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बुधवार, 16 दिसंबर 2009

चार कदम सूरज की ओर

आज कल व्यस्तता के कारण स्वयं कुछ लिख पाने में असमर्थ रहा हूँ। लेकिन इस असमर्थता का लाभ यह हुआ है कि  मैं शिवराम जी की कविताएँ आप के सामने प्रस्तुत कर पा रहा हूँ। उन के सद्य प्रकाशित तीन काव्य संग्रहों में से एक कुछ तो हाथ गहों से एक गीत आप के पठन के लिए बिना किसी भूमिका के प्रस्तुत है .....

चार कदम सूरज की ओर
  • शिवराम
चोरी लूट ठगी अपराध
आपाधापी भीतरघात
भ्रष्टाचार और बेकारी
चारों ओर है मारामारी

महंगाई का ओर न छोर
चार कदम सूरज की ओर

ऐसे उदार रघुराई
कुतिया चौके में घुस आई
इतने खोले चौपट द्वार
हुए पराए निज घर-बार

बर्बादी में उन्नति शोर 
चार कदम सूरज की ओर

कर्ज के पैसे जेब में चार 
कैसे इतराते सरकार
उछले जाति धर्म के नारे
नेता बन गए गुण्डे सारे

धुआँ धुआँ सांझ और भोर
चार कदम सूरज की ओर

भावी पीढ़ी को उपहार
सेक्स, नशा और व्यभिचार
आजादी को रख कर गिरवी
भाषण देते तन कर प्रभुजी

जैसे चोर मचाए शोर
चार कदम सूरज की ओर।

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

रात इतनी भी नहीं है सियाह

"माटी मुळकेगी एक दिन" से शिवराम की एक और कविता ...

 'कविता'
रात इतनी भी नहीं है सियाह 
                                     शिवराम




चंद्रमा की अनुपस्थिति के बावजूद
और बावजूद आसमान साफ नहीं होने के
रात इतनी भी नहीं है सियाह
कि राह ही नहीं सूझे

यहाँ-वहाँ आकाश में अभी भी
टिमटिमाते हैं तारे
और ध्रुव कभी डूबता नहीं है
पुकार-पुकार कर कहता है 
बार बार
उत्तर इधर है, राहगीर! 
उत्तर इधर है


न राह मंजिल है
न पड़ाव ठिकाने

जब सुबह हो
और सूरज प्रविष्ठ हो 
हमारे गोलार्ध में
हमारे हाथों में हों 
लहराती मशालें


हमारे कदम हों 
मंजिलों को नापते हुए

हमारे तेजोदीप्त चेहरे करें
सूर्य का अभिनन्दन।

 

 

रविवार, 13 दिसंबर 2009

और क्या कर रहे हो आजकल/कविता के अलावा

"माटी मुळकेगी एक दिन" से शिवराम की एक और कविता

कविता के अलावा
  • शिवराम
जब जल रहा था रोम
नीरो बजा रहा था बंशी
जब जल रही है पृथ्वी
हम लिख रहे हैं कविता

नीरो को संगीत पर कितना भरोसा था
क्या पता
हमें जरूर यकीन है 
हमारी कविता पी जाएगी
सारा ताप
बचा लेगी
आदमी और आदमियत को
स्त्रियों और बच्चों को
फूलों और तितलियों को 
नदी और झरनों को


बचा लेगी प्रेम
सभ्यता और संस्कृति
पर्यावरण और अंतःकरण


पृथ्वी को बचा लेगी 
हमारी कविता


इसी उम्मीद में
हम प्रक्षेपास्त्र की तरह 
दाग रहे हैं कविता
अंधेरे में अंधेरे के विरुद्ध
क्या हमारे तमाम कर्तव्यों का 
विकल्प है कविता
हमारे समस्त दायित्वों की 
इति श्री 


नहीं, बताओ
और क्या कर रहे हो आजकल
कविता के अलावा ।

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

व्यथा की थाह

शिवराम के तीन काव्य संग्रहों में एक है 'माटी मुळकेगी एक दिन'। बकौल 'शैलेन्द्र चौहान' इस संग्रह की कविताएँ प्रेरक और जन कविताएँ हैं। अनवरत पर इन कविताओं को यदा कदा प्रस्तुत करने का विचार है। प्रस्तुत है एक कविता......


व्यथा की थाह
  • शिवराम

किसी तरह 
अवसर तलाशो
उस की आँखों में झाँको


चुपचाप


गहरे और गहरे


वहाँ शायद 
थाह मिले कुछ


उस की व्यथा का 
पूछने से 
कुछ पता नहीं चलेगा।







शनिवार, 5 दिसंबर 2009

सौंदर्य और सार -शिवराम के कुछ दोहे

पिछले दो दिनों से आप अनवरत पर शिवराम की कविताएँ पढ़ रहे हैं। नवम्बर में जब मैं यात्रा पर था तो उन की तीन पुस्तकों का लोकार्पण हुआ। यात्रा से लौटते ही उन की तीनों पुस्तकें मिलीं, उन्हें पढ़ रहा हूँ। शिवराम का बहुत कुछ साथ रह कर सुना पढ़ा है। पर जब वह सब कुछ पुस्तक रूप में सुगठित हो कर आया है तो अहसास हो रहा है कि वे कितने बड़े कवि हैं। वास्तव में पुस्तकबद्ध साहित्य अपनी कुछ और ही छाप छोड़ता है। तीन पुस्तकों में एक "खुद साधो पतवार" उन के दोहों की पुस्तक है। दोहों में एक विशेषता है कि वे संक्षिप्त और स्वतंत्र होते हैं। सारा सौंदर्य और सार चंद शब्दों में व्यक्त होता है। उन के अर्थ के अनेक आयाम होते हैं। यहाँ उन के कुछ दोहे प्रस्तुत कर रहा हूँ जो साहित्य के सब से प्राचीन विवाद 'तत्व और रूप' या 'सौन्दर्य और सार' पर अपनी बात कह रहे हैं।  

सौंदर्य और सार
  • शिवराम

दृष्टि जो अटके रूप में, सार तलक नहिं जाय।
सुंदरता के सत्य को, समझ वो कैसे पाय।।


मन, दृष्टि और वस्तु का, द्वंद जो ले आकार।
तब कोई रूप अनूप बन, होता है साकार।।


रूप अनोखा है मगर, सारहीन है सार।
ऐसी थोथी चारुता, आखिर को निस्सार।।


सुंदरता मन में बसे, बसे दृष्टि के माँहि।
असली सुंदर वो छवि, जाकी छवि मन माँहि।।


सुंदरता के मर्म की, क्या बतलाएँ बात।
किसी को दिन सुंदर लगे, किसी को लगती रात।।

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शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

'अनहद' शिवराम की कविता

ल शिवराम की कुछ अटपटी सी, लटपटी सी कविता "सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प" आप के सामने थी। आज उन की एक बहुत ही लघु कविता आप के सामने है। यह शिल्प का अनुपम उदाहरण है कि कितने कम शब्दों में जबर्दस्त कविता की जा सकती है। न्यूनतम शब्द होते हुए भी  अपनी विषय वस्तु को पूरी तीव्रता से रख देती है।

अनहद

  •  शिवराम
कौन कहता है
कि-
हर चीज की 
एक हद होती है

तुम्हारा ज़ब्र
अनहद,

हमारा सब्र
अनहद।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

"सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प"

'शिवराम' बहुत बड़े लेखक हैं, नामी नाटककार हैं, उन के नाटकों के बहुत भाषाओं में अनुवाद हुए हैं, वे देश में और बाहर खेले गए हैं, वे समर्थ कवि भी हैं और ऊपर से आलोचक भी हैं। पर वे अभी पत्रिकाओं नाट्य, साहित्य और सांस्कृतिक संगठनों तक सीमित हैं। उन के नाटकों और कविताओं की कुछ किताबें प्रकाशित हुई हैं लेकिन सीमित संख्या में। जब आप उन की चर्चा करते हैं तो मैं केवल चर्चा सुन कर रह जाता हूँ। मैं उन्हें पढ़ना चाहता हूँ। लेकिन कैसे पढ़ूँ? उन की किताब मुझे मिले तब न। उन की रचनाएँ इंटरनेट पर किसी तरह आ जाएँ तो मैं पढ़ भी सकता हूँ और लोगों को पढ़ने के लिए कह भी सकता हूँ। इंटरनेट महत्वपूर्ण साहित्य को विश्व भर में उपलब्ध कराने का माध्यम बन रहा है। ब्लाग इस कमी की पूर्ति कर रहे हैं।
ज शाम अजित वडनेरकर जी से फोन पर लंबी बात हुई तो यह सब उन्हों ने कहा, मैं ने गुना। वास्तव में इंटरनेट और ब्लाग की यह भूमिका बहुत बड़ी है। उन से और भी बात हुई कि ब्लाग पर क्या लिखना चाहिए? लेकिन वह फिर कभी। अभी संदर्भ में 'शिवराम' आ गए हैं, तो उन की एक विचित्र कविता पढ़िए!  पढ़िए क्या गुनगुनाइए! और कोई धुन पकड़ में आ जाए तो उसे औरों को भी सुनाइए। कविता का शीर्षक है  "सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प"

"सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प"
  •  शिवराम
मनमोहन की नाव में, छेद पचास हजार।
तबहु तैरे ठाट से, बार बार बलिहार।।

नाव नदिया में डूबी
नदी की किस्मत फूटी
नदी में सिंधु डूबा जाय
सिंधु में सेतु रहा दिखाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

वाम झरोखा बैठिके, दाँयी मारे आँख।
कबहु दिखावे नैन तो, कबहु खुजावे काँख।।
नयन से नयन लड़ावै
प्रेम बढ़तो जावै
नयनन कुर्सी रही इतराय
'सेज' में मनुआ डूबो जाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

माया सच्ची, माया झूठी, सिंहासन की माया
ये जग झूँठा, ये जग साँचा, ये जग ब्रह्म की माया।।
माया ब्रह्म के अंग लगे
ब्रह्मा माया में रमे
ब्रह्म को माया रही लुभाय
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।

अड़ अड़ के वाणी हुई, अड़ियल, चपल, कठोर।
सपने सब बिखरन लगे, घात करी चितचोर।।
चित्त की बात निराली
तुरप बिन पत्ते खाली
चेला चाल चल रहा
गुरू अब हाथ मल रहा
सुनो भाई गप्प-सुनो भाई सप्प।


अब आप ही बताएँ कि कैसी रही कविता? और कैसी रही गप्प?

रविवार, 29 नवंबर 2009

वित्तीय पूँजी ने आर्थिक ही नहीं सांस्कृतिक संकट भी उत्पन्न कर दिया है -डा. जीवन सिंह


विश्वम्भर नाथ चतुर्वेदी ‘शास्त्री’ स्मृति समारोह में महेन्द्र नेह के कविता-संग्रह ‘थिरक उठेगी धरती’ का लोकार्पण
डा. जीवन सिंह, शिवराम व रमेश प्रजापति का सम्मान


हिन्दी व संस्कृत के यशस्वी विद्वान विश्वम्भर नाथ चतुर्वेदी ‘शास्त्री’ की स्मृति में विगत 8 वर्षों से लगातार  आयोजित किया जा रहा स्मृति-समारोह विशिष्ट साहित्यिक विमर्श और सम्मान के कारण मथुरा नगर की साहित्यिक गतिविधियों में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर चुका है।  इस बार 23 नवम्बर को आयोजित समारोह  "यह दौर और कविता" विषय पर आयोजित परिचर्चा, जनकवि महेन्द्र 'नेह' के कविता संग्रह ‘थिरक उठेगी धरती’ का लोकार्पण, साहित्यिक अन्ताक्षरी की प्रस्तुति तथा रविकुमार की कविता पोस्टर प्रदर्शनी  के कारण मथुरा  नगर का एक चर्चित समारोह बन गया।  का0 धर्मेन्द्र स्मृति सभागार में आयोजित साहित्यिक समारोह में आमंत्रित साहित्यकारों के साथ-साथ बड़ी संख्या में ब्रज-क्षेत्र के प्रमुख रचनाकारों, बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भाग लिया।

मारोह के मुख्य अतिथि सुप्रसिद्ध समीक्षक डा0 जीवन सिंह थे। उन्हों ने चर्चा करते हुए कहा कि वर्तमान दौर मे वित्तीय पूँजी ने भारतीय समाज के समक्ष न केवल अभूतपूर्व वित्तीय संकट खड़ा कर दिया है अपितु सामाजिक-सांस्कृतिक संकट भी खड़ा कर दिया है।  जिस के कारण समाज की उत्पादक शक्तियों किसानों-मजदूरों व आम आदमी का जीवन यापन कठिन हो गया है। मीडिया नये नये भ्रमों की सृष्टि करके मानवता के इस संकट को बढ़ा रहा है।  उन्हों ने इस अवसर पर जन कवि महेन्द्र नेह के कविता संग्रह  "थिरक उठेगी धरती" का लोकार्पण करते हुए कहा कि महेन्द्र की ये कविताऐं व्यवस्था की जकड़बंदी के विरूद्ध प्रतिरोध जगाती हैं  और जन गण के आशामय भविष्य की ओर संकेत करती हैं। इन कविताओं में लोक जीवन की संवेदनाऐं व प्रकृति की थिरकन रची-बसी है।
सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और ‘अभिव्यक्ति’ के संपादक शिवराम ने कहा कि शास्त्री जी के जीवन में जो भाव व मूल्यबोध था, वही उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक सक्रियता की बुनियाद था। सभ्यता और संस्कृति का निर्माण शोषण व उत्पीड़न पर जीवित अनुत्पादक शक्तियाँ नहीं कर सकतीं। अभावों और संघर्षों में जीने वाले ही नयी व बेहतर संस्कृति का निर्माण करते हैं।  उन्होंने कहा कि महेन्द्र 'नेह' की कविताऐं हमारे जीवन की वास्तविकताओं को सामने रखती हैं तथा सामाजिक परिवर्तन की ओर प्रेरित करती हैं।
दिल्ली से आए वरिष्ठ साहित्यकार ‘अलाव’ के संपादक राम कुमार ‘कृषक’ ने परिचर्चा में भाग लेते हुए कहा कि हिंदी की समकालीन कविता में आधुनिकता के नाम पर जीवन की वास्तविकताओं से पलायन व जन पक्षधरता नष्ट होने की आशंकाऐं बढ़ रहीं हैं। उन्होंने कहा कि महेन्द्र नेह की कविताओं का वैचारिक परिप्रेक्ष्य सिर्फ मनोलोक से जन्म नहीं लेता बल्कि अपने समय के यथार्थ और आम आदमी की कठिनाइयों से उपजता है। नेह की कविता जनता से सीधे जुड़ाव और जन परम्परा के विस्तार की कविता है।
दिल्ली के युवा कवि रमेश प्रजापति ने ‘थिरक उठेगी धरती’ में शामिल कविताओं को वर्तमान दौर में प्रकृति समाज और संस्कृति की धड़कनों को व्यक्त करने वाली क्रान्तिधर्मी कविताऐं बताया। कार्यक्रम का संचालन करते हुए शिवदत्त चतुर्वेदी ने कहा कि शास्त्री जी की स्मृति में आयोजित यह समारोह नगर की मूल्यवान परम्परा और प्रगतिशील जनवादी संस्कृति का सांझा अभियान बन गया है।

वि महेन्द्र 'नेह' ने अपने नये काव्य-संग्रह ‘थिरक उठेगी धरती’ से प्रतिनिधि रचनाओं का पाठ करते हुए कहा कि मेरी कविताऐं यदि इस धरती और लोक की व्यथा और इसकी गौरवशाली स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति बन पाती हैं तो मैं समझूँगा कि मैं इस माटी व समाज के प्रति अपने ऋण और दायित्व को चुका रहा हूँ। इस अवसर पर  डा. जीवन सिंह, शिवराम व रमेश प्रजापति का सम्मान किया गया।

मारोह की अध्यक्षता कर रहे साहित्यकार डा0 अनिल गहलौत ने कहा कि वर्तमान अर्थ पिशाची दौर ने मध्यवर्ग को साहित्य और संस्कृति से दूर करके अर्थ के सम्मोहन में बांध दिया है। महेन्द्र 'नेह' की कविताऐं इस दौर में धन की लिप्सा और उसके प्रभुत्व को चुनौती देने वाली प्रेरणादायक कविताऐं हैं।
मारोह में कानपुर से पधारे परेश चतुर्वेदी एवं आस्था चतुर्वेदी ने महेन्द्र नेह की कविताओं की कलात्मक प्रस्तुति की। उपेन्द्र नाथ चतुर्वेदी, विपिन स्वामी एवं पं. रूप किशोर शर्मा ने साहित्यिक अन्ताक्षरी के युग को जीवित करते हुए श्रेष्ठ कविताओं की सस्वर प्रस्तुति से श्रोताओं को रोमांचित कर दिया। राजस्थान के प्रसिद्ध चित्रकार रवि कुमार द्वारा बनाये गये कविता पोस्टरों ने कार्यक्रम स्थल को जन पक्षधर कविता व चित्रकला का आधुनिक तीर्थ बना दिया। सभी उपस्थित रचनाकारों व दर्शकों ने उनकी कविता पोस्टर प्रदर्शनी की भरपूर सराहना की। आयोजकों की ओर से मधुसूदन चतुर्वेदी व डा.डी.सी. वर्मा ने सभी उपस्थित श्रोताओं का आभार प्रदर्शन किया। समारोह के अंत में ‘वर्तमान साहित्य’ के संपादक जनवादी साहित्यकार डा.के.पी. सिंह व जन कवि हरीश भादानी के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया गया एवं उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई।


 प्रस्तुति- उपेन्द्र नाथ चतुर्वेदी
                                       

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

छोड़ कर, प्रिय समारोह, बाहर जाना

चाहता तो यह था कि रोज आप को कोटा नगर निगम चुनाव के दौरान राजनैतिक दलों, प्रत्याशियों और जनता के रंग-रूप का अवलोकन कराता।  मैं 76 दिनों की हड़ताल के दौरान न तो कहीं बाहर गया और न ही कमाई की।  अपने दफ्तर के कामों से होने वाली कमाई से तो आज के जमाने में सब्जी बना लें वही बहुत है। ऐसे में पत्नी श्री शोभा का यह दबाव तो था ही कि कोटा से बहुत जरूरी काम निपटा लिए जाएँ।  लेकिन इतना आसान नहीं होता। एक तो अदालतों में मुकदमों के अंबार के कारण पहले ही वकीलों के लिए एक लंबी मंदी का दौर आरंभ हो चुका है। मंदी के दौर में व्यवसायी की मानसिकता कैसी होती है यह तो मोहन राकेश की कहानी 'मंदी'
ढ़ कर जानी जा सकती है। इन दिनों व्यवसायी अधिक चौकस रहता है। ग्राहक का क्या भरोसा कब आ जाए? वह अपनी ड्यूटी से बिलकुल नहीं हटता। ग्राहक आता है तो लगता है जैसे भगवान आ गए। उन की हर हालत में सेवा करने को तैयार रहता है। क्यों कि जो खर्चे हो रहे हैं उन्हें तो कम किया जाना संभव नहीँ और जो कम किए जा सकते हैं वे पहले ही किए जा चुके हैं।  ऐसे में आप दुकान का शटर डाउन कर बाहर चलें जाएँ तो यह परमवीर चक्र पाने योग्य करतब ही होगा।  पर शोभा का यह कहना कि हम पिछली फरवरी से अपनी बेटी के पास नहीं गए हैं, लोग क्या सोचते होंगे? कैसे माँ-बाप हैं जी, कम से कम एक बार तो संभालते जी, टाले जा सकने योग्य तो कतई नहीं था। हमने इस शनिवार-रविवार का अवकाश बेटी के पास ही गुजारने का मन बनाया। कल सुबह हम चलेंगे और दोपहर तक उस के पास बल्लभगढ़ पहुँच जाएँगे।

धर पता लगा कि इन्हीं दिनों बी.एस. पाबला जी भिलाई वाले दिल्ली पहुँच रहे हैं। इस खबर को सुन कर अजय झा जी बहुत उत्साहित दिखे। उन्हों ने एक ब्लागरों के मिलने का कार्यक्रम ही बना डाला। अब यह तो हो नहीं सकता न कि पाबला जी रविवार को हम से पचास किलोमीटर से भी कम दूरी पर हों और वहाँ बहुत से हिन्दी ब्लागर मिल रहे हों तो हम वहाँ न जाएँ। हमने भी तय कर लिया, कुछ भी हो हम दिल्ली जरूर पहुँचेंगे। इधर पाबला जी का ब्लाग देखा तो गणित की गड़बड़ दिखाई दी। वे हम को पहले ही बल्लभगढ़ पहुँचा चुके हैं। अब तो जाना और भी जरूरी हो गया है। ऐसे में हो सकता है मैं अपने ब्लागों से अगले तीन चार दिन गैर-हाजिर रहूँ। शायद आप को मेरी यह गैर हाजिरी न अखरे लेकिन मुझे तो सब के बीच से गैर हाजिर होना जरूर अखरेगा।

स बीच कोटा में चुनाव अपने पूरे रंग में दिखाई पड़ने लगेगा। आज ही शाम मुहल्ले से नारे लगाते जलूस निकला, किस प्रत्याशी का था यह पता नहीं लगा। हाँ शोर से यह जरूर पता लगा की रंग खिलना आरंभ हो चुका है।  शाम को घर पहुँचते ही निमंत्रण मिला, वह भी ऐसा कि जिस में उपस्थित होना मेरी बहुत बड़ी आकांक्षा थी। मैं उन  से बहुत नाराज था कि वे कोटा के अनेक साहित्यकारों की किताबें प्रकाशित करा चुके हैं, लेकिन अपनी नहीं करा रहे हैं।  उन की किताबें आनी चाहिए। लेकिन किस्मत देखिए कि शिवराम के नाटक का हाड़ौती रूपांतरण तीन माह पहले प्रकाशित हुआ और उस का विमोचन हुआ तो मैं कोटा में नहीं था। फिर उन के नाटकों की दो किताबों का लोकार्पण हुआ तो मैं हाजिर था। जिस की रिपोर्ट आप पढ़ चुके हैं। अब 15 नवम्बर को उन के की कविताओँ की तीन किताबों "माटी मुळकेगी एक दिन", "कुछ तो हाथ गहो" और "खुद साधो पतवार" का एक साथ लोकार्पण है और मैं फिर यहाँ नहीं हूँ।  हालाँ कि लोकार्पण के निमंत्रण में मैं एक स्वागताभिलाषी अवश्य हूँ।  यह समारोह भी शामिल होने लायक अद्वितीय होगा। जो साथी इस में सम्मिलित हो सकते हों वे अवश्य ही इस में सम्मिलित हों।

सभी साथी और पाठक सादर आमंत्रित हैं





वापस लौटने पर इन कविता संग्रहों और समारोह के बारे में जानूंगा और आप के साथ बाँटूंगा।