@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

गुरुवार, 14 मई 2009

तीन घंटे की बिजली कटौती ?

सुबह उठे, कॉफी पी है।  अखबार को श्रीमती जी ले कर बैठ गई हैं। हम ने कम्प्यूटर चालू किया।  पढ़ने को चिट्ठे खोले। पहला पढ़ना शुरू किया ही था कि बाहर से श्रीमती जी बोल उठीं। 7 बजे से बिजली कटौती है 10 बजे तक। सात बजने वाली है।

मंगलवार, 12 मई 2009

लालटेन भभका क्यों? मर्दुआ लपका क्यों? : जनतन्तर कथा (28)

हे, पाठक! 
अगला दिन राजधानी में मतदान का दिन था।  सूतजी सनत के साथ दिन भर राजधानी में मतदान के नजारे करते रहे।  राजधानी में अधिक उत्साह दिखाई नहीं दिया।  राजधानी में अनेक महत्वपूर्ण राजनेता अपने अपने क्षेत्र छोड़ कर मतदान करने पहुँचे।  माध्यम दिन भर उन के चित्र दिखाते रहे।  बैक्टीरिया दल के मुखिया की बेटी जो सारे चुनाव परिदृश्य में जो साड़ी पहने भारतीय महिला की छवि परोसती रही,  मतदान के दिन अपने जीवनसाथी के साथ नए फैशन की पोशाक में दिखाई दी।   जैसे दौड़ में भाग लेने आई हो।  सूत जी ने सनत से कहा, "तुम्हारा मीडिया की मुख्य खबर आज यह पोशाक बनने वाली है।"   राजधानी का दूसरा बड़ा समाचार यह भी था कि चुनाव कराने कराने वाले विभाग के मुखिया का नाम ही मतदाता सूची से अन्तर्ध्यान हो गया।  हड़कम्प मचा तो तत्काल किसी दूसरी सूची में उन का नाम तलाश कर उन का मत डलवा दिया गया।  संभवतः उन्हें अहसास हुआ हो कि आम मतदाता का क्या हाल होता होगा?

हे, पाठक! 
उधर बैक्टीरिया दल के मुखिया के बेटे के श्री मुख से आपत्कालीन मसाला बत्ती की तारीफ सुनी तो दल के गायकों ने एक स्वर से राग दरबारी में कोरस आरंभ कर दिया।  राजकुमार तो मात्र जिन का साथ चाहता था उन्हें बताना चाहता था कि उन के पास बैक्टीरिया दल के अलावा कोई मार्ग शेष नहीं है।  पर कोई पड़ोसी की मसाला बत्ती की तारीफ करे तो  घर की लालटेन को तो भभकना ही था।  उधर दो पत्तियों की तारीफ हुई तो दक्खिन में सूरज उगते उगते बादलों की ओट चला गया। रैली स्थगित हो गई।  मसाला बत्ती अपनी तारीफ सुन कर गदगद हो उठी, उसने दाँत बर्राए और सफाई दी कि देखिए हमरी सरकार गठबंधन की हैं, उसे छोड़ कर कइसे जा सकत हैं।  अइसे तो हमरा घर बार ही बरबाद नहीं न हो जाई। हम कहीं नहीं जा रहे हैं।  इस से अभिनय से जिन की त्योरियाँ चढ़ी थीं वापस यथा स्थान आ गईं। उधर वायरस दल में भी हलचल हो चली  सारे छत्रप एक साथ एक ही यान में इकट्ठा किए।  घोषणा की गई कि हमारा यान भरा भरा है और अब चलने ही वाला है। हम चल ही देते जो पाँचवा दौर बीच में पहाड़ सा न खड़ा होता। मसाला बत्ती जिस से सब से अधिक दूर भागती थी उसी मरदुआ  ने उस का हाथ पकड़ कह दिया- जे हमरी साथी हैल देखो हम एकई सीट मैं धँसे हैं साथ साथ।  मसाला बत्ती ने वहाँ भी दाँत बर्रा दिए। फोटू खिंच गए।  क्या फोटू था?  बहुतों को तुरंत बरनॉल की जरूरत पड़ गई। वायरस दल में शीतलता की लहर दौड़ पड़ी।  लगा जैसे बहुत सारे वातानुकूलक एक साथ चला दिए गए हों।  मन फुदकने लगा,  पुष्पवर्षा  होने लगी, प्रशस्तिगान के स्वर ऊँचे हो गए।

हे, पाठक! 
मसाला बत्ती वापस घर पहुँची तो पड़ोसी पूछने लगे -यह क्या हुआ ?  तुम तो कहती थी जहाँ वह मरदुआ होगा तुम फटकोगी भी नहीं, जहाँ वह होगा हम उस देहरी पर नहीं चढेंगी।   मरदुआ ने सब के सामने तुम्हारा हाथ पकरा, तुमने सारी बत्तीसी दिखा दी।
मसाला बत्ती बोली -हम क्या करती? हमें थोड़े ना पता था, मरदुआ उधर जा धमकेगा। हम ने तो बुलाया नहीं था।   मरदुआ पिच्छे से आ धमका टप्प से बइठ गवा हमरी बगल में अउर हमरा हाथ पकर कै ऊँचा कर दीन,   ऊपर से फोटू भी खींच रहीन।  अब हम सब के सामने रोने तो बैठने से रहीं।  फिर रिस्तेदारी देखीं। हम कुछ कहतीं तो रिस्तेदारी न बिगड़ती।  हमरा घर ही दाँव पे न लग जाता।  मसाला बत्ती कहते कहते रुआँसी हुई तो
 देख कर लालटेन को तसल्ली हुई गई, उस का भभकना बंद हुआ गया।  वह फिर से  जलने लगी पर तब तक लालटेन का गोला काला पड़ गया था। रोशनी अंदर ही घुट रही थी।


हे, पाठक! 
इस सारे प्रहसन को देख सनत ने सूत जी से पूछा -इस का अर्थ क्या हुआ, गुरूवर?
सूत जी बोले  -इस का अर्थ यह हुआ कि न तो लालटेन को रोशनी करने से मतलब  है न मसाला बत्ती को अंधेरा मिटाने से।  इन्हें मतलब है सिर्फ खुद को अच्छी दुकान में सजे रहने से।
-गुरूवर! समझ गया, सब समझ आ गया।  दुकानों को मतलब है कि उन के पास इतना माल सजा रहे कि ग्राहक बाहर से न सटक ले।  पर इस बार समझ नहीं आ रहा कि कौन महापंचायत को वरेगा?  जनता किस को इस लायक समझेगी? -सनत ने फिर प्रश्न किया।   इस प्रश्न को सुन कर सूत जी को हँसी आ गई। बोले -एक दो दिन में इस प्रश्न का उत्तर भी तुम्हें मिल जाएगा।  अभी कुछ प्रतीक्षा करो।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

रविवार, 10 मई 2009

पादुका प्रहार का फैशन और नयी महापंचायत की चौसर : जनतन्तर कथा (27)

हे, पाठक!
यात्री-निवास पहुँच कर सूत जी ने स्नान-ध्यान किया।  भोजनशाला पहुँचे तब वहाँ भोजन का अंतिम दौर चल रहा था।  भोजन पा कर वापस अपने कक्ष पहुँचे तो अर्धरात्रि हो चुकी थी।  तभी चल-दूरभाष से आरती का स्वर उभरा  -जय जगदीश हरे....    दूसरी ओर सनत था।
-गुरुवर कहाँ हो? सूत जी ने बताया कि वे रात्रि विश्राम स्वामी पद्मनाभ की विश्राम स्थली तिरुवनंतपुरम में कर रहे हैं।
सनत-गुरुवर, समाचार देखे सुने?
सूत जी-नहीं आज तो समय नहीं मिला, कुछ विशेष है क्या?
सनत-चौथे दौर का प्रचार अभियान थमते ही महा पंचायत की चौसर शुरू हो चुकी है।  चाचा वंश के राज कुमार ने बैक्टीरिया दल की और से पासा फैंक दिया है।  लालटेन की प्रतिद्वंदी आपत्कालीन मसाला-बत्ती की प्रशंसा कर दी कि यह सीधे विद्युत से ऊर्जा प्राप्त करती है और उसे सहेज कर रखती है, जिसे आपत्काल में काम लिया जा सकता है।  यह कोसी की बाढ़ के बाद लोगों के बहुत काम आई।  यह भी कहा कि बैक्टीरिया दल लाल फ्रॉक का सहयोग प्राप्त कर सकता है।  इस से लालटेन भभक उठी  है, उस का कांच का गोला कभी भी तड़क सकता है। मैं  राजधानी पहुँच गया हूँ।   यहाँ का मतदान भी देख लेंगे और आगे का सारा खेल तो यहीं होना है।  आप राजधानी कब पहुँच रहे हैं?
सूत जी- बस, कल प्रातः स्वामी के दर्शन कर आगे की योजना को अंतिम रूप देता हूँ फिर भी कोशिश रहेगी कि मतदान आरंभ होते होते राजधानी पहुँच लूँ।
सनत- ठीक है गुरूवर आप विश्राम कीजिए।  मैं  राजधानी में  आप की प्रतीक्षा करूंगा।

हे, पाठक!  
सूत जी बुरी तरह थके हुए थे,  शैया पर जा लेटे।  सोचने लगे, सत्तावन वर्ष पूर्व आरंभ हुई भारतवर्ष के गणतंत्र की यह यात्रा आज कहाँ पहुँच चुकी है?   भारतीय गंणतंत्र यथार्थ में एक अनूठा प्रयोग स्थल हो गया है, जहाँ मानव समाज के विकास की कथा कुछ पृथक रीति से अंकित हो रही है।   वे  आज यहाँ केरल में आर्थिक विकास के स्तर और लोगों की सामाजिक-राजनैतिक चेतना के स्तर को देख कर बहुत प्रभावित हुए थे।  वे सोच रहे थे कि शायद पूरे भारतवर्ष मे ऐसा हो सकता था।  यदि गणराज्य और उस के दूसरे प्रान्तों की पंचायतों ने भी यहाँ की भांति भूमि सुधार और शिक्षा के मामलों में आजादी के आंदोलन के दौरान घोषित नीति को दृढ़ता से लागू करने  के लिए वैसी  प्रतिबद्धता दिखाई होती जैसी  केरल की पहली प्रान्तीय सरकार ने दिखाई थी।  यद्यपि उस प्रतिबद्धता  के कारण ही उस पहली पंचायत का ही वर्ष  में  जबरन अवसान कर दिया गया।  लेकिन पंचायत की प्रतिबद्धता ने जनता को उस स्तर तक शिक्षित कर दिया था कि आने वाली पंचायतें इन दोनों पक्षों की उपेक्षा नहीं कर पाई।  तब शायद देश में भी यहाँ की तरह दो ही राजनैतिक दल या ध्रुव होते। .... विचारते विचारते ही सूत जी निद्रामग्न हो चुके थे।

हे, पाठक!  
सूत जी दूसरे दिन साँयकाल राजधानी पहुँच गए।  मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।  वह अकेला नहीं रह सकता।  सन्यास धारण कर लेने के उपरांत भी उसे किसी का साथ तो चाहिए ही।  सनत पहले ही राजधानी पहुँच चुका था।  उन्हों ने उसे भी अपने पास ही बुला लिया।  अब दोनों साथ हो लिए थे।  अगले दिन राजधानी के सभी खेतों के प्रतिनिधियों के लिए मतदान होना था।  यहाँ पिछले दिनों बहुत अनूठी घटनाएँ हुई थीं।  चुनाव के आरंभ में ही बैक्टीरिया दल के एक नेता पर पादुका प्रहार हुआ था।  जिस का असर ये हुआ कि राजधानी क्षेत्र में बैक्टीरिया दल ने अपने दो सशक्त उम्मीदवारों को बदल दिया था।  एक तरह से बैक्टीरिया दल ने अपने पूर्व अपराध की स्वीकारोक्ति कर ली थी।  सूत जी जानते थे कि मतदाता की स्मृति बहुत क्षीण होती है।  वे अवश्य ही इस स्वीकारोक्ति के उपरांत बैक्टीरिया दल को माफ कर देंगे और बैक्टीरिया दल माफी का लाभ  प्राप्त करने में सफल हो लेगा।   इस पादुका प्रहार ने फैशन की जगह ले ली थी।  अब तक के चुनाव प्रचार में उस के अनोखे उदाहरण सामने आए।  यहाँ तक कि महापंचायत के वर्तमान मुखिया और वायरस दल के घोषित मुखिया भी इस के प्रहारों से न बच सके।  पर पादुका प्रहार का यह फैशन अहिंसक ही बना रहा और उस ने किसी को भी भौतिक चोट नहीं पहुँचाई।  यद्यपि बहुत से मीमांसकारों ने इस पर चिंताएँ प्रकट करते हुए पत्र-पत्रिकाओं के पृष्ठ रंग डाले।  पर सूत जी जानते थे कि पादुका प्रहार एक फैशन की तरह आया है और फैशन की तरह चला जाएगा।   एक फैशन और चला कि पहले पहल पादुका प्रहार के लक्ष्य बने नेताओं ने इसे अपनी अहिंसा की नीति के अंतर्गत प्रहारकों को क्षमा कर दिया।  लेकिन इस महानता का कार्य करने में वायरस दल के नेता पिछड़ गए।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

शुक्रवार, 8 मई 2009

सूत जी पद्मनाभस्वामी की विश्रामस्थली में : जनतन्तर कथा (26)

हे, पाठक!

विचरण की थकान से निद्रा गहरी आई, उठने का मन नहीं था फिर भी सूत जी ने स्वभावगत् रुप से सूर्योदय पूर्व ही शैया त्याग दी।  प्रातःकालीन नित्यकर्म से निवृत्त हो छनी हुई तमिल कॉफी का आनंद लिया।  अब  चेन्नई में रुकना निरर्थक था।  सोचा, जब यहाँ तक आ ही गए हैं तो तिरुअनंतपुरम चल कर पद्मनाभस्वामी के दर्शन भी कर लिए जाएँ।  हालांकि वहाँ लोग बहुत पहले ही मतदान कर चुके थे।  लेकिन उस से क्या इस दक्षिणी तटखंड और उस के लोगों का साक्षात तो हो ही सकता था।  जानकारी की तो पता लगा दस बजे नित्य ही वहाँ के लिए विमान है, मात्र तीन-चार घड़ी की यात्रा।  सूत जी दोपहर होने के पहले ही पद्मनाभ स्वामी के विश्राम स्थल पहुँच गए। कहते हैं परशुराम के फरसे को समुद्र में डुबोने पर यह धरती जल से बाहर आ गई थी।  विमान से स्वामी का मंदिर देख कर ही मन प्रसन्न हो गया।

हे, पाठक! 
विश्राम के लिए मंदिर के निकट ही यात्री आवास भी मिल गया।  पहुँच कर भोजन किया, तनिक विश्राम और फिर स्वामी के दर्शन।  फिर निकले नगर भ्रमण को।  लोग काम में लगे थे।  विचित्र नगर था। स्त्रियाँ खूब दिखाई पड़ती थीं, लगभग पुरुषों के बराबर।  हर काम में और हर स्थान पर।  नगर का प्रत्येक प्राणी सजग दीख पड़ता था।  बहुत जानकारियाँ मिली। नगर शिक्षा का बड़ा केन्द्र है, प्राचीन काल से ही।  नगर में एक प्राचीन वेधशाला भी है।  सूत जी ने नगर और खंड के बारे में और जानना चाहा तो पता लगा उष्ण मौसम, समृद्ध वर्षा, सुंदर प्रकृति, जल की प्रचुरता, सघन वन, लम्बे समुद्र तट और चालीस से अधिक नदियाँ यहाँ की विशेषता हैं। सच ही यह अपने नाम की तरह ईश्वर का घर प्रतीत हुआ। आदिकालीन भारतीय द्रविड़ों के अतिरिक्त आर्य, अरबी, यहूदी, मिश्रित वंश तथा आदिवासी यहाँ की जनसंख्या का निर्माण करते हैं और लगभग सभी शिक्षित। हिन्दू, ईसाई, इस्लाम,बौद्ध, जैन, पारसी, सिक्ख और बहाई धर्मावलम्बी यहाँ मिल जाएँगे।  अद्वैत के आचार्य आदिशंकर की जन्म स्थली।  शेष भारतवर्ष से ढाई गुना अधिक लगभग 819 जन प्रति वर्ग किलोमीटर की सघन जनसंख्या में स्त्री-पुरुष बराबर हैं अपितु कुछ स्त्रियाँ ही अधिक हैं।  स्त्री-प्रधान समुदाय आज भी हैं।  शिक्षा, स्वास्थ्य और गरीबी उन्मूलन में तृतीय विश्व का सब से अग्रणी खंड बना।  जनसंख्या की स्थिरता प्राप्त यह खंड आज विश्व के अग्रणीय देशों के साथ खड़ा है।  क्या नहीं था इस खंड में?
 हे, पाठक!
भारतवर्ष की स्वतंत्रता के दस वर्ष उपरांत पहली बार खंडीय पंचायत गठित हुई और पहली ही बार जन ने लाल फ्रॉक को राज्य चलाने का अधिकार दिया।  वे लाए तीव्र विकास के लिए तीव्र परिवर्तन।  महापंचायत को यह सब रास नहीं आया। लाल फ्रॉक की खंडीय पंचायत को हटा दिया गया।  लेकिन बीज नष्ट नहीं हो सका।  उस के बाद मिश्रित जन ने जो इतिहास रचा वह अद्वितीय है।  इसी से इस खंड को राजनीति की प्रयोगशाला का नाम मिला।  गठबंधनों का शासन जो आज पूरे भारतवर्ष का भाग्य है, वह इस खंड मे पहली बार हुआ और फिर एक परंपरा बन गया।  स्पष्ट रूप से दो मुख्य गठबंधन सामने आए।  यदि इन गठबंधनों को हम दल मान लें तो एक द्विदलीय प्रणाली यहाँ विकसित है। जब भी जन को कोई पाठ पढ़ाना होता है तो वह एक गठबंधन को अस्वीकार कर दूसरे को अवसर प्रदान करते हैं।  दोनों के मध्य प्रतियोगिता ने खण्ड को विश्व में मान दिलाया।


हे, पाठक! 
सूत जी को देर रात्रि तक यह सारी जानकारी मिली।  उन की रुचि वर्तमान महापंचायत के लिए हो रहे चुनाव के परिणामों की थी।  उन्हों ने अनेक लोगों से पूछताछ की।   सभी दलों के लोगों से मिले।  लेकिन आश्चर्य कि लगभग सभी लोग परिणाम के प्रति आश्वस्त और सब की राय एक जैसी।  ऐसा कहीं नहीं हुआ था।  सब स्थानों पर लोग अपने अपने दलों के बढ़चढ़ कर प्रदर्शन करने की आशा रखते थे, लेकिन यहाँ सब कुछ विपरीत था।  सब लोगों का एक ही मत था 19-20, अर्थात बहुत अंतर दोनों गठबंधनों के मध्य नहीं रहेगा।  या तो दो खेतपति इसके अधिक, या फिर दो खेतपति उस के अधिक।

 बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

गुरुवार, 7 मई 2009

माला के मनकों को जुड़ा रखने के लिए मजबूत धागे का सूत्र कहाँ मिलेगा : जनतन्तर कथा (25)

हे, पाठक!
अगली प्रातः सूत जी द्रविड़ चेतना के केन्द्र चैन्नई में थे।  सभ्यता विकसित होते हुए भी बर्बर आर्यों से पराजय की कसक को यहाँ जीवित थी। लेकिन उसे इस तरह सींचा जा रहा था जिस से इस युग में सत्ता की फसलें लहलहाती रहें।  प्रकृति के कण कण को मूर्त रूप से प्रेम करने वाला आद्य भारतीय मन उस पराजय को जय में बदलने को आज तक प्रयत्नशील है।  सब से पहले तो उस ने विजेता के नायक देवता को इतना बदनाम किया वह देवराज होते हुए भी खलनायक हो गया।   उस के स्थान पर लघुभ्राता तिरुपति को स्थापित करना पड़ा।  यहाँ तक कि जो थोडा़ बहुत सम्मान वर्षा के देवता के रूप में उस का शेष रह गया था उसे भी तिरुपति के ही एक अवतार ने अपने बचपन में ही गोवर्धन पूज कर नष्ट कर डाला।  पूरा अवतार चरित्र फिर से उसी मूर्त प्रेम को स्थापित करने में चुक गया।  वह मूर्त प्रेम आज भी इस खंड में इतना जीवन्त है कि अपने आदर्श को थोड़ी भी आंच महसूसने पर अनुयायी स्वयं को भस्म करने तक को तैयार मिलेंगे। 

हे, पाठक!
सुबह कलेवा कर नगर भ्रमण को निकले तो सूत जी को सब कहीं चुनाव श्री लंकाई तमिलों के कष्टों के ताल में गोते लगाता दिखाई दिया।  दोनों प्रमुख दल तमिलों के कष्ट में साथ दिखाई देने का प्रयत्न करते देखे।  लेकिन यहाँ भी स्वयं कर्म के स्थान पर विपक्षी का अकर्म प्रदर्षित करने वही चिरपरिचित दृष्य दिखाई दिया जो अब तक की भारतवर्ष यात्रा में सर्वत्र दीख पड़ता था।  दोनों ही दलों में सब तरह से घिस चुका वही पुराना नेतृत्व था।  जिस में अब कोई आकर्षण नहीं रह गया था।  कोई नया नेतृत्व जो द्रविड़ गौरव में फिर से प्राण फूँक दे, दूर दूर तक नहीं था।  हर कोई पेरियार और अन्ना का स्मरण करता था।  लेकिन वह ज्ञान और सपना दोनों अन्तर्ध्यान थे।  सूत जी दोनों दलों के मुख्यालय घूम आए।  सारी शक्ति यहाँ भी मुख्यतः निष्प्राण प्रचार में लगी थी।  दोनों ही अपनी जीत के प्रति आश्वस्त और हार के प्रति शंकालु दिखे। आत्मविश्वास  नाम को भी नहीं था।

हे, पाठक! 
जहाँ सत्तारूढ़ दल अपनी उपलब्धियाँ गिना रहा था वहीं विपक्षी उन की कमियों को नमक मिर्च लगा कर बखान कर रहे थे।  पर जनता? वह स्तब्ध थी, तय ही नहीं कर पा रही थी कि वह किसे चुने और किसे न चुने?  सभी राशन की दुकान पर रुपए किलो का चावल देने का वायदा कर रहे थे।  एक मतदाता कह रही थी कि चावल तो हम रुपए किलो राशन दुकान से ले आएंगे, लेकिन नमक का क्या? वही सात रुपए किलो? और एक कप चाय तीन रुपए की? क्यूँ नहीं कोई ऐसी व्यवस्था करने की कहता कि जितना दिन भर में कमाएँ उस से दो दिन का घर चला लें।  कम से कम कुछ तो जीवन सुधरे।  उस औरत के प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं था।  नगर और औद्योगिक बस्तियों में मतदान के लिए कोई उत्साह नहीं था।  मतसूची में दर्ज आधे लोग भी मतदान केन्द्र तक पहुँच जाएँ तो ठीक वरना जो मत डालेंगे वे ही आगे का भविष्य लिख देंगे।

हे, पाठक!  
सूत जी, आस पास के कुछ ग्रामों में घूम-फिर अपने यात्री निवास लौटे तो बुरी तरह थक चुके थे।  भोजन कर सोने को शैया पर आए तो दिन भर की यात्रा पर विचार करते रहे।  ग्रामों में चुनाव के प्रति तनिक उत्साह तो था।   लेकिन निराशा वहाँ भी दिखाई दी।  स्थानीय समस्याओं के हल और विकास के प्रति राजनेताओं की उदासीनता की कथाएँ हर स्थान पर आम थीं।  सूत जी भारतवर्ष में अब तक जहाँ जहाँ गए थे वहाँ यह एक सामान्य बात दिखाई दे रही थी कि विकास की भरपूर आकांक्षाएँ लोगों के मन में थीं।   लेकिन उस के लिए मौजूदा राजनैतिक ढ़ाँचे पर विश्वास उतना ही न्यून था।  विश्वास की हिलोरें भारतवर्ष को किस ओर ले जाएंगी इस का संकेत तक कहीं दिखाई नहीं दे रहा था।  सब कहीं जनता की आकांक्षाएँ एक जैसी थीं।  लेकिन उन आकांक्षाओं को कहाँ दिशा और राह मिलेगी?  यह कहीं नहीं दिखाई देता था।  लगता था पूरा भारतवर्ष अब भी खंड खंड में बंटा हुआ था।  वे सोचने लगे।  इस माला का धागा इतना कमजोर है कि कहीं टूट न जाए।  किस तरह वह सूत्र मिलेगा जिन से एक नया मजबूत धागा बुना जा सके, जिस में  इस माला के धागे के टूटने और बिखर जाने के पहले  माला के मनकों को फिर से एक साथ पिरो दे।  सोचते सोचते निद्रा ने उन्हें आ घेरा।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

मंगलवार, 5 मई 2009

लाल फ्रॉकों को वायरस-बैक्टीरिया विहीन मंडल की आस : जनतन्तर कथा (24)


हे, पाठक!
प्रातः सनत की निद्रा टूटी तो देखा गुरूवर कक्ष में नहीं हैं।  घड़ी में सुबह के साढ़े नौ बज रहे थे।   यह विजया का असर था जो वह देर तक सोया रहा।  कई दिनों से प्रातः उठने पर भी वह थका थका सा महसूस करता था।  लेकिन आज थकान बिलकुल गायब थी।  यह सब विजयारानी का असर था।  पर गुरूवर कहाँ गए?  शायद स्नानघर में हों? पर उस का द्वार खुला था और वहाँ कोई नहीं था। वह शैया से उतरा तो देखा जलपात्र के नीचे एक पत्र लगा है। वह पढ़ने लगा......

वत्स!   
चिरजीवी हो!
तुम्हारे साथ सायंकाल और रात्रि अच्छी बीती।  लेकिन कर्म का मोह से नाता ठीक नहीं। प्रातः विमान उपलब्ध है उसी से बंग देश जा रहा हूँ।  यात्रीआवास में नगर में रहो तब तक रह सकते हो। वहाँ का भुगतान नैमिषारण्य करेगा।  दूरभाष का क्रमांक तुम्हारे पास है।  वार्तालाप करते रहना।  ..... सूत

हे, पाठक! 
उधर सूत जी लाल फ्रॉक वाली बहनों के क्षेत्र में पहुँच चुके थे।  विमानपत्तन से यात्री आवास की राह में देखा तो यहाँ वैसी ही रौनक थी, जैसी पिछले पच्चीस वर्षों से चली आ रही थी।  नयापन कुछ नहीं दिखा।  केवल यह दिखाई दिया कि बैक्टीरिया दल से नाता तोड़ चुकी बहना फिर से बैक्टीरिया दल के साथ कंधा भिड़ा रही थी।  चुनाव प्रचार में वही पुराने लटके-झटके थे।  सूत जी जानते थे कि सब परेशान हैं लेकिन लाल फ्रॉकों का यह किला नहीं टूट रहा है।  इस बार कुछ जरूर कुछ बातें ऐसी हो गई हैं कि जिन के चलते उन के किले में सेंध लगने की संभावना कही जा रही है।  लेकिन ऊपर से तो नहीं लगा कि बहुत अधिक अंतर आएगा।  यात्री आवास पहुँचते ही वहाँ का प्रबंधक उन के कक्ष में आ गया।  प्रणाम कर बोला -महाराज आप के लिए श्रेष्ठतम व्यवस्था जो हम से हो सकती थी कर दी है, फिर भी हमें महसूस हो रहा है कि कुछ कमी जरूर है।  लेकिन अब चुनाव के इस समय में हम अधिक कुछ नहीं कर पाए हैं।  आप को कुछ कमी लगे तो बताइयेगा, हम उसे दूर करने का प्रयत्न करेंगे। 

हे, पाठक!

सूत जी तुरंत समझ गए, अब प्रबंधक मस्का लगा रहा है।  बोले -भैया थकान तो कल शिष्य उतार चुके हैं, हमें मालिश की आवश्यकता नहीं है।  तुम तो यह बताओ चुनाव का माहौल कैसा है?
- कोई बड़ा अंतर तो नहीं लग रहा है पर एक उद्योग लगते-लगते चला गया उस का मलाल जरूर है, पर उस के लिए तो ममता ब्हेन को ही दोषी माना जा रहा है। 
-पर नन्दीग्राम?
-हाँ, वह बदनामी जरूर हाथ लगी है पर उस का असर वहीं रहेगा, अन्यत्र नहीं।  और वहाँ भी ताकत बराबर की लग रही है।  फिर इस बार जो छोटे दलों के साथ मोर्चा लगाया है, उस से लाल बहनें बहुत उत्साहित हैं, उन के बच्चे भी।  उन को लगता है कि पिछली बार की संख्या में कुछ वृद्धि कर लें।
- तुम भी लाल फ्राक के दल में तो नहीं?
प्रबंधक खिसियानी हँसी हँसता हुआ बोला।  -महाराज! आप तो अन्तर्यामी हैं।  सब जानते हैं।  हम इधर यात्री आवास के प्रबंधक हैं हमें अपना आवास गृह चलाना है।
सूत जी समझ गए, इस तिल से तेल नहीं निकलेगा। बोले - ठीक है, ठीक है।   किसी दिन लाल फ्रॉक को हटना पड़ेगा तो तुम्हारे जैसे लोगों का उस में सर्वाधिक योगदान होगा।  हमें स्नान, ध्यान से निवृत्त होने में दो घड़ी समय लगेगा, फिर कलेवा करेंगे और नगर भ्रमण के लिए निकलेंगे।
-जो, आदेश महाराज! प्रबंधक करीब करीब पैरों तक झुक आया था, फिर पीछे मुड़ कर कक्ष के बाहर निकल गया।

हे, पाठक! 
सूत जी कलेवा कर यात्री आवास से निकले तो सीधे बड़े दल के कार्यालय पहुँचे।  दल के किसी वरिष्ठ से मिलना चाहते थे।  लेकिन सब वरिष्ठ चुनाव प्रचार में लगे थे। मुख्यालय में केवल प्रवक्ता मिला।  उस ने सूत जी का स्वागत किया।
-महाराज! बहुत दिनों में पधारे।  हम से कोई भूल हुई जो बिसर ही गए?
-नहीं वत्स! हम न किसी को बिसरते हैं और न ही किसी को स्मरण करते हैं।  जब जन को जैसी आवश्यकता होती है वैसी कथाएँ लिखते हैं, छापते हैं और सुनाते हैं।  तुम यह बताओ कि कैसा चल रहा है?
-हम अपने कार्यक्रम पर आगे बढ़ रहे हैं, जैसा हमने दल के 1964 के राजनैतिक कार्यक्रम में निश्चित किया था और बाद के प्लेनमों में जैसा उसे आगे बढ़ाया है।  हम ने पहले समान विचार वालों का मोर्चा बनाया, उस की शक्ति बढ़ाई, अब नजदीकी साथियों को अपने साथ खड़ा करने की राह पर हैं।
-पर तुम्हारे ही बंधु कहते हैं कि राजनैतिक कार्यक्रम तो डब्बे में बंद कर दिया गया है।  कोई न तो जनवादी क्राँति को स्मरण करता है और न ही जनता के जनवाद को।  वे कहते हैं प्लेनम से कार्यक्रम आगे नहीं बढ़ाया है, अपितु संशोधित कर दिया है और दल संशोधनवाद के रास्ते जा कर पूरी तरह संसदवादी हो गया है।  क्या अब यह समझ बन चुकी है कि संसदीय रीति से क्राँति होगी?
-महाराज! अब आप मुझे संकट में डाल रहे हैं। इतने गंभीर प्रश्नों का उत्तर मेरा जैसा साधारण प्रवक्ता कैसे दे सकेगा? इन का उत्तर देने के लिए तो पॉलित ब्यूरो की बैठक करनी होगी।  वैसे भी अभी क्राँति का विषय स्थगित है। अभी तो चुनाव के माध्यम से संसद में ही अपनी शक्ति वृद्धि करनी है।  उस के लिए भूमि तैयार है।
-लेकिन, जो दल साथ लगे हैं, उन से कैसे लाभ होगा?
 -होगा क्यों नहीं? देखिए, इन सब दलों का हमारे खंड में कुछ न कुछ प्रभाव तो है ही।  बूंद बूंद से सागर भरता है। हम खंड में आगे न भी बढ़ पाए तो भी जो प्रभाव ममता ब्हेन और बैक्टीरिया दल के अवसरवादी गठबंधन से हुआ है, वह तो नष्ट हो ही लेगा। हम वर्तमान स्थिति को तो बनाए रख सकते हैं। उधर इन स्थानीय दलों के प्रभाव से उन के राज्यों में कुछ पंच हमारे ले आएँगे।  हमें पूरा विश्वास है कि इस बार हमारी शक्ति पहले से अधिक होगी।  साथी दलों को मिला कर हमारी संख्या बैक्टीरिया और वायरस दलों से अधिक नहीं तो बराबर तो हो ही सकती है।  फिर प्वाँर जी से डेटिंग चल रही है, चुनाव उपरांत साइकिल, लालटेन और बंगला भी हमारे साथ आने को ललचाएगा।  हमें पंचायत प्रधानी का शौक है नहीं, किसी को भी प्रधानी देंगे तो बात बन सकती है। वायरस-बैक्टीरिया विहीन मंडल बनाने का अवसर तो है ही। 
- अच्छा हम चलेंगे, हमें दक्खिन भी जाना है। सूत जी उठने लगे तभी एक कार्यकर्ता रसगुल्ले और गन्ने का रस ले कर आ पहुँचा।

हे, पाठक! 
प्रवक्ता ने सूत जी को फिर से बिठा लिया।  रसगुल्ले चखने का लालच तो उन्हें भी था।  रसगुल्ले पा कर वे पुनः यात्री आवास पहुँचे।  कक्ष में ही भोजन मंगवाया और सायँ सूर्यास्त पूर्व जगाने के लिए प्रबंधक को आदेश दे विश्राम करने लगे।  रात्रि को ही दक्षिण के लिए जो निकलना था।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

रविवार, 3 मई 2009

सूत-सनत का रात्रि विश्राम, चाचा वंश और विकल्प की चर्चा : जनतन्तर कथा (23)

हे, पाठक! 
मन भर कर रबड़ी छक लेने के बाद भोजन मात्र औपचारिकता रह गई थी।  भोजनशाला में अधिक देर नहीं लगी।  सूत जी, सनत और उस का शिष्य तीनों भोजन कर बाहर आए तो अर्धरात्रि में अभी भी पाँच घड़ी समय शेष था।  सनत के शिष्य को तो घर जाना था।   तीनों पैदल ही टहलने निकले।  सनत शिष्य को दूर तक छोड़ आए।   बात करते करते वापस  सितारा पहुँचे।   बातें करने के लालच में सनत रात सूत जी के साथ ही रुक गया।  सनत बता रहा था कि इस बार पता ही नहीं लग रहा है कि जनता क्या करेगी?  सूत जी चाचा वंशजों के बारे में जानना चाहते थे।

हे, पाठक!
दोनों गुरू चेले शैयासीन हो कर बतियाने लगे।  सनत बता रहा था।  चाचा वंश के माँ बेटे तो संसद में पहुँच ही रहे हैं।  पर इधर विद्रोही ने भी नाटक कम नहीं किया।  पर माया ने उसे खूब अन्दर पहुँचाया।  कोई दूसरा दल होता तो शायद इतनी साहस नहीं दिखाता।  सूत जी ने सहमति व्यक्त की -हाँ, यह तो सही है कि वह महिला यदि सही रास्ते पर चले तो साहसी तो बहुत है।   दलित उस के पीछे चल भी पड़े हैं, लेकिन उन में भी दल में वही लोग उच्च स्थान हथियाये हुए हैं जिन्हों ने गलत तरीकों से पैसा बना लिया है।   इसी से उस के जीते हुए प्रत्याशी अवसर मिलने पर कहीं भी खिसकने को तैयार मिलते  हैं।  उस ने कुछ सवर्णों को अवश्य आकर्षित किया है।  लेकिन दल में धनिक दलितों और गरीब दलितों का द्वैत भी बन चला है, सत्ता और आरक्षण का लाभ धनिक ही उठा रहे हैं, यह द्वैत माया को अवश्य ही ले डूबेगा।   -गुरूदेव आप सच कहते हैं, ऐसा ही हो रहा है।   सनत सूत जी की हाँ में हाँ मिलाता जा रहा था।   -पर जिस तरह बहुत सारे दल खंड में मैदान में आ गए हैं उस में बैक्टीरिया दल को कुछ अतिरिक्त लाभ मिल सकता है।

हे, पाठक!
सनत बोला तो इस बार सूत जी ने भी हाँ भर दी कि हो सकता है पहले की अपेक्षा कुछ बढ़त मिल जाए।  लेकिन बैक्टीरिया दल के पास अब आगे बढ़ने को कुछ रह भी नहीं गया है। वह यथास्थिति में फँस कर रह गई है।  गरीबों के लिए उस के पास कुछ भी नया नहीं है।  वह केवल और केवल वर्तमान अर्थव्यवस्था की गति को तेज करने का प्रयत्न करती है।  अर्थव्यवस्था की गति तेज होती है तो आम लोगों को उस का तनिक लाभ मिलता ही है।  उसी के भरोसे यह जनता में विश्वास बनाए हुए है। जिस दिन यह टूटेगा।  तब लोग इसे छोड़ भागेंगे।   सूत जी की इस बात पर सहमति व्यक्त करते हुए सनत कहने लगा  -छोड़ तो अभी भी भाग लें, यदि कोई दूसरा विकल्प हो।  इस समय कोई विकल्प खड़ा होने ले तो जनता के बीच काम कर सब को किनारे कर सकता है।  लेकिन हालात ऐसे हैं, कोई विकल्प सामने आ ही नहीं रहा है।  लोग जनतंतर से ऊबने लगे हैं, मत डालने से कतराने लगे हैं।  सोचते हैं, मत देने से कुछ बदल तो रहा नहीं है। दे कर भी क्या करें? वैसे लाल फ्राक वाली बहनें कोशिश में लगी तो हैं।

हे, पाठक! 

इस अंतिम बात पर सूत जी सनत से सहमत न हो सके।  कहने लगे -पिटे पिटाए स्वयंभुओं को एकत्र करने भर से विकल्प नहीं खड़े होते।  स्थाई और दीर्घकालीन विकल्प पीड़ित जनता के संगठनों को एक साथ एक लक्ष्य के साथ एकत्र करने से ही खड़ा हो सकता है।   जो भी इन्हें एकत्र कर लेने का कठोर श्रम करेगा और अपने नेतृत्व में विश्वास पैदा कर सकेगा वही इन का नेतृत्व कर सकता है।  सनत ने एक आह भरी  - न जाने कब ऐसा होगा?  सूत जी ने सनत में विश्वास जगाया -होगा अवश्य होगा।  परिस्थितियों से जनता सीख रही है।  जब दाल पकने लगेगी देगची का ढक्कन स्वयमेव ही भाप को बाहर निकलने को सरक लेगा।  सूत जी बोले अब रात बहुत हो चली है।   कुछ निद्रा भी ले लें।  सुबह फिर आगे की योजना भी बनानी है।  दोनों गुरू-शिष्य शीघ्र ही खर्राटे लेने लगे।   सनत शिष्य बुद्धिमान था जो यहाँ से सरक लिया।  वरना इधर रुक जाता तो उसे तो खर्राटों में सारी रात जागना ही पड़ता।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....