@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: भट्टी में जाने के पहले, ईंट ये गल-बह जाए

रविवार, 21 अगस्त 2011

भट्टी में जाने के पहले, ईंट ये गल-बह जाए

त्ताधीश का कारोबार बहुत जंजाली होता है। उसे सदैव भय लगा रहता है कि कहीं सत्ता उस के हाथ से छिन न जाए। इस लिए वह अपने जंजाल को लगातार विस्तार देता रहता है। ठीक मकड़ी की तरह, जो यह सोचती है कि उस ने जो जाल बनाया है वह उसे भोजन भी देगा और रक्षा भी। ऐसा होता भी है। उस के भोज्य जाल में फँस जाते हैं, निकल नहीं पाते और प्राण त्याग देते हैं। तब मकड़ी उन्हें आराम से चट करती रहती है। लेकिन मकड़ी के जाल की अपनी सीमा है। जिस दिन बारिश से सामना होता है, जाल भी बह जाता है और साथ ही मकड़ी भी। बारिश न भी हो तो भी एक दिन मकड़ी का बनाया जाल इतना विस्तृत हो जाता है कि वह खुद ही उस से बाहर नहीं निकल पाती, उस का बनाया जाल ही उस के प्राण ले लेता है। 


ब देश में सत्ता किस की है? यह बहुत ही विकट प्रश्न है। किताबों में बताती हैं कि सत्ता देश की जनता की है। आखिर इकसठ साल पहले लिखे गए संविधान के पहले पन्ने पर यही लिखा था "हम भारत के लोग ...." लेकिन जब जनता अपनी ओर देखती है तो खुद को निरीह पाती है। कोई है जो केरोसीन, पेट्रोल, डीजल के दाम बढ़ा देता है, फिर सारी चीजों के दाम बढ़ जाते हैं। जनता है कि टुकर-टुकुर देखती रहती है। समझ आने लगता है कि सत्ता की डोरी उन के आसपास भी नहीं है। सत्ता को सरकार चलाती है। हम समझते हैं कि सरकार की सत्ता है। जनता सरकार को कहती है कानून बनाने के लिए तो सरकार संसद का रास्ता दिखाती है। हम समझते हैं कि संसद की सत्ता है। सरकार कहती है संसद सर्वोच्च है तो संविधान का हवाला दे कोई कह देता है कि संसद नहीं जनता सर्वोच्च है। संसद को, सरकार को जनता चुनती है। जनता मालिक है और संसद और सरकार उस के नौकर हैं। 

जरीए संविधान, यह सच लगता है कि जनता देश की मालिक है। यह भी समझ आता है कि संसद और सरकार उस के नौकर हैं। लेकिन ये कैसे नौकर हैं। तनख्वाह तो जनता से लेते हैं और गाते-बजाते हैं पैसे रुपए (पैसा तो अब रहा ही कहाँ)  वालों के लिए, जमीन वालों के लिए। तब पता लगता है कि सत्ता तो रुपयों की है, जमीन की है। जिस का उस पर कब्जा है उस की है। बड़ा भ्रष्टाचार है जी, तनखा हम से और गीत रुपए-जमीन वालों के। इन गाने वालों को सजा मिलनी चाहिए। पर सजा तो कानून से ही दी जा सकती है, वह है ही नहीं। जनता कहती है -कानून बनाओ, वे कहते हैं -बनाएंगे। जनता कहती है -अभी बनाओ। तो वे हँसते है, हा! हा! हा! कानून कोई ऐसे बनता है? कानून  बनता है संसद में। पहले कच्चा बनता है, फिर संसद में दिखाया जाता है, फिर खड़ी पंचायत उसे जाँचती परखती है, लोगों को दिखाती है, राय लेती है। जब कच्चा, अच्छे से बन जाता तब  जा कर संसद के भट्टे में पकाती है। गोया कानून न हुआ, मिट्टी की ईंट हुई।  जनता कहती है अच्छे वाली कच्ची ईंट हमारे पास है, तुम इसे संसद की भट्टी में पका कर दे दो। वे कहते हैं -ऐसे कैसे पका दें? हम तो अपने कायदे से पकाएंगे। फिर आप की ईंट कैसे पका दें? हमें लोगों ने चुना है हम हमारी पकाएंगे और जब मरजी आएगी पकाएंगे। देखते नहीं भट्टे में ऐसी वैसी ईँट नहीं पक सकती। कायदे से बनी हुई पकती है। 42 साल हो गए हमें अच्छी-कच्ची बनाते। भट्टे में पक जाए ऐसी अब तक नहीं बनी। अब तुरत से कैसे बनेगी? कैसे पकेगी?


 सत्ता कैसी भी हो, किसी की भी हो। मुखौटा मनमोहक होता है, ऐसा कि जनता समझती रहे कि सत्ता उसी की है। उसे मनमोहन मिल भी जाते हैं। वे पाँच-सात बरस तक जनता का मन भी मोहते रहते हैं। जब सत्ता संकट में फँसती है तो संकट-हरन की भूमिका भी निभाते हैं। वे कहते हैं -हम ईंट पकाने के मामले पर बातचीत को तैयार हैं, उस के लिए दरवाजे हमेशा खुले हैं।  लेकिन हम सर्वसम्मति से बनाएंगे। सर्व में राजा भी शामिल हैं और कलमाड़ी भी। उन की बदकिस्मती कि वे तो जेल में बंद हैं। बहुत से वे भी हैं, जो खुशकिस्मत हैं और जेल से बाहर हैं। उन सब की सम्मति कैसे होगी? मनमोहन मन मोहना चाहते हैं। तब तक जब तक कि बारिश न आ जाए।  ये जनता जिस ईंट को पकवाना चाहती है वह बारिश के पानी में गल कर बह न जाए।  वे गा रहे हैं रेन डांस का गाना ....

इन्दर राजा पानी दो
इत्ता इत्ता पानी दो 

मोटी मोटी बूंदो वाली
तगड़ी सी बारिश आए
भट्टी में जाने के पहले 
ईंट ये गल-बह जाए



10 टिप्‍पणियां:

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

" सत्ता कैसी भी हो, किसी की भी हो। मुखौटा मनमोहक होता है, ऐसा कि जनता समझती रहे कि सत्ता उसी की है। उसे मनमोहन मिल भी जाते हैं। वे पाँच-सात बरस तक जनता का मन भी मोहते रहते हैं। जब सत्ता संकट में फँसती है तो संकट-हरन की भूमिका भी निभाते हैं।"

एकदम सही बात है ... बहुत बढ़िया विश्लेषण !

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

I ♥ it .

अन्ना हजारे के आंदोलन के पीछे विदेशी हाथ बताना ‘क्रिएट ए विलेन‘ तकनीक का उदाहरण है। इसका पूरा विवरण इस लिंक पर मिलेगा-
ब्लॉग जगत का नायक बना देती है ‘क्रिएट ए विलेन तकनीक‘ Hindi Blogging Guide (29)

Ayaz ahmad ने कहा…

वास्तव में आज होना यह चाहिए था कि सभी राजनैतिक दल एक साथ बैठकर अन्ना के जन लोकपाल पर विचार करते और इसे संसद के मानसून सत्र से अलग रखने का निर्णय भी करते.

Khushdeep Sehgal ने कहा…

सत्ता के मकड़-जाल में फंसी देश की अभिमन्यु जनता...

जय हिंद...

आपका अख्तर खान अकेला ने कहा…

bhtrin andaaz me bhtrin chintan bdhe bhaai badhaai ho ...akhtar khan akela kota rajsthan

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सत्ता का खेल बड़ा ही विषम है।

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

अन्ना के लोकपाल बिल के पास होने से कितने समय में किसी को दंड मिलेगा, इसका खयाल कोई कर ले एक बार तो पता चले कि भ्रष्टाचार कम होगा या नहीं।

उम्मतें ने कहा…

वो जनता , जिसकी शक्तियां संसद / विधायिका में निहित होती हैं ,ने 'एक प्रणाली' विकसित की है !

सवाल ये है कि 'जिस संसद' ने जनता से निर्धारित प्रणाली के अंतर्गत ( हम भले ही येन केन प्रकारेण कह लें ) शक्ति प्राप्त की है और वो जनता से भी 'उसी प्रणाली' के परिपालन की अपेक्षा कर रही है तो सैद्धांतिक रूप से इसमें गलत क्या है ?

प्रतिनिधियों को शक्तियां सौंपने और असंतुष्ट होते ही उन्हें वापस बुला लेने का विकल्प अस्तित्व में लाये बगैर जनता के पास परिवर्तन का एकमात्र संवैधानिक रास्ता मतपेटी के थ्रू ही गुज़रता है !

ऐसे में आंदोलन के द्वारा सरकारें गिराये जाने का अंतिम मार्ग चुनना तो ठीक है पर कानून हमारे ही ड्राफ्ट पर बनेंगे कहना तकनीकी रूप से दुरुस्त नहीं है क्योंकि यह अधिकार जैसे भी हो , संसद के खाते दर्ज है !

निर्धारित लोकतान्त्रिक प्रणाली में कोई आन्दोलन प्रेशर ग्रुप की तरह काम करे यह तो ज़ायज़ है पर वह डिक्टेटर की तरह बिहेव करे यह उचित नहीं है खासकर तब कि, जब आन्दोलन के दूसरे , तीसरे और निचले कैडर में संदिग्ध प्रवृत्ति के लोगों का जमावडा हो !

सेल्स टेक्स / वेट / आयकर चोरी करने वालों तथा स्वयं भ्रष्ट लोगों का भारी जमावड़ा किसी भी सात्विक आन्दोलन की हवा निकाल देने / उसे कलंकित कर देने / उसकी चरित्र ह्त्या कर देने /विश्वसनीयता समाप्त कर देने / संदिग्ध बना देने के लिए पर्याप्त है ! इसलिए सरकार उखाडू आन्दोलन पर अपनी सहमति का मूल आधार एक मात्र होना चाहिए , बेदाग़ नेतृत्व और बेदाग़ काडर !

आपके आलेख में इंगित आंदोलन नेतृत्व की कसौटी पर खरा किन्तु काडर की कसौटी पर कमोबेश खोटा है,यहां पर ज्यादातर काडर दिशाहीन / अनियंत्रित भीड़ जैसा है ! कथित रूप से भावुक / 'नारे' वादी देशभक्त / और आध्यात्मिक साम्प्रदायिक मनोवृत्ति से लैस तथा कर चोरों से प्रायोजित गिरोह की एकजुटता के संकेत भी हैं !

अभी परसों ही छत्तीसगढ़ के बहुत बड़े बैंक घोटाले के मुख्य अभियुक्त और आन्दोलन के स्थानीय कर्ताधर्ताओं की बातचीत सुन रहा था और मंच पर आसीन वणिक समुदाय सह सांप्रदायिक शक्तियों की पेश बंदी के साथ गबन के आरोप में बैंक की नौकरी से हटाई गयी एक मित्र पुत्री के शौर्य को देख भौंचक था ! आस पास के गांव शहरों की भी यही कहानी है ! अब शंका यह कि , या तो यह आन्दोलन हाइजैक कर लिया गया है और नेतृत्व केवल भीड़ को देख कर सम्मोहित / चमत्कृत है ? या फिर आगे कभी भी हाइजैक होने की संभावनायें प्रबल हैं ?

ज़रा देख सुन कर रास्ते तय करने की आदत है वर्ना कुछ ना कहता !

और यह भी कि इतना सब लिखने का मकसद कांग्रेसनीत गठजोड़ को उसके नेक चाल चलन का सर्टिफिकेट देना कतई नहीं है ! वे देश की दुर्दशा के प्रमुख जिम्मेदारों में से एक है , मुझे स्वीकार है !

बेशक अन्ना मेरे लिए एक सम्माननीय / प्रेरक व्यक्तित्व हैं और बने रहेंगे !

उम्मतें ने कहा…

कुछ और बिंदु भी थे जिन पर चर्चा करता पर टिप्पणी पहले ही बहुत लंबी हो गयी है ! बहरहाल एक अच्छे आलेख के लिए आपका आभार !

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

गुरुवर जी, आपने उपरोक्त पोस्ट में भट्टी और ईंट द्वारा सरकार की कार्यशैली पर करारा कटाक्ष किया है.