@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: "बाइस्कोप का तमाशा : खेला सामन्तवाद का" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का एकादश सर्ग

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

"बाइस्कोप का तमाशा : खेला सामन्तवाद का" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का एकादश सर्ग

यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के दस सर्ग पढ़ आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। इस तरह उन के इस काव्य के प्रथम खंड का समापन हो चुका है। अब ग्यारहवें सर्ग से इस का द्वितीय खंड आरंभ होता है। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का एकादश सर्ग "बाइस्कोप का तमाशा : खेला सामन्तवाद का" प्रस्तुत है ................ 
परंपरा और विद्रोह  
* यादवचंद्र *

एकादश सर्ग
 
 "बाइस्कोप का तमाशा : खेला सामन्तवाद का"
 
उठ देख तमाशा देख-देख यह देख ........
रोमन समराजी भागा -
उज्जैन खरे सोने का
कहलाने लगा अभागा -
दासों की गई मुसीबत
जेरूसेलम ने रागा -
जो चमका स्वर्ण सवेरा
वह तो था 'मिरगा' चमका
जो भरता था खर्राटा
वह देख जमाना जागा
उठ, उठ हौवा के बेटे
आवाज तूर से आई
उठ अपनी मुक्ति बना ले
केरल में बोले कागा -
उठ देख तमाशा देख-देख यह देख ........
 
यह शुभ बेला है हल्दी
अक्षत से पूजित गोदें
घर-घर में बजे बधावा
आए नव पाहुन भोले
जय हो नव आगत जन की
तू भू का श्रेष्ठ रतन है
तू ब्रह्म अंश अविनाशी
स्रष्टा का श्रेष्ठ रतन है
निज कर्मों से है पूजित
तू पतित, हीन ले मन है - 
तन पूर्व पुण्य का फल है
औ, इस का एक नियम है
पण्डित की -- ठेकेदारी
पादरी, मौलवी बाँटे -
अब खट पट एक करे तो
दूसरा उछल कर डाँटे
अब देख तमाशा देख-देख अब दे - ख ........
 
जल कोस-कोस पर बदले
औ तीन कोस पर बानी, 
दस-पाँच कोस पर बदले
अब राजा की रजधानी,
क्या रोम अरब,  क्या भारत
सब करे जमीं का ठेका,
जो ऊपर चढ़ के देखा
तो घर-घर एके लेखा
सूरज के वंशज देखो,
महलों में ढिबरी जारे,
जो छीने इंद्रासन अब
रैयत को मारे - डारे -
हो गया खिराज खड़ कर
पैदा का एक तिहाई
ऊपर से अमला-फैला
लूटे धन कर कस्साई -
कब कौन माण्डलिक बन कर 
जा राज सभा में राजे,
यह कौन जानता है जी
कब किस की किस्मत गाजे -
यह देखो राजा - रानी 
का झगड़ा - रगड़ा - पचड़ा
यह पहलू बड़ा कठिन है
कब पड़े कौन सा तगड़ा
अब करे किसानों का सौदा
भामा जी का कर्ज चलावें,
सम्राट मांगने कर्जा
घर मामाजी के धावें -
पण्डित जी देखो बाटें
घर वैश्यों के जा गजला
जो शूद्र कभी कहलाए
अब लगे कहाने महरा -
यह देख तमाशा देख-देख भई दे - ख
 
है हिस्सा का बंटवारा
बड़ चलो भाइयों लड़ने !
नेता के एक हुकुम पर
चढ़ चलो भाइयों मरने !
बन गया कुरानी मन्तर
नंगे तेगा का पानी
अरबी घोड़ों पर बैठी
निकली बे फ़ाँट जवानी
कज्जाक, तुर्क, मंगोलों 
के छोरे बड़े चकोड़े
बाजार गरम इसलामी
ये बे लगाम के घोड़े,
रावी - झेलम का पानी
नापाक हुआ पण्डित जी,
अब बौद्ध, ब्राह्मणों देखो
ताकत अपनी चण्डी की,
खूँ-धर्म-सभ्यता-संस्कृति
का फेंट अनोखा देखो-
अब अपने आदर्शों का 
यह खिचड़ी चोखा देखो
उठ देख तमाशा देख-देख अब दे -ख 
 
आ रहा कबीरा देखो--
नौ मन का हीरा देखो --
 जो बात न अब तक देखी --
 वह कहे कबीरा देखो --
पण्डित चितकबरा देखो --
मस्जिद का लबरा देखो --
साधू मुस्टंडा देखो --
सतयुगिया गुण्डा देखो --
वह दीन ऐलाही देखो --
मजहबी तबाही देखो --
आदाब बजाती मुल्ला --
के संग हरजाई देखो --
मरहट्टी दुर्गा देखो --
सामंती गुर्गा देखो --
उस ओर पोप का खेला
ठंडा हो रहा झमेला देखो
हरि बोल ! धरम है भैया
अब चार दिशाओं का मेला,
जर्मन की जागी जनता
विद्रोह किसानों का है
यह पोप ढोंग का पुतला
ऐलान जवानों का है
इंग्लेंड - फ्रांस और इटली
का बनिया डंडी मारे
जो राजा अब आँख दिखाए
तो तिरिया - चरित पसारे
यह लेन--देन का सौदा
है बीच बजरिया देखो --
दरबार मुगलिया देखो --
बेजोड़ पतुरिया देखो --
जन्नत की जुल्फें देखो --
खुलते हैं कुलफे देखो --
जलते हैं सुलफें देखो --
चलती हैं हलफें देखो --
यह लाल परी है मेरी --
बाकी सब कुछ है तेरा 
नीलाम चढ़ी है उल्फत
अब इम्तिहान है मेरा --
यह देख तमाशा देख -- देख उठ  दे--ख

लो, जोश जाति का उबला
आदर्श पुराना मचला
पर बुझते हुए चिरागों
का व्यर्थ सभी है मसला
जनता को स्वाद लहू का
मिल गया उसे दो भेड़ा
भेड़ा तुम जिसे समझते
अह वह है उड़न बछेड़ा
जो कृषक दलालों के हैं
दरबारी  पाग--पगड़िया
जागीर लगे हथियाने
बन कर के पंच हजरिया
हो गया गाँव का हिस्सा
ले देख नया यह किस्सा
मुखिया जी लगे पढ़ाने
अब गाँव--टोल को झिस्सा
दरबारी  लटरम-पटरम
घुस गया गाँव में देखो--
जो बात न अब तक देखी 
यह बात गुलहिया देखो--
यह देख तमाशा देख-देख अब देख

पण्डित-अल्लामा देखो--
गँवई श्री नामा देखो--
वह चुप्पा भोगी देखो--
हर जोता योगी देखो--
सामन्त समागम देखो--
हसुआ का आगम देखो--
 
दरबार झमकता देखो
 है गाँव बनकता देखो
है ताजमहल वह देखो
यह फूटा चंबल देखो
वह फूल सेजरिया देखो
यह मुफ्त कहरिया देखो
रंगीन कहानी देखो
बर्बाद जवानी देखो
वल्लाह ! अटारी देखो
व, भूख, बेगारी देखो
जुल्मत के कोड़े देखो
जिस्मों पर फोड़े देखो
हंसों के जोड़े देखो
जीवन सुख मोड़े देखो
महलों के डोले देखो
खेतों के शोले देख
 
लड़ती तस्वीरें देखो
लड़ती तकदीरें देखो
बनती तस्वीरें देखो
मिटती तस्वीरें देखो
खेला खतमा देखो
पैसे का हजमा देखो
उठ, देख तमाशा खत्म हुआ घर दे-ख !!!
यादवचंद्र पाण्डेय

 

5 टिप्‍पणियां:

Jandunia ने कहा…

शानदार पोस्ट

उम्मतें ने कहा…

सार्थक प्रविष्टि !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

वाह, प्रवाहमयी काव्य।

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर कविता, ओर यह बाईस्कोप इस के बारे हम अपने बच्चो को बताते थे कि जब हम छोटे थे तो ऎसे ही फ़िल्म देखा करते थे, ओर फ़िर बच्चो को बहुत उत्सुकता हुयी, भारत आने पर हम ने लोगो से पुछा कि कोई बतायेगा कि यह बाईस्कोप वाला कहां मिलेगा? सभी हंस पडते कि पागल हो वो तो सदियो पहले खत्म हो गये... हम भी पक्के खोजी थे आस नही छोडी सोच किसी के पास पुराना पडा हो तो हम बच्चो को दिखा देगे खरीद कर, फ़िर एक दिन इडिया गेट गये तो वहा पर एक बाईस्कोप वाला बच्चो को बाईस्कोप दिखा रहा था, मेरे ओर मेरी साली के बच्चो ने दिल भर के देखा बाईस्कोप, ओर मैने उस बाईस्कोप बाले को बिना पुछे पेसे दे दिये वो भी खुश ओर हम भी खुश

P.N. Subramanian ने कहा…

सुन्दर रचना. आभार.