मंगलवार, 1 जुलाई 2008
थोड़ा नजदीक आ अंधेरा है "गज़ल"
रविवार, 29 जून 2008
ब्रह्मा, विष्णु और महेश को पत्नियों का दास बनाया, किसने ?
भर्तृहरि की शतकत्रयी की तीनों कृतियाँ न केवल काव्य के स्तर पर अद्वितीय हैं, अपितु विचार और दर्शन के स्तर पर भी उस का महत्व अद्वितीय है। अधिकांश संस्कृत की कृतियों में सब से पहला चरण मंगलाचरण का होता है। जिस में कृतिकार अपने आराध्य को स्मरण करते हुए उसे नमन करता है। साथ ही साथ यह भी प्रयत्न होता है कि जो काव्य रचना वह प्रस्तुत कर रहा होता है, उस की विषय वस्तु का अनुमान उस से हो जाए। शतकत्रयी की कृतियों में श्रंगार शतक एक अनूठी कृति है जो मनुष्य के काम-भाव और उस से उत्पन्न होने वाली गतिविधियों और स्वभाव की सुंदर रीति से व्याख्या करती है। युगों से वर्षा ऋतु को काम-भाव की उद्दीपक माना जाता है। वाल्मिकी ने भी रामायण में बालि वध के उपरांत वर्षाकाल का वर्णन करते हुए सीता के विरह में राम को अपनी मनोव्यथा लक्ष्मण को व्यक्त करते हुए बताया है। वैसे भी रामायण की रचना का श्रेय संभोगरत क्रोंच युगल की हत्या से उत्पन्न पीड़ा को दिया जाता है।।
यहाँ श्रंगार शतक का मंगला चरण प्रस्तुत है......
शम्भुः स्वयम्भुहरयो हरिणेक्षणानां
येनाक्रियन्त सततं गृहकर्मदासाः ||
वाचामगोचरचरित्रविचित्रिताय
तस्मै नमो भगवते कुसुमायुधाय || १||
यहाँ भर्तृहरि कुसुम जैसे कोमल किन्तु सुगंधित और सुंदर आयुध का प्रयोग करने वाले कामदेव को नमन करते हुए कह रहे हैं- जिन के प्रभाव से हिरणी जैसे नयनों वाली तीन देवियों (सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती) ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश जैसे तीन महान देवताओं को अपने घरों के काम करने वाले दास में परिवर्तित कर दिया है, जिन की अद्भुत और विचित्र प्रकृति का वर्णन करने में स्वयं को अयोग्य पाता हूँ, उन महान भगवान कुसुमयुधाय (कामदेव) को मैं नमन करता हूँ।।
यह मंगलाचरण श्लोक यहाँ यह भी प्रकट करता है कि मनुष्य ने अपने मानसिक-शारिरीक भावों को जिन के वशीभूत हो कर वह कुछ भी कर बैठता है देवता की संज्ञा दी है, और यह देवता (भाव) इतना व्यापक है कि उस के प्रभाव से सृष्टि के जन्मदाता, पालक और संहारक भी नहीं बच पाए।
इस आलेख को पढ़ने के उपरांत इस श्लोक पर आप के विचार आमंत्रित हैं।
शुक्रवार, 27 जून 2008
महेन्द्र नेह के दो 'कवित्त'
(1)
धर्म पाखण्ड बन्यो........
ज्ञान को उजास नाहिं, चेतना प्रकास नाहिं
धर्म पाखण्ड बन्यो, देह हरि भजन है।
खेतन को पानी नाहिं, बैलन को सानी नाहिं
हाथन को मजूरी नाहिं, झूठौ आस्वासन है।
यार नाहिं, प्यार नाहिं, सार और संभार नाहिं
लूटमार-बटमारी-कतल कौ चलन है।
पूंजीपति-नेता इन दोउन की मौज यहाँ
बाकी सब जनता को मरन ही मरन है।।
(2)
पूंजी को हल्ला है.......
बुझवै ते पैले ज्यों भभकै लौ दिवरा की
वैसे ही दुनियाँ में पूंजी को हल्ला है।
पूंजी के न्यायालय, पूंजी कौ लोक-तंत्र
पूंजी के साधु-संत फिरत निठल्ला हैं।
पूंजी के मनमोहन, पूंजी के लालकृष्ण
पूंजी के लालू, मुलायम, अटल्ला हैं।
पूंजी की माया है, पूंजी के पासवान
हरकिशन पूंजी के दल्लन के दल्ला हैं।।
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बुधवार, 25 जून 2008
दिखावे की संस्कृति-२.....समाज को आगे ले जाने की इच्छा से काम करने वाले आलोचना की कब परवाह करते हैं?
विगत आलेख में मृत व्यक्ति के अस्थिचयन की घटना के विवरण पर अनेक प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं। उन में विजयशंकर चतुर्वेदी ने एक बघेली लोकोक्ति के दो रूपों का उद्धरण दिया “जियत न पूछैं मही, मरे पियावैं दही” और “जियत न पूछैं मांड़, मरे खबाबैं खांड”
दोनों का अर्थ एक ही था जीवित व्यक्ति को छाछ/उबले चावल के पानी की भी न पूछते हैं और मरने पर उस के लिए दही/चीनी अर्पित करने को तैयार रहते हैं।
Shiv Kumar Mishra ने लिखा “धरती पर सोये पिता फटा चादरा तान, तेरहवी पर कर रहे बेटा शैय्यादान” और “अखबार में छपे फोटो से लेकर धुले हुए कुरते तक में, सब जगह दिखावा ही दिखावा है”। इन के अलावा दो लोकोक्तियाँ और सामने आईँ एक इटावा (उ.प्र.) के मित्र आर.पी. तिवारी से “जियत न दिए कौरा, मरे बंधाए चौरा”।। दूसरे कवि महेन्द्र “नेह” से “जीवित बाप न पुच्छियाँ, मरे धड़ाधड़ पिट्टियाँ”।
इन का भी वही अर्थ है। जीवित पिता को कौर भी नहीं दिया और अब उस की पगड़ी को सम्मान दिया जा रहा है तथा जीवित पिता को पूछा तक नहीं और मरने पर धड़ाधड़ छाती पीटी जा रही है।
ये सब लोकोक्तियाँ लोक धारणा को प्रकट करती हैं। जिन का यही आशय है कि लोग सब जानते हैं कि मृत्यु के उपरांत अब सब समाज के दिखावे के लिए किया जा रहा है। इस से मरणोपरांत की जाने वाली विधियों का खोखलापन ही प्रकट होता है।
अनेक मित्रों ने परंपराओं की भिन्नता की चर्चा भी की और उन की आवश्यकता की भी। लेकिन विगत आलेख का मेरा आशय कुछ और था, जो परंपराओं को त्यागने के बारे में कदापि नहीं था।
किसी भी परिवार में मृत्यु एक गंभीर हादसा होता है। परिवार और समाज से एक व्यक्ति चला जाता है, और उस का स्थान रिक्त हो जाता है। वह बालक, किशोर, जवान, अधेड़ या वृद्ध; पुरुष या स्त्री कोई भी क्यों न हो उस की अपनी भूमिका होती है, जिस के द्वारा वह परिवार और समाज में मूल्यवान भौतिक और आध्यात्मिक योगदान करता है। समाज मृत व्यक्ति की रिक्तता को शीघ्र ही भर भी लेता है। लेकिन परिवार को उस रिक्तता को दूर करने में बहुत समय लगता है। यह रिक्तता कुछ मामलों में तो रिक्तता ही बनी रह जाती है। अचानक इस रिक्तता से परिवार में आए भूचाल और उस से उत्पन्न मानसिकता से निकलने में अन्तिम संस्कार से लेकर वर्ष भर तक की मृत्यु पश्चात परंपराएँ महति भूमिका अदा करती हैं। इस कारण से उन्हें निभाने में कोई भी व्यक्ति सामान्यतया कोई आपत्ति या बाधा भी उत्पन्न नहीं करता है।
इस आपत्ति के न करने की प्रवृत्ति ने धीरे धीरे हमारी स्वस्थ परंपराओं में अनेक अस्वस्थ कर्मकांडों को विस्तार प्रदान कर दिया है। जिन का न तो कोई सामाजिक महत्व है और न ही कोई भौतिक या आध्यात्मिक महत्व।
अस्थिचयन के उपरांत मृतात्मा को भोग की जो परंपरा है उसे निभाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं, वह किसी एक व्यक्ति द्वारा संपन्न कर दी जाती है जो मृतक का “लीनियन एसेंडेंट” हो। बाकी तमाम लोगों को वहाँ यह सब करने दिया जाना उस परंपरा का अनुचित विस्तार है। जिस में समय और धन दोनों का अपव्यय भी होता है।
मुझे एक ऐसे ही अवसर पर जोधपुर में जाना हुआ था। वहाँ परिवार का केवल एक व्यक्ति “लीनियन एसेंडेंट” एक सहायक और पंडित ने यह परंपरा निभा दी थी। मैं और मेरे एक मित्र वहाँ जरूर थे लेकिन केवल अनावश्यक रूप से, और बिलकुल फालतू। वह एक डेढ. घंटा हम ने पास ही पहाड़ी की तलहटी में झील किनारे बने एक शिव मंदिर पर बिताया।
मेरा कहना यही है कि हम इन अनावश्यक परंपराओं से छुटकारा पा सकते हैं। भूतकाल में पाया भी गया है। लेकिन उस के लिए सामाजिक जिम्मेदारी को निभाना होगा और इस के लिए भी तैयार रहना होगा कि लोग आलोचना करेंगे।
समाज को आगे ले जाने की इच्छा से काम करने वाले आलोचना की कब परवाह करते हैं?
सोमवार, 23 जून 2008
दिखावे की संस्कृति-1 ....एक दुपहर शमशान में
आज मुझे फिर एक अस्थि-चयन में जाना पड़ा। मेरे एक नित्य मित्र के भाई का शुक्रवार को प्रातः एक सड़क दुर्घटना में देहान्त हो गया। मैं अन्त्येष्टी में नहीं जा सका था। सुबह नौ बजे एक मित्र का फोन मिला, वहाँ चलना है। मेरे पास उस समय कोई वाहन नहीं था, पहले तो फोन पर मना किया, कि शाम को बैठक में ही जाना हो सकेगा। संयोग से कुछ ही समय में वाहन आ गया, और मैं तुरंत ही रवाना हो गया। सुबह 9.50 पर मुक्तिधाम पहुँचा। (मेरे नगर में यहाँ श्मशान को मुक्तिधाम कहने की परंपरा चल निकली है) तब तक चिता को पानी डाल कर शीतल किया जा चुका था। अस्थियाँ धोकर, एक लाल थैली में बंद की गईं। राख को चम्बल में प्रवाहित करने के लिए कुछ लोग जीप से केशवराय पाटन के लिए रवाना हो गए।
कोटा जंक्शन से कोई दस किलोमीटर दूर, चम्बल के दक्षिणी किनारे पर रंगपुर नाम का गाँव है। सामने ही चम्बल के उस पार केशवराय पाटन है। सड़क मार्ग से यही 30 किलोमीटर पड़ता है। चम्बल के पूर्वोन्मुखी बहने से वहाँ तीर्थ है। चम्बल किनारे केशवराय भगवान का विशाल प्राचीन मन्दिर है, उस से भी प्राचीन शिव मंदिर है, प्राचीन जैन तीर्थ भी है। कोटा के अधिकांश लोग इसी तीर्थ में राख प्रवाहित करने के लिए जाते हैं। किसी को यह भान नहीं कि राख से चम्बल मे प्रदूषण होता होगा, राख को भूमि में भी दबाया जा सकता है। खैर!!
दाह-स्थल गोबर से लीपा गया। स्थान की गर्मी से लीपा गया तुरंत ही सूख गया। उस पर गोबर के ही उपले गोलाई में इस तरह जमाए गए कि उन पर मिट्टी का कलश रखा जा सके। फिर उन में आग चेताई गई और एक कलश में चावल पकाने को रख दिए गए। नम हवा और नम उपले। बहुत धुआँ करने के उपरांत ही उपलों ने आग पकड़ी। आधा घंटा चावल पकने में लगे। चावल पकने के बाद उन्हें पत्तल में घी और चीनी के साथ परोसा गया। मृतक को भोग अर्पित करने का प्रक्रम प्रारंभ हुआ। यह एक लगभग पूरी तरह सुलग चुके उपले पर घी छोड़ कर, पानी से आचमन करा कर, पत्तल के दूसरी और मृतक की कल्पना करते हुए, उसे प्रणाम कर के किया जाता है। उठने के बाद व्यक्ति अपने हाथ जरूर धो लेता है। एक व्यक्ति द्वारा इस कर्म कांड को करने में कम से कम दो मिनट तो लगते ही हैं।
पहले पुत्रों ने भोग अर्पण किया, फिर परिवार के दूसरे लोगों ने, फिर रिश्तेदारों ने। उस के बाद बिरादरी के लोगों ने भोग अर्पण किया। एक सुलगता हुआ उपला घी से तर-बतर हो कर बुझ गया। उसे माचिस से फिर सुलगाया गया। आग की लपटें हवन की तरह उठने लगीं। एक घंटे में कुल तीस लोग भोग अर्पण कर चुके थे, और अभी दस के लगभग पास खड़े अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे। बैठे हुए लोगों में भी कुछ जरुर इस कर्मकाण्ड को करने के इच्छुक जरूर रहे होंगे। नजदीक ही एक गाय ध्यान मग्न पत्तल पर रखे चीनी और घी से सने चावलों को देख रही थी, जिसे वहाँ आस पास खड़े लोग नहीं देख रहे थे।
मैं दूर एक बरामदे में बैठा यह सब देख रहा था, जहाँ अनेक खूबसूरत ग्रेनाइट की बेन्चें अभी कुछ माह पहले विधायक कोष से लगाई गई थीं। उन में से कुछ पर धूल जमा थी, कुछ पर से लोगों ने बैठने से पहले हटा दी थी और कुछ पर से उन के बैठने के कारण स्वतः ही हट गई थी। एक बैंच पर कुछ कचरा सा पड़ा था। देखने पर पता लगा कि वह राल का पाउडर है जो चिता को चेताने के लिए काम आता है। एक बैंच के नीचे एक पांच-छह माह का कुत्ता चुपचाप आकर लेट गया था। उस के दो जुड़वाँ भाई दूसरे बरामदे में सुस्ता रहे थे। तीनों अभी अभी दूसरे मुहल्ले के कुत्तों से भिड़ने के लिए अभ्यास कर रहे थे। मुक्तिधाम के दूर के कोने में पेड़ों के झुरमुट के पीछे छिपे एक चबूतरे के पास दो नौजवान स्मैक या कोई अन्य पदार्थ का सेवन कर निपट चबूतरे पर पड़ी नीम की निमोलियों को साफ कर रहे थे, जिस से वहाँ सो कर दिन गुजारा जा सके।
मुझ से कर्मकाण्ड की लम्बाई बर्दाश्त नहीं हो रही थी। मैं नें पास बैठे लोगों से पूछा, -क्या बीस-तीस साल पहले भी ऐसा ही होता था?
जवाब मिला, -पहले तो परिवार के लोग भी इस कर्मकाण्ड में सम्मिलित नहीं होते थे।
मैं ने बताया, केवल लीनियल एसेन्डेण्टस् ही यह कर्मकाण्ड करते थे। यानी मृतक/मृतका के पुत्र, पौत्र, पौत्री और नाती और उन के पुत्र आदि। वहाँ बैठे लोगों ने इस पर सहमति जताई।
मैं ने पूछा, -तो अब ये क्या हो रहा है?
प्रश्न का उत्तर नहीं था, सो नहीं मिला।
जवाब में मिला प्रश्न – इस में बुराई क्या है?
बुराई यह है कि उम्र में बड़ा तर्पण ले तो सकता है, दे नहीं सकता। दूसरे यह कि यहाँ आए लोगों का समय भी तो कीमती है वह जाया हो रहा है।
हम तो बर्दाश्त कर रहे थे। लेकिन गाय से इतनी देर बरदाश्त नहीं हुई, वह आस पास के लोगों की निगाहें न अपनी ओर देखती न पा कर शीघ्रता से चबूतरे पर चढी और चावलों पर झपटी। वह चावलों को लपकती इस से पहले ही वहाँ खड़े लोगों में से तीन-चार उस पर टूट पड़े। गाय खदेड़ दी गई।
हम में से एक ने कहा, - एक व्यक्ति नहा कर घर जा चुका है ताकि महिलाएँ नहाने जा सकें।
दूसरा बोला, -तो हम भी चल सकते हैं।
हम उठे और शमशान के बाहर आ गए। अपने अपने वाहन पर सवार हो चल दिये अपने घरों की ओर। हमारे बाहर आने तक कतार में छह व्यक्ति थे, और हमारे इर्द-गिर्द बैठे वे लोग जो बाहर नहीं आए थे कतार में सम्मिलित होने चल दिए थे।
शुक्रवार, 20 जून 2008
इतनी अकल है, तो एक बार में नहीं लिख सकते?
वाह क्या? सीन है!
महात्मा मोदी चर्चा में हैं, विश्वविद्यालय में क्या गए, उस के कुलपति गद्गद् और कृतार्थ हो गए।
गुरू वशिष्ठ के घर राम पधारते हैं। शिष्य राम के चरण पखारते हैं। राम हैं कि जाते ही गुरू चरण वन्दना में जुट जाते हैं।
विश्वामित्र दशरथ के यहाँ जाते हैं, दशरथ द्वार तक जाते हैं, और ऋषि के चरण पखारते हैं, उच्चासन पर बिठाते हैं खुद नीचे बैठे हैं।
सीन पढ़ कर निर्देशक दहाड़ता है.....
फाड़ कर फेंक दो! सीरियल पिटवाना है क्या? दुबारा लिखो!
स्क्रिप्ट राइटर दुबारा लिखता है...........
गुरू वशिष्ठ के घर राम पधारते हैं। शिष्य राम को माला पहनाते हैं, गुरू जी, महाराजा राम के चरण पखारते हैं। राम हैं कि सीना तान कर सब से बड़े सिंहासन पर खुद आरूढ़ हो जाते हैं। गुरू झुकी मुद्रा में खड़े हैं।
विश्वामित्र दशरथ के यहाँ जाते हैं, दशरथ समाचार सुन कर कहते हैं. स्वागत कक्ष में बिठाओ, कहना अभी प्रांत संचालक से मशविरा चल रहा है। विश्वामित्र डेढ़ घंटे इन्तजार करते हैं। बुलावा आता है। दीवाने खास में विश्वामित्र पहुँच कर सिर झुका कर नमन करते हैं। राम कह रहे हैं। मास्टर जी, हम अब चक्रवर्ती हो गए हैं। जरा समय ले कर आया कीजिए।
सीन पढ़ कर निर्देशक फिर दहाड़ता है.....
इतनी अकल है, तो एक बार में नहीं लिख सकते?
गुरुवार, 12 जून 2008
हमारी मुहब्बत बज़रिए अभिषेक ओझा।
जी, उस से हमें बहुत मुहब्बत थी बचपन से ही। स्कूल जाने की उमर के पहले से ही, और वह तब तक प्रेरणा भी बनी रही, जब तक हम किशोर न हो गए। फिर समाज, या यूँ कहिए कि बाजार, एक विलेन की तरह बीच में आ गया। दरअसल हमारी माशूक की उन दिनों बाजार में हालत बड़ी खस्ता थी। हमारी वह मुहब्बत बडी़ ही सफाई से कत्ल कर दी गई। हमें जिन्दा हकीकतों के साथ बांध दिया गया। पर मुहब्बत कत्ल होने पर भी मरती नहीं। वह कहीं दिल में, या जिगर में, या दोनों के बीच कहीं फंस कर जिन्दा रही।
हमें जिन जिन्दा हकीकतों से बांधा गया था, हम उन के न हुए, और वे हमारी। वे जल्दी ही अपनी मीठी-कड़वी यादें छोड़ कर अपने रास्ते चल दीं। हम कानून के पल्ले आ बंधे।
फिर वह न जाने कब, दिल और जिगर के बीच से निकल, हमारे बरअक्स आ खड़ी हुई। अब हमारे पास उस की मुहब्बत तो थी, वहीं दिल में, मगर वस्ल की उम्र विदा हो चुकी थी। हम अब भी उस की मुहब्बत की गिरफ्त में हैं। वस्ल नहीं तो क्या? मुहब्बत वस्ल की मोहताज तो नहीं।
अब हमारी उस मुहब्बत को ले कर हाजिर हैं, "अभिषेक ओझा"। उसे ला रहे हैं अपने चिट्ठे " कुछ लोग... कुछ बातें... !" पर। कल 11 जून को वे जन्मपत्री बांच चुके हैं, हमारी मुहब्ब्त की। इंतजार कर रहे हैं हम, कि कैसे? किस लिबास में? और किस सज्जा के साथ पेश करेंगे, वे हमारी मुहब्बत को? और साथ ही जान पाएंगे, कि हमारी वह मुहब्बत ओझा जी के सानिध्य में किस हालात में जी रही है?