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सोमवार, 28 मार्च 2011

शील की कहानी - गैस खत्म

शील का ये तिरेपनवाँ साल है। हाँ, अब वह शील ही रह गई है। उस का पति सुरेश उसे इसी नाम से बुलाता है। यूँ उस के दादा ने उस का नाम शीलवती रखा था। शतभिषा नक्षत्र के तीसरे चरण में जो पैदा हुई थी। पर दादी को यह नाम लंबा लगता था वह उसे शीला कहने लगी। फिर स्कूल में भी यही नाम लिखवा दिया गया। सब लोग उसे शीला ही कहने लगे थे। विवाह के निमंत्रण में भी यही नाम छपा था। पर शादी के बाद पति ने उसे कहा कि वह उस के नाम से नहीं पुकारेगा, अच्छा नहीं लगता लेकिन दूसरा नाम क्या हो? इस पर पहले ही दिन दोनों के बीच बहस हो गई थी। फिर तय हुआ कि शील कहेगा। फिर ससुराल में यही नाम चल निकला। सब उसे शील ही कहने लगे। वह जब भी मायके जाती है तो उसे शीला कहा जाता है।  
शादी तो उस की तभी हो चुकी थी जब उस ने मेट्रिक की परीक्षा दी थी। ससुराल में उसे सिर्फ चार-पाँच साल बिताने पड़े। उन दिनों को याद करती है तो उसे अब भी रोना आ जाता है। फिर सुरेश ने घर छोड़ने की ठान ली। वह तो दिल्ली या मुंबई जैसी जगह जा कर पत्रकार बनना चाहता था। वह चला भी गया था। पर शायद शील के प्रेम की डोरी ही थी जो उसे वापस खींच लाई थी। उसे एक प्रतिष्ठित साप्ताहिक में उप संपादक का काम मिला था। लेकिन जब वह रहने का स्थान तलाशने निकला तो महानगर की सचाई सामने आ गई थी। जितनी तनख्वाह उसे मिलनी थी वह अपने कस्बे के हिसाब से तो सही थी, लेकिन मुंबई में उस से क्या होता? आधा तो किराए में ही चला जाता। वह भी तब जब वह दो और लोगों के साथ अपना कमरा साँझा करता। यदि वह साँझे कमरे में रहता तो शील को अपने साथ कैसे रख सकता था। उस ने यह भी अनुमान लगाया कि कितने बरस बाद वह ऐसा स्थान ले सकता था जिस से शील को साथ रख सके। अनुमान आया सात बरस। सात बरस! इतने दिन वह शील के बिना कैसे रहेगा। वह इतने साल अपने पीहर में तो नहीं ही रह सकती, और ससुराल में? वहाँ तो इतने दिन में उस का दम कितनी ही बार घुट चुका होगा। सुरेश ने उसी दिन साप्ताहिक के दफ्तर को टा-टा कर दिया। चार दिन के काम की मजदूरी छोड़ कर वापसी की ट्रेन का टिकट लिया और अगली शाम वह ट्रेन में वापसी की यात्रा कर रहा था। शील सोचती है कि तब सुरेश ने यदि वह नौकरी न छोड़ी होती तो वह घुट कर ही सही जैसे-तैसे सात बरस काट ही लेती। ससुराल में दम घुटने लगता तो दम लेने को कुछ महिने अपने पीहर में काट लेती। लेकिन सुरेश अवश्य ही देश का शीर्ष पत्रकार होता। शायद किसी शीर्ष समाचार पत्र का प्रमुख संपादक। जरूर कोई टीवी चैनल उस का भी आधे घंटे का साप्ताहिक कार्यक्रम चला रहा होता। तब शील की हैसियत भी वैसी ही होती। 
सुरेश ने मुंबई से लौटते ही फैसला ले लिया कि जैसे ही उस की कानून की पढ़ाई पूरी होगी वह वकालत शुरू कर देगा। फिर देखेगा कि कोई नौकरी करनी है या नहीं। यदि कोई ढंग-ढांग की नौकरी मिली तो करेगा, नहीं तो वकालत कोई बुरी नहीं। कम से कम खुद-मुख्तार तो रहेगा। उस ने यही किया भी, जिस रात वह कानून का आखिरी पर्चा देकर घर लौटा उस के अगले ही दिन अल्ल सुबह वह वकील के दफ्तर में पहुँच गया और कहने लगा -मैं आ गया हूँ मुझे आप की फाइलें संभला दो। उसी दिन वह उन के साथ अदालत में था। तीन महीने परीक्षा का परिणाम आने में लगे और तीन माह सनद आने में। जिस दिन डाक से बार कौंसिल का लिफाफा मिला सुरेश ने सीधा अपने बॉस को ले जाकर दिया। उन्हों ने खोल कर देखा तो उस में वकालत की सनद जारी करने की सूचना थी। बॉस ने तीन दिन पहले ही सिल कर आया नया कोट अपने शरीर पर से उतार कर सुरेश को पहना दिया। उस दिन सुरेश काला कोट पहने ही घर लौटा था। वह दिन शील आज तक नहीं भूल सकती। उसे लगा था कि वह उस की आजादी की शुरुआत थी। 
सोचते-सोचते शील का ध्यान रसोई में गैस पर चढ़े ओवन में सिकने को रखी बाटियों की ओर गया। आज रविवार था और सुरेश अक्सर उसे कहता था रविवार को तो दाल बाटी बना लिया करे। आज उस ने सुरेश की यह बात मान ली थी। दाल तो उस ने नहीं बनाई लेकिन कढ़ी बना ली थी और ओवन में बाटियाँ सेकने को डाल दी थीं। उस ने ओवन का ढक्कन उठा कर देखा तो बाटियाँ जस की तस थीं। वह हैरान रह गई कि यह हुआ क्या? उस की निगाह गैस की ओर गई तो चूल्हा बुझा हुआ था। गैस टंकी को हिला कर देखा तो वह बिलकुल खाली थी। ओवन भले ही ठंडा हो गया हो पर उस के दिमाग तुरंत गरम हो गया। वह एक महीने से सुरेश को याद दिला रही थी कि गैस सिलेंडर ले आओ। लेकिन उसे फुरसत हो तब न। अब कैसे भोजन बनेगा? सुरेश तो अब तक बिना नहाए बैठा इंतजार कर रहा था कि कब शील उसे भोजन बनने की सूचना दे और कब वह स्नानघर में प्रवेश करे। उस की आदत जो है कि इधर स्नानघर से निकला कपड़े पहने, ठाकुर घर में घुस कर सैंकंडों में माथे पर टीका लगाया और तुरंत भोजन चाहिए। जरा भी देरी उस से बर्दाश्त नहीं होती। इस नए मुहल्ले में वह सिलेंडर भी किस से मांगेगी? यहाँ तो उसे कोई ठीक से जानता भी नहीं। सुरेश को भी नहीं कह सकती, उस के पास दफ्तर में कोई क्लाइंट जो बैठा है। 
ह सोच में ही पड़ी हुई थी कि सुरेश पानी पीने के लिए दफ्तर से अंदर आया। उस ने तपाक से कहा गैस खत्म हो गई है। सुरेश ने पूछा -खाना बना? -नहीं अभी कहाँ बस कढ़ी बनी है, बाटी सिकने को डाली ही थी। सुरेश भी सोचने लगा कि अब क्या किया जाएगा? गलती तो उसी की है। शील तो महीने भर से कह रही थी गैस लाने को। लेकिन उसे फुरसत मिले तो। एक दिन पहले फोन करना पड़ता है दूसरे दिन ऐजेंसी से लाना पड़ता है, वह भी दुपहर को जब उस का अदालत का समय होता है। वह देख ही रहा था कि किस दिन वह अदालत से दोपहर को निकल सकता है। कल ही उस ने ऐजेंसी को फोन किया था और उसे सोमवार को गैस लानी थी। लेकिन इस गैस को भी रविवार को ही खत्म होना था। एक छोटा सिलेंडर और था जिसे वह इमरजेंसी में काम ले सकता था। लेकिन उसे भी वह पिछले महीने शील की बहिन के बच्चों को दे आया था जो उसी शहर में कमरा ले कर पढ़ रहे थे। सुरेश को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था कि शील बोल पड़ी। अभी घर में बहुत नाश्ता पड़ा है, तुम तो नाश्ता कर लो। सुरेश समझ गया कि वह उसे ताना दे रही है। थोड़ी देर और गैस का कोई हल न हुआ तो साक्षात दुर्गा के दर्शन संभव हैं। सुरेश ने कहा -तुम जानती हो मुझे स्नान के पहले कहाँ भूख लगती है। तुम गुस्सा न करो, अभी कुछ न कुछ करता हूँ। 
तना कह कर वह फिर अपने दफ्तर में जा बैठा। क्लाइंट ने अपनी राम-कथा फिर जारी कर दी, जिस का मुकदमे से कोई ताल्लुक न था। पर वकील को सुननी तो सब पड़ती है वर्ना क्लाइंट समझता है उस की पूरी बात सुनी ही नहीं वकील वकालत कैसे करेगा? वह सुनता रहा। लेकिन अब एक भी शब्द उस के कानों तक नहीं पहुँच रहा था। उसे तो तुरंत गैस का इन्तजाम करना था। उसे कुछ ही दूर रहने वाले अपने एक शिष्य का ख्याल आया तो तुरंत फोन की ओर उस का हाथ बढ़ गया। यह सुखद ही था कि फोन पर शिष्य मिल गया था। उस के घर तो कोई भरा सिलेंडर उपलब्ध नहीं था, लेकिन इतना जरूर कह दिया था कि वह कुछ मिनटों में कोई न कोई इंतजाम कर के फोन करेगा। वह शील को बताना चाहता था। लेकिन उसे अपने गुरू का मंत्र याद आ गया कि कभी अधूरी सफलता का उल्लेख किसी से न करो। यह सही भी था। यदि वह शील को बताता कि गैस का इंतजाम अभी हुआ जाता है, और गैस का इंतजाम दो घंटे भी न हुआ तो दुर्गा के साथ काली के दर्शन होना भी स्वाभाविक था। वह चुपचाप अपने क्लाइंट की राम-कथा फिर सुनने लगा। हालाँकि उस का पूरा ध्यान फोन की तरफ था कि कब घंटी बजे और कब उसे राहत मिले। 
स मिनट में ही घंटी बज उठी। संदेश था कि तुरंत गैस ले जाओ। सुरेश ने क्लाइंट को भी अपने साथ उठाया और गाड़ी में बैठाया। शिष्य एक पडौ़सी के घर के बाहर ही दिखे। वहाँ दरवाजे पर गैस सिलेंडर तैयार था। वह सिलेंडर रखवा कर घर लौटा। रसोई में सिलेंडर बदल कर चूल्हा जलाने को माचिस तलाशी तो वहाँ पड़ी माचिस खाली थी। उस ने कमरे में टीवी देखने जा बैठी शील को आवाज दी -माचिस कहाँ है? शील तुरंत उठ कर रसोई में घुसी। सुरेश गैस के सामने से हट गया। शील ने लाइटर से गैस जलाई। एक ही प्रयास में गैस जल उठी। सुरेश को आश्चर्य हुआ कि लाइटर पहली ही बार में कैसे काम कर गया? वह तो खराब हो चुका था और सात-आठ बार दबाने पर एक बार बमुश्किल काम करता था। पर इस से क्या शील के चेहरे पर से भी तनाव की सारी रेखाएँ पल भर में गायब हो चुकी थीं, दबी-दबी मुस्कान भी दिखाई दे रही थी। सुरेश को तसल्ली हुई। वह फिर से दफ्तर में आ गया। क्लाइंट की राम-कथा समाप्ति के दौर में थी। वह सोच रहा था कि क्लाइंट के उठते ही वह सीधा स्नानघर में घुस लेगा।

गुरुवार, 10 मार्च 2011

यात्रारंभ : बिन्दु और वृत्त

पिछले अंक रूप बदलती आकृतियाँ  से आगे  .....
कृतियों के बनने का आरंभ हमेशा की तरह इस बार भी एक बिंदु से हुआ था, पहले की तरह उस में से कोई रेखा बाहर की ओर नहीं निकली थी। इस बार वह बिंदु ही एक गुब्बारे की तरह फूलने लगा था। वह एक वृत्त में तब्दील हो गया था। वृत्त के भीतर खाली स्थान था, जो शनै-शनै वृत्त की परिधि के साथ-साथ बढ़ता जाता था। अचानक वह प्रस्थान बिंदु उसे अत्यन्त महत्वपूर्ण लगने लगा था। वह सोचने लगा कि जीवन में हर चीज एक बिंदु से ही तो आरंभ होती है। उस ने जब पहली बार ईंट के टुकड़े से लिखने का प्रयास किया था तब भी सब से पहले बिंदु ही तो बना था और उसी से वह आड़ी-तिरछी रेखा फूट पड़ी थी जिस से उस ने बाद में अक्षर बनाए थे, अक्षरों से शब्द और शब्दों से वाक्य। अब तो वह उस बिंदु से आरंभ कर के कुछ भी सिरज सकता था, कोई संदेश, मन की बात या फिर कोई ऐसी चीज जो किसी के दिल में तीर सी जा कर लगे। वह उसी से फूलों का रूप और गंध पैदा कर सकता था और किसी चिट्ठी के माध्यम से अपने किसी प्रिय तक पहुँचा सकता था। वह बिंदु से ऐसी चीज भी पैदा कर सकता था, जिस से लोग चिढ़ने लगते। वह उसी बिंदु से रेखाएँ उपजा कर किसी और के सिरजे को ढक भी सकता था। वह बिन्दु से पहिया भी बना सकता था जिस पर दुनिया घूमी जा सकती थी। वह पत्थर का ढेला भी सिरज सकता था, जो पहिए की ओट बन कर उसे रोक ले, गिरा दे। ओट में उस की कोई रुचि नहीं थी। उस से पहिए की गति रुक जाती है। गतिशील दुनिया थम जाती है। एक थमी हुई दुनिया भी कोई दुनिया है। गति उसे पसंद थी। उसे लगा कि गति ही जीवन है। गति समाप्त हो जाए तो सब कुछ रुक जाएगा। गति ही तो समय है, वह समाप्त हो गई तो समय का क्या होगा? क्या वह भी समाप्त हो जाएगा? समय समाप्त हुआ तो क्या शेष  रहेगा? सिर्फ ढेला, या  फिर सिर्फ बिंदु?
सोच में व्यक्ति अंतर्मुखी होने लगता है, वह सिर्फ अपने अनुभवों से रूबरू होता रहता है। नवीन का संज्ञान, उस के बस का नहीं रहता। ऐसा लगता है, जैसे वह किसी महासागर के तल में पहुँच गया है, जहाँ एक नई दुनिया है। जब कि वाकई वह नई नहीं होती। वह केवल उस के पूर्व अनुभवों के मेल से निर्मित कोई चीज होती है, जिसे वह नया समझ बैठता है। सोच ने उस का ध्यान बंटा दिया था। उस की यात्रा बिन्दु से आरंभ हो कर वृत्त पर आ कर रुक गई थी। उसे बिंदु याद आ रहा था। वही सब से ताजा प्रस्थान बिंदु। उस ने अपने सोच की यात्रा को ढेला लगा दिया। परिधि की ओर से ध्यान हटा, उस ने वृत्त के केंद्र पर देखा, वहाँ एक और बिंदु विराजमान था। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह वही प्रस्थान बिंदु था या कोई और। तभी परिधि ने अपनी गोलाई को त्याग दिया। वह हिल-डुल रही थी। उसे देख उसे अमीबा याद आया। जिसे पहले पहल उस ने बायो-लैब में बनाई एक स्लाइड को माइक्रोस्कोप पर लगा कर देखा था। वह भी ऐसे ही हिलता-डुलता था, हर समय अपनी आकृति बदलता रहता था। उसे ड्रॉ करना सब से मुश्किल काम था। ऐसी आकृति को कैसे उकेरा जा सकता था जो कभी स्थिर होती ही न हो? फिर जब उस ने उसे ड्रॉ करने की कोशिश की तो उसे वह बहुत आसान लगा था। एक बिंदु से आरंभ करो और कैसे भी आड़े-तिरछे पेंसिल घुमाते हुए वापस बिंदु पर ले जा कर छोड़ दो। बस तैयार हो गई अमीबा की बाह्याकृति। 
ब तक वृत्त के भीतर वाला बिंदु भी विस्तार पा चुका था। पर इस बार उस के भीतर खाली स्थान न था, कुछ भरा था।  उस ने देखा, यह तो वैसी ही आकृति है जैसी उस ने पहली बार अमीबा को ड्रॉ कर के बनाई थी। उसे अपनी बायो-साइंस की पढ़ाई स्मरण आने लगी। अमीबा तो सब से सरल जीव था, एक कोषीय। शायद यही गतिमय जीवन का प्रस्थान बिंदु भी था। क्या अजीब बात थी? एक बिंदु, उस से वृत्त। वृत्त में  फिर एक बिंदु, विस्तार पाता हुआ। उस से बना एक अमीबा, जो फिर एक प्रस्थान बिंदु है। इस के आगे? उसे पढ़ी हुई बायो-साइंस याद आने लगी। बहुकोषिय सरल जंतु, पाइप जैसे। आगे, कुछ बड़े और जटिल भी। कुछ पानी में रहने वाले, कुछ गीली जमीन में और कुछ सूखी जमीन पर रहने वाले, कुछ हवा में उड़ने वाले जन्तु। रीढ़ वाले और बिना रीढ़ वाले जंतु। विविध जंतुओं की विशाल श्रंखला। इतनी विशाल कि मनुष्य उन्हें सूचीबद्ध करने लगे तो सूची हमेशा अनन्तिम ही बनी रहे। विशाल, विस्तृत, विविध दुनिया। ज्ञात और अज्ञात, अनन्त विश्व। फिर एक सवाल उस के जेहन में उमड़ पड़ा, कहाँ से आया यह सब? क्या एक बिन्दु मात्र से?
स विचार से उसे हँसी आने लगी। क्या मजाक है? एक बिन्दु से यह सब कुछ कैसे उपज सकता है? पर उस का अनुभव और तर्क तो यही इशारा करते हैं, कि यह सब, सब का सब, एक बिन्दु से ही उपजा है। अब उसे आश्चर्य हो रहा था। एक बिन्दु से सब का सब उपज गया। उसे कुछ-कुछ विश्वास होने लगा कि ऐसा हो सकता है। बल्कि ऐसा ही हुआ होगा। निश्चित रूप से ऐसा ही हुआ है। बिन्दु में गति, गति से समय, बिन्दु से आकृतियाँ, बिन्दु से वृत्त, बिन्दु से ही स्थान, बिन्दु से दुनिया, बिन्दु से विश्व, अखिल विश्व। तभी अचानक अमीबा सिमटने लगा। शनै-शनै सब कुछ सिमट गया। रह गया एक बिंदु। फिर वह भी गायब हो गया। अब कुछ नहीं था। उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था।  उसे अपने काम का अहसास हुआ। कितना बड़ा काम मिला है उसे। उस ने उसे समय सीमा में सफलता पूर्वक कर दिया तो वह एक नए प्रस्थान बिंदु पर खड़ा होगा। वह किस सोच में पड़ा है? उसे काम तुरंत आरंभ करना चाहिए। समय बहुत कीमती है, कम से कम इस नए प्रस्थान बिंदु पर जिस की मंजिल पर पहुँच कर वह एक नई दुनिया में होगा, एक नए प्रस्थान बिंदु पर, एक नई यात्रा आरंभ करने को तैयार। उसे मार्ग मिल गया था। एक बिंदु से सारी दुनिया, अखिल विश्व सिरजा जा सकता है तो वह इस काम को तयशुदा समय में नहीं कर सकता? अवश्य कर सकता है। वह करेगा, और तयशुदा समय से कम समय में कर सकता है। वह उठा, और काम में जुट गया । उस की यात्रा आरंभ हो चुकी थी।
...... क्रमश: जारी

बुधवार, 9 मार्च 2011

रूप बदलती आकृतियाँ

गातार रूप बदलती उन आकृतियों ने उसे बहुत परेशान कर रखा था। जब भी उस ने दिमाग को जरा भी फुरसत होती, वे सामने आने लगतीं। वे लगातार गतिमय रहती थीं और रूप बदलती रहती थीं। शुरु शुरू में उसे सिर्फ एक बिंदु दिखाई दिया था। जल्दी ही उस से एक रेखा निकल पड़ी और घूम कर वापस उसी बिंदु पर आ मिली। वह एक गोला था, पर वह गोला जैसा भी नहीं था। यूँ कहा जा सकता था कि वह किसी इंसान के पैर के अंगूठे जैसा दिखाई देता था। वह कुछ सोच पाता उस के पहले ही वह छोटा होना शुरु हो गया। लगता था जैसे वह अंगूठे के पास की उंगली हो गया हो, फिर उस के पास की उंगली, फिर उस के पास की उंगली, फिर पैर की सब से छोटी उंगली जैसा। फिर उस के जेहन में कोई और बात आ गई, सारी आकृतियाँ गायब हो गईं। कई दिन तक वे फिर नहीं दिखीं। हफ्ता भर ही निकला होगा, वह अपने दफ्तर में बैठा हुआ किसी समस्या के हल के बारे में कुछ सोच रहा था, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। वे आकृतियाँ दिखना फिर आरंभ हो गयी। इस बार बिंदु सीधे एक पैर की शक्ल जैसी आकृति में बदल गया था जो जल्दी-जल्दी उलटा-सीधा होता रहा। कभी लगता वह दायाँ पैर है ते कभी लगता वह बायाँ पैर है। वह उस आकृति के बारे में कुछ अधिक सोच पाता, उसे अपनी समस्या के हल का मार्ग सूझ पड़ा और वह गतिमय आकृति अचानक लुप्त हो गई, जैसे वह कोई सपना देख रहा  था और पूरा होने के पहले ही नींद टूट गई हो।
ह व्यस्त हो गया। रोज काम के बाद इतना थक जाता कि बिस्तर पर पड़ते ही नींद आ जाती। सुबह उठता तो महसूस होता कि अभी अभी सोया था और जाग पड़ा है, कुछ ही क्षणों में पूरी रात बीत गई। इस व्यस्तता के बीच उसे वे रूप बदलती आकृतियाँ दिखाई नहीं दीं, वह भी उन्हें भूल गया। लेकिन जैसे ही उसे कुछ फुरसत हुई वे फिर से टपक पड़ीं। इस बार भी वे एक बिंदु से आरंभ होती थीं, लेकिन इस बार बनी आकृतियों का पैरों से कोई सामंजस्य न था। अब उसे लगता कि ये आकृतियाँ पैरों के बजाय हाथों की उंगलियों के पौर बना रही हैं, फिर शनै शनै एक हाथ के पंजे में तब्दील हो रही हैं। हाथ के पंजे उसी तरह उलट-पलट हो रहे हैं कि कभी दायें हाथ का, तो कभी बाएँ हाथ का अहसास होता है। हर बार कुछ दिनों के अंतराल से ये आकृतियाँ दिखाई देतीं। धीरे-धीरे उसे मानव शरीर के सभी अंग उन बदलती हुई आकृतियों में दिखाई देने लगे। चेहरा भी बना पर यह पहचान पाना कठिन था कि वह चेहरा किसी स्त्री की तरह लगता था अथवा किसी पुरुष की तरह। वह परेशान हो गया, सोचने लगा कि यदि वह चेहरा किसी पुरुष  का होता तो उस पर दाढ़ी मूँछ अवश्य होते। लेकिन अब तक जितनी भी आकृतियाँ उसे दिखाई दी थीं, उन में केश या रोमों का नामो-निशाँ तक न था। उस ने ऐसे पुरुष भी देखे  थे जिन्हें  बार बार रेजर फेरते भी ता-उम्र दाढ़ी-मूँछ नसीब न हुई थी। कहीं यह आकृतियाँ किसी ऐसे ही पुरुष की ओर तो इशारा नहीं कर रही थीं? उस के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। फिर वे आकृतियाँ छिन भर को भी स्थिर नहीं रहती थीं, दिखाई देतीं, लगातार बदलती रहतीं और फिर गायब हो जातीं। कभी वह सोचता कि  काश वह चित्रकार होता, तो कितना अच्छा होता। वह इन आकृतियों को किसी कागज पर चित्रित करने का प्रयत्न करता। 
न आकृतियों में उसे गले के नीचे, और घुटनों के ऊपर के हिस्से का अहसास आज तक नहीं हो सका था। उन में से कुछ भी यदि दिखाई दिया होता, तो वह अनुमान कर सकता था कि ये आकृतियाँ उसे क्या दिखाना चाहती हैं? वह सोचता था कि आकृतियाँ एक स्त्री से संबंधित होना चाहिए। यदि वे आकृतियाँ किसी पुरुष  से संबंधित होतीं तो अभी तक उस के पुरुष होने की पहचान उजागर हो गई होती। पर फिर वह यह भी सोचता कि वह स्वयं एक पुरुष है, और एक नैसर्गिक आकर्षण के तहत एक स्त्री के बारे में सोच रहा है। पुरुषों को तो स्वप्न में भी स्त्रियाँ ही दिखाई पड़ती हैं। शायद इस कारण भी कि वे उसे प्रिय हैं। जब कभी उस के स्वप्न में पुरुष दिखाई दिया भी तो एक प्रतिस्पर्धी के रूप में, बल्कि एक प्रतिद्वंदी के रूप में। इसी लिए उसे हमेशा किसी भी तरीके की आकृतियों में स्त्रियाँ ही पहले दिखाई देती हैं। चाहे वे बाद में पुरुष ही क्यों न निकलें। उस ने अपने सिर को झटक दिया। वह क्या सोचने लगा? ऐसा क्या है स्त्री में जो हमेशा ही उस के जेहन पर कब्जा जमाए बैठी रहती है? वह फिर इन आकृतियों में स्त्री की कल्पना करने लगा। लेकिन अंत में ये भी कहीं किसी पुरुष से संबंधित ही निकलीं तो। उस का सोचना सब बेकार ही चला जाएगा। इस वक्त वह चाहने लगा था कि उसे वे आकृतियाँ फिर से दिखाई देने लगें।  वह उन में खोजने का प्रयत्न करेगा कि वे किसी पुरुष से संबंधित हैं या स्त्री से?  कुछ  देर के लिए उस ने अपनी आँखें बंद कर लीं और देखने का प्रयत्न करने लगा कि शायद वे आकृतियाँ उसे दिखने लगें। बचपन में उस के साथ ऐसा ही होता था। वह कोई खूबसूरत हसीन सपने में खोया होता, सपने का क्लाईमेक्स चल रहा होता कि कभी माँ या बहिन या कोई और उसे जगा देता। उसे बहुत झुँझलाहट होती। आखिर उस ने इन लोगों का क्या बिगाड़ा था जो सपना भी पूरा नहीं देखने दिया। तब उसे गुस्सा आने लगता, जब उसे जगा कर पूछा जाता कि क्या उसे चाय पीनी है? अब यह भी कोई बात हुई कि किसी को जगा कर पूछा जाए कि उसे चाय पीनी है। उस की तो नींद फोकट में खराब हो गई। सपना गया, सो अलग। वह गुस्से में चाय के लिए मना कर देता, नहीं पीनी उसे चाय। चादर तान कर फिर से सोने की कोशिश करता। इस कोशिश में कि उसे फिर से नींद लग जाए और टूटा हुआ सपना फिर से दिखाई देने लगे, उसे पता लग सके कि क्लाइमेक्स के बाद क्या हुआ?
स ने बहुत बार ऐसा किया। फिर से उसी सपने में लौटने की कोशिश की। लेकिन ज्यादातर वह सफल नहीं हुआ। अक्सर ही टूटी हुई नींद फिर से नहीं जुड़ती।  वह कुछ मिनट कोशिश करने के बाद उठ बैठता और माँ या बहिन को जोर से चिल्ला कर कहता। अब जगा दिया है, उसे नींद नहीं लग रही है लेकिन आलस भगाने को चाय चाहिए। पहले तो माँ या बहिन लड़ने लगती कि अब फिर से उस की चाय के लिए पतीली चढ़ाई जाए। पहले ही क्यों न बता दिया? लेकिन बाद में वे उस की आदत को समझने लगीं और उस के दुबारा सोने का प्रयत्न करने के समय कुछ देर इंतजार करतीं और जब वह पाँच-सात मिनट में चाय की मांग करने लगता तो पतीली चढ़ातीं। अब वे चाय चढ़ाने के समय के पंद्रह मिनट पहले ही उसे जगाने लगीं। कभी कभी नींद वापस लग भी जाती, लेकिन कोई सपना नहीं आता। कभी सपना आता तो वह कोई और ही सपना होता, वह नहीं, जिसे देखने के लिए वह फिर से नींद के आगोश में कूद पड़ा था। कभी वही सपना भी फिर से दिखाई देने लगता जिस के क्लाईमेक्स के बाद की कहानी जानने के लिए वह चादर फिर से तान लेता था। ऐसे में क्लाईमेक्स के बाद की कहानी हू-ब-हू वैसी ही होती जैसी वह सोचता जाता। कहानी पूरी हो जाती और वह उठ बैठता। फिर सोचने लगता कि उस की नींद दुबारा लगी भी थी या नहीं। या फिर वह जैसा सोचता था वैसा ही उसे दिखता जाता था। वह फिर वही कोशिश दुहरा रहा था। चाह रहा था कि वे आकृतियाँ उसे फिर से दिखने लगें और उन का संबंध किसी स्त्री से ही हो। एक खूबसूरत सी स्त्री, जो उस की सारी आकांक्षाएँ पूरी कर सके। उस की कोशिश कामयाब न होनी थी और न हुई। कोशिश करने पर भी उसे वे आकृतियाँ नहीं दिखाई दीं। उस ने कोशिश छोड़ी नहीं, बार-बार करता रहा। कई दिनों, सप्ताहों और महिनों तक। लेकिन वे आकृतियाँ उसे दिखाई नहीं दीं। उस ने एक दिन सोचा, चलो उन से पीछा छूटा। उस ने उन के बारे में सोचना बिलकुल बंद कर दिया। फिर धीरे-धीरे उन्हें भूल गया, जैसे उसे वे उसे कभी दिखाई दी ही नहीं थीं। वह अपने काम में जुट गया। अब तो फुरसत होने पर भी उसे वे दिखाई नहीं देतीं थीं। 
फिर एक दिन, जब उसे अपने जीवन का अब तक का सब से बड़ा और मुश्किल लगने वाला काम करना था। वह एक प्रोफेशनल था। उसे जो काम मिला था वह बहुत महत्वपूर्ण था, जिसे उसे एक निश्चित समय  पर पूरा कर के देना था। उस का कैरियर उस पर निर्भर करता था। यदि वह उस काम को निश्चित समय पर सफलता पूर्वक न कर सका तो उस का वर्तमान दाँव पर लग जाता, और कर लेता तो उसे उन ऊँचाइयों पर पहुँचा देता जिस की वह बरसों से सिर्फ कल्पना करता आ रहा था। वह उस काम को आरंभ करने की जुगत ही नहीं बैठा पा रहा था, कि उसे कहाँ से शुरु करे? ..... वे आकृतियाँ उसे फिर से दिखाई देने लगीं। वह काम को भूल गया। आकृतियों में तलाशने लगा कि आखिर उन आकृतियों में स्त्री है या पुरुष।   

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

शमशेर के साहित्य को उन के जीवन और समकालीन सामाजिक यथार्थ की पृष्ठभूमि में समझा जाना चाहिए

शमशेर जन्म शताब्दी पर कोटा में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी की रपट
पिछले माह 12-13 फरवरी को कवि शमशेर बहादुर सिंह की शताब्दी वर्ष पर राजस्थान साहित्य अकादमी और 'विकल्प जन सांस्कृतिक मंच द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी 'काल से होड़ लेता सृजन' संपन्न हुई। कल आप ने इस संगोष्ठी रिपोर्ट के पूर्वार्ध  में पहले दिन का हाल जाना। आज यहाँ संगोष्ठी की रिपोर्ट का उत्तरार्ध प्रस्तुत है ... 
मुख्य अतिथि का स्वागत करते कवि ओम नागर
बोलते हुए महेन्द्र 'नेह'
गले दिन 13 फरवरी का पहला सत्र ‘शमशेर की कविताओं में जनचेतना’ विषय पर था। जिस का  आरंभ ओम नागर की कविता ‘काट बुर्जुआ भावों की बेड़ी’ से आरंभ हुआ। इस सत्र में. बीना शर्मा ने कहा कि शमशेर को ऐंद्रिकता, दुर्बोधता और सौंदर्य का कवि कह कर पल्ला नहीं छुड़ा सकते। हम उन के समूचे काव्य कर्म का मूल्यांकन करें तो वहाँ पाएंगे कि पीड़ित जन की पीड़ा की अभिव्यक्ति उन के काव्य का केंद्र है। अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि उन के लेखन का मानवीय पक्ष बहुत सशक्त है, वे रूस की समाजवादी क्रांति से प्रभावित हुए और अंत तक श्रमजीवी जनता के लिए लेखन करते रहे। जयपुर से आए प्रेमचंद गांधी ने कहा कि वे सचेत जनपक्षधरता के कवि ही नहीं थे अपितु जनसंघर्षों में जनता के साथ सक्रिय रूप से खड़े थे। उन के जन का अर्थ बहुत व्यापक है। वे पूरी दुनिया के जन की बात करते हैं। वे आजादी के दौर में ही पूरी दुनिया के जन की मुक्ति की बात करते हैं। उन के काव्य की अमूर्तता अनेक स्तरों पर बोलती है। जब उस के अर्थ खुलते हैं तो दो पंक्तियों में पूरी दुनिया दिखाई देने लगती है। उन की कविता का दर्शन पूरी दुनिया कि जन की मुक्ति का दर्शन है। इस सत्र का मुख्य वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए शैलेंद्र चौहान ने कहा कि शमशेर वामपंथी तो हैं, लेकिन वे वाम चेतना को पचा कर रचनाकर्म करते हैं। वे एक सम्पूर्ण कलाकार के रूप में सामने आते हैं जो अन्य ललितकलाओं के रूपों को कविता में ले आते हैं। इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे मनु शर्मा ने कहा कि शमशेर के साहित्य को समझने के लिए चित्रकला को समझना जरूरी है। उन का चित्रकला का अभ्यास उन की कविता में रूपायित हुआ है। इस सत्र का सफल संचालन डॉ. उषा  झा ने किया।
डॉ. हरे प्रकाश गौड़
महत्वपूर्ण प्रतिभागी हितेष व्यास, शकूर अनवर, नन्द भारद्वाज और उन के पीछे शैलेन्द्र चौहान
संगोष्ठी का चौथा सत्र ‘शमशेर : जीवन, कला और सौंदर्य’ विषय पर था। इस विषय को खोलते हुए कवि-व्यंगकार अतुल कनक ने कहा कि शमशेर की रूमानियत व्यक्तिगत नहीं अपितु सत्यम शिवम् सुंदरम है। डॉ. राजेश चौधरी ने कहा कि शमशेर ने अपनी हर रचना के साथ कला का नया प्रयोग किया, इसी से उन्हें दुर्बोध कहना उचित नहीं। साहित्यकार रौनक रशीद ने कहा कि शमशेर को दुरूह कहना उन के साथ अन्याय करना है वे ग़ज़ल जैसी परंपरागत विधा के साथ पूरा न्याय करते हैं और पूरी तरह सहज हो जाते हैं। वरिष्ठ ब्लागर दिनेशराय द्विवेदी ने उन की कविताएँ ‘काल से होड़’ और ‘प्रेम’ प्रस्तुत करते हुए कहा कि शमशेर का अभावों से परिपूर्ण जीवन अभावग्रस्त जनता के साथ उन का तादात्म्य स्थापित  करता था। उन के साहित्य में जीवन साधनों से ले कर प्रेम और सौंदर्य के अभाव की तीव्रता पूरी संश्लिष्टता के साथ प्रकट होती है। डॉ. नन्द भारद्वाज ने कहा कि शमशेर के साहित्य को उन के जीवन और समकालीन सामाजिक यथार्थ की पृष्ठभूमि में समझा जाना चाहिए, ऐसा करने पर दुरूह नहीं रह जाते हैं। इस सत्र के अध्यक्ष सुरेश सलिल ने सब से महत्वपूर्ण पत्र वाचन करते हुए बताया कि शमशेर में मानवीय सौंदर्य से राजनैतिक दृष्टि का विकास दिखाई देता है, उन्हें समझने के लिए हम साहित्य के पुराने प्रतिमानों से काम नहीं चला सकते। हमें उन के लिए नए प्रतिमान खोजने होंगे। इस सत्र संचालन अजमेर से आए कवि अनंत भटनागर ने किया।
सुसज्जित सभागार और प्रतिभागी
     संगोष्ठी के समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि व केन्द्रीय साहित्य अकादमी (राजभाषा) के सदस्य अम्बिकादत्त ने कहा कि शमशेर बहादुर सिंह का साहित्य यह चुनौती प्रस्तुत करता है कि समीक्षा के औजारों में सुधार किया जाए और आवश्यकता होने पर नए औजार ईजाद किए जाने चाहिए। यही कारण है कि शमशेर के साहित्य को व्याख्यायित करने की आवश्यकता अभी तक बनी हुई है और आगे भी बनी रहेगी। समापन सत्र में ‘शमशेर का गद्य और विचार भूमि’ विषय पर डॉ.गीता सक्सेना, कवियित्री कृष्णा कुमारी, साहित्यकार भगवती प्रसाद गौतम तथा डॉ. विवेक शंकर ने पत्र वाचन किया तथा कथाकार विजय जोशी ने अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया। इस सत्र का संचालन करते हुए विकल्प के अध्यक्ष महेन्द्र नेह ने कहा कि केवल शमशेर ही हैं जो यह बताते हैं कि किस तरह एक महत्वाकांक्षी लेखक अपनी परंपरा, विश्वसाहित्य का सघन अध्ययन करते हुए तथा जनता के साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए वाल्मिकी, तुलसी, शेक्सपियर जैसा महान साहित्यकार बन सकता है।
    इस संगोष्ठी का आयोजन कोटा की प्राचीनतम संस्था भारतेंदु समिति के भवन पर किया गया था। भारतेंदु समिति ने इस के लिए संगोष्ठी स्थल की सज्जा स्वयं की थी। संगोष्ठी पुराने नगर के मध्य में आयोजन का लाभ यह भी रहा कि आम-जन भी इस में उपस्थित होते रहे। इस आयोजन में आगे बढ़ कर आर्थिक सहयोग प्रदान करने वाले वरिष्ठ नागरिक जवाहरलाल जैन ने सभी अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि इस संगोष्ठी ने उन्हे पुराने दिन याद दिला दिये हैं जब इसी भवन में साहित्यकार अक्सर ही एकत्र हो कर साहित्य आयोजन करते थे और आम लोग उन में बढ़-चढ़ कर भाग लेते थे। वे चाहते हैं कि कोटा में इस तरह के आयोजन होते रहें। देश के महत्वपूर्ण रचनाकार यहाँ आते रहें और उन के बीच नगर के रचनाकारों को सीखने और अपना विकास करने का वातावरण मिले और जनता भी उन से प्रेरणा प्राप्त करे। उन्हों ने बाबा नागार्जुन का अनायास कोटा में आ निकलने और पूरे पखवाड़े तक यहाँ जनता के बीच रहने का उल्लेख करते हुए कहा कि इस वर्ष नागार्जुन की जन्म शताब्दी भी है और उन पर भी एक बड़ा आयोजन करना चाहिए। उस के लिए जो भी सहयोग चाहिए उसे के लिए वे तैयार हैं।

नन्द भारद्वाज
संगोष्ठी के अंत में सब ने यह महसूस किया कि शमशेर बहादुर सिंह के रचनाकर्म को न केवल पढ़ना जरूरी है, अपितु उस का गहरा अध्ययन जनता के मनोभावों की अभिव्यक्ति के लिए नए कलारूपों का द्वार खोल सकता है।

शमशेर रोमांस से आरंभ हो कर जनता के दुख-दर्द और उससे मुक्ति के साथ प्रतिबद्धता की ओर बढ़े

पिछले माह 12-13 फरवरी को कवि शमशेर बहादुर सिंह की शताब्दी वर्ष पर राजस्थान साहित्य अकादमी और 'विकल्प जन सांस्कृतिक मंच द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी 'काल से होड़ लेता सृजन' संपन्न हुई। मेरे लिए यह शमशेर और उन के साहित्य को समझने का सुअवसर था। मैं ने उस का लाभ उठाया। यहाँ संगोष्ठी की रिपोर्ट का पूर्वार्ध प्रस्तुत है ... 

शमशेर जन्म शताब्दी पर कोटा में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी की रपट
नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शील, अज्ञेय, फैज अहमद फैज और शमशेर बहादुर सिंह के शताब्दी वर्ष को एक साथ पा कर आश्चर्य होता है कि इतने सारे महत्वपूर्ण कवि-साहित्यकार एक साथ कैसे पैदा हो गए। वस्तुतः यह कोई संयोग नहीं था। अपितु इन सब के जन्म के बाद का वह काल और उस काल की भारत की परिस्थितियाँ थीं जिस ने इन सब को महत्वपूर्ण बनाया। निश्चित ही उनके महत्वपूर्ण होने में उन के स्वयं के परिश्रम के योगदान को कमतर नहीं कहा जा सकता। इन सब को, और इन के रचना कर्म को समझने के लिए हमें उन के काल को समझना होगा। यदि हम उस परिप्रेक्ष्य में इन्हें समझने का प्रयत्न करें तो चीजें जो जटिल अथवा संश्लिष्ट दिखाई पड़ती हैं वे यकायक स्पष्ट दिखाई देने लगती हैं जैसे हम उन्हें किसी सूक्ष्मदर्शी पर  परख रहे हों। शमशेर बहादुर सिंह पर यह काम ‘विकल्प’ जन सांस्कृतिक मंच, कोटा और राजस्थान साहित्य  अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में 12-13 फरवरी को कोटा में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘काल से होड़ लेता सृजन में हुआ।

मशाल प्रज्वलित कर संगोष्ठी का शुभारंभ
द्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार और दूरदर्शन जयपुर के पूर्व निदेशक नन्द भारद्वाज ने यह स्पष्ट किया कि शमशेर बहादुर सिंह को प्रेम और सौंदर्य का कवि भी कहा जाता है, लेकिन उन का प्रेम सारी मानवता और प्रकृति से, और उन का सौंदर्य प्रकृति और मानवीय गुणों का सौंदर्य था। उन्हें एक जटिल कवि माना जाता है, लेकिन उन की जटिलता वास्तव में संश्लिष्टता है जो उलझाती नहीं है अपितु जगत के जटिल व्यवहारों के संबंध में समझ पैदा करती है। वे काल से जिस होड़ की बात करते हैं वह उन की व्यक्तिगत नहीं है अपितु समस्त मनुष्य की होड़ है। शमशेर हर विद्या में अनूठे थे, उनका लेखन सूक्ष्म से सूक्ष्मतर व्याख्या  चाहता है। उन के सभी समकालीन सभी श्रेष्ठ लेखकों ने उन के बारे में लिखा, उन की कविता और अन्य साहित्य के बारे में लिखा। लेकिन शमशेर का विस्तार इतना है कि अभी एक शताब्दी और उस के बाद भी उन के बारे में लिखा जाता रहेगा। इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रमुख साहित्यकार और ‘अलाव’ के संपादक रामकुमार कृषक ने कहा कि शमशेर अपने समकालीनों में सरोकार के स्तर पर सर्वोपरि दीख पड़ते हैं। उन की रचनाएँ स्वयं को और जन-मानस को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर हैं। वे समाज में उपस्थित तमाम अमानवीय ताकतों के विरुद्ध, और सताए हुए लोगों के साथ हैं। वे नए समाज की रचना चाहते हैं। इस के लिए वे जो कहना चाहते हैं, उस के लिए हर विधा का उपयोग पूरी कलात्मक श्रेष्ठता के साथ करते हैं, इसीलिए उन के लेखन में एक जादूगरी दिखाई पड़ती है। वे कलावादी नहीं हैं। वे कला का उपयोग सामाजिक सरोकारों के लिए करते हैं। बदलाव की गहरी आकांक्षा और चेतना उनके साहित्य में पग-पग पर मौजूद है। वे हमें आसान राह नहीं दिखाते क्यों कि मुक्ति कभी आसान नहीं होती।  यह रोशनी की साधना है।
रविकुमार की शमशेर कविता पोस्टर प्रदर्शनी का शुभारंभ करते नन्द भारद्वाज
‘विकल्प’ जनसांस्कृतिक मंच के अखिल भारतीय महासचिव, कवि गीतकार और इस आयोजन के मुख्य सूत्रधार महेन्द्र ‘नेह’ ने सत्रारंभ में अतिथियों का स्वागत करते हुए ही स्पष्ट कर दिया था कि हम यहाँ दो दिन शमशेर के रचनाकर्म की गहराइयों में जाएंगे और जानेंगे कि वे कितने विलक्षण रचनाकार थे। उन्हें कलावादी और जनवादी दोनों अपना क्यों कहते हैं? हम पाएंगे कि वे जनता के कवि थे, उन की रचनाओं की मुख्य चिंता पीड़ित जन और उन की मुक्ति थी। विशिष्ट अतिथि कवि समीक्षक सुरेश ‘सलिल’ ने शमशेर के साहित्य और जीवन का परिचय दिया।इस सत्र का सफल संचालन कवि अम्बिकादत्त ने किया। उन्हों ने महेद्र ‘नेह’ की बात को  और स्पष्ट कर दिया था कि शमशेर समय को समझने में हमारी मदद करते हैं, हमें इन दो दिनों में हम शमशेर के माध्यम  से अपने समय को समझने का प्रयत्न करेंगे।  इस सत्र का आरंभ नंद भारद्वाज ने 'विकल्प'  की परंपरा के अनुरूप मशाल प्रज्वलित कर किया था और उस के तुरंत बाद रविकुमार के शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं पर बनाए गए पोस्टरों की प्रदर्शनी का भी उद्घाटन किया। संगोष्ठी स्थल पर जाने के पहले इस प्रदर्शनी से हर किसी को गुजरना होता था। इस प्रदर्शनी ने तथा सत्रारंभ के पूर्व जमनाप्रसाद ठाड़ा राही के प्रसिद्ध गीत ‘जाग जाग री बस्ती’ की शरद तैलंग द्वारा संगीतमय प्रस्तुति  ने संगोष्ठी के विमर्श को वातावरण प्रदान करने की महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
परान्ह सत्र का विषय ‘हिन्दी ग़ज़ल में शमशेरियत’ था। सत्र का मुख्य पत्रवाचन करते हुए रामकुमार कृषक ने कहा कि शमशेर की ग़ज़लों में भाषाई द्वैत नहीं है। वस्तुतः उन की ग़जलें हिन्दी में लिखी गई उर्दू ग़ज़लें हैं। वे उर्दू और हिन्दी के द्वैत को तोड़ कर हिन्दुस्तानी बोली और भारत की गंगा-जमुनी तहजीब तक जाती हैं। प्रयोगवादी और प्रगतिशील दोनों ही उन्हें अपना मानते हैं। यह सही है कि उन्हों ने अपनी रचनाओं में प्रयोग किए हैं, इतने, कि सभी प्रयोगवादी पीछे छूट जाते हैं। लेकिन शमशेर का आधार जनवाद है। वे जनता के दर्द को, उसकी वजहों को बखूबी बयाँ करते हैं। वे एंद्रीयबोध और वस्तुगत परिस्थितियों में एक संतुलन उत्पन्न करते हैं, वे कला पर विजय प्राप्त कर के खम ठोकते हुए अपनी बात कहते हैं, कला उन के कथ्य पर हावी नहीं होती, उन का कथ्य नए कला रूपों को उत्पन्न करता है। सत्र का दूसरे पत्र में प्रो. हितेष व्यास ने प्रमाणित  किया कि शमशेर के लिए हिन्दी और उर्दू दो भाषाएँ नहीं थीं अपितु एक जान दो शरीर थे। वे भाषा का प्रयोग पूरी कलात्मक सूक्ष्मता के साथ अपनी बात कहने के लिए करते थे।
रविकुमार की शमशेर कविता पोस्टर प्रदर्शनी
सी सत्र में शायर पुरुषोत्तम यक़ीन ने कहा कि शमशेर ने अपने समकालीनों पर खूब लिखा और समकालीनों ने उन पर, इस से उस समय के साहित्य और रचनाकारों को विकास का अवसर प्राप्त हुआ, हमें इस परंपरा का अनुसरण करना चाहिए। सलीम खाँ फरीद ने अपने पत्र में बताया कि शमशेर सूक्ष्म सौंदर्यबोध के कवि थे जो उन की ग़ज़लों में भी पूरी तरह स्पष्ट है। डॉ. हुसैनी बोहरा को अगले दिन शमशेर के गद्य पर पत्रवाचन करना था लेकिन अगले दिन उपलब्ध न होने के कारण उन्हों ने मुख्यतः उन के निबंध संग्रह ‘दोआब’ पर अपना पत्रवाचन करते हुए कहा कि उन की सम्वेदना मनुष्य के प्रति थी, वे हिन्दी और उर्दू के साहित्य का अलग अलग मूल्यांकन कर के देखने के विरोधी थे। उन का मानना था कि हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग कर के देखना ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नीति थी। जब कि शमशेर के लिए दोनों भारत की जुबानें ऐसी जुबानें थीं जिन की आधारभूमि एक ही है। उन का कहना था कि आधुनिक हिन्दी साहित्य में शमशेर का गद्य सर्वश्रेष्ठ है, वे साहित्य को मानवता का औजार मानते थे।
संगोष्ठी मंच
त्र की अध्यक्षता कर रहे डॉ. हरेप्रकाश गौड़ ने कहा कि शमशेर के आजादी पूर्व के साहित्य की चिंता राष्ट्रीय आंदोलन था। उन के साहित्य को समझने के लिए राष्ट्रीय आंदोलन और उस की जटिलताओं को समझना होगा। वे आरंभ में रोमांस के कवि थे, रोमांस से आरंभ हो कर वे जनता के दुख-दर्द और उससे मुक्ति के साथ प्रतिबद्धता की ओर बढ़े। उन्हों ने जनता को बाँटने वाली कट्टरपंथी धार्मिकता के विरुद्ध और गरीब श्रमजीवी जनता के पक्ष में अपना रचनाकर्म किया। निराला ने ग़ज़ल को जनसंघर्ष से जोड़ा और शमशेर ने उस परंपरा को आगे बढ़ाया। वे एक मौलिक आलोचक थे। सभी वक्ताओं और पत्रवाचकों में तारतम्य बनाये रखते हुए इस सत्र का सफल संचालन शायर शकूर ‘अनवर’ ने किया। इसी दिन रात्रि को कविसम्मेलन-मुशायरा आयोजित किया गया, जिस में हिन्दी, उर्दू और हाड़ौती कवियों के अतिरिक्त अतिथि कवियों ने कवितापाठ किया।  

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

जीवन से विलग हुआ साहित्य महत्वहीन है

हिन्दी के शब्द 'साहित्य' और अंग्रेजी के 'लिटरेचर' (literature) का उपयोग अत्यन्त व्यापक किया जाता है। मेरे यहाँ कोई सेल्समेन आ कर घंटी बजाता है, वह कोई वस्तु बेचने के लिए उस के गुण-उपयोग समझाने लगता है। मुझे समय नहीं है, मैं उसे फिर कभी आने को कहता हूँ।  वह 'लिटरेचर रख लीजिए' कह कर एक पर्चा और दस पन्नों की किताब छोड़ जाता है। इन में किसी कंपनी के उत्पादों के चित्र और विवरण अंकित हैं। अब ये भी साहित्य है। हम धर्म संबंधी पाठ्य सामग्री को सहज ही धार्मिक साहित्य कह देते हैं, ज्योतिष विषयक पाठ्य सामग्री को ज्योतिष का साहित्य कहते हैं, दर्शन संबंधी पाठ्य सामग्री को दार्शनिक साहित्य कह देते हैं। लेकिन साहित्य शब्द का उपयोग केवल पुस्तकों तक ही सीमित नहीं रहता। लोक-साहित्य का अधिकांश अभी भी लिपिबद्ध नहीं है। वह लोक की के मुख में ही जीवित है, और बहुधा व्यवहृत भी, जिस में गीत, कहावतें, मुहावरे आदि हैं। इतना होने पर भी जब हिन्दी साहित्य या बांग्ला साहित्य कह देने से एक अलग अनुभूति होती है। यह उस का एक विशिष्ठ अर्थ है। यदि सभी पाठ्य सामग्री को हम व्यापक अर्थों में साहित्य मान लें तो उस में कुछ श्रेणियाँ खोजी जा सकती हैं। 
हली श्रेणी में हम ऐसी पाठ्य सामग्री पाते हैं जो हमारी जानकारी बढ़ाती हैं। उन्हें पढ़ने से हमें नई सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। लेकिन वे हमारी बोध  क्षमता को  कहीं से छू भी नहीं पातीं। इसे हम सूचनात्मक साहित्य कह सकते हैं। दूसरी श्रेणी में हम दर्शन, गणित और विज्ञान आदि विषयों की सामग्री को रख सकते हैं जिन्हें हम विवेचनात्मक साहित्य कह सकते हैं। इस सामग्री के मूल में विवेकवृत्ति है जो भिन्न-भिन्न वस्तुओं, नियमों, धर्मों आदि के व्यवहार को स्पष्ट करती हैं। 
स तरह हम अनेक श्रेणियाँ खोज सकते  हैं। लेकिन पाठ्य सामग्री की एक श्रेणी है। कोई आवश्यक नहीं कि इस श्रेणी की पाठ्य सामग्री से हमें कोई नई सूचनाएँ प्राप्त हों ही। ये हमारी जानी हुई बातों को एक नई रीति से नए रूप में भी प्रस्तुत कर सकती हैं और बार-बार जानी हुई बातों को पढ़ने के लिए उत्सुक बनाए रखती है। यह सामग्री हमें सुख-दुख की वैयक्तिक संकीर्णता और दुनियावी झगड़ों से ऊपर ले जाती हैं और संपूर्ण मानवता, और उस से भी आगे बढ़ कर प्राणी मात्र के दुख-शोक, राग-विराग, आल्हाद-आमोद आदि को समझने के लिए एक दृष्टि प्रदान करती है। वह पाठक के हृदय को कोमल और संवेदनशील बनाती है जिस से वह क्षुद्र स्वार्थों को विस्मृत कर प्राणी मात्र के सुख-दुख को अपना समझने लगता है, सारी दुनिया के साथ आत्मीयता का अनुभव करता है। इसी भाव को सत्वस्थ होना कहा गया है। इस से पाठक को एक प्रकार का आनंद प्राप्त होता है जो स्वार्थगत दुख-सुख से परे है। इसे ही लोकोत्तर आनंद की संज्ञा भी दी जाती है। कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी आदि इसी श्रेणी की पाठ्य सामग्री हैं। इसी को हम रचनात्मक साहित्य भी कहते हैं। यह सामग्री हमारे ही अनुभवों के ताने-बाने से एक नए रस-लोक की रचना करती है। साहित्य शब्द का विशिष्ठ अर्थ यही है।  
ही रचनात्मक साहित्य सारी दुनिया में बड़े चाव से पढ़ा जाता है। इसे लोग आग्रह के साथ पढ़ते हैं। यह मानव जीवन से उत्पन्न हो कर मानव जीवन को ही प्रभावित करता है। इसे पढ़ने के साथ ही हम जीवन के साथ ताजा और घनिष्ठ संबंध बनाते हैं। इस में मनुष्य की देखी, अनुभव की हुई, सोची, समझी बातों का सजीव चित्रण मिलता है। जीवन के जो पहलू हमें निकट से स्थाई रूप से प्रभावित करते हैं उन के विषय में मनुष्य के अनुभव को समझने का एक मात्र साधन यही साहित्यिक पाठ्य-सामग्री है। इस तरह यह उक्ति सही है कि भाषा के माध्यम से जीवन की अभिव्यक्ति ही 'साहित्य' है। इसे जीवन की व्याख्या भी कहा गया है। हम इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि जीवन की गति जहाँ तक है वहाँ तक साहित्य का क्षेत्र है, जीवन से विलग हुआ साहित्य महत्वहीन है।

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

हर कोई अपनी सुरक्षा तलाशता है, ... साहित्य भी

नुष्य ही है जो आज अपने लिए खाद्य का संग्रह करता है। लेकिन यह निश्चित है कि आरंभ में वह ऐसा नहीं रहा होगा। उस के पास न तो जानकारी थी कि खाद्य को संग्रह किया जा सकता है और न ही साधन थे। वह आरंभ में भोजन संग्राहक और शिकारी रहा। लेकिन कभी भोजन या शिकार न मिला तो? अनुभव ने उसे सिखाया कि भोजन संग्रह कर के रखना चाहिए। आरंभिक पशुपालन शायद भोजन संग्रह का ही परिणाम था। तब किसी विचार, सम्वाद या सूचना को संग्रह करने का कोई साधन भी नहीं था। भाषा, लिपि और लिखने के साधनों के विकास ने इन्हें संग्रह करने और उस के संचार का मार्ग प्रशस्त किया। अंततः कागज इस संग्रह के बड़े माध्यम के रूप मे सामने आया। लेकिन विचार, सम्वाद और सूचना के संग्रह और संचार के लिए बेहतर साधनों की मनुष्य की तलाश यहीं समाप्त नहीं हो गई। उस ने आगे चल कर कम्प्यूटर और इंटरनेट का आविष्कार किया।
ब लिखने के लिए कोई माध्यम नहीं था तो लोग विचार, सम्वाद और सूचना को रट कर कंठस्थ कर लेते थे। शिक्षा भी मौखिक ही थी और परीक्षा भी। बाद में कागज का आविष्कार हो जाने पर भी कंठस्थ करना जारी रहा। तमाम वैदिक साहित्य को श्रुति कहा ही इसलिए जाता है कि वे कंठस्थ किए जाते रहे और आगे सुनाए जाते रहे। सुनाए जाने की यह परंपरा आज भी नानी की कहानियों और कवि-सम्मेलनों के रूप में मौजूद है। समूचे लोक साहित्य का दो-तिहाई आज भी  कागज पर नहीं आया है, वह आज भी उसी सुनने और सुनाने की परंपरा से जीवित है। बोलियों के लाखों शब्द आज तक भी कागज और शब्दकोषों से बाहर हैं। मेरी अपनी बोली 'हाड़ौती' के अनेक शब्द, कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ, गीत अभी तक कागज पर नहीं हैं। अनेक शब्द, कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ ऐसे हैं कि खड़ी बोली हिन्दी या अन्य किसी भाषा में उन के समानार्थक नहीं हैं। अनेक भावाभिव्यक्तियाँ ऐसी हैं जो अन्य शब्दों के माध्यम से संभव नहीं हैं। 
हिन्दी की खड़ी बोली के प्रभाव ने इन बोलियों को सीमित कर दिया है। मेरी चिंता है कि यदि किसी तरह ये शब्द, कहावतें, मुहावरे, पहेलियाँ, गीत यदि संरक्षित न हो सके तो शायद हमेशा के लिए नष्ट हो जाएंगे, और उन के साथ वे भावाभिव्यक्तियाँ भी जिन्हें ये रूप प्रदान करते हैं। उन्हें कागज तक पहुँचाने में विपुल धन की आवश्यकता है। लेकिन यह काम कम्प्यूटर से सीडी, या डीवीडी में संग्रहीत करने तथा उन्हें इंटरनेट पर उपलब्ध करा देने से भी संभव है, और कम खर्चीला भी। यदि ऐसा हो सका तो बहुत सारा साहित्य कागज पर कभी नहीं पहुँचेगा और इलेक्ट्रॉनिक माध्यम पर पहुँच जाएगा। छापे के साथ आज क्या हो रहा है। छापे की तकनीक उस स्तर पर पहुँच गई है कि कागज पर कोई चीज छापने के पहले उस का इलेक्ट्रोनिक संकेतों में तब्दील होना आवश्यक हो गया है। किताब, पर्चे और अखबार छपने के पहले किसी न किसी डिस्क पर संग्रहीत होते हैं। उस के बाद ही छापे पर जा रहे हैं। किसी भी साहित्य के किसी डिस्क पर संग्रहीत होने के बाद छपने और इंटरनेट पर प्रकाशित होने में फर्क इतना रह जाता है कि यह काम इंटरनेट पर तुरंत हो जा रहा है ,जब कि छप कर पढ़ने लायक रूप में पहुँचने में कुछ घंटों से ले कर कुछ दिनों तक का समय लग रहा है। 
दि कागज और डिस्क के बीच कभी कोई जंग छिड़ जाए तो डिस्क की ही जीत होनी है, कागज तो उस में अवश्य ही पिछड़ जाएगा क्यों कि वह भी डिस्क का मोहताज हो चुका है, इसे हम ब्लागर तो भली तरह जानते हैं। ऐसे में सभी कलाओं के लिए भी मौजूदा परिस्थितियों में सब से अधिक सुरक्षित स्थान डिस्क और इंटरनेट ही है। साहित्य भी एक कलारूप ही है। उस के लिए भी सुरक्षित स्थान यही हैं। हर कोई अपने लिए सुरक्षित स्थान तलाशता है, साहित्य को स्वयं की सुरक्षा के लिए डिस्क और इंटरनेट की ही शरण में आना होगा। 
....... और अंत में एक शुभ सूचना कि भाई अजित वडनेरकर की शब्दों का सफ़र भाग -२ की पांडुलिपि को एक लाख रुपये का विद्यानिवास मिश्र पुरस्कार घोषित हुआ है। राजकमल प्रकाशन अजित वडनेरकर को यह सम्मान 28 फ़रवरी को नई दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में शाम पांच बजे आयोजित कार्यक्रम में प्रदान करेगा। पुरस्कार के चयनकर्ता मंडल में प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी और अरविंद कुमार शामिल थे। इस सूचना ने आज के दिन को मेरे लिए बहुत बड़ी प्रसन्नता का दिन बना दिया है, मैं बहुत दिनों से इस दिन की प्रतीक्षा में था। अजित भाई को व्यक्तिगत रूप से बधाई दे चुका हूँ। आज सारे ब्लाग जगत को इस पर प्रसन्न होना चाहिए। इस महत्वपूर्ण पुस्तक का जन्म पहले इंटरनेट पर ब्लाग के रूप में हुआ। अजित भाई के साथ सारा हिन्दी ब्लाग जगत इस बधाई का हकदार है।

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

महेन्द्र नेह का काव्य संग्रह 'थिरक उठी धरती' अंतर्जाल पर उपलब्ध

हेन्द्र 'नेह' मूलतः कवि हैं, लेकिन वे कोटा और राजस्थान की साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र भी हैं। वे देश के एक बड़े साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन 'विकल्प' जन सांस्कृतिक मंच की कोटा इकाई के अध्यक्ष हैं। इस संगठन के महासचिव शिवराम थे, उन के देहान्त के उपरान्त यह जिम्मेदारी भी महेन्द्र 'नेह' के कंधों पर है।  विकल्प की कोटा इकाई ने स्थानीय साहित्यकारों की रचनाओं की अनेक छोटी पुस्तिकाएँ प्रकाशित की हैं, उन के प्रकाशन का महत् दायित्व उन्हों ने उठाया है। कोटा, राजस्थान और देश के विभिन्न भागों में होने वाले साहित्यिक सासंकृतिक आयोजनों में लगातार उन्हें शिरकत करना पड़ता है। उन के सामाजिक-सास्कृतिक कामों की फेहरिस्त से कोई भी यह अनुमान कर सकता है कि वे इस काम के लिए पूरा-वक़्ती कार्यकर्ता होंगे। लेकिन अपने घर को चलाने के लिए उन्हें काम करना पड़ता है। वे एक पंजीकृत क्षति निर्धारक हैं और बीमा कंपनियों पास संपत्तियों-वाहनों आदि के क्षति के दावों में सर्वेक्षण कर वास्तविक क्षतियों का निर्धारण करते हैं। उन्हें देख कर सहज ही यह कहा जा सकता है कि एक मेधावान सक्रिय व्यक्ति हर क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के साथ ही कीर्तिमान स्थापित कर सकता है। क्षति निर्धारक के रूप में बीमा कंपनियों में जो प्रतिष्ठा है वह किसी के लिए भी ईर्ष्या का कारण हो सकती है।
हेन्द्र 'नेह' बरसों कविताएँ, गीत, गज़लें लिखते रहे। लेकिन उन की पुस्तक नहीं आई, इस के बावजूद वे अन्य साहित्यकारों की पुस्तकों के प्रकाशन के लिए जूझते रहे। जब इस ओर ध्यान गया तो लोग उन की काव्य संग्रहों के प्रकाशन के लिए जिद करने लगे। आखिर उन के दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए 'सच के ठाठ निराले होंगे' और 'थिरक उठेगी धरती'। वे बहुत से ब्लाग नियमित रूप से पढ़ते हैं। कल उन से फोन पर बात हो रही थी तो मैं ने कहा -आप इतने ब्लाग पढ़ते हैं, लेकिन प्रतिक्रिया क्यों नहीं करते"? उन्हों ने बताया कि वे नेट पर देवनागरी टाइप नहीं कर सकते। मैं उन की इस कमजोरी को जानता हूँ कि उन्हें यह सब सीखने का समय नहीं है। फिर भी मैं ने उन्हें कहा कि यह तो बहुत आसान है, तो कहने लगे एक दिन वे मेरे यहाँ आते हैं या फिर मैं उन के यहाँ जाऊँ और उन्हें यह सब सिखाऊँ। मैं ने उन के यहाँ जाना स्वीकार कर लिया। 
पिछले दिनों नेट और ब्लाग पर साहित्य न होने की बात कही गई थी। लेकिन बहुत से साहित्यकारों द्वारा कंप्यूटर का उपयोग न कर पाने या देवनागरी टाइप न कर पाने की अक्षमता भी नेट और ब्लाग पर साहित्य की उपलब्धता में बाधा बनी हुई है। निश्चित रूप से इस के लिए हम जो ब्लागर इस क्षेत्र में आ गए हैं, उन्हें पहल करनी होगी। हमें लोगों को कंप्यूटर और अंतर्जाल का प्रयोग करने और उस पर हिन्दी टाइप करना सिखाने के सायास प्रयास करने होंगे। हमें कंप्यूटर पर टाइपिंग सिखाने वाले केन्द्रों पर इन्स्क्रिप्ट की बोर्ड के बारे में बताना होगा, कि भविष्य में हिन्दी इसी की बोर्ड से टाइप की जाएगी, और उन्हें हिन्दी टाइपिंग सीखने वालों को इनस्क्रिप्ट की बोर्ड पर टाइपिंग सिखाने के लिए प्रेरित करना होगा। इस तरह बहुत काम है जो हम पहले ब्लाग और नेट पर आ चुके लोगों को मैदान में आ कर करना होगा। 
हुत बातें कर चुका। वास्तव में यह पोस्ट तो इस लिए आरंभ की थी कि आप को यह बता दूँ कि जब महेन्द्र 'नेह' का दूसरा काव्य संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' का विमोचन हुआ तो उस के पहले ही इस संग्रह का पीडीएफ संस्करण मैं स्क्राइब पर प्रकाशित कर चुका था और वह इंटरनेट पर उपलब्ध है। जो पाठक इस संग्रह को पढ़ना चाहते हैं, यहाँ फुलस्क्रीन पर जूम कर के पढ़ सकते हैं और चाहें तो स्क्राइब पर जा कर डाउनलोड कर के अपने कंप्यूटर पर संग्रह कर के भी पढ़ सकते हैं।
तो पढ़िए.....
'थिरक उठेगी धरती'
Neh-Poems_Thirak Uthegi Dharti

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

बेहतर लेखन के सूत्रों की खोज ... साहित्य क्या है?

ह प्रश्न कि "बेहतर कैसे लिखा जाए?"    हमारे सामने है, इस का उत्तर भी हमें ही तलाशना होगा। इस का कोई बना बनाया सूत्र तो है नहीं कि उसे किसी पाठ की तरह रट लिया जाए। लेकिन हम चाहें तो कुछ न कुछ तलाश कर सकते हैं। चलिए उस का आरंभ करते हैं।  
मैं खुद मानता हूँ कि मेरा लेखन बेहतर नहीं है, उसे अत्यंत साधारण श्रेणी में ही रखा जा सकता है। मुझे कभी-कभी वाह-वाही भी मिलती है, लेकिन उस से मुझे कतई मुगालता नहीं होता कि मैं बेहतर लिख रहा हूँ। अधिक से अधिक यह कहा जा सकता है कि मैं बेहतर संवाद स्थापित कर लेता हूँ। बात साहित्य से आरंभ हुई थी कि ब्लागीरी में साहित्य नहीं है, और है तो वह यहाँ छापे से हो कर आया है। तो हम भी अपनी बेहतर लिखने की खोज को साहित्य से ही क्यों न आरंभ करें? अब ये साहित्य क्या है? साहित्य किसे कहा जा सकता है? इस को समझने का प्रयत्न करें। सब से पहले हम जानें कि यह शब्द कहाँ से आया? 
प्टे ने अपने संस्कृत हिन्दी कोष में 'साहित्यम्' के अर्थ दिए हैं - 1. साहचर्य, भाईचारा, मेल-मिलाप, सहयोगिता 2. साहित्यिक या आलंकारिक रचना, 3. रीति शास्त्र, काव्यकला 4. किसी वस्तु के उत्पादन या सम्पन्नता के लिए सामग्री का संग्रह।  
चार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं -'साहित्य' शब्द का व्यवहार नया नहीं है। बहुत पुराने जमाने से लोग इस का व्यवहार करते आ रहे हैं, समय की गति के साथ इस का अर्थ थोड़ा-थोड़ा बदलता जरूर आया है। यह शब्द संस्कृत के 'सहित' शब्द से बना, जिस का अर्थ है 'साथ-साथ'। 'साहित्य' शब्द का अर्थ इसलिए 'साथ-साथ रहने का भाव' हुआ।
गे वे लिखते हैं -दर्शन की पोथियों में एक क्रिया के साथ योग रहने को ही 'साहित्य' कहा गया है। अलंकार-शास्त्र में इसी अर्थ से मिलते-जुलते अर्थ में इस का प्रयोग हुआ है। वहाँ शब्द और अर्थ के साथ-साथ रहने के भाव (साहित्य) को 'काव्य' बताया गया है। परन्तु ऐसा तो कोई वाक्य हो नहीं सकता जिस में शब्द और अर्थ साथ-साथ न रहते हों। इसलिए 'साहित्य' शब्द को विशिष्ठ अर्थ में प्रयोग करने के लिए इतना और जोड़ दिया गया है कि "रमणीयता उत्पन्न करने में जब शब्द और अर्थ एक दूसरे से स्पर्धा करते हुए साथ-साथ आगे बढ़ते रहें, तो ऐसे 'परस्पर स्पर्धा' शब्द और अर्थ का जो साथ-साथ रहना होगा, वही साहित्य 'काव्य' कहा जा सकता है।"  ऐसा जान पड़ता है कि शुरु-शुरू में यह शब्द काव्य की परिभाषा बनाने के लिए ही व्यवहृत हुआ था और बाद में चल कर सभी रचनात्मक पुस्तकों के अर्थ में व्यवहृत होने लगा। पुराने जमाने में ही इसे 'सुकुमार वस्तु' समझा जाता है और जिस की तुलना में न्याय, व्याकरणादि शास्त्रों को 'कठिन' भाग माना जाता रहा है। कान्यकुब्ज राजा के दरबार में प्रसिद्ध कवि श्री हर्ष को विरोधी पंडित ने यही कह कर नीचा दिखलाना चाहा था कि वे 'सुकुमार वस्तु' के ज्ञाता हैं। 'सुकुमार वस्तु' से मतलब साहित्य से था। उत्तर में श्री हर्ष ने गर्वपूर्वक कहा था कि मैं 'सुकुमार' और 'कठोर' दोनों का ज्ञाता हूँ।
ब हम कुछ-कुछ समझ सकते हैं कि साहित्य क्या है? वह सब से पहले तो 'साथ साथ रहने का भाव' है, उस में शब्द और अर्थ साथ-साथ रहते हैं, यह 'सुकुमार' अर्थात् मनुष्य के मनोभावों को कोमलता से प्रभावित करने वाला होता है और अंत में हमें यह जान लेना चाहिए कि वह रचनात्मक होता है।
साहित्य पर बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। हम इस पर आगे भी और बात करेंगे, जो बेहतर लिखने के सूत्र खोजने में हमारी सहायक सिद्ध हो सके। आज के लिए इतना ही ...

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

"बेहतर कैसे लिखा जाए?"

ल मैं ने कहा कि साहित्य पुस्तकों में सीमित नहीं रह सकता, उसे इंटरनेट पर आना होगा।  वास्तविकता यह है कि जब से मनुष्य ने लिपि का आविष्कार किया और वह उस का प्रयोग करते हुए अपनी अभिव्यक्ति को दूसरों तक पहुँचाने लगा, तब से ही वह उस माध्यम को तलाशने लगा जहाँ लिपि को उकेरा जा सके और दूसरों तक पहुँचाया जा सके।  मिट्टी की मोहरें, पौधों के पत्ते, पेड़ों की छालें, कपड़ा, कागज, प्लास्टिक और न जाने किस किस का उस ने इस्तेमाल कर डाला। कागज पर आ कर उस की यह तलाश कुछ ठहरी और उस का तो इस कदर इस्तेमाल किया गया है कि जंगल के जंगल साफ हुए हैं। लेकिन इस सफर में बहुत सी चीजें ऐसी थीं जिन्हें कागज पर नहीं उकेरा जा सकता था, जैसे ध्वन्यांकन, और चल-चित्र। इन के लिए उसने दूसरे साधन तलाश किये। प्लास्टिक फिल्म से ले कर कंप्यूटर की हार्ड डिस्क तक का उपयोग किया गया। इस काम के लिए उपयोग की गई डिस्क ने एक मार्ग और खोज लिया। उस पर लिपि को बहुत ही कम स्थान पर अंकित किया जा सकता था। अब लिपि भी उस में अंकित होने लगी। लेकिन लिपि, ध्वन्यांकन, चल-दृश्यांकन आदि को अंकित ही थोड़े ही होना था, उन्हें तो पढ़ने वाले के पास पहुँचना था। इस के लिए इंटरनेट का आविष्कार हुआ। आज कंप्यूटर और इंटरनेट ने मिल कर एक ऐसा साधन विकसित किया है जिस पर आप कुछ भी अंकित कर देते हैं तो वह न केवल दीर्घावधि के लिए सुरक्षित हो जाता है, अपितु दुनिया भर में किसी के लिए भी उसे पढ़ना, देखना, सुनना संभव है, वह भी कभी भी, किसी भी समय। 
तो जान लीजिए कंप्यूटर और इंटरनेट कागज से बहुत अधिक तेज, क्षमतावान माध्यम है। यह कागज की जरूरत को धीरे-धीरे कम करता जा रहा है। वह मौजूदा पीढ़ी का माध्यम है, विज्ञान यहीं नहीं रुक रहा है। हो सकता है इस से अगली पीढ़ी का माध्यम भी अनेक वैज्ञानिकों के मस्तिष्क में जन्म ले चुका हो, हो सकता है कि वह कहीँ लैब में भौतिक रूप भी ले चुका हो और यह भी हो सकता है कि उस का परीक्षण चल रहा हो। जीवन और उस की प्रगति दोनों ही नहीं रुकते। पर हमें आज इसे स्वीकार कर लेना चाहिए कि कागज हमारा हमेशा साथ नहीं देगा। इस के लिए नए माध्यमों की ओर हमें जाना ही होगा। जो यदि न जाएंगे और कागज के भरोसे बैठे रहेंगे तो उनकी कुछ ही बरसों में वैसी ही स्थिति होगी जैसी कि आज कल घर में दो बाइकों और कार के साथ कोने में खड़े बजाज स्कूटर की हो चुकी है। जिसे उस का मालिक रोज कबाड़ी को देने की सोचता है, लेकिन केवल इसीलिए रुका रहता कि शायद कोई इस का उपयोग करने की इच्छा रखने वाला कुछ अधिक कीमत दे जाए। 

लेकिन हम लोग जो इस नवीनतम माध्यम पर आ गए हैं। केवल इसी लिए अजर-अमर नहीं हो गए हैं कि हम कुछ जल्दी यहाँ आ गए हैं। हम केवल इसीलिए साहित्य सर्जक नहीं हो जाते कि हम इस नवीनतम माध्यम का उपयोग कर रहे हैं। हमें निश्चित रूप से जैसा सृजन कर रहे हैं, उस से बेहतर सृजन करना होगा। अपनी अपनी कलाओं में निष्णात होना होगा। हमें बेहतर से बेहतर पैदा करना होगा। जो लोग कागज को बेहतर मानते हैं वे चाहे यह स्वीकार करें न करें कि कभी इंटरनेट बेहतर हो सकता है। लेकिन हम जो इधर आ चुके हैं, जानते हैं कि वे सभी एक दिन इधर आएंगे। इसलिए हमें उन तमाम लोगों से बेहतर सृजन करना होगा। इसलिए हम सभी लोगों का जो इंटरनेट का प्रयोग कर रहे हैं,  सब से बड़ा प्रश्न होना चाहिए कि "बेहतर कैसे लिखा जाए?"

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

साहित्य पुस्तकों में सीमित नहीं रह सकता, उसे इंटरनेट पर आना होगा

नुष्य का इस धरती पर पदार्पण हुए कोई अधिक से अधिक चार लाख और कम से कम ढाई लाख वर्ष बीते हैं। हम कल्पना कर सकते हैं कि आरंभ में वह अन्य प्राणियों की तरह ही एक दूसरे के साथ संप्रेषण करता होगा। मात्र ध्वनियों और संकेतों के माध्यम से। 30 से 25 हजार वर्ष पहले पत्थर की चट्टानों पर मनुष्य की उकेरी हुई आकृतियाँ दिखाई पड़ती हैं, जो बताती हैं कि तब वह स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए चित्रांकन करने लगा था। कोई 12 से 9 हजार वर्ष पहले जब उस ने खेती करना सीख लिया तो फिर उसे गणनाओं की आवश्यकता होने लगी और फिर हमें उस के बनाए हुए गणना करने वाले टोकन प्राप्त होते हैं। फिर लगभग 6 हजार वर्ष पूर्व हमें मोहरें दिखाई देने लगती हैं जिन से रेत या मिट्टी पर एक निश्चित चित्रसंकेत को उकेरा जा सकता था। इस चित्रलिपि से वर्षों काम लेने के उपरांत ही शब्द लिपि अस्तित्व में आ सकी होगी जब हम भोजपत्रों पर लेखन देखते हैं। इस के बाद कागज का आविष्कार और फिर छापेखाने के आविष्कार से लिखी हुई सामग्री की अनेक प्रतियाँ बना सकना संभव हुआ। सचल टाइप का प्रयोग 1040 ईस्वी में चीन में और धातु के बने टाइपों का प्रयोग 1230 ई. के आसपास कोरिया में आरंभ हुआ। इस तरह हमें अभी पुस्तकों की अनेक प्रतियाँ बनाने की  कला सीखे हजार वर्ष भी नहीं हुए हैं। तकनीक के विकास के फलस्वरूप हम एक हजार वर्ष से भी कम समय में अपना लिखा सुरक्षित रखने के लिए कंप्यूटर हार्डडिस्कों का प्रयोग करने लगे हैं, इंटरनेट ने यह संभव कर दिखाया है कि इस तरह हार्डडिस्कों पर सुरक्षित लेखन एक ही समय में हजारों लाखों लोग एक साथ अपने कंप्यूटरों पर देख और पढ़ सकते हैं, उस सामग्री को अपने कंप्यूटर पर सुरक्षित कर सकते हैं और उस की कागज पर छपी हुई प्रति हासिल कर सकते हैं। 
मैं यह बातें यहाँ इसलिए लिख रहा हूँ कि अभी हाल ही में यह कहा गया कि "जितने भी अप्रवासी वेबसाईट हैं सब मात्र हिन्दी के नाम पर अब तक प्रिंट में किये गये काम को ही ढोते  रहे हैं, वे स्वयं कोई नया और पहचान पैदा करने वाला काम नहीं कर  रहे , न  कर सकते क्योंकि वह उनके कूबत से बाहर है।" यह भी कहा गया कि साहित्य के क्षेत्र में नाम वाले लोग नेट पर नहीं आते। नेट का उपयोग सरप्लस पूंजी यानि कंप्यूटर और मासिक नेट खर्च और ब्लॉग-पार्टी का उपयोग कर संभ्रांत जन में अपना प्रभाव जमाने के लिये ही हो रहा है। नेट पर समर्पित होकर काम करने वालों को यहां  निराशा ही  हाथ लगती है। यहाँ चीजें बिल्कुल नये रूप में उपलब्ध नहीं होती।(बासी हो कर आती हैं)
इंटरनेट पर ब्लाग के रूप में बिना किसी खर्च के अपना लिखा लोगों के सामने रख देने की जो सुविधा उत्पन्न हुई है, उस के कारण बहुत से, बल्कि अधिकांश लोग अपना लिखा इंटरनेट पर चढ़ाने लगते हैं कि इस से बहुत जल्दी वे प्रसिद्ध हो जाएंगे और बहुत सा धन कमाने लगेंगे। लेकिन कुछ ही महिनों में उन्हें इस बात से निराशा होने लगती है कि उन्हें पढ़ने वाले लोगों की संख्या 100-200 से अधिक नहीं है, और यहाँ वर्षों प्रयत्न करने पर भी धन और सम्मान मिल पाना संभव नहीं है। मुझे लगा कि उक्त आलोचना इसी बात से प्रभावित हो कर की गई है। 
लेकिन यदि हम संप्रेषण के इतिहास को देखें जो बहुत पुराना नहीं है, तो पाएंगे कि प्रिंट माध्यम की अपनी सीमाएँ हैं। उस के द्वारा भी सीमित संख्या में ही लोगों तक पहुँचा जा सकता है। प्रिंट का माध्यम भी अभिव्यक्ति के लिए सीमित है। वहाँ भी केवल भाषा और चित्र ही प्रस्तुत किए जा सकते हैं। यही कारण है कि प्रिंट के इस माध्यम के समानांतर ध्वनि और दृश्य माध्यम विकसित हुए। हम देखते हैं कि पुस्तकों की अपेक्षा फिल्में अधिक प्रचलित हुईं। टेलीविजन अधिक लोकप्रिय हुआ। कंप्यूटर किसी लिपि में लिखी हुई सामग्री को जिस तरह संरक्षित रखता है, उसी तरह दृश्य और ध्वन्यांकनों को भी संरक्षित रखता है। इंटरनेट इन सभी को पूरी दुनिया में पहुँचा देता है। इस तरह हम देखते हैं कि इंटरनेट वह आधुनिक माध्यम है जो संचार के क्षेत्र में सब से आधुनिक लेकिन सब से अधिक सक्षम है।
साहित्य के लिए इंटरनेट के मुकाबले प्रिंट एक पुराना और स्थापित माध्यम है, वहाँ साहित्य पहले से मौजूद है। लेकिन अब जहाँ पेपरलेस कम्युनिकेशन की बात की जा रही है। वहाँ साहित्य  को केवल पुस्तकों में सीमित नहीं रखा जा सकता। उसे इंटरनेट पर आना होगा। एक बात और कि इंटरनेट पर लिखा तुरंत उस के पाठकों तक पहुँचता है। जब कि प्रिंट माध्यम से उसे पहुंचने में कम से कम एक दिन और अनेक बार वर्षों व्यतीत हो जाते हैं। यह कहा जा सकता है कि अभी इंटरनेट की पहुँच बहुत कम लोगों तक है, लेकिन उस की लोगों तक पहुँच तेजी से बढ़ रही है। मैं ऐसे सैंकड़ों  लोगों को जानता हूँ जिन्हों ने बहुत सा महत्वपूर्ण लिखा है। पुस्तक रूप में लाने के लिए उन की पाण्डुलिपियाँ तैयार हैं और प्रकाशन की प्रतीक्षा में धूल खा रही हैं। बहुत से लेखकों की पुस्तकें छपती भी हैं तो 500 या 1000 प्रतिलिपियों में छपती हैं और वे भी बिकती नहीं है। केवल मित्रों और परिचितों में वितरित हो कर समाप्त हो जाती हैं। इस के मुकाबले इंटरनेट पर ब्लागिंग बुरी नहीं है। हम जल्दी ही देखेंगे कि दुनिया भर का संपूर्ण महत्वपूर्ण साहित्य इंटरनेट पर मौजूद है।

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

शमशेर पर दो दिवसीय राष्ट्रीय साहित्यिक संगोष्ठी

ब्दों के कुछ समूह हमारी चेतना पर अचानक एक हथौडे़ की तरह पड़ते हैं, और हमें बुरी तरह झिंझोड़ डालते हैं। दरअसल हथौडे़ की तरह पड़ने और बुरी तरह झिंझोड़ डालने वाली उपमाओं के पीछे होता यह है कि इन शब्दों ने हमारे सोचने के तरीके पर कुठाराघात किया है, हमें हमारी सीमाएं बताई हैं, और हमारी छाती पर चढ़ कर कहा है, देखो ऐसे भी सोचा जा सकता है, ऐसे भी सोचा जाना चाहिए। जाहिर है कविता इस तरह हमारी चेतना के स्तर के परिष्कार का वाइस बनती है।
विकुमार का उक्त कथन उन के अपने कविता पोस्टरों का आधार बनी कविताओं के लिए है। लेकिन शमशेर बहादुर सिंह की लगभग तमाम कविताओं पर खरा उतरता है। शमशेर ऐसे ही थे। सीधे अपने पाठक और श्रोता की चेतना को झिंझोड़ डालते थे, व सोचने पर बाध्य हो जाता था कि वह कहाँ गलत था और सही क्या था। 
ह नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, फैज हमद फैज, गोपाल सिंह नेपाली और अज्ञेय का जन्म शताब्दी वर्ष है, हम इस बहाने उन के साहित्य से और उस के माध्यम से पिछली शती के भारतीय समाज से रूबरू हो रहे हैं। इसी क्रम में राजस्थान साहित्य अकादमी और 'विकल्प' जनसांस्कृतिक मंच कोटा 12-13 फरवरी को शमशेर बहादुर सिंह पर एक राष्ट्रीय साहित्यिक संगोष्ठी का आयोजन कर रहा है। निश्चित रूप से इस अवसर से बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। जो मित्र-गण इस में सम्मिलित हो सकते हों वे सादर आमंत्रित हैं -


निमंत्रण को ठीक से पढ़ने के लिए उस पर क्लिक करें।

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

प्रायश्चित

वैभव का फोन मिला -मैं कल आ रहा हूँ। वह साढ़े तीन माह में घर लौट रहा था। मैं ने शोभा को बताया तो प्रसन्न हो गई। आखिर बेटे के घर लौटने से बड़ी खुशी इस वक्त और क्या हो सकती थी। वह एक दिन पहले ही 5-6 अचार बना कर निपटी है। निश्चित रूप से अब सोच रही होगी कि बेटा वापस जाते समय कौन कौन सा अचार ले जा सकता है। आगे वह यह भी सोच रही होगी कि वह अचार ले जाने के लिए कैसे पैक करेगी। यदि उसे कुछ भी न सूझे तो शायद कल सुबह ही मुझे यह भी कहे कि दो एक एयरटाइट बरनियाँ ले आते हैं, बच्चों को अचार वगैरह पैक करने में ठीक रहेंगे। अगले दिन सुबह वैभव ने बताया कि वह कौन सी ट्रेन से आ रहा है। मैं ने उसे कहा कि हम उसे लेने स्टेशन पहुँच जाएंगे। उस की ट्रेन लेट थी। हम ठीक आधे घंटे पहले स्टेशन के लिए रवाना हुए,  जि स से रास्ते में कहीं रुकना पड़े तब भी समय से पहुँच सकें। शोभा रास्ते में बोर्ड देखती जा रही थी। स्टेशन के ठीक नजदीक पहुँचने पर उस ने पूछा -ये एस. एस डेयरी यहाँ भी है क्या? मुझे पता नहीं था इस लिए जवाब दिया -शायद होगी। स्टेशन पहुँच कर हमने कार को अपने स्थान पर पार्क किया।
बीस मिनट की प्रतीक्षा के बाद वैभव आ गया, हम घर की ओर चले। शोभा कहने लगी डेयरी से रसगुल्ले लेंगे। मैं ने कहा वह आने वाली सड़क पर होगा तो नहीं ले पाएंगे। फिर भी मैं सड़क पर बोर्ड देखते हुए धीरे-धीरे  तेज ट्रेफिक के लिए दायीं ओर रास्ता छोड़ कर कार चलाता रहा। अचानक बाईं और डेयरी का बोर्ड दिखा। मैं ने कार पार्क करने के लिए उसे बाईं और मोडा। एक दम धड़ाम से आवाज हुई और एक बाइक कार को हलका सा छूते हुए कार से दस कदम आगे जा कर रुक गई। मैं कार रोक चुका था। बाइक वाला लड़का अपनी बाइक को खड़ी कर मेरे पास आया, लड़की बाइक के पास ही खड़ी रही। युवक ने पास आ कर कहा - कार में इंडिकेटर भी होते हैं। मुझे याद नहीं आ रहा था कि मैं ने मुड़ते हुए इंडिकेटर का उपयोग किया था या नहीं। मैं ने उसे सॉरी कहा। उस का गुस्सा कुछ कम हुआ तो कहने लगा- मैं आप को स्टेशन फॉलो कर रहा हूँ और धीरे गाड़ी चला रहा हूँ। मैं ने कहा फिर तो टक्कर नहीं होनी चाहिए थी।  वह बोला -एक तो आप गाड़ी बहुत धीरे चला रहे हैं, ऊपर  आप ने एक दम मोड़ दी। मैं समझ गया कि वह बाईं तरफ से कार को ओवरटेक करने की कोशिश कर रहा था।  मैं ने उसे फिर सॉरी करते हुए कहा- भाई, अब क्या करना है? उस ने ने अपनी बाइक की ओर देखा। लड़की अपनी कोहनी सहला रही थी, शायद वह कार से छुई होगी। लड़का बाइक तक गया,  हैंडल चैक किया, फिर लड़की की ओर देखा। शायद लड़की ने उस से यह कहा कि उसे चोट नहीं लगी है। लड़का संतुष्ट हुआ तो अपनी बाइक ले कर चल दिया। मैं ने कार को ठीक से पार्क किया, शोभा को रसगुल्ले लाने को कहा। वह लौटती उस से पहले कार को चैक किया तो अंधेरे में कोई निशान तक न दिखा। मेरी समझ नहीँ आ रहा था कि बाइक कार से कहाँ टकराई थी। 
सुबह कार देखी तो उस पर बाईँ तरफ रबर घिसने का निशान पड़ा हुआ था जो गीले कपड़े से साफ हो गया। मैं सोच रहा था कि गलती तो मेरी थी, कुछ कुछ शायद उस की भी। यह (Contributory negligence) अंशदायी लापरवाही का मामला था। चाहे मैं कार को धीरे ही चला रहा था लेकिन मैं ने उसे मोड़ा तो अचानक ही था और शायद इंडिकेटर का उपयोग किए बिना भी। लड़का भी बाईं ओर कुछ स्थान देख कर कार को ओवरटेक करने का मन बना रहा था। कार को मुड़ती देख अचकचाकर टकरा गया। वह लड़का यूँ चला न जा कर, उलझ गया होता तो, लोग तो देखने ही लगे थे। शायद मुझे कार वाला होने का नतीजे में कुछ न कुछ भुगतना पड़ता। मैं ने मन ही मन उस लड़के को एक बार फिर सॉरी कहते हुए धन्यवाद दिया और तय किया कि भविष्य में आज जैसी गलती न हो इस के लिए प्रयत्न करूंगा। 

रविवार, 30 जनवरी 2011

गालियाँ रचें तो ऐसी ...

न दिनों हम लोग जो ब्लागीरी में हैं, गालियों से तंग हैं। एक तो जो नहीं होनी चाहिए वे गालियाँ ब्लागों में दिखाई पड़ती हैं, और जो होनी चाहिए, वे नदारद हैं। हिन्दी बोलियों के लोक साहित्य में गालियों का एक विशेष महत्व है। जब भी समधी मेहमान बन कर आता है, तो रात के भोजन के उपरांत घर की महिलाएँ अपने पड़ौस की महिलाओं को भी बुला लेती हैं और मधुर स्वर में गालियाँ गाना आरंभ कर देती हैं। इन में तरह तरह के प्रश्न होते हैं। धीरे-धीरे गालियाँ समधी बोलने पर बाध्य हो जाता है। जैसे ही वह बोलता है। महिलाएँ जोर से गाना आरंभ कर देती हैं -बोल पड्यो रे बोल पड्यो ...  फिर आगे पुनः गालियाँ आरंभ हो जाती हैं। लोक साहित्य की इन गालियों को हमें संग्रह करना चाहिए। लोकभाषाओं और बोलियों के कवि और साहित्यकार इन का पुनर्सृजन भी कर सकते हैं। कुछ ब्लागर और ब्लागपाठक सड़क छाप गालियों का प्रयोग कर रहे हैं। उन में क्या रचनात्मकता है? सड़क से उठाई और दे मारी। गाली देना ही हो तो मेरे मित्र पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की हाडौती भाषा में रची इस ग़ज़ल से सीखें जिस में गालियों का परंपरागत स्वरूप दिखाई पड़ता है। यह भी देखिए 'यक़ीन' किसे गालियाँ दे रहे हैं ...


'गाली ग़ज़ल'
  • पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

सात खसम कर मेल्या पण इतरा री छै
या सरकार छंद्याळ घणी छणगारी छै
(सात पति रख कर इतराती है, ये सरकार बहुत श्रंगार किए हुए छिनाल नारी है)
पोथी कानूनाँ की, रखैल डकैताँ की 
अर चोराँ-दल्लालाँ की महतारी छै
( कानून की किताब रखने वाली यह डकैतों की रखैल और चोरो व दलालों की माँ है)

पीढ़्याँ सात तईं तू साता न्हँ पावे
थारा बाप कै माथे अतनी उधारी छै
(सात पीढ़ी तक भी इसे शांति नहीं मिल सकती इस के पिता पर इतनी उधारी है)

बारै पाड़ोस्याँ पे तू भुज फड़कावै काँईं
भीतर झाँक कै जामण तंगा खारी छै
(बाहर के पडौसियों पर बाहें तानती है भीतर इस की माँ धक्के खा रही है) 

लत्ता फाट्या, स्याग का पीसा बी न्हैं बचे
नळ-बिजळी का बिलाँ में तनखा जारी छै
(तन के कपड़े फट गए हैं, सब्जी के लिए भी पैसे नहीं बचते, वेतन नल-बिजली के बिलों में ही समाप्त हो जाता है)

च्हारूँ मेर जुलम को बंध्र्यो छे धोरो
ज्हैर बुछी सत्ता की तेग दुधारी छै
 (चारों ओर जुल्म की नहरें बह रही हैं इस सत्ता की तलवार ज़हर बुझी और दो धार वाली है)

मूंडौ देखै र भाया वै काढ़े छै तलक
ईं जुग में पण या ई तो हुस्यारी छै
(वे मुहँ देख देख कर तिलक लगातै हैं, यही तो इस युग की होशियारी है)

दळदारी की बात 'यक़ीन' करै काँईं
थारी ग़ज़ल बी अठी फोड़ा पा री छै
(यक़ीन तुम अपने दारिद्र्य की बात क्या करोगे यहाँ तो तेरी ग़ज़ल ही दुखः पा रही है )

शनिवार, 22 जनवरी 2011

अंधे आत्महत्या नहीं करते

अंधे आत्महत्या नहीं करते

  • दिनेशराय द्विवेदी

जिधर देखते हैं,
अंधकार दिखाई पड़ता है,
नहीं सूझता रास्ता,
टटोलते हैं आस-पास
वहाँ कुछ भी नहीं है, जो संकेत भी दे सके मार्ग का

तब क्या करेगा कोई?
खड़ा रहेगा, वहीं का वहीं,
या चल पड़ेगा किधर भी।
चाहे गिरे खाई में या टकरा जाए किसी दीवार से
या बैठ जाए वहीं और इंतजार करे 
किसी रोशनी कि किरन का,
या लमलेट हो वहीं सो ले।

लेकिन एक आदमी है 
जो ऐसे में भी रोशनी की किरन तलाश रहा है।
उस की दो आँखें 
अंधेरे में देखने का अभ्यास करने में मशगूल हैं
वह जानता है कि सारे अंधे आत्महत्या नहीं करते
जीवन जीते हैं, वे

आप जानते हैं? इस आदमी को
नहीं न? 
मैं भी नहीं जानता, कौन है यह आदमी?

पर जानता हूँ 
यही वह शख्स है 
जो काफिले को ले जाएगा, उस पार
जहाँ, रोशनी है।

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