शब्दों के सफर वाले अजित वडनेरकर जी कोटा रह चुके हैं, और कोटा की कचौड़ियों के स्वाद से भली तरह परिचित हैं। मैं ने जब उन से भिलाई जाने का उल्लेख किया तो उन्हें तुरंत ही कचौड़ियाँ याद आ गईं। हमारी योजना सुबह बस से चल कर शाम को भोपाल से छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पकड़ने की थी। लेकिन अजित जी ने कहा कि बस के भोपाल पहुँचने और छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पकड़ने में दो ही घंटों का अंतराल है जो बहुत कम है। हमने योजना बदली और 27 जनवरी को सुबह निकलने के बजाय 26 की रात को ट्रेन से निकलने का मन बनाया और आरक्षण करवा लिया। अब हमारे पास भोपाल में आठ घंटे थे। अजित जी को बताया गया कि कचौड़ियाँ भोपाल पहुंचने की व्यवस्था हो गयी है, पर वहाँ आप तक कैसे पहुंचेगी? बोले, ट्रेन से उतर कर मेरे घर आ जाइए।
भोपाल में इतने कम अंतराल में अजित जी के घर जाने का अर्थ था किसी अन्य से न मिल पाना। वैसे भी हमारे पास चार बैग होने से कहीं आना जाना दूभर था। पर पल्लवी त्रिवेदी से मिलने की इच्छा थी, भोपाल जंक्शन के आस पास ही उन का ऑफिस होने से उन से मिल पाना संभव प्रतीत हो रहा था। पर पता लगा कि वे राजस्थान यात्रा पर हैं और उसी दिन भोपाल पहुंचेंगी। रवि रतलामी जी से मिल सकता था। पर वे भी दूर थे। अन्य के बारे में तो इस अल्प अंतराल में मिल पाने की सोचना भी संभव नहीं था। मैं ने किसी को बताया भी नहीं। मेरे साढ़ू भाई हॉकी रिकार्डों के संग्रहण के लिए विश्व प्रसिद्ध हॉकी स्क्राइब बी.जी. जोशी इस अंतराल में सीहोर उन के घर आने का निमंत्रण दे रहे थे। पर उन से माफी मांग ली गई, अजित जी के यहाँ जाना तय हो गया।
26 को यात्रा से निकलने के पहले अजित जी की कचौड़ियों के साथ साथ भिलाई तक ले जाने के लिए दौ पैकेट लोंग के सेव भी लाए गए। पता किया तो ट्रेन 22.30 के बजाय 23.30 पर आने वाली थी। हम 23.10 पर ही स्टेशन पहुँच गए। ट्रेन लेट होती गई और 27 जनवरी को 00.30 बजे उस ने प्लेटफार्म प्रवेश किया और एक बजे ही रवाना हो सकी। ट्रेन चलते ही हम सो लिए। आँख खुली तो सुबह हो चुकी थी और ट्रेन अशोक नगर स्टेशन पर खड़ी थी। कॉफी की याद आई, लेकिन पैसेन्जर ट्रेन में कहाँ कॉफी? बीना पहुँची तो सामने ही स्टाल पर कॉफी थी। उतर कर स्टॉल वाले से कॉफी देने को कहा तो बोला 10 मिनट बाद बिजली आने पर। मैं ने पूछा यहाँ पावर कट है? बताया गया कि बिजली 10 बजे आएगी। यानी भोपाल पहुंचने का समय हो चुका था। ट्रेन भोपाल पहुंचने तक वडनेरकर जी का दो बार फोन आ गया। स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही पल्लवी जी का खयाल आया। लेकिन घड़ी ने सब खयाल निकाल दिए। ऑटोरिक्षा की मदद से वडनेरकर जी के घर पहुंचे तो दो बज चुके थे। वापसी में मात्र चार घंटों का समय था।
सैकण्ड फ्लोर पर दो छोटे फ्लेट्स को मिला कर बनाया हुआ घर। एक दम साफ सुथरा और सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया हुआ। बरबस ही आत्मीयता प्रदर्शित करते छोटे-छोटे कमरे। कमरों में फर्श से केवल छह इंच ऊंचा फर्नीचर। मैं ने फोन पर ही उन्हें बता दिया था कि हम दोनों बाप-बेटे मंगलवारिया हैं सो नाश्ते वगैरह की औपचारिकता न हो। जवाब मिला था, कैसा नाश्ता? भोजन तैयार है। जाते ही अजित और मैं बातों में मशगूल। भाभी हमारे लिए कॉफी ले आईं। हमें प्रातःकालीन कर्मों से भी निवृत्त होना था। कॉफी सुड़क कर जैसे ही मैं स्नानघर में घुसने लगा अजित जी को कचौड़ियाँ याद आ गई। बोले, मेरी कचौड़ियाँ? भाई एक तो निकाल कर दे ही दो। वैभव कचौड़ियों के पैकेट के लिए बैग संभालने लगा। मैं ने पूछा- आप को तो पांच बजे नौकरी पर जाना होगा? तो बताया कि उन्हों ने सिर्फ मेरी खातिर आज अवकाश ले लिया है।
दोनों पिता पुत्र प्रातःकालीय कर्मों से निवृत्त हुए तो भोजन तैयार था। हम दोनों और अजित बैठ गए। दाल, सब्जियाँ, चपाती और देश में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ बासमती चावल, साथ में नमकीन और अचार। भूख चरम पर पहुंच गई। हम भोजन के साथ बातें करते रहे। अजित बता रहे थे कुछ दिनों पहले यात्रा के बीच ही अफलातून जी उन के मेहमान रह चुके हैं। उन के साथ बिताए समय के बारे में बताते रहे। ब्लागरी और ब्लागरों के बारे में, कुछ भोपाल, कोटा और राजगढ़ जहाँ अजित का बचपन गुजरा के बारे में बातें हुई। इस बीच हम जरूरत से अधिक ही भोजन कर गए। तभी भाभी जी ने ध्यान दिलाया कि उन का पुत्र किस तरह पढ़ते पढ़ते सो गया है। अजित देखने गए तो उसका चित्र कैमरे में कैद कर लाए। भोजन के उपरांत भी हम बातें ही करते रहे। पता लगा भाभीजी अध्यापिका हैं और रोज 40 किलोमीटर दूर एक कस्बे में अध्यापन के लिए जाती हैं। पूरी तरह एक श्रमजीवी परिवार। इस बीच अजित जी ने हमारे अनेक चित्र ले डाले। बातों में कब पाँच बज गए पता न चला। भाभी जी ने फिर गरम गरम कॉफी परोस दी।
अब चलने का समय हो चला था। अजित के माता पिता सैकण्ड फ्लोर पर चढ़ने उतरने की परेशानी के चलते निकट ही ग्राउंड फ्लोर पर अपने घर पर निवास करते हैं। हम अपने सामानों की पैकिंग करने लगे, कोई जरूरी वस्तु छूट न जाए। अजित वैभव को साथ ले कर पिता जी के घर खड़ी कार निकालने चल दिए। वे कार ले कर लौटे तो मैं ने अपने बैग उठाए। शेष सामान अजित का पुत्र उठाने लगा तो लगा वह घायल है। भाभी ने बताया कि वह दो दिन पहले ही वह बाइक पर टक्कर खा चुका है। उस के पूरे शरीर पर चोटें थीं। चोटें टीस रही थीं, जिस तरह वह चल रहा था लगा बहुत तकलीफ में है। फिर भी वह सामान उठाने को तत्पर था। मेरे पूछने पर भाभी ने बताया कि क्या क्या चिकित्सा कराई गई है।
जब भी मैं किसी को बीमार या चोटग्रस्त देखता हूँ और चिकित्सा के बारे में पता करता हूँ तो खुद बहुत तकलीफ में आ जाता हूँ। मैं ने अपने घर आयुर्वेदिक चिकित्सा देखी और सीखी, बाद में होमियोपैथी सीखी, और उसे अपनाया तो घर में ही दवाखाना बन गया। धीरे धीरे यह काम कब पत्नी शोभा ने हथिया लिया पता ही नहीं लगा। होमियोपैथी की बदौलत दोनों बच्चे बड़े हो गए कभी बिरले ही किसी डाक्टर या अस्पताल जाने का काम पड़ा।
मैं ने भाभी को होमियोपैथिक दवा लिख कर दे दी। कार आ चुकी थी, हम सामान सहित कार में लद लिए अजित, भाभी और उन का पुत्र साथ थे। हम स्टेशन पहुंचे तो ट्रेन आने में मात्र दस मिनट थे। अजित के पुत्र को चलने में तकलीफ थी। मैं ने अजित जी को प्लेटफार्म तक पहुँचाने की औपचारिकता करने से मना किया। वे राजी हो गए। जाते जाते उन्हें यह जरूर कहा कि वे होमियोपैथी दवा आज ले कर बेटे को जरूर दें। उन्हों ने आश्वस्त किया कि वे जरूर देंगे। अजित जी को विदा कर हम अपना सामान उठाए अपने प्लेटफार्म की ओर चले। ऐसा लग रहा था जैसे हम अभी अभी अपना घर और परिजन छोड़ कर आ रहे हैं।
मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009
पुणे के स्थान पर बल्लभगढ़ और पाबला जी का गुस्सा
विनोद जी और अनिता जी
अभिषेक ओझा बता रहे थे कि मैं पूर्वा से बात कर लूंगा कि वह किस बस से कहाँ उतरेगी। हम ने दोनों ही स्थितियाँ पूर्वा की माताजी को बता दीं। वे तनिक आश्वस्त हो गयीं। अगले दिन सुबह आठ बजे मैं ने पूर्वा को फोन लगाया तो वह बस में थी। उस ने बताया कि विनोद अंकल उस के इंस्टीट्यूट पर आकर उसे बस में बिठा गए थे। उस का अभिषेक से भी संपर्क हो चुका था। शाम को जब दुबारा फोन पर बात हुई तो पता लगा कि वह साक्षात्कार दे कर मुम्बई वापस भी पहुँच चुकी थी। जब उस की बस पूना पहुँची तो अभिषेक बस स्टॉप पर उस का इंतजार करते मिले। उसे केईएम अस्पताल छोड़ा। साक्षात्कार आधे घंटे में ही पूरा हो लिया। वह बाहर आई तो अभिषेक अभी गए नहीं थे। दोनों ने किसी रेस्तराँ में नाश्ता किया और पूर्वा को मुम्बई की बस में बिठा कर ही अभिषेक अपने काम पर लौटे। इस खबर को जान कर शोभा प्रसन्न हो गईं। उन की बेटी पहली बार पूना गई थी और उसे अकेला नहीं रहना पड़ा था।
कुछ दिन बाद पता लगा कि पूना केईएम अस्पताल में जिस स्थान के लिए पूर्वा ने साक्षात्कार दिया था वैसा ही एक स्थान बल्लभगढ़ (फरीदाबाद) के सिविल अस्पताल में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) हरियाणा सरकार और एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था इण्डेप्थ नेटवर्क के संयुक्त प्रयासों से चल रहे व्यापक जन स्वास्थ्य सेवाओं के प्रोजेक्ट में भी स्टेटीशियन/ डेमोग्राफर का स्थान रिक्त है। उस ने वहाँ के लिए आवेदन किया और एक टेलीफोनी साक्षात्कार के उपरांत यह तय हो गया कि पूर्वा को पूना के स्थान पर बल्लभगढ़ में ही यह पद मिल जाएगा। वह अपने नियुक्ति पत्र की प्रतीक्षा करने लगी। उस का नियुक्ति पत्र किन्हीं कारणों से विलंबित हो गया जिस का लाभ यह हुआ कि उस ने आश्रा प्रोजेक्ट के उस के जिम्मे के सभी कामों को पूरा कर दिया जिस से उस की अनुपस्थिति से आश्रा प्रोजेक्ट को कोई हानि न हो। बाद में यह तय हुआ कि वह 2 फरवरी को बल्लभगढ़ में अपनी नयी नियुक्ति पर उपस्थिति देगी। इधर वैभव को भी जनवरी के अंत तक अपना प्रोजेक्ट और ट्रेनिंग शुरू करनी थी।
बलविंदर सिंह पाबला
सोमवार, 9 फ़रवरी 2009
आम के पहले बौरों की नैसर्गिक गंध और सौंदर्य का अहसास
गणतंत्र दिवस की रात को कोटा से बाहर जाना हुआ और 31 जनवरी की रात को वापसी हुई। पहली फरवरी को रविवार था और सोमवार को सुबह 6 बजे फिर ट्रेन पकड़नी थी। कल रात ही वापस लौटा हूँ। मैं चाहता था कि इस बीच कुछ आलेख सूचीबद्ध कर जाऊँ। लेकिन यह संभव नहीं हो सका। पहली यात्रा के दौरान मुझे अंतर्जाल उपलब्ध भी हुआ। लेकिन वहाँ से कोई आलेख लिख पाना संभव नहीं हो सका। हाँ कुछ चिट्ठों पर टिप्पणियाँ अवश्य कीं।
दोनों यात्राएँ बिलकुल निजि थीं। लेकिन चिट्ठाकारी, जैसा कि इस का नाम है, निजत्व का सार्वजनीकरण ही तो है। निजत्व का यही सार्वजनीकरण चिट्ठाकारों और पाठकों के बीच वे रिश्ते कायम करता है जो यदि बन जाएँ तो शायद बहुत ही मजबूत होते हैं। ऐसे रिश्ते जो शायद वर्गहीन साम्यवादी, समतावादी समाज में विश्वास करने वाले लोगों के सपनों में होते हैं। जिन के बीच किसी तरह का बाहरी कारक नहीं होता और जो केवल मानवीय आधार पर टिके होते हैं। जिन्हें प्रेम, प्यार, मुहब्बत के रिश्ते कहा जा सकता है। ये रिश्ते किसी आम को चूस कर कूड़े के ढेर पर फेंकी हुई गुठली के बरसात में अनायास ही बिना किसी की इच्छा, आकांक्षा और प्रयत्न के ही अंकुरा कर पौधे में तब्दील हो जाने की तरह अंकुराते हैं। बस जरूरत है तो इतनी कि इस अंकुराए पौधे को पूरी ममता और स्नेह से कूड़े के ढेर से उठा कर किसी बगिया की क्यारी में रोप कर खाद पानी देते हुए वहाँ तक सहेजा जाए जहाँ वह रसीले, सुस्वादु और मीठे फल देने लगे।मैं ने इन दोनों यात्राओं में इन गुठलियों का अंकुराना, अंकुराए पौधों का ममता और स्नेह के साथ कूड़े के ढेऱ से हटाया जाना और किसी बगिया की क्यारी में रोपना, सहेजना महसूस किया है। उन के फलों की मृदुलता तो अभी चखी जानी शेष है, लेकिन किशोर पौधों पर पहली पहली बार आए आम के बौरों की नैसर्गिक गंध और सौंदर्य का अहसास भी हुआ है।
बेटा वैभव चार माह से उल्लेख कर रहा था कि उसे एमसीए के आखिरी पड़ाव में किसी उद्योग में कोई प्रोजेक्ट करते हुए प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा। वह प्रयासशील भी था कि इस के लिए कोई अच्छी जगह उसे मिले। मैं ने जिन्दगी के मेले ब्लॉग के ब्लागर बी एस पाबला जी से इस का उल्लेख किया तो उन्हों ने दो दिन बाद ही कहा कि वैभव को तुरंत भेज दें, उस की ट्रेनिंग यहाँ भिलाई में हो जाएगी। उन्हें तो यह भी पता न था कि वैभव की सेमेस्टर परीक्षा ही जनवरी में समाप्त होगी और उस के बाद ही उसे ट्रेनिंग करनी है। मगर यह तय हो गया कि वैभव को भिलाई में ही ट्रेनिंग करनी है।
इस बीच बेटी पूर्वा जो अपने अंतिम शिक्षण संस्थान अंतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान (आईआईपीएस) के आश्रा प्रोजेक्ट में वरिष्ठ शोध अधिकारी थी अपने प्रोजेक्ट के पूरा होने तक किसी नए काम की तलाश में थी। उसे पूना के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल (केईएम) द्वारा एक अंतर्राष्ट्रीय संस्थान की सहायता से किए जा रहे व्यापक जन स्वास्थ्य सेवाओं के पायलट प्रोजेक्ट में स्टेटीशियन कम डेमोग्राफर के पद के लिए साक्षात्कार के लिए आमंत्रण मिला और उस का पूना जाना तय हो गया।
साक्षात्कार के लिए मुंबई से पूना जाना वैसा ही था जैसे मैं सुबह कोटा से जयपुर जा कर उच्चन्यायालय में किसी मुकदमे की बहस कर शाम को कोटा वापस लौट आऊँ। लेकिन पूर्वा कभी पूना गई नहीं थी, उस के लिए वह अनजाना नगर था। उसने बताया कि वह पूना जा कर उसी दिन वापस आ जाएगी। लेकिन इस बताने ने ही घर में प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिए। एक माँ सवाल करने लगी, कैसे जाएगी? कौन साथ जाएगा? अकेली गई तो बस से जाएगी या ट्रेन से? वहाँ कैसे पहुंचेगी? एक पिता के पास इन सवालों का कोई उत्तर नहीं था। केवल एक विश्वास था कि उस की बेटी यह सब सहजता से कर लेगी। पर माँ कैसे इन सब का विश्वास कर पाती। उस ने प्रस्ताव दिया कि आप को जाना चाहिए बेटी का साक्षात्कार कराने के लिए। बेटी कहने लगी, रिजर्वेशन नहीं मिलेगा और इस काम के लिए आप के मुंबई आने की जरूरत नहीं है। बेटी की योग्यताओं से विश्वस्त माँ की चिन्ताएँ इस से कैसे समंझ पातीं? उस के सवालों का कोई उत्तर मेरे पास नहीं था। उत्तर तलाशते हुए मुझे दो ही नाम याद आए। मुम्बई में कुछ हम कहें की चिट्ठाकार अनीता कुमार जी और उन के जीवन साथी विनोद जी। पूर्वा अनिता जी से पूर्व परिचित थी और उन से बहुत दूर नहीं रहती थी। पूना में याद आए ओझा-उवाच और कुछ लोग ... कुछ बातें... के ब्लॉगर अभिषेक ओझा।
पूर्वा ने चैम्बूर बस स्टॉप जा कर पूना जाने वाली बसों का पता किया तो वहाँ वह असमंजस में आ गई कि उसे किस बस से जाना चाहिए जिस से वह सुबह दस बजे तक पूना पहुंच सके। उस ने मुझे बताया तो मैं ने अनिता जी से संपर्क किया। उन्हों ने सवाल विनोद जी के पाले में डाल दिया, विनोद जी बोले हम सुबह खुद जाएँगे और पूर्वा बिटिया को सही बस में बिठा आएँगे। पूर्वा की तो बस की खोज समाप्त होने के साथ बस तक का सफर स्कीम में मिल गया। उधर अभिषेक ओझा बता रहे थे कि मैं पूर्वा से बात कर लूंगा कि वह किस बस से कहाँ उतरेगी। हम ने दोनों ही स्थितियाँ पूर्वा की माताजी को बता दीं। वे तनिक आश्वस्त हो गयीं। (जारी)
(चित्रों में अनिता कुमार जी और अभिषेक ओझा)
सोमवार, 26 जनवरी 2009
अधूरा है गणतंत्र हमारा
भारत को गणतंत्र बनाने का संकल्प लिए साठ वर्ष पूरे होने को हैं। संविधान को लागू होने का साठवाँ साल चल रहा है। इस अवसर को स्मरण करने के लिए हम यहाँ प्रस्तुत संविधान की उद्देशिका के पाठ को दुबारा पढ़ सकते हैं।
हम ने तय किया था कि हम भारत को एक ऐसा संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाएंगे जिस में सभी को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्राप्त होगा, जिस में विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता होगी, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त होगी।
हमें विचार करना है कि क्या हम अपने इस संकल्प को पूरा कर पाए हैं? कोई भी सुधि व्यक्ति नहीं कह सकता है कि हम अपने उस संकल्प को पूरा कर पाए हैं। हम सोच सकते हैं कि उनसठ वर्षों की इस लम्बी अवधि के बाद भी हम ऐसा क्यों नहीं कर सके। हम यह भी विचार कर सकते हैं कि क्या हमारा देश आज उस संकल्प की दिशा में आगे बढ़ रहा है। यदि बढ़ रहा है तो उस की गति तीव्र है या मंद? गति मंद है तो उस के कारक क्या हैं। हम संकल्प को पूरा करने में जो कारक हैं उन को चीन्ह सकते हैं। उन को हटा सकते हैं। ऐसा कर के हम अपने संकल्प को पूरा करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ सकते हैं।
हम विचार करें, और अपने आस पास यथाशक्ति इस संकल्प को पूरा करने के लिए काम करें। जितना अधिक हम कर सकते हैं।
हम ने तय किया था कि हम भारत को एक ऐसा संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाएंगे जिस में सभी को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्राप्त होगा, जिस में विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता होगी, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त होगी।
हमें विचार करना है कि क्या हम अपने इस संकल्प को पूरा कर पाए हैं? कोई भी सुधि व्यक्ति नहीं कह सकता है कि हम अपने उस संकल्प को पूरा कर पाए हैं। हम सोच सकते हैं कि उनसठ वर्षों की इस लम्बी अवधि के बाद भी हम ऐसा क्यों नहीं कर सके। हम यह भी विचार कर सकते हैं कि क्या हमारा देश आज उस संकल्प की दिशा में आगे बढ़ रहा है। यदि बढ़ रहा है तो उस की गति तीव्र है या मंद? गति मंद है तो उस के कारक क्या हैं। हम संकल्प को पूरा करने में जो कारक हैं उन को चीन्ह सकते हैं। उन को हटा सकते हैं। ऐसा कर के हम अपने संकल्प को पूरा करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ सकते हैं।
हम विचार करें, और अपने आस पास यथाशक्ति इस संकल्प को पूरा करने के लिए काम करें। जितना अधिक हम कर सकते हैं।
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सभी को गणतंत्र दिवस की शुभ कामनाएँ
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मैं आज शाम से अपने कुछ निजि कार्यों के संबंध में कोटा से बाहर जा रहा हूँ, और शायद अगले दस दिनों तक कोटा से बाहर रहूँगा। इस बीच अनवरत और तीसरा खंबा के पाठकों से दूर रहने का अभाव खलता रहेगा। इस बीच संभव हुआ तो आप से रूबरू होने का प्रयत्न करूंगा। कुछ आलेख सूचीबद्ध करने का प्रयत्न है। यदि हो सका तो वे आप को पढ़ने को मिलते रहेंगे।
रविवार, 25 जनवरी 2009
वह, पति कब था
- दिनेशराय द्विवेदी
वह,
पति कब था?
पति कब था?
उस ने सिर्फ
हथिया लिया था
कब्जा/स्वामित्व
मेरे शरीर पर
मैं समझी थी
कम से कम
मकान और जमीन की
तरह ही शायद करे
मेरी देखभाल
लेकिन, औरत?
होती है
मैं समझी थी
कम से कम
मकान और जमीन की
तरह ही शायद करे
मेरी देखभाल
लेकिन, औरत?
होती है
जीती जागती,
वह तो वस्तु भी नहीं
क्यों करे?
कोई और
उस की चिंता
और मैं
नहीं समझ पायी
यही एक बात,
मुझे ही करना है
सब कुछ
मेरे लिए
जीने के लिए भी, और
मुक्ति के लिए भी।
लेबल:
कविता,
पत्नी,
शादी,
स्त्री-पुरुष,
poetry
शुक्रवार, 23 जनवरी 2009
जरूरी सरकारी कर्तव्यों में बाधा के चक्कर
कल जब मैं जिला न्यायालय से सड़क पार कलेक्ट्री परिसर में उपभोक्ता मंच की ओर जा रहा था तो रास्ते में टैगोर हॉल के बाहर पुराने स्कूल के जमाने के मित्र मिल गए, उन के साथ ही मेरा एक भतीजा भी था। दोनों ही अलग अलग पंचायत समितियों में शिक्षा अधिकारी हैं। दोस्त से दोस्त की तरह और भतीजे से भतीजे की तरह मिलने के बाद दोस्त से पूछा -यहाँ कैसे? जवाब मिला -मीटिंग थी।
अब? दूसरी मीटिंग है। वे आपस में जो चर्चा कर रहे थे वे शायद मिड-डे-मील से संबंधित थीं। मैं ने कहा तुम्हें भी अध्ययन के साथ मील में फंसा दिया। हाँ अभी मील की मीटिंग से आ रहे हैं। इस के बाद चुनाव की मीटिंग है, लोकसभा चुनाव की तैयारियाँ जोरों पर हैं। मैं ने पूछा -और शिक्षा? तो उन का कहना था कि उस की मीटिंग परीक्षा परिणामों के उपरांत जून जुलाई में होगी। वह यहाँ नहीं होगी। प्रशासन को शिक्षा से क्या लेना देना?
वे और मैं दोनों ही जल्दी में थे, सो चल दिए अपने अपने कामों पर।
दोपहर बाद जब काम लगभग सिमट गया सा था, केवल एक अदालत से एक दस्तावेज हासिल करना भर रह गया था और आधे घंटे की फुरसत थी। हम हफ्ते भर बाद निकली साफ धूप का आनंद लेने एक तख्ते पर बैठे बतिया रहे थे। पास वाले वरिष्ठ वकील बाहर गए हुए थे, उन के दो कनिष्ठ साथ थे। एक कनिष्ठ जिस की पत्नी शिक्षिका हैं, सुनाने लगा....
"भाई साहब! मेरी पत्नी जिस स्कूल में अध्य़ापिका है वहाँ कुल तीन अध्यापिकाएँ हैं और पहली से ले कर पाँचवीं कक्षा तक कुल डेढ़ सौ विद्यार्थी। तीन में से एक छह माह के लिए प्रसूती अवकाश पर चली गई है। एक की ड्यूटी चुनाव के लिए जिला चुनाव अधिकारी के यहाँ लगा दी गई है। अब एक अध्यापिका कैसे स्कूल को संभाले। बीमार हो जाए तब भी स्कूल तो जैसे तैसे जाना ही होगा। उसे बंद तो नहीं किया जा सकता। इस बात को बताने के लिए वह शिक्षा अधिकारी के कार्यालय स्वयं आ भी नहीं सकती। आए तो स्कूल कौन देखे?चिट्ठी पत्री को कोई महत्व नहीं है।
पास के गांव के स्कूल में चार अध्यापिकाएँ हैं और छात्र केवल नौ। उस विद्यालय से एक अध्यापिका को अस्थाई तौर पर मेरी पत्नी वाले स्कूल में लगवा देने से काम चल सकता है। मेरी पत्नी ने उस स्कूल की एक अध्यापिका को इस के लिए मना कर उस से लिखवा भी लिया है। उस स्कूल के प्रधानाध्यापक ने भी उस पर अनापत्ति लिख दी है। उस पत्र को देने के लिए दो हफ्ते पहले शिक्षा अधिकारी के दफ्तर में मुझे जाना पड़ा शिक्षा अधिकारी ने हाँ भी कह दी। कहा एक दो दिन में आदेश आ जाएगा। चार दिन में आदेश न आने पर मैं फिर उन से मिला। तो कहने लगे, - मैं जरा कुछ अर्जेंट कामों में उलझ गया था। आप कुछ देर रुको। मैं वहाँ पौन घंटा रुका। लेकिन शिक्षा अधिकारी फिर अपने कामों में भूल गए। याद दिला ने पर बोले, -अभी आदेश निकलवाता हूँ। बाबू को बुलवाया तो पता लगा कि वह जरूरी रिपोर्टें ले कर कलेक्ट्री गया हुआ है। मुझे दो दिन बाद आदेश के बारे में पता करने को कहा गया है। फिर चार दिन बाद कोई व्यवस्था न होने पर उन से मिला तो कहा, बाबूजी अवकाश पर हैं आप को आने की जरूरत नहीं है आदेश दूसरे दिन अवश्य ही निकल जाएगा। तीन दिन गुजरने पर भी जब आदेश नहीं आया तो मैं फिर वहाँ पहुँचा। इस बार मुझे देखते ही शिक्षा अधिकारी बोले। अरे! आप का आदेश अभी नहीं पहुँचा। ऐसा कीजिए आप बाबू जी से मिल लीजिए और खुद ही आदेश लेते जाइए। मैं बाबू के पास पहुँचा तो वह मुझे वहीं बैठा कर फाइल ले कर शिक्षा अधिकारी के यहाँ गया। बीस मिनट में वापस लौटा। फिर आदेश टाइप किया, उस पर हस्ताक्षर करवाकर लाया और डिस्पैच रजिस्टर में चढ़ा कर मुझ से पूछा कि आप कौन हैं? बताने पर उस ने आदेश देने से मना कर दिया कि आप विभागीय कर्मचारी नहीं है। आदेश डाक से भिजवा देंगे, कल आप को मिल जाएगा।
इस तरह मेरे चार-पांच चक्कर लगाने के बाद भी आदेश नहीं मिला, अब देखते हैं कि कल मिलता है या नहीं।"
मैं ने उस से पूछा -शिक्षा अधिकारी कौन है? तो उस ने मेरे मित्र का नाम बताया। मैं भौंचक्का रह गया।
मैं ने शाम को अपने मित्र से बात की तो कहने लगा। यार! भैया, बहुत चक्कर हैं, इस नौकरी में। पहले देखना पड़ता है कि इस तरह के आदेश से किसी को कोई एतराज तो नहीं है। वरना यहाँ जिला मुख्यालय पर टिकना मुश्किल हो जाए। पहले तुमने बताया होता तो उसे यहाँ तक आने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
आज मैं ने उस कनिष्ठ वकील से पूछा कि क्या वह आदेश पहुँच गया? तो उस ने बताया कि आदेश रात को ही चपरासी घर पहुँचा गया था।
मुझे अभी भी समझ नहीं आ रहा है कि यह सामान्य प्रशासन का आदेश देना और इस तरह की व्यवस्थाएँ करना तो उस का खुद का कर्तव्य था। इस के लिए उस की माहतत शिक्षिका के पति को चार-पाँच चक्कर क्यों लगाने पड़े? और पहली ही बार में वह आदेश जारी क्यों नहीं कर दिया गया। वे कौन से चक्कर हैं जो जरूरी विभागीय कर्तव्यों में इस तरह बाधा बन जाते हैं।
भारत के भावी कर्णधारों की परवाह कौन कर रहा है?
अब? दूसरी मीटिंग है। वे आपस में जो चर्चा कर रहे थे वे शायद मिड-डे-मील से संबंधित थीं। मैं ने कहा तुम्हें भी अध्ययन के साथ मील में फंसा दिया। हाँ अभी मील की मीटिंग से आ रहे हैं। इस के बाद चुनाव की मीटिंग है, लोकसभा चुनाव की तैयारियाँ जोरों पर हैं। मैं ने पूछा -और शिक्षा? तो उन का कहना था कि उस की मीटिंग परीक्षा परिणामों के उपरांत जून जुलाई में होगी। वह यहाँ नहीं होगी। प्रशासन को शिक्षा से क्या लेना देना?
वे और मैं दोनों ही जल्दी में थे, सो चल दिए अपने अपने कामों पर।
दोपहर बाद जब काम लगभग सिमट गया सा था, केवल एक अदालत से एक दस्तावेज हासिल करना भर रह गया था और आधे घंटे की फुरसत थी। हम हफ्ते भर बाद निकली साफ धूप का आनंद लेने एक तख्ते पर बैठे बतिया रहे थे। पास वाले वरिष्ठ वकील बाहर गए हुए थे, उन के दो कनिष्ठ साथ थे। एक कनिष्ठ जिस की पत्नी शिक्षिका हैं, सुनाने लगा....
"भाई साहब! मेरी पत्नी जिस स्कूल में अध्य़ापिका है वहाँ कुल तीन अध्यापिकाएँ हैं और पहली से ले कर पाँचवीं कक्षा तक कुल डेढ़ सौ विद्यार्थी। तीन में से एक छह माह के लिए प्रसूती अवकाश पर चली गई है। एक की ड्यूटी चुनाव के लिए जिला चुनाव अधिकारी के यहाँ लगा दी गई है। अब एक अध्यापिका कैसे स्कूल को संभाले। बीमार हो जाए तब भी स्कूल तो जैसे तैसे जाना ही होगा। उसे बंद तो नहीं किया जा सकता। इस बात को बताने के लिए वह शिक्षा अधिकारी के कार्यालय स्वयं आ भी नहीं सकती। आए तो स्कूल कौन देखे?चिट्ठी पत्री को कोई महत्व नहीं है।
पास के गांव के स्कूल में चार अध्यापिकाएँ हैं और छात्र केवल नौ। उस विद्यालय से एक अध्यापिका को अस्थाई तौर पर मेरी पत्नी वाले स्कूल में लगवा देने से काम चल सकता है। मेरी पत्नी ने उस स्कूल की एक अध्यापिका को इस के लिए मना कर उस से लिखवा भी लिया है। उस स्कूल के प्रधानाध्यापक ने भी उस पर अनापत्ति लिख दी है। उस पत्र को देने के लिए दो हफ्ते पहले शिक्षा अधिकारी के दफ्तर में मुझे जाना पड़ा शिक्षा अधिकारी ने हाँ भी कह दी। कहा एक दो दिन में आदेश आ जाएगा। चार दिन में आदेश न आने पर मैं फिर उन से मिला। तो कहने लगे, - मैं जरा कुछ अर्जेंट कामों में उलझ गया था। आप कुछ देर रुको। मैं वहाँ पौन घंटा रुका। लेकिन शिक्षा अधिकारी फिर अपने कामों में भूल गए। याद दिला ने पर बोले, -अभी आदेश निकलवाता हूँ। बाबू को बुलवाया तो पता लगा कि वह जरूरी रिपोर्टें ले कर कलेक्ट्री गया हुआ है। मुझे दो दिन बाद आदेश के बारे में पता करने को कहा गया है। फिर चार दिन बाद कोई व्यवस्था न होने पर उन से मिला तो कहा, बाबूजी अवकाश पर हैं आप को आने की जरूरत नहीं है आदेश दूसरे दिन अवश्य ही निकल जाएगा। तीन दिन गुजरने पर भी जब आदेश नहीं आया तो मैं फिर वहाँ पहुँचा। इस बार मुझे देखते ही शिक्षा अधिकारी बोले। अरे! आप का आदेश अभी नहीं पहुँचा। ऐसा कीजिए आप बाबू जी से मिल लीजिए और खुद ही आदेश लेते जाइए। मैं बाबू के पास पहुँचा तो वह मुझे वहीं बैठा कर फाइल ले कर शिक्षा अधिकारी के यहाँ गया। बीस मिनट में वापस लौटा। फिर आदेश टाइप किया, उस पर हस्ताक्षर करवाकर लाया और डिस्पैच रजिस्टर में चढ़ा कर मुझ से पूछा कि आप कौन हैं? बताने पर उस ने आदेश देने से मना कर दिया कि आप विभागीय कर्मचारी नहीं है। आदेश डाक से भिजवा देंगे, कल आप को मिल जाएगा।
इस तरह मेरे चार-पांच चक्कर लगाने के बाद भी आदेश नहीं मिला, अब देखते हैं कि कल मिलता है या नहीं।"
मैं ने उस से पूछा -शिक्षा अधिकारी कौन है? तो उस ने मेरे मित्र का नाम बताया। मैं भौंचक्का रह गया।
मैं ने शाम को अपने मित्र से बात की तो कहने लगा। यार! भैया, बहुत चक्कर हैं, इस नौकरी में। पहले देखना पड़ता है कि इस तरह के आदेश से किसी को कोई एतराज तो नहीं है। वरना यहाँ जिला मुख्यालय पर टिकना मुश्किल हो जाए। पहले तुमने बताया होता तो उसे यहाँ तक आने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
आज मैं ने उस कनिष्ठ वकील से पूछा कि क्या वह आदेश पहुँच गया? तो उस ने बताया कि आदेश रात को ही चपरासी घर पहुँचा गया था।
मुझे अभी भी समझ नहीं आ रहा है कि यह सामान्य प्रशासन का आदेश देना और इस तरह की व्यवस्थाएँ करना तो उस का खुद का कर्तव्य था। इस के लिए उस की माहतत शिक्षिका के पति को चार-पाँच चक्कर क्यों लगाने पड़े? और पहली ही बार में वह आदेश जारी क्यों नहीं कर दिया गया। वे कौन से चक्कर हैं जो जरूरी विभागीय कर्तव्यों में इस तरह बाधा बन जाते हैं।
भारत के भावी कर्णधारों की परवाह कौन कर रहा है?
गुरुवार, 22 जनवरी 2009
कविता आगे पढ़ी तो कवि सम्मेलन यहीं समाप्त
कोई तीस-बत्तीस बरस पहले की बात है। मेरे पितृ-नगर बाराँ में मुख्य चौराहे पर कवि सम्मेलन आयोजित किया गया था। सड़क रोक दी गई थी। कोई चार हजार श्रोता जमीन पर बिछे फर्शों पर विराजमान थे। कोई हजार इन के पीछे थे। इन श्रोताओं में नगर के सम्मानित और प्रतिष्ठित लोगों से ले कर सब से निचले तबके के कविता प्रेमी थे।
एक से एक सुंदर कविताएँ पढी़ जा रही थीं। एक मधुर गीतकार के गीत पढ़ चुकने के उपरांत संचालक को लगा कि इतने अच्छे गीत के बाद शायद ही किसी कवि को जनता पसंद करे। ऐसी हालत में संचालक के पास एक ही विकल्प रहता है कि वह किसी हास्य कवि को मंच पर खड़ा कर दे।
यही हुआ भी। उस वर्ष ग्वालियर के नए नए मशहूर हुए हास्य कवि प्रदीप चौबे को बुलाया गया था। उन के नाम की सिफारिश नगर पालिका के किसी पार्षद ने की थी। कवि चौबे ने मंच पर आते ही हास्य कवियों की अदा में तीन चार चुटकले सुनाए। चुटकले ऐसे थे कि महिलाओं की उपस्थिति में कोई अपने घर में न सुना सके। कुछ ने उन चुटकुलों का आनंद लिया, कोई हंसा तो किसी ने तालियाँ बजाईं। जैसे ही मधुर गीत का माहौल स्वाहा हुआ और श्रोतागण हलके मूड में आए। चौबे जी ने अपनी कविता आरंभ कर दी। चोबे जी कुल तीन पंक्तियाँ पढ़ पाए थे चौथी पढ़ने की तैयारी में थे कि एक अधेड़ पुरुष दर्शकों के ठीक बीच में से खड़े हुए और तेज आवाज में बोले, "चौबे जी कविता बाद में पहले हमारी सुनिए।"
चौबे जी चौंक गए, उन का कविता पाठ वहीं ठहर गया। सभा में सन्नाटा छा गया। बोलने खड़े हुए ठिगनी काठी के सज्जन ने खादी की पेन्ट शर्ट पहनी थी, चश्मा लगाए हुए थे। वे थे, नगर के दीवानी मामलात के खास वकील श्याम किशोर शर्मा।
चौबे जी! यह बारां का कवि सम्मेलन है। यहाँ कविताएँ सुनी जाती हैं। चुटकुले नहीं और जो आप पढ़ रहे हैं वह कविता नहीं है। यौन जुगुप्सा जगाने का मंत्र है जो महिलाओं का सरासर अपमान है। आप से निवेदन है कि आप अब इस मंच से कविताएँ नहीं पढ़ें। आप हमारे मेहमान हैं इस लिए हम आप से सिर्फ निवेदन कर रहे हैं। यदि हमारा निवेदन स्वीकार नहीं है तो कवि सम्मेलन यहीं समाप्त हो जाएगा।
प्रदीप चौबे हक्के-बक्के रह गए। उन्हें उसी समय मंच से नीचे उतरना पड़ा। उन्हें ससम्मान उन के ठहरने के स्थान पहुँचाया गया और उन के मानदेय का तुरंत भुगतान कर दिया गया।
प्रदीप चौबे के साथ एक भी कवि मंच से नहीं उतरा। कवि सम्मेलन रात भर चला कवियों ने श्याम किशोर जी को पूरा सम्मान दिया। कहा भी कि यदि इस तरह के श्रोता सब स्थानों पर मिलें तो कवि सम्मेलन फिर से उच्च सम्मान पाने लगें।
एक से एक सुंदर कविताएँ पढी़ जा रही थीं। एक मधुर गीतकार के गीत पढ़ चुकने के उपरांत संचालक को लगा कि इतने अच्छे गीत के बाद शायद ही किसी कवि को जनता पसंद करे। ऐसी हालत में संचालक के पास एक ही विकल्प रहता है कि वह किसी हास्य कवि को मंच पर खड़ा कर दे।
यही हुआ भी। उस वर्ष ग्वालियर के नए नए मशहूर हुए हास्य कवि प्रदीप चौबे को बुलाया गया था। उन के नाम की सिफारिश नगर पालिका के किसी पार्षद ने की थी। कवि चौबे ने मंच पर आते ही हास्य कवियों की अदा में तीन चार चुटकले सुनाए। चुटकले ऐसे थे कि महिलाओं की उपस्थिति में कोई अपने घर में न सुना सके। कुछ ने उन चुटकुलों का आनंद लिया, कोई हंसा तो किसी ने तालियाँ बजाईं। जैसे ही मधुर गीत का माहौल स्वाहा हुआ और श्रोतागण हलके मूड में आए। चौबे जी ने अपनी कविता आरंभ कर दी। चोबे जी कुल तीन पंक्तियाँ पढ़ पाए थे चौथी पढ़ने की तैयारी में थे कि एक अधेड़ पुरुष दर्शकों के ठीक बीच में से खड़े हुए और तेज आवाज में बोले, "चौबे जी कविता बाद में पहले हमारी सुनिए।"
चौबे जी चौंक गए, उन का कविता पाठ वहीं ठहर गया। सभा में सन्नाटा छा गया। बोलने खड़े हुए ठिगनी काठी के सज्जन ने खादी की पेन्ट शर्ट पहनी थी, चश्मा लगाए हुए थे। वे थे, नगर के दीवानी मामलात के खास वकील श्याम किशोर शर्मा।
चौबे जी! यह बारां का कवि सम्मेलन है। यहाँ कविताएँ सुनी जाती हैं। चुटकुले नहीं और जो आप पढ़ रहे हैं वह कविता नहीं है। यौन जुगुप्सा जगाने का मंत्र है जो महिलाओं का सरासर अपमान है। आप से निवेदन है कि आप अब इस मंच से कविताएँ नहीं पढ़ें। आप हमारे मेहमान हैं इस लिए हम आप से सिर्फ निवेदन कर रहे हैं। यदि हमारा निवेदन स्वीकार नहीं है तो कवि सम्मेलन यहीं समाप्त हो जाएगा।
प्रदीप चौबे हक्के-बक्के रह गए। उन्हें उसी समय मंच से नीचे उतरना पड़ा। उन्हें ससम्मान उन के ठहरने के स्थान पहुँचाया गया और उन के मानदेय का तुरंत भुगतान कर दिया गया।
प्रदीप चौबे के साथ एक भी कवि मंच से नहीं उतरा। कवि सम्मेलन रात भर चला कवियों ने श्याम किशोर जी को पूरा सम्मान दिया। कहा भी कि यदि इस तरह के श्रोता सब स्थानों पर मिलें तो कवि सम्मेलन फिर से उच्च सम्मान पाने लगें।
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