सनत चला आया तो नियंत्रण मेरी उंगलियों से निकल गया।  सूत जी का व्यक्तित्व कुछ इस प्रकार का था कि वे  मेरी उंगलियों को नियंत्रित करने लगे और कथा मेरे नियंत्रण से स्वतंत्र हो कर स्वयमेव अपना मार्ग निर्धारित करने लगी।
अंत में जब राजधानी में मंत्रीमंडल की पहली खेप ने शपथ ग्रहण कर ली तो राजधानी में सूत जी के रुकने का कोई अर्थ नहीं रह गया था।  वे अगले दिन ही राजधानी से नैमिषारण्य के लिए प्रस्थान कर गए।  जनतंतर कथा वहीं अवसान हो गई थी। लेकिन अंतिम आलेख में कुछ ऐसा गुजरा कि एक टिप्पणी पर प्रति टिप्पणी और एक अन्य चिट्ठे पर प्रत्युत्तर में लिखे गए आलेख ने इस कथा को और आगे बढ़ाया।  सनत ने सूत जी से संपर्क किया और वीडियो चैट के माध्यम से कथा आगे बढी़।  मेरे कम्यूटर पर यह सुविधा अब तक नहीं थी लेकिन इसी बीच वह भी स्थापित हो ली।  इसे सूत जी की कृपा ही कही जानी चाहिए।
इस कथा के अंत में एक बात स्थापित हुई कि दुनिया वर्तमान में उस दौर में है कि परिवर्तन चाहती है। परिवर्तन कैसा होगा और कैसे होगा?  इसे परिस्थितियाँ निर्धारित करेंगी।  लेकिन मनुष्य एक सजग प्राणी है।  और परिस्थतियों के निर्माण में अपनी एक भूमिका भी अदा करता है।  इसलिए दुनिया का भविष्य बहुत कुछ मनुष्य की वर्तमान गतिविधियों पर भी निर्भर करता है।  इस कारण से हमें वर्तमान और भविष्य के लिए विमर्श में रहना चाहिए और बिना किसी पूर्वाग्रह के रहना चाहिए।  विमर्श का मुख्य तत्व विचार हैं जो प्रत्येक मनुष्य की अपनी परिस्थितियों से उत्पन्न होते हैं।  यही परिस्थितियाँ आग्रह भी उत्पन्न करती हैं।  लेकिन जब हम सब का उद्देश्य एक अच्छी,  सुंदर, आपस में प्रेम करने वाले मनुष्यों की दुनिया की स्थापना हो तो।  आग्रहों के बावजूद भी एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना आवश्यक है, विमर्श तभी जारी रह सकता है।  यदि कभी आवेश में कोई एक गलती कर बैठे तो इस का अर्थ यह नहीं कि दूसरे उस से भी बड़ी, वैसी ही गलती करें।
बात खिंचती जा रही है।  वैसे तो जनतन्तर कथा के अंतिम आलेख पर भी दो टिप्पणियाँ ऐसी हैं कि सूत जी को को फिर से कष्ट दिया जाना चाहिए था।  पर एक तो वे सनत से कह चुके हैं कि वे वीडियो चैट कम पसंद करते हैं और प्रश्नों के समाधान के लिए सनत स्वयं नैमिषारण्य आए।  लेकिन बेचारा सनत वह एक समाचार पत्र का साधारण संवाददाता है, इतने शीघ्र उसे अवकाश नहीं मिल सकता है कि वह नैमिषारण्य जाए।  सूत जी भी दो माह में थक चुके हैं और कुछ विश्राम करना चाहते हैं।  यह दिनेशराय द्विवेदी भी कुछ इधर उधऱ की बातें करना चाहता है जो इस जनतन्तर कथा के दो माह के प्रसवकाल में उस से छूट गई हैं और इस के लिए  इस  चिट्ठे पर स्थान चाहता है।  सूत जी नैमिषारण्य में हैं और सनत भी पास में ही लखनऊ में है।  दोनों अमर पात्र हैं, वे कभी  कभी इस चिट्ठे पर अवश्य ही लौटेंगे।  पाठक उन की प्रतीक्षा कर सकते हैं।
अभी मैं दो टिप्पणियों के बारे में बात करना चाहता हूँ।  पहले तो अभिषेक ओझा की टिप्पणी कि मरकस बाबा सैद्धान्तिक अधिक और व्यावहारिक कम क्यों लगते हैं?।  मेरी राय में मरकस बाबा के दर्शन के बारे में अधिक धारणाएँ उन के सच्चे अनुयायी होने का दम भरने वाले लोगों, समूहों और दलों के व्यवहार पर आधारित है।  मुझे लगता है कि किसी के भी व्यक्तित्व, कृतित्व और दर्शन के बारे में हमारी धारणा स्वयं उन के साहित्य और दर्शन का अध्ययन कर बनानी चाहिए।  जिस से हम स्वयं किसी निर्णय पर पहुंच सकें।  स्वयं अनुभव की गई और दूसरे से सुनी हुई बात में बहुत अंतर होता है।  यही कारण है कि पूरी दुनिया में सुनी हुई को साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता, अपितु देखी हुई और अनुभव की हुई को ही स्वीकार किया जाता है।  अंत में यह कि विवाद के भय से कभी भी जिज्ञासा को दबाना नहीं चाहिए।  चाहें तो व्यक्तिगत रूप से भी इन जिज्ञासाओं को शांत कर सकते हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से ही ऐसा किया जाए तो उस का लाभ बहुत लोगों को एक साथ मिलता है।
जहाँ तक  शहीद भगत सिंह विचार मंच, संतनगर की जिज्ञासाओं का प्रश्न है वे स्वयं समझदार हैं।  राज्य की भूमिका का प्रश्न बहुत बड़ा है।  उस का उत्तर देने के लिए एक स्वतंत्र श्रंखला की आवश्यकता हो सकती है।  इस का उत्तर सूत्र रूप में देना उचित नहीं है।  जहाँ तक श्रमजीवी जनता के भाग के  आशीर्वाद का प्रश्न है तो इस का उत्तर तो फैज़-अहमद "फैज़" ने बहुत ही सुंदर रीति से अपने इस गीत में दिया है। यह उन की जिज्ञासा को अवश्य शांत करेगा।  आप सब इस गीत को सुनें ........


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हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
एक खेत नहीं, एक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।

यहां पर्वत पर्वत हीरे हैं, यहां सागर सागर मोती हैं,
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे।
हम मेहनतकश जग वालों से जब.........

जो खून बहे, जो बाग उजड़े, जो गीत दिलों में कत्ल हुए,
हर कतरे का, हर गूंचे का, हर ईंट का बदला मांगेगे।
हम मेहनतकश जग वालों से जब.........

जब सब सीधा हो जाएगा, जब सब झगड़े मिट जाएंगे,
हम मेहनत से उपजाएंगे, हम बांट बराबर खाएंगे।
हम
मेहनतकश जग वालों से जब.........

हम
मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
एक खेत नहीं,एक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।

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