हे, पाठक!
सब जानते हैं, 'जो पैदा होता है, वह मरता है', "जो आता है, उसे जाना भी पड़ता है' पर कोई मानने को तैयार नहीं। ये बातें केवल स्कूल की पुस्तकों, अखबारों, मेग्जीनों,धार्मिक स्थलों और शमशानों में लिखे जाने के लिए होती हैं, अमल के लिए नहीं। कुर्सी, खास तौर पर परधानमंतरी की हो और खुदा न खास्ता, वो नेता भी हो तो, कभी ये मानने को तैयार ही नहीं होता कि ये उसे छोड़नी पड़ेगी। वह छूटती भी है तो सरकारी दफ्तरों में दो दिन की छुट्टी करवा कर छूटती है। इस लिए परधानमंत्री का पर धान मन्तरी होना जरूरी है, जिस से जब वह कुरसी पर बैठे तो कूल्हों पर पसीना छूटता रहे। कोड़ा जब चलता है तो किसी को नहीं बखसता। जो उस की जद में आ जाता है बच नहीं सकता। कही और बताई गई आफत की उस घड़ी में भी यही हुआ। बस एक की आवाज सुनाई देती। बाकी सब के होंठ फेवीकोल लगा कर चिपका दिए गए। जुबानों पर ताला जड़ दिया गया। क्या समाँ था वह? जिधर देखो सिर्फ एक तस्वीर दिखाई देती थी। गीत सब बंद थे, जिधर देखो उधर मात्र स्तुतियाँ सुनाई देती थीं। मैदान में केवल ढोल-मंजीरे थे। एक के सिवा कोई नहीं बचा। देश भी नहीं बचा। उस एक को ही देश घोषित कर दिया गया। आग जो सुलगी थी बुझी नहीं थी, राख की परतों के नीचे अंगार शनैः शनैः सुलगते रहे। वक्त आखिर आ गया। जनतन्तर को कब तक बीमार बता कर अस्पताल में भर्ती रखा जाता? कब तक चुनाव को टाला जाता?
हे, पाठक!
बंदियों को बाहर लाना ही पड़ा। बहुत दिनों में उन्हें रोशनी दिखाई दी। कोड़े ने सब को इकट्ठा कर दिया। जहाज को देख लकड़ी के लट्ठे पर कोई यात्रा नहीं करता। जहाज जब लंगर डाल दे और सवारियों को नीचे न उतरने दिया जाए तो वह अंडमान के कालापानी से बेहतर नहीं होता। लोग उसे छोड़ लकड़ी के लट्ठों पर आ जाते हैं। अब तो कोड़े की मार से लट्ठे जुड़ रहे थे। लट्ठों ने गीता-कुरआन पर हाथ धर कसम खाई, वे कभी अलग न होंगे, एक रहेंगे। एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाने वाले एक दूसरे के साथ कंधा मिलाने लगे। कसम को सच्ची साबित करने को जहाँ और जैसी मिली, कमजोर मिली तो वही सही, सड़ी गली मिली तो वही सही, रस्सियाँ लाए और लट्ठों को आपस में बांध दिया। अपनी अपनी निशानियाँ फेंक एक नया निशान बनाया, लट्ठों की नाव पर तान दिया। सारे एक साथ उस पर सवार हो लिए। जिस को नाव पर शक था वह अलग लट्ठे पर चढ़ लिया पर तालमेल बनाय के साथ चलने लगा। जनता ने लट्ठों को जोर से धकियाया और नैया चुनाव पार हो गई, जहाज भंवर में चक्कर लगाता रह गया। लोग फिर साँस लेने लगे, बहुत कोलाहल हुआ। कोयलें फिर चहकने लगीं, बाग में वसन्त आ गया। खानदानी तिलिस्म टूटा, चाचा की बेटी का महल छूटा। एक छोटे घर में आ गई।
हे, पाठक!
ये दो पैरेग्राफ की कथा का बड़ा महत्व है। हर साल उन दिनों जब सर्दियाँ अवसान पर हों, माघ का महीना हो, फागुन की बयार चलने को हो, इस कथा का पाठ पूरे विधि-विधान पूर्वक करते-कराते रहना चाहिए। अवसर हो तो अच्छे पंडितों को बुला कर इस कथा का समारोह पूर्वक खूब माइक-शाइक लगवा कर वाचन कराना चाहिए। अब तो नगर-नगर लोकल केबल चैनल हैं, उन पर प्रसारण कराना चाहिए, मौका मिल जाए तो टी.वी. शीवी पर भी लाइव टेलीकास्ट करा देना चाहिए। इस कथा के पारायण से हिटलर-मुसोलिनी टाइप के जर्म्स मर जाते हैं, और वसंत के आने पर खलल नहीं डालते, अनंत पुण्य प्राप्त होता है। जिस से पर धान मंतरी की कुरसी सपनों में दिखाई देने लगती है।
हे, पाठक!
आज की कथा का यहीं समापन करना उचित है। वरना कथा के इस अध्याय की महिमा खंडित हो जाएगी। कथा जारी रहेगी।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
सोमवार, 6 अप्रैल 2009
शनिवार, 4 अप्रैल 2009
जनतन्तर-कथा (5) : अगिया बैताल और राजपथ पर ठाटें मारता दावानल
हे! पाठक,
परदेसी बनियों के चले जाने भर से भारतवर्ष में जनतंतर नहीं आया था। परदेसी बनिए तो भारतवर्ष जैसा था वैसा छोड़ गए, टुकड़े और कर गए। जनतंतर आया तब जब जनतंतर का नया बिधान लागू हो गया। फिर चुनाव हुए पहली महापंचायत बनी। पहला चुनाव था, सो ज्यादा झंझट नहीं था। परदेसी बनिए से लिए लड़े लोग मैदान में थे। उन्हीं में से किसी को चुना जाना था। महापंचायत के नेता चाचा थे, जनता ने चाचा को ही चुन डाला। जब तक चाचा रहे तब तक यह झंझट नहीं पड़ा। विकास कैसा हो इस पर मतभेद थे। लेकिन इतने नहीं कि चाचा को असर होता। दस साल तक वही चलता रहा। फिर उत्तर के पड़ौसी ने दूध में खट्टा डाल दिया, बैक्टीरिया पनपने लगे। लड़ाई हारे तो चाचा और पार्टी दोनों का ओज कम हो गया। फिर दक्षिण से कामराज दद्दा को बुला कर पार्टी की कमान पकड़ाई गई। उसने बहुत सारे मंतरियों से इस्तीफा दिलवा कर बैक्टीरिया को निकाल बाहर किया, सरकार की छवि को सुधारने की कोशिश की। फिर खुदा को चाचा की जरूरत हुई उन्हें अपने पास बुला लिया। उन के पीछे कामराज दद्दा की रहनुमाई में सास्तरी जी ने देश संभाला। बड़े नेक आदमी थे। रेल मंत्री थे, तो एक ठो रेल दुर्घटना के चलते ही इस्तीफा दे बैठे थे।
हे! पाठक,
आज कल वैसा बीज खतम हो गया, काठिया गेंहूँ की तरह। चाचा सिंचाई का बहुत इंतजाम कर गए थे, सो कोरवान धरती का काठिया कहाँ बचता। उस के स्थान पर उन्नत संकर बीज आ गया। सास्तरी जी के रहते जनता को चुनने का मौका मिल पाता उस के पहले ही खुदा के घर उन की जरूरत हो गई। बिलकुल अर्जेंट बुलावा आया। बेचारे घर तक भी नहीं पहुँच सके। सीधे परदेस से ही रवाना होना पड़ा। फिर चाचा की बेटी आई मैदान में। तब तक चुनावी अखाड़ा पक्का हो चला था। पूरे बीस बरस से पहलवान प्रेक्टिस कर कर मजबूत हो चुके थे। तगड़ा चुनाव हुआ। क्या समाजवादी, स्वतंत्रतावादी, क्या साम्यवादी और क्या जनसंघी सारे मिल कर जोर कर रहे थे। सास्तरी जी के खुदा बुलावे पर संशय, गऊ हत्या का मामला, तेलंगाना आंदोलन का दमन और भी बहुत सारे दाव-पेंच आजमाए गए। पर कामराज दद्दा के रहते बात नहीं बननी थी सो नहीं बनी। पार्टी को बैक्टीरिया विहीन करने की पूरी कोशिश थी, पर बैक्टीरिया तो बैक्टीरिया हैं, कितना ही स्टर्लाईजेशन करो बचे रह जाते हैं, बैक्टीरियाओं के परताप से राज्यों में दूसरी पार्टियों की सरकारें बनने लगीं।
हे! पाठक,
फिर भरतखंड से अलग हो कर बने लड़ाकू पच्छिमी पडौसी देश में भी जनतंतर का बिगुल बजा। वहाँ पहले ही पूरब-पच्छिम दो टुकड़े थे। पूरब वाले जीते तो पच्छिम को नहीं जँचा। पूरब वालों ने आजादी का बिगुल बजा दिया। जुद्ध हुआ और चाचा की बेटी ने आजादी का साथ दिया और पूरब-पच्छिम अलग हो गए। लाख फौजी समर्पण कर भारत लाए गए। जनसंघियों को ताव आ गया। उन्हों ने चाचा की बेटी को, बेटी से भवानी और चंडिका बना दिया, भावना का ज्वार उत्ताल तरंगे ले रहा था।
हे! पाठक,
तरंगों को शेर समझ भवानी ने चुनाव की रणभेरी बजा दी, कि वह गरीबी मिटाएगी। भवानी तीन चौथाई बहुमत ले कर सिंहासन पर जा बैठी। बैक्टीरिया गए नहीं थे भावना की तरंगों के बीच ही भ्रष्टाचार, बेरोजगारी ठाटें मारने लगी। जनता का हाल बेहाल हो गया। क्या पूरब, क्या पच्छिम? क्या उत्तर क्या दक्खिन? जनता रोज-रोज राजपथ पर आने लगी तो सरकारी दमन भी बढ़ने लगा। जनता को खंडित करने वाले पंछी काम बिगाड़ते थे। तब अगिया बैताल की तरह एक बूढ़ा सामने आया। सब को साथ ले कर राजपथ पर बढ़ने लगा।
हे पाठक!
तब ऐसा लगता था कि जनता का राजपथ पर ठाटें मारता दावानल सारे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों को लील लेगा। तभी अदालत ने दावानल में घी डाला। चाचा की बेटी की सवारी को ही गलत बता दिया। चाचा की बेटी कुपित हुई तो सब को डाला जेल में और अकेली दावानल बुझाने लगी। दो बेटे थे, एक हवाई जहाज उड़ाता था, दूसरा था फालतू। वह दावानल बुझाने साथ हो लिया। चुनाव होने थे। पर आग की लपटों में चुनाव कराएँ तो लपटे ही जीतें। पहले चुनाव एक साल पहले करा लिए थे, अब की एक साल आगे बढ़ा लिए, तीन चौथाई नुमाइंदे साथ जो थे। धीरे-धीरे लपटें ठंडी हो चलीं, वे समझे आग बुझ गई। पर आग तो आग होती है। राख के नीचे सुलगती रहती है, वह सुलगती रही। भारतवर्ष में जनतन्तर था उसे चचा खानदान के राजतन्तर में तो बदला न जा सकता था। आखिर चुनाव कराने थे।
आज की कथा यहीं तक, आगे की कथा अगली बैठक में।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
परदेसी बनियों के चले जाने भर से भारतवर्ष में जनतंतर नहीं आया था। परदेसी बनिए तो भारतवर्ष जैसा था वैसा छोड़ गए, टुकड़े और कर गए। जनतंतर आया तब जब जनतंतर का नया बिधान लागू हो गया। फिर चुनाव हुए पहली महापंचायत बनी। पहला चुनाव था, सो ज्यादा झंझट नहीं था। परदेसी बनिए से लिए लड़े लोग मैदान में थे। उन्हीं में से किसी को चुना जाना था। महापंचायत के नेता चाचा थे, जनता ने चाचा को ही चुन डाला। जब तक चाचा रहे तब तक यह झंझट नहीं पड़ा। विकास कैसा हो इस पर मतभेद थे। लेकिन इतने नहीं कि चाचा को असर होता। दस साल तक वही चलता रहा। फिर उत्तर के पड़ौसी ने दूध में खट्टा डाल दिया, बैक्टीरिया पनपने लगे। लड़ाई हारे तो चाचा और पार्टी दोनों का ओज कम हो गया। फिर दक्षिण से कामराज दद्दा को बुला कर पार्टी की कमान पकड़ाई गई। उसने बहुत सारे मंतरियों से इस्तीफा दिलवा कर बैक्टीरिया को निकाल बाहर किया, सरकार की छवि को सुधारने की कोशिश की। फिर खुदा को चाचा की जरूरत हुई उन्हें अपने पास बुला लिया। उन के पीछे कामराज दद्दा की रहनुमाई में सास्तरी जी ने देश संभाला। बड़े नेक आदमी थे। रेल मंत्री थे, तो एक ठो रेल दुर्घटना के चलते ही इस्तीफा दे बैठे थे।
हे! पाठक,
आज कल वैसा बीज खतम हो गया, काठिया गेंहूँ की तरह। चाचा सिंचाई का बहुत इंतजाम कर गए थे, सो कोरवान धरती का काठिया कहाँ बचता। उस के स्थान पर उन्नत संकर बीज आ गया। सास्तरी जी के रहते जनता को चुनने का मौका मिल पाता उस के पहले ही खुदा के घर उन की जरूरत हो गई। बिलकुल अर्जेंट बुलावा आया। बेचारे घर तक भी नहीं पहुँच सके। सीधे परदेस से ही रवाना होना पड़ा। फिर चाचा की बेटी आई मैदान में। तब तक चुनावी अखाड़ा पक्का हो चला था। पूरे बीस बरस से पहलवान प्रेक्टिस कर कर मजबूत हो चुके थे। तगड़ा चुनाव हुआ। क्या समाजवादी, स्वतंत्रतावादी, क्या साम्यवादी और क्या जनसंघी सारे मिल कर जोर कर रहे थे। सास्तरी जी के खुदा बुलावे पर संशय, गऊ हत्या का मामला, तेलंगाना आंदोलन का दमन और भी बहुत सारे दाव-पेंच आजमाए गए। पर कामराज दद्दा के रहते बात नहीं बननी थी सो नहीं बनी। पार्टी को बैक्टीरिया विहीन करने की पूरी कोशिश थी, पर बैक्टीरिया तो बैक्टीरिया हैं, कितना ही स्टर्लाईजेशन करो बचे रह जाते हैं, बैक्टीरियाओं के परताप से राज्यों में दूसरी पार्टियों की सरकारें बनने लगीं।
हे! पाठक,
फिर भरतखंड से अलग हो कर बने लड़ाकू पच्छिमी पडौसी देश में भी जनतंतर का बिगुल बजा। वहाँ पहले ही पूरब-पच्छिम दो टुकड़े थे। पूरब वाले जीते तो पच्छिम को नहीं जँचा। पूरब वालों ने आजादी का बिगुल बजा दिया। जुद्ध हुआ और चाचा की बेटी ने आजादी का साथ दिया और पूरब-पच्छिम अलग हो गए। लाख फौजी समर्पण कर भारत लाए गए। जनसंघियों को ताव आ गया। उन्हों ने चाचा की बेटी को, बेटी से भवानी और चंडिका बना दिया, भावना का ज्वार उत्ताल तरंगे ले रहा था।
हे! पाठक,
तरंगों को शेर समझ भवानी ने चुनाव की रणभेरी बजा दी, कि वह गरीबी मिटाएगी। भवानी तीन चौथाई बहुमत ले कर सिंहासन पर जा बैठी। बैक्टीरिया गए नहीं थे भावना की तरंगों के बीच ही भ्रष्टाचार, बेरोजगारी ठाटें मारने लगी। जनता का हाल बेहाल हो गया। क्या पूरब, क्या पच्छिम? क्या उत्तर क्या दक्खिन? जनता रोज-रोज राजपथ पर आने लगी तो सरकारी दमन भी बढ़ने लगा। जनता को खंडित करने वाले पंछी काम बिगाड़ते थे। तब अगिया बैताल की तरह एक बूढ़ा सामने आया। सब को साथ ले कर राजपथ पर बढ़ने लगा।
हे पाठक!
तब ऐसा लगता था कि जनता का राजपथ पर ठाटें मारता दावानल सारे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों को लील लेगा। तभी अदालत ने दावानल में घी डाला। चाचा की बेटी की सवारी को ही गलत बता दिया। चाचा की बेटी कुपित हुई तो सब को डाला जेल में और अकेली दावानल बुझाने लगी। दो बेटे थे, एक हवाई जहाज उड़ाता था, दूसरा था फालतू। वह दावानल बुझाने साथ हो लिया। चुनाव होने थे। पर आग की लपटों में चुनाव कराएँ तो लपटे ही जीतें। पहले चुनाव एक साल पहले करा लिए थे, अब की एक साल आगे बढ़ा लिए, तीन चौथाई नुमाइंदे साथ जो थे। धीरे-धीरे लपटें ठंडी हो चलीं, वे समझे आग बुझ गई। पर आग तो आग होती है। राख के नीचे सुलगती रहती है, वह सुलगती रही। भारतवर्ष में जनतन्तर था उसे चचा खानदान के राजतन्तर में तो बदला न जा सकता था। आखिर चुनाव कराने थे।
आज की कथा यहीं तक, आगे की कथा अगली बैठक में।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009
फिर से आएँगे खुशहाल लमहे
- दिनेशराय द्विवेदी
अब छोड़ो भी
बार बार उदास होना
जिन्दगी में आया कोई
लाल गुलाब की तरह
दे गया बहुत सी खुशियाँ
उस के जाने से
न हो उदास
याद कर
उस की खुशबू
और खुश हो
कि वह आया था जिन्दगी में
लाल गुलाब की तरह
चाहे लमहे भर के लिए
लमहे आ कर चले जाते हैं
पीटते रहना
लमहों की लकीर
जिन्दगी नहीं
खुशहाल लमहे
फिर से आएँगे
उठ, आँखे धो
स्वागत की तैयारी कर
लौट न जाएं वे
देख कर
तुम्हारी उदास आँखें
जल्दी कर, देख
वे आ रहे हैं तेजी से
चले आ रहे हैं
महसूस कर
नजदीक आती
उन की खुशबू
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चुनाव व्यथा-कथा पर विराम लगा। कुछ व्यस्तता के कारण। इस बीच सोचा तो इस का नाम परिवर्तित कर दिया। इसे जनतन्तर-कथा नाम दे दिया है। जनतंतर-कथा जारी रहेगी। लेकिन निरंतर नहीं। बीच में कुछ विषय ऐसे आ जाते हैं कि उन पर लिखना जरूरी समझता हूँ। आज की यह कविता फिर से प्रतिक्रिया से उपजी है। पर इसे ब्लाग पर डालना भी सोद्देश्य है। आशा है पसंद आएगी। कल फिर जनतन्तर-कथा के साथ।
____________________________________________________________________________________
मंगलवार, 31 मार्च 2009
जमाना है परेशान, वाकई परेशान!
जमाना है परेशान!
जमाना है परेशान
वाकई परेशान!
आमादा भी है
उतर भी आता है
लड़ने पर
करता है प्रहार भी
हम पर
वह हो जाता है
और परेशान
देख कर अपने हाथ
लहूलुहान
और हमारे चेहरे की
नयी ताजी मुस्कान।
जमाना है परेशान।
वाकई परेशान!
यह कोई कविता नहीं है। यह एक प्रतिक्रिया है, जो मैं ने रविकुमार के ब्लाग की ताजा पोस्ट पर प्रकाशित कविता पर की है। रविकुमार बेहतरीन कवि हैं। जितने बेहतरीन कवि हैं उस से अधिक बेहतरीन वे चित्रकार हैं। अनेक पत्रिकाएँ उन के रेखाचित्रों से अटी पड़ी हैं। अनेक पत्रिकाओं के मुख पृष्ठ उन के रेखाचित्रों से सजे हैं। उन्हों ने देश के नामी कवियों की सैंकड़ों कविताओं के साथ प्रासंगिक चित्रांकन कर उन्हें पोस्टरों में बदला है। पेशे से वे इंजिनियर हैं, पर प्रकृति से एक संपूर्ण कलाकार।
मैं चाहता हूँ आप उन के ब्लाग "सृजन और सरोकार" पर जाएँ और खुद देखें कि जो कुछ मैं ने उन के बारे में कहा है वह कितना सच है?
सोमवार, 30 मार्च 2009
चुनाव युद्ध के नियम और उन्हें तोड़ने की तैयारी : जनतन्तर-कथा (4)
हे, पाठक!
जब भरतखंड के टुकड़े कर के परदेसी बनिया चलता बना तो बड़ा टुकड़ा मिला उसे भरतखंड कैसे कहते सो इस का नाम रखा भारतवर्ष। यह भारतवर्ष भी बहुत ही विवधताओं का देश बना। अनेक प्रकार की संस्कृतियाँ, जीवन पद्यतियाँ, बोलियाँ, भाषाएँ, धर्म, सम्प्रदाय और आर्थिक व सामाजिक विषमताएँ। सब को संतुष्ट रखते हुए इसे विकास पथ पर ले चलना मेंढकों को तराजू में तौलने से भी सहस्तर गुना भीषण काम था। सब से पहली चुनौती तो थी पूरे भारतवर्ष के बड़े खंडों को एक रख पाना, एक विधान के साथ राज चलाना। पर उसे कर लिया गया। बस एक रियासत को विशेष दर्जा देना पड़ा। यह विशेष दर्जा देना ही भारतवर्ष के लिए माइग्रेन बन गया। जैसे माइग्रेन का कोई स्थाई इलाज नहीं, इस समस्या का भी कोई इलाज नहीं। बस यह करते रहो कि जब दर्द हो तब गोली खा लो, पानी पी लो और सो जाओ। दर्द सहन नही हो तो किसी ओझा-मोझा, बाबा-शाबा की शरण ले लो। अब मैं जनतंतर और चुनाव की बात पर आता हूँ। विधान के अनुसार बहुत सारे बड़े खंड बनाए थे। कुछ बाद में बन गए। इन खंडों पर खंड सरकारें राज करती हैं। भारत वर्ष इन खंडो का संघ हुआ। संघ की एक सरकार हुई। संघ को चलाने के लिए एक महापंचायत बनाई गई। इस महापंचायत के दो हिस्से हुए। ऊपर का हिस्सा खंड सभा हुआ हर खंड की आबादी के अनुपात में इस में पंच चुन कर भेजे जाते हैं। एक महासभा हुआ जिस में भारतवर्ष में आबादी के अनुपात में अनेक खेतों में बांट दिया गया है। हर खेत से एक सदस्य निचले सदन में जाता है। यह महासभा कैसे सरकार बनाती है यह मैं कल बता ही चुका हूँ।
हे, पाठक!
आज कल भारतवर्ष में इन खेतों से पंचों का चुनाव किए जाने का समय चल रहा है। बहुत ही पवित्र वेला है। वैसी ही जैसी महाभारत के पहले थी। जैसे दुर्योधन और युधिष्ठिर ने अपनी अपनी पार्टी की ओर से लड़ने को संपूर्ण भरत खंड के राजाओं और योद्धाओं को अपनी अपनी ओर मिलाया था। वैसा ही कुछ अब हो रहा है। लेकिन बहुत सारा अंतर भी है। वहाँ युद्ध दो पार्टियों में था और सारे योद्धा दो भागों में स्पष्ट रूप से बंट गए थे। यहाँ दो से अधिक पार्टियाँ हैं। योद्धा भी अनेक हैं। लेकिन अभी स्पष्ट नहीं है कि कितनी पार्टियाँ हैं? यह भी स्पष्ट नहीं है कि कौन किस ओर है? युद्ध के प्रारंभ तक कौन किस ओर रहेगा? यह भी स्पष्ट नहीं है कि युद्ध की समाप्ति पर कौन किस ओर रहेगा? सब से अनोखी बात तो यह है कि कोई भी पार्टी ऐसी दिखाई नहीं पड़ रही है कि वह युद्ध जीत ले और राज संभाले।
हे, पाठक!
यह युद्ध एक बात में महाभारत से अलग है। वहाँ युद्ध की तारीख तय नहीं थी। यहाँ युद्ध की तारीखें तय हैं कि किस-किस खेत में युद्ध कब-कब होगा? युद्ध सुबह से शाम तक कितने घंटे का होगा? सब कुछ तय है। खेतों में युद्ध समाप्त होने पर उस का नतीजा सारे युद्धों की समाप्ति तक गोपनीय रहेगा। फिर एक साथ नतीजे बताए जाएंगे। युद्ध के नतीजे आने के बाद ही यह तय हो पाएगा कि किस किस पार्टी ने कितने कितने खेत जीते। जिस के पास सब से ज्यादा खेत होंगे वही राज संभालेगा? युद्ध के नियम तय कर दिए गए हैं। युद्ध की आचार संहिता बना दी गई है। जो भी आचार संहिता को तोड़ेगा उसे सजा दी जाएगी। लेकिन वाह रे जनतंतर तेरी महिमा! आचार संहिता तोड़ने वाले को युद्ध से वंचित नहीं किया जाएगा। वह जेल जा सकता है, पर वहाँ से भी युद्ध में शामिल रह सकता है। कई योद्धा तो ऐसे हैं कि बाहर रह कर जितना घमासान युद्ध कर सकते हैं उस से कहीं अधिक घमासान जेल में जा कर कर सकते हैं।
हे, पाठक!
जनता को भी पता है कि किसी एक पार्टी के योद्धा आधे से अधिक खेत नहीं जीत पाएंगे। पार्टियों के गुटों के योद्धा भी आधे से अधिक खेत नहीं जीत पाएंगे। फिर भी राज चलाने का निर्णय तो होगा ही। फिर जिन पार्टियों के योद्धा अधिक खेत जीतेंगे वे छोटी पार्टियों के योद्धाओं को अपने साथ लाने के लिए जुगाड़ करेंगी। तब कहीं जा कर तय होगा कि राज कौन संभालेगा? पर वह सब बाद की बातें हैं। तुम बोर हो रहे होंगे कि क्या गणित की कक्षा जैसी बोर कथा सुना डाली। पर यह जरूरी था। गणित में जो चतुर होगा वही इस चुनाव युद्ध में पार पा सकेगा।
अब समय हो चला है, इस लिए व्यथा-कथा को आज यहीं विराम ।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
जब भरतखंड के टुकड़े कर के परदेसी बनिया चलता बना तो बड़ा टुकड़ा मिला उसे भरतखंड कैसे कहते सो इस का नाम रखा भारतवर्ष। यह भारतवर्ष भी बहुत ही विवधताओं का देश बना। अनेक प्रकार की संस्कृतियाँ, जीवन पद्यतियाँ, बोलियाँ, भाषाएँ, धर्म, सम्प्रदाय और आर्थिक व सामाजिक विषमताएँ। सब को संतुष्ट रखते हुए इसे विकास पथ पर ले चलना मेंढकों को तराजू में तौलने से भी सहस्तर गुना भीषण काम था। सब से पहली चुनौती तो थी पूरे भारतवर्ष के बड़े खंडों को एक रख पाना, एक विधान के साथ राज चलाना। पर उसे कर लिया गया। बस एक रियासत को विशेष दर्जा देना पड़ा। यह विशेष दर्जा देना ही भारतवर्ष के लिए माइग्रेन बन गया। जैसे माइग्रेन का कोई स्थाई इलाज नहीं, इस समस्या का भी कोई इलाज नहीं। बस यह करते रहो कि जब दर्द हो तब गोली खा लो, पानी पी लो और सो जाओ। दर्द सहन नही हो तो किसी ओझा-मोझा, बाबा-शाबा की शरण ले लो। अब मैं जनतंतर और चुनाव की बात पर आता हूँ। विधान के अनुसार बहुत सारे बड़े खंड बनाए थे। कुछ बाद में बन गए। इन खंडों पर खंड सरकारें राज करती हैं। भारत वर्ष इन खंडो का संघ हुआ। संघ की एक सरकार हुई। संघ को चलाने के लिए एक महापंचायत बनाई गई। इस महापंचायत के दो हिस्से हुए। ऊपर का हिस्सा खंड सभा हुआ हर खंड की आबादी के अनुपात में इस में पंच चुन कर भेजे जाते हैं। एक महासभा हुआ जिस में भारतवर्ष में आबादी के अनुपात में अनेक खेतों में बांट दिया गया है। हर खेत से एक सदस्य निचले सदन में जाता है। यह महासभा कैसे सरकार बनाती है यह मैं कल बता ही चुका हूँ।
हे, पाठक!
आज कल भारतवर्ष में इन खेतों से पंचों का चुनाव किए जाने का समय चल रहा है। बहुत ही पवित्र वेला है। वैसी ही जैसी महाभारत के पहले थी। जैसे दुर्योधन और युधिष्ठिर ने अपनी अपनी पार्टी की ओर से लड़ने को संपूर्ण भरत खंड के राजाओं और योद्धाओं को अपनी अपनी ओर मिलाया था। वैसा ही कुछ अब हो रहा है। लेकिन बहुत सारा अंतर भी है। वहाँ युद्ध दो पार्टियों में था और सारे योद्धा दो भागों में स्पष्ट रूप से बंट गए थे। यहाँ दो से अधिक पार्टियाँ हैं। योद्धा भी अनेक हैं। लेकिन अभी स्पष्ट नहीं है कि कितनी पार्टियाँ हैं? यह भी स्पष्ट नहीं है कि कौन किस ओर है? युद्ध के प्रारंभ तक कौन किस ओर रहेगा? यह भी स्पष्ट नहीं है कि युद्ध की समाप्ति पर कौन किस ओर रहेगा? सब से अनोखी बात तो यह है कि कोई भी पार्टी ऐसी दिखाई नहीं पड़ रही है कि वह युद्ध जीत ले और राज संभाले।
हे, पाठक!
यह युद्ध एक बात में महाभारत से अलग है। वहाँ युद्ध की तारीख तय नहीं थी। यहाँ युद्ध की तारीखें तय हैं कि किस-किस खेत में युद्ध कब-कब होगा? युद्ध सुबह से शाम तक कितने घंटे का होगा? सब कुछ तय है। खेतों में युद्ध समाप्त होने पर उस का नतीजा सारे युद्धों की समाप्ति तक गोपनीय रहेगा। फिर एक साथ नतीजे बताए जाएंगे। युद्ध के नतीजे आने के बाद ही यह तय हो पाएगा कि किस किस पार्टी ने कितने कितने खेत जीते। जिस के पास सब से ज्यादा खेत होंगे वही राज संभालेगा? युद्ध के नियम तय कर दिए गए हैं। युद्ध की आचार संहिता बना दी गई है। जो भी आचार संहिता को तोड़ेगा उसे सजा दी जाएगी। लेकिन वाह रे जनतंतर तेरी महिमा! आचार संहिता तोड़ने वाले को युद्ध से वंचित नहीं किया जाएगा। वह जेल जा सकता है, पर वहाँ से भी युद्ध में शामिल रह सकता है। कई योद्धा तो ऐसे हैं कि बाहर रह कर जितना घमासान युद्ध कर सकते हैं उस से कहीं अधिक घमासान जेल में जा कर कर सकते हैं।
हे, पाठक!
जनता को भी पता है कि किसी एक पार्टी के योद्धा आधे से अधिक खेत नहीं जीत पाएंगे। पार्टियों के गुटों के योद्धा भी आधे से अधिक खेत नहीं जीत पाएंगे। फिर भी राज चलाने का निर्णय तो होगा ही। फिर जिन पार्टियों के योद्धा अधिक खेत जीतेंगे वे छोटी पार्टियों के योद्धाओं को अपने साथ लाने के लिए जुगाड़ करेंगी। तब कहीं जा कर तय होगा कि राज कौन संभालेगा? पर वह सब बाद की बातें हैं। तुम बोर हो रहे होंगे कि क्या गणित की कक्षा जैसी बोर कथा सुना डाली। पर यह जरूरी था। गणित में जो चतुर होगा वही इस चुनाव युद्ध में पार पा सकेगा।
अब समय हो चला है, इस लिए व्यथा-कथा को आज यहीं विराम ।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
रविवार, 29 मार्च 2009
जनतन्तर-कथा (3) : खंडित भरतखंड में जनतंतर का जनम
हे! पाठक,
एक जमाना था, जब लिखने और पढ़ने का रिवाज नहीं था। उस जमाने में लोग कथाएँ कण्ठस्थ कर लिया करते थे और सभाओं में सुनाया करते थे। एक पुराणिक कथा-ज्ञानी सूत जी महाराज नैमिषारण्य में रहा करते थे और उन से कथाएँ सुनने के लिए शौनक आदि ऋषि-मुनि वहाँ जाया करते थे। लेकिन जब से लिखना-पढ़ना शुरु हुआ तब से नैमिषारण्य जाने की आवश्यकता समाप्त हो गई और कुछ लोगों ने इन कथाओं की अनेक प्रतियाँ बना ली। जिस जिस के भी पल्ले यह कथा पुस्तकें पड़ी वही व्यास नामधारी हो कर गांव-गांव, नगर-नगर जा-जा कर यह कथाएँ पढने लगा। अब जब से इंटरनेट आ गया है तब से तो कथाओं को पढ़ने-सुनने की जरूरत ही नहीं रह गई है। अब तो कथाएँ इंटरनेट पर आ रही हैं और लोग उन्हें पढ़ रहे हैं। हम ने तो अपनी इस चुनाव व्यथा-कथा का शुभारंभ इंटरनेट से ही किया है। दो ही दिनों में इस की ख्याति गौड़ प्रदेश तक जा पहुँची। इस प्रदेश के शिव कुमार मिश्र नामक एक पाठक ने टिप्पणी लिखी है उसे आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत करते हैं ....
तुम यह मत सोच बैठना कि इस अभिनव कथावाचक ने दो अध्याय तो पढ़े नहीं है और अभी से अपने प्रशंसकों के उद्धरण हमें बताने लगा। पर इस चैनल-नेट के युग में जो अपने मुहँ मियाँ मिट्ठू बन के रहा वह परसिद्ध हो जाय। हमें भी पहले यह कला नहीं आती थी, इस कारण से वकालत का पेशा फेल होते होते रह गया। लोगों को पता ही नहीं लगता था कि हम कितने तुर्रम खाँ हैं। जब से हमने यह कला सीखी है हमारे पौ-बारह हैं। ढाई बरस में पूरे पाँच सेमेस्टर इस कला का अध्ययन किया और फिर छह मास तक एक टीवी चैनल में ट्रेनिंग और प्रोजेक्ट किया तब जा कर यह कला हासिल कर पाए हैं। लेकिन फिर भी हम जानते हैं कि इस कला के श्रेष्ठतम कलाकार वहाँ नहीं हैं। वे जहाँ हैं उस की कथा हम आप को बताएंगे। यह मत सोचना कि जनतंतर की कथा को हमने बिसार दिया है। असलियत तो यह है कि इस कला के सारे धुरंधर जनतंतर के कर्मक्षेत्र में विराजते हैं और आज कल युद्ध-क्षेत्र में ड़टे हुए हैं। उधर तीर्थश्रेष्ठ प्रयाग के ज्ञानदत्त पाण्डे नामक एक पाठक ने जानना चाहा है कि धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र में वायरस और बैक्टीरिया क्या कर रहे हैं? हम उन की इस जिज्ञासा को जरूर शांत करेंगे। लेकिन उस के पहले जरूरी है कि जनतंतर की कुछ जनमपत्री बाँच ली जाए।
हे! पाठक,
पुराने जमाने में शासक राजा हुआ करते थे जो अपनी मरजी के मुताबिक शासन किया करते थे। जब लोग दुखी हो जाते थे तो किसी दूसरे राजा के यहाँ चले जाते थे और अपने ही राजा पर हमला करवा कर उसे उखाड़ फैंकते थे। इस तरह राजा उखाड़ खेल भरतखंड में लोकप्रिय हो गया। राजा आपस में एक दूसरे को उखाड़ फेंकने का खेल खेलने में व्यस्त रहने लगे। जनता दुखी होने के साथ साथ परेशान भी रहने लगी। तब भरत खंड के बाहर से योद्धा आने लगे और यहाँ खेल में व्यस्त राजाओं को उखाड़ कर खुद शासक बन बैठे। पर भरतखंड का तो यह रिवाज रहा है कि जो यहाँ आएगा यहाँ के रीतिरिवाजों को अपना लेगा। नतीजतन पुराने राजा और नए नवाब आपस में ये उखाड़ू खेल खेलने लगे। अब की बार इस खेल में कोई शासक नहीं आया। बल्कि कुछ परदेसी बनिए आए, पहले खेल में सहायक बने फिर सिद्धहस्त हो कर सारे भरतखंड को अपने कब्जे में ले लिया।
हे! पाठक,
इन परदेसी बनियों से जनता सौ-दोसौ बरस में ही दुखी हो गई। अब की बार जनता ही नहीं पुराने राजा-नवाब और देसी बनिए सभी दुखी हो चले थे। पर छूटने का कोई रास्ता नहीं था। पुराने राजाओं-नवाबों ने एक कोशिश तो की थी पर वे कमजोर पड़ कर पिट गए। इस पिटाई से लोग जान गए थे कि अकेले-अकेले काम नहीं चलने का। इस बार लोगों ने यानी पुराने राजों -नवाबों, देसी बनियों और जनता यानी किरसाणों-मजूरों ने मिल के फैसला कर लिया कि लोहा साथ साथ लेंगे और लेने भी लगे। लोहा लेते-लेते एक गड़बड़ शुरू हो गई। लोग सोचने लगे कि इन बनियों को तो हम भरतखंड से निकाल तो फैंकेंगे। पर राज कौन करेगा? राजा-नवाब बोले- यह तो कोई सवाल ही नहीं है। राज तो हम करते थे हम ही करेंगे। देसी बनिये और किरसाण-मजूर कहने लगे हम फोकट में काहे लोहा लें जी, हम जाते अपने-अपने गाम। मीटिंगे होने लगीं, फिर तय. हुआ कि मिलजुल कर राज करेंगे। सब राजी हो गए। लोहा लिया गया। उन्हीं दिनों परदेसी बनिए थोडे़ कमजोर पड़ गए। देखा अब चुपचाप खिसकने में ही भलाई है। कहने लगे- हम चले तो जाएंगे, पर यहाँ दाढ़ी-चोटी वालों में रोज मारकाट होगी, पहले उस का इलाज सोचो। अब लोहा लेने वाले सोच में पड़ गए। सब जानते थे कि मारकाट तो होती है, रोज होती है। पर वे जानते नहीं थे कि मारकाट कौन कराता है? सोच में पड़ जाने से लोहा लेने की लड़ाई कमजोर पड़ी तो देसी बनियों ने सोचा कि ये हाथ में आती कमान खिसकी। इस बीच परदेसी बनियों ने मजबूती पकड़ ली। उन ने आपस में फैसला कर लिया कि बाजार को बांट लो तो इस का हल निकल आएगा। उधर दाढ़ी वाले बनिए बणिज करेंगे इधर चोटी वाले बनिये । बस फिर क्या था। बाजार को बांट कर परदेसी बनिए भरतखंड से निकल लिये।
हे! पाठक,
परदेसी तो निकल लिए पर इधर खंडित भरतखंड को संभालने को महा पंचायत बैठा गए जो तय करने लगी कि राज कैसे चलेगा। बस वहीं तय हुआ कि भरत खंड के खंड-खंड से एक एक पंच चुना जाएगा फिर वे बहुमत से नेता चुनेंगे, नेता मंतरी चुनेगा और मंतरियों की सहायता से राज करेगा। बड़ा चक्कर पड़ा उस काल। बस एक नेता राज करेगा खंडित भरत खंड पर? तो यह हुआ, भरत खंड कुछ और बड़े खंड होंगे जिन पर खण्ड-खण्ड से पंच चुनेंगे जो एक-एक नेता चुनेंगे, नेता मंतरी चुनेगा और उन की सहायता से बड़े खंडों पर राज करेगा। एक और बखेडा़ था। जनता कैसे पंच चुनेगी? तो यह भी तय हो गया कि इस के लिए वोट डाले जाएँगे। इस तरह इस नयी व्यवस्था को जनतंतर कहा गया। तब से वोट की प्रथा प्रचलित हो गई। हर पाँच बरस में वोट समारोह यानी चुनाव होने लगा।
हे! पाठक,
आज हमने आप को जनतंतर, चुनाव और वोट का महात्म्य बताया। इन सब में वोट ही जनतंतर का मूल मंतर हो गया है। हर कोई वोट चाहता है। इस जनतंतर में जन को सब भूल चुके हैं और जन का वोट ही सब कुछ हो गया है। बस पाँच बरस में एक बार जो किसी भाँति जन के वोटों को हथिया लेता है, जन पाँच बरस तक उस का गुलाम हो जाता है। जो वोट के बल पर नेता चुना जाता है वही पाँच बरस तक जन का कुछ भी कर सकता है। चाहे तो उसे घाणी में पेल कर तेल निकाल सकता है। निकाल सकता क्या है? निकाल ही रहा है। आज फिर समय हो चला है, कल गणगौर है, हमारी बींदणी ने मेहंदी लगाई है, अभी गीली है। हम टिपिया रहे हैं। वह टीवी और बेडरूम की लाइट बंद करने को बुला रही है हमारे जाने की घड़ी आ चुकी है।
हम आज की कथा को यहीं विराम देते हैं।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
एक जमाना था, जब लिखने और पढ़ने का रिवाज नहीं था। उस जमाने में लोग कथाएँ कण्ठस्थ कर लिया करते थे और सभाओं में सुनाया करते थे। एक पुराणिक कथा-ज्ञानी सूत जी महाराज नैमिषारण्य में रहा करते थे और उन से कथाएँ सुनने के लिए शौनक आदि ऋषि-मुनि वहाँ जाया करते थे। लेकिन जब से लिखना-पढ़ना शुरु हुआ तब से नैमिषारण्य जाने की आवश्यकता समाप्त हो गई और कुछ लोगों ने इन कथाओं की अनेक प्रतियाँ बना ली। जिस जिस के भी पल्ले यह कथा पुस्तकें पड़ी वही व्यास नामधारी हो कर गांव-गांव, नगर-नगर जा-जा कर यह कथाएँ पढने लगा। अब जब से इंटरनेट आ गया है तब से तो कथाओं को पढ़ने-सुनने की जरूरत ही नहीं रह गई है। अब तो कथाएँ इंटरनेट पर आ रही हैं और लोग उन्हें पढ़ रहे हैं। हम ने तो अपनी इस चुनाव व्यथा-कथा का शुभारंभ इंटरनेट से ही किया है। दो ही दिनों में इस की ख्याति गौड़ प्रदेश तक जा पहुँची। इस प्रदेश के शिव कुमार मिश्र नामक एक पाठक ने टिप्पणी लिखी है उसे आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत करते हैं ....
हे कथावाचक,
जनतंतर-मनतंतर की जन्म-जन्मान्तर, युग-युगांतर कथा हमें बहुत सोहायी। सो, हे कथावाचक श्रेष्ठ, हम आगे की कथा की प्रतीक्षा में बैठे हैं.। आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है जनतंतर अनंत जनतंतर कथा अनंता। अतः हे वाचकश्रेष्ठ, आप पुनः आईये और आगे की कथा सुनाईये....:-)
हम यह जानने के लिए व्याकुल हैं कि वैक्टीरिया ने ज्यादा काट-काट मचाई या वायरस ने?हे! पाठक,
तुम यह मत सोच बैठना कि इस अभिनव कथावाचक ने दो अध्याय तो पढ़े नहीं है और अभी से अपने प्रशंसकों के उद्धरण हमें बताने लगा। पर इस चैनल-नेट के युग में जो अपने मुहँ मियाँ मिट्ठू बन के रहा वह परसिद्ध हो जाय। हमें भी पहले यह कला नहीं आती थी, इस कारण से वकालत का पेशा फेल होते होते रह गया। लोगों को पता ही नहीं लगता था कि हम कितने तुर्रम खाँ हैं। जब से हमने यह कला सीखी है हमारे पौ-बारह हैं। ढाई बरस में पूरे पाँच सेमेस्टर इस कला का अध्ययन किया और फिर छह मास तक एक टीवी चैनल में ट्रेनिंग और प्रोजेक्ट किया तब जा कर यह कला हासिल कर पाए हैं। लेकिन फिर भी हम जानते हैं कि इस कला के श्रेष्ठतम कलाकार वहाँ नहीं हैं। वे जहाँ हैं उस की कथा हम आप को बताएंगे। यह मत सोचना कि जनतंतर की कथा को हमने बिसार दिया है। असलियत तो यह है कि इस कला के सारे धुरंधर जनतंतर के कर्मक्षेत्र में विराजते हैं और आज कल युद्ध-क्षेत्र में ड़टे हुए हैं। उधर तीर्थश्रेष्ठ प्रयाग के ज्ञानदत्त पाण्डे नामक एक पाठक ने जानना चाहा है कि धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र में वायरस और बैक्टीरिया क्या कर रहे हैं? हम उन की इस जिज्ञासा को जरूर शांत करेंगे। लेकिन उस के पहले जरूरी है कि जनतंतर की कुछ जनमपत्री बाँच ली जाए।
हे! पाठक,
पुराने जमाने में शासक राजा हुआ करते थे जो अपनी मरजी के मुताबिक शासन किया करते थे। जब लोग दुखी हो जाते थे तो किसी दूसरे राजा के यहाँ चले जाते थे और अपने ही राजा पर हमला करवा कर उसे उखाड़ फैंकते थे। इस तरह राजा उखाड़ खेल भरतखंड में लोकप्रिय हो गया। राजा आपस में एक दूसरे को उखाड़ फेंकने का खेल खेलने में व्यस्त रहने लगे। जनता दुखी होने के साथ साथ परेशान भी रहने लगी। तब भरत खंड के बाहर से योद्धा आने लगे और यहाँ खेल में व्यस्त राजाओं को उखाड़ कर खुद शासक बन बैठे। पर भरतखंड का तो यह रिवाज रहा है कि जो यहाँ आएगा यहाँ के रीतिरिवाजों को अपना लेगा। नतीजतन पुराने राजा और नए नवाब आपस में ये उखाड़ू खेल खेलने लगे। अब की बार इस खेल में कोई शासक नहीं आया। बल्कि कुछ परदेसी बनिए आए, पहले खेल में सहायक बने फिर सिद्धहस्त हो कर सारे भरतखंड को अपने कब्जे में ले लिया।
हे! पाठक,
इन परदेसी बनियों से जनता सौ-दोसौ बरस में ही दुखी हो गई। अब की बार जनता ही नहीं पुराने राजा-नवाब और देसी बनिए सभी दुखी हो चले थे। पर छूटने का कोई रास्ता नहीं था। पुराने राजाओं-नवाबों ने एक कोशिश तो की थी पर वे कमजोर पड़ कर पिट गए। इस पिटाई से लोग जान गए थे कि अकेले-अकेले काम नहीं चलने का। इस बार लोगों ने यानी पुराने राजों -नवाबों, देसी बनियों और जनता यानी किरसाणों-मजूरों ने मिल के फैसला कर लिया कि लोहा साथ साथ लेंगे और लेने भी लगे। लोहा लेते-लेते एक गड़बड़ शुरू हो गई। लोग सोचने लगे कि इन बनियों को तो हम भरतखंड से निकाल तो फैंकेंगे। पर राज कौन करेगा? राजा-नवाब बोले- यह तो कोई सवाल ही नहीं है। राज तो हम करते थे हम ही करेंगे। देसी बनिये और किरसाण-मजूर कहने लगे हम फोकट में काहे लोहा लें जी, हम जाते अपने-अपने गाम। मीटिंगे होने लगीं, फिर तय. हुआ कि मिलजुल कर राज करेंगे। सब राजी हो गए। लोहा लिया गया। उन्हीं दिनों परदेसी बनिए थोडे़ कमजोर पड़ गए। देखा अब चुपचाप खिसकने में ही भलाई है। कहने लगे- हम चले तो जाएंगे, पर यहाँ दाढ़ी-चोटी वालों में रोज मारकाट होगी, पहले उस का इलाज सोचो। अब लोहा लेने वाले सोच में पड़ गए। सब जानते थे कि मारकाट तो होती है, रोज होती है। पर वे जानते नहीं थे कि मारकाट कौन कराता है? सोच में पड़ जाने से लोहा लेने की लड़ाई कमजोर पड़ी तो देसी बनियों ने सोचा कि ये हाथ में आती कमान खिसकी। इस बीच परदेसी बनियों ने मजबूती पकड़ ली। उन ने आपस में फैसला कर लिया कि बाजार को बांट लो तो इस का हल निकल आएगा। उधर दाढ़ी वाले बनिए बणिज करेंगे इधर चोटी वाले बनिये । बस फिर क्या था। बाजार को बांट कर परदेसी बनिए भरतखंड से निकल लिये।
हे! पाठक,
परदेसी तो निकल लिए पर इधर खंडित भरतखंड को संभालने को महा पंचायत बैठा गए जो तय करने लगी कि राज कैसे चलेगा। बस वहीं तय हुआ कि भरत खंड के खंड-खंड से एक एक पंच चुना जाएगा फिर वे बहुमत से नेता चुनेंगे, नेता मंतरी चुनेगा और मंतरियों की सहायता से राज करेगा। बड़ा चक्कर पड़ा उस काल। बस एक नेता राज करेगा खंडित भरत खंड पर? तो यह हुआ, भरत खंड कुछ और बड़े खंड होंगे जिन पर खण्ड-खण्ड से पंच चुनेंगे जो एक-एक नेता चुनेंगे, नेता मंतरी चुनेगा और उन की सहायता से बड़े खंडों पर राज करेगा। एक और बखेडा़ था। जनता कैसे पंच चुनेगी? तो यह भी तय हो गया कि इस के लिए वोट डाले जाएँगे। इस तरह इस नयी व्यवस्था को जनतंतर कहा गया। तब से वोट की प्रथा प्रचलित हो गई। हर पाँच बरस में वोट समारोह यानी चुनाव होने लगा।
हे! पाठक,
आज हमने आप को जनतंतर, चुनाव और वोट का महात्म्य बताया। इन सब में वोट ही जनतंतर का मूल मंतर हो गया है। हर कोई वोट चाहता है। इस जनतंतर में जन को सब भूल चुके हैं और जन का वोट ही सब कुछ हो गया है। बस पाँच बरस में एक बार जो किसी भाँति जन के वोटों को हथिया लेता है, जन पाँच बरस तक उस का गुलाम हो जाता है। जो वोट के बल पर नेता चुना जाता है वही पाँच बरस तक जन का कुछ भी कर सकता है। चाहे तो उसे घाणी में पेल कर तेल निकाल सकता है। निकाल सकता क्या है? निकाल ही रहा है। आज फिर समय हो चला है, कल गणगौर है, हमारी बींदणी ने मेहंदी लगाई है, अभी गीली है। हम टिपिया रहे हैं। वह टीवी और बेडरूम की लाइट बंद करने को बुला रही है हमारे जाने की घड़ी आ चुकी है।
हम आज की कथा को यहीं विराम देते हैं।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
शुक्रवार, 27 मार्च 2009
जनतन्तर-कथा (2) : जनतन्तर-जनतन्तर का खेल देखें
हे, पाठक!
अगले दिन जब अखबार देखा तो पता लगा वाकई प्रान्त के भूतपूर्व और वर्तमान मुख्यमंतरी नगर में पधारे थे, एक वायरस पार्टी का तो दूसरा बैक्टीरिया पार्टी का। बैक्टीरिया पार्टी वाला कह रहा था कि वायरस पार्टी की सरकार में भ्रष्टाचार चरम पर था। उस को को फिजूलखर्ची बहुत सुहाती थी सरकार के स्तर पर भी और व्यक्तिगत स्तर पर भी। नतीजा हुआ कि भ्रष्टाचार चरम पर पहुँच गया। वायरस पार्टी के लोग ही अपनी सरकार पर पाँच हजार करोड़ का घोटाला करने के आरोप लगाते रहे। वायरस मुख्यमंतरी ने अपने चुनाव क्षेत्र के नगर में कंक्रीट की सड़कें बिछा कर विकास किया, जिस से हर गली में वायरस की कार को जाने में परेशानी न हो। लेकिन सड़कों के किनारे बनी नालियाँ सड़ती रहीं। वायरस मुख्यमंतरी प्रान्त भर में अपने बड़े-बड़े मुस्कुराते चित्रों के बच्चे को रोज एक गिलास दूध पिलाने की हिमायत करता रहा, लेकिन दारू की दुकानें इतनी खोल दीं कि पिताओं का पैसा दारू में चला गया, बच्चे का दूध कहाँ से आता? बैक्टीरिया पार्टी का ताजा मुख्य मंतरी पार्टी के प्रान्तीय अध्यक्ष को भी साथ लाया था जिस के चेहरे पर मात्र एक वोट से हार जाने की मायूसी पसरी थी। दोनों ने पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक की। अभी तक वे क्षेत्र से पार्टी का उम्मीदवार तय नहीं कर पाए थे, इस लिए घोषणा नहीं कर सकते थे। वे कार्यकर्ताओं को परख रहे थे कि किस उम्मीदवार के साथ वे सब खड़े हो सकेंगे?
हे, पाठक!
आज कल इन पार्टी वालों को एक अजीब संकट है। पार्टी जिसे अपना उम्मीदवार बनाती है, वह कुछ को पसंद आता है, ज्यादातर को नहीं। कार्यकर्ता को जिस समय उम्मीदवार का प्रचार करना होता है, उसे उसी वक्त उम्मीदवारी का विरोध करने में श्रम करना होता है। धीरे-धीरे जब गुस्सा शांत होता है, तो वे पार्टी का झंडा तो अपने घर-द्वार पर लटका देते हैं पर मन में निमोलियाँ फूटती रहती हैं। दिखाने को उम्मीदवार के काफिले में भी चलते हैं, लेकिन मन ही मन सोच रहे होते हैं कि यह हार जाए तो संकट टले। अब की बार अपने गुरू का नंबर लगे। इस संकट से बचने को बैक्टीरिया पार्टी ने नई तरकीब अपनाई। उस ने पहले कार्यकर्ताओं को प्रचार में झोंक दिया, अब उम्मीदवार की तलाश जारी है।
हे, पाठक!
वायरस पार्टी ने उम्मीदवार की घोषणा में बाजी मार ली। सरकारी दफ्तर से बिलकुल नया उम्मीदवार पकड़ निकाला। देखो! हम कैसा सुंदर उम्मीदवार आप के लिए लाए हैं। अब तक राजनीति से बिलकुल अछूता, भ्रष्ट करने वाला दाग नहीं; जैसे पार्टी उम्मीदवार के प्रचार के स्थान पर सेब बेच रही हो। यह भ्रष्ट हो ही नहीं सकता, राजनीति में था ही नहीं। पर आप सोच सकते हैं कि सरकारी दफ्तर का इंजिनियर अफसर हो, और लोगों को विश्वास हो जाए कि वह भ्रष्ट नहीं रहा होगा, यह संभव ही नहीं है। आप ही बताइए, वेश्याओं के मुहल्ले से आई किसी खूबसूरत औरत पर, जो नाज-नखरे दिखा-दिखा कर आप को रिझा रही हो, क्या कोई यह विश्वास कर सकता है क्या कि वह आप के साथ सातों वचन निभाएगी? वायरस मुख्यमंतरी अपनी पार्टी के बेदाग सेब जैसे उम्मीदवार के भव्य चुनाव कार्यालय का उद्घाटन करने पहुँचा। उद्घाटन के ठीक पहले बिजली चली गई, अंधेरा छा गया। बैक्टीरिया की नई सरकार पर षड़यंत्र कर के बिजली गुल करने के आरोप लगाए जाने लगे। बैठे बिठाए मुद्दा मिल गया। इंतजार होने लगा कि बिजली आ जाए। कोई-कोई इसे अपशगुन भी कहने लगा। पर पण्डित जी बोले मुहूर्त निकला जा रहा है। वायरस मुख्यमंतरी ने अंधेरे में ही फीता काट दिया।
हे, पाठक!
यह नमूना है, उस तंत्र का जिसे जनतन्तर कहते हैं, लेकिन जो जनतन्तर है नहीं। जनतन्तर होता तो पार्टी में मेंबर बनाने की कुछ तो योग्यता होती, कुछ तो दायित्व होते? पर यहाँ तो कुछ भी नहीं। कोई आया और फारम भर गया, मेंबर हो गया। फारम भी दिखाने को भरने पड़ते हैं जिस से मेंबरशिप दिखा सकें। मेंबर को उस के बाद कोई पूछता तक नहीं, नगर पालिका मेंबर की उम्मीदवारी किसे दें यह तक उस से पूछा नहीं जाता। सब कुछ ऊपर बैठे टॉप वायरस-बैक्टीरिया ही तय कर लिया करते हैं, बरसों के मेंबर झाँकते रह जाते हैं। बिना मेंबर बने ही सेब-नाशपाती को टिकट मिल जाता है। असली जनतन्तर तो अभी सात समुंदर पार दिखता है, जहाँ पार्टी की उम्मीदवारी के लिए पहले पार्टी में काम करना पड़ता है और फिर मेंबरों के वोट तय करते हैं कि कौन उम्मीदवार होगा? जैसे बालक घर में टीचर-स्टूडेंट का खेल खेलते हैं, वैसे ही भारतवर्ष के बालिग लोग जनतंतर-जनतंतर खेल रहे हैं।
हे पाठक!
कुछ दिन यह जनतंतर-जनतंतर का खेल खेला जाएगा। इस में जनता को वोट देने को भी कहा जाएगा। लेकिन जनता किसे वोट दे? एक तरफ बैक्टीरिया तो दूसरी तरफ वायरस। ये दोनों रहेंगे तो हरारत भी होगी और बुखार भी झेलना पड़ेगा।
समय हो चला है, आज की कथा को यहीं विराम।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
अगले दिन जब अखबार देखा तो पता लगा वाकई प्रान्त के भूतपूर्व और वर्तमान मुख्यमंतरी नगर में पधारे थे, एक वायरस पार्टी का तो दूसरा बैक्टीरिया पार्टी का। बैक्टीरिया पार्टी वाला कह रहा था कि वायरस पार्टी की सरकार में भ्रष्टाचार चरम पर था। उस को को फिजूलखर्ची बहुत सुहाती थी सरकार के स्तर पर भी और व्यक्तिगत स्तर पर भी। नतीजा हुआ कि भ्रष्टाचार चरम पर पहुँच गया। वायरस पार्टी के लोग ही अपनी सरकार पर पाँच हजार करोड़ का घोटाला करने के आरोप लगाते रहे। वायरस मुख्यमंतरी ने अपने चुनाव क्षेत्र के नगर में कंक्रीट की सड़कें बिछा कर विकास किया, जिस से हर गली में वायरस की कार को जाने में परेशानी न हो। लेकिन सड़कों के किनारे बनी नालियाँ सड़ती रहीं। वायरस मुख्यमंतरी प्रान्त भर में अपने बड़े-बड़े मुस्कुराते चित्रों के बच्चे को रोज एक गिलास दूध पिलाने की हिमायत करता रहा, लेकिन दारू की दुकानें इतनी खोल दीं कि पिताओं का पैसा दारू में चला गया, बच्चे का दूध कहाँ से आता? बैक्टीरिया पार्टी का ताजा मुख्य मंतरी पार्टी के प्रान्तीय अध्यक्ष को भी साथ लाया था जिस के चेहरे पर मात्र एक वोट से हार जाने की मायूसी पसरी थी। दोनों ने पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक की। अभी तक वे क्षेत्र से पार्टी का उम्मीदवार तय नहीं कर पाए थे, इस लिए घोषणा नहीं कर सकते थे। वे कार्यकर्ताओं को परख रहे थे कि किस उम्मीदवार के साथ वे सब खड़े हो सकेंगे?
हे, पाठक!
आज कल इन पार्टी वालों को एक अजीब संकट है। पार्टी जिसे अपना उम्मीदवार बनाती है, वह कुछ को पसंद आता है, ज्यादातर को नहीं। कार्यकर्ता को जिस समय उम्मीदवार का प्रचार करना होता है, उसे उसी वक्त उम्मीदवारी का विरोध करने में श्रम करना होता है। धीरे-धीरे जब गुस्सा शांत होता है, तो वे पार्टी का झंडा तो अपने घर-द्वार पर लटका देते हैं पर मन में निमोलियाँ फूटती रहती हैं। दिखाने को उम्मीदवार के काफिले में भी चलते हैं, लेकिन मन ही मन सोच रहे होते हैं कि यह हार जाए तो संकट टले। अब की बार अपने गुरू का नंबर लगे। इस संकट से बचने को बैक्टीरिया पार्टी ने नई तरकीब अपनाई। उस ने पहले कार्यकर्ताओं को प्रचार में झोंक दिया, अब उम्मीदवार की तलाश जारी है।
हे, पाठक!
वायरस पार्टी ने उम्मीदवार की घोषणा में बाजी मार ली। सरकारी दफ्तर से बिलकुल नया उम्मीदवार पकड़ निकाला। देखो! हम कैसा सुंदर उम्मीदवार आप के लिए लाए हैं। अब तक राजनीति से बिलकुल अछूता, भ्रष्ट करने वाला दाग नहीं; जैसे पार्टी उम्मीदवार के प्रचार के स्थान पर सेब बेच रही हो। यह भ्रष्ट हो ही नहीं सकता, राजनीति में था ही नहीं। पर आप सोच सकते हैं कि सरकारी दफ्तर का इंजिनियर अफसर हो, और लोगों को विश्वास हो जाए कि वह भ्रष्ट नहीं रहा होगा, यह संभव ही नहीं है। आप ही बताइए, वेश्याओं के मुहल्ले से आई किसी खूबसूरत औरत पर, जो नाज-नखरे दिखा-दिखा कर आप को रिझा रही हो, क्या कोई यह विश्वास कर सकता है क्या कि वह आप के साथ सातों वचन निभाएगी? वायरस मुख्यमंतरी अपनी पार्टी के बेदाग सेब जैसे उम्मीदवार के भव्य चुनाव कार्यालय का उद्घाटन करने पहुँचा। उद्घाटन के ठीक पहले बिजली चली गई, अंधेरा छा गया। बैक्टीरिया की नई सरकार पर षड़यंत्र कर के बिजली गुल करने के आरोप लगाए जाने लगे। बैठे बिठाए मुद्दा मिल गया। इंतजार होने लगा कि बिजली आ जाए। कोई-कोई इसे अपशगुन भी कहने लगा। पर पण्डित जी बोले मुहूर्त निकला जा रहा है। वायरस मुख्यमंतरी ने अंधेरे में ही फीता काट दिया।
हे, पाठक!
यह नमूना है, उस तंत्र का जिसे जनतन्तर कहते हैं, लेकिन जो जनतन्तर है नहीं। जनतन्तर होता तो पार्टी में मेंबर बनाने की कुछ तो योग्यता होती, कुछ तो दायित्व होते? पर यहाँ तो कुछ भी नहीं। कोई आया और फारम भर गया, मेंबर हो गया। फारम भी दिखाने को भरने पड़ते हैं जिस से मेंबरशिप दिखा सकें। मेंबर को उस के बाद कोई पूछता तक नहीं, नगर पालिका मेंबर की उम्मीदवारी किसे दें यह तक उस से पूछा नहीं जाता। सब कुछ ऊपर बैठे टॉप वायरस-बैक्टीरिया ही तय कर लिया करते हैं, बरसों के मेंबर झाँकते रह जाते हैं। बिना मेंबर बने ही सेब-नाशपाती को टिकट मिल जाता है। असली जनतन्तर तो अभी सात समुंदर पार दिखता है, जहाँ पार्टी की उम्मीदवारी के लिए पहले पार्टी में काम करना पड़ता है और फिर मेंबरों के वोट तय करते हैं कि कौन उम्मीदवार होगा? जैसे बालक घर में टीचर-स्टूडेंट का खेल खेलते हैं, वैसे ही भारतवर्ष के बालिग लोग जनतंतर-जनतंतर खेल रहे हैं।
हे पाठक!
कुछ दिन यह जनतंतर-जनतंतर का खेल खेला जाएगा। इस में जनता को वोट देने को भी कहा जाएगा। लेकिन जनता किसे वोट दे? एक तरफ बैक्टीरिया तो दूसरी तरफ वायरस। ये दोनों रहेंगे तो हरारत भी होगी और बुखार भी झेलना पड़ेगा।
समय हो चला है, आज की कथा को यहीं विराम।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
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