@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: घूंघट में दूरबीन और हेण्डपम्प का शीतल जल -एक ग्राम यात्रा

शनिवार, 26 जून 2010

घूंघट में दूरबीन और हेण्डपम्प का शीतल जल -एक ग्राम यात्रा

पिछली पोस्टों घमौरियों ने तोड़ा अहंकार - एक ग्रामयात्रा और  देवताओं को लोगों की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है  से आगे ....... 
 णेश जी महाराज की जय! जोरों का लगातार उद्घोष सुन कर मेरी झपकी टूट गई। शायद गणेश जी को नीचे से सिंहासन पर बैठाया जा रहा था। मेरी निगाह ऊपर नीम पर गई जिस के पत्तों के बीच से सूरज झाँक-झाँक जाता था। चौपाल पर मर्दों के जाते ही वहाँ बच्चे और युवतियाँ आ खड़े हुए थे। सिंहासन पर बैठते हुए गणेश जी के दर्शन करने की उत्सुकता के साथ। उन के पीछे महिलाएँ घूंघट काढ़े एक हाथ की दो उंगलियों से उस में छेद बना कर एक आँख से दूर से ही सिंहासन पर नजर गड़ाए खड़ी थीं। मुझे मुस्कुराना आ गया। हम दूर की वस्तुएँ को साफ देखने के लिए कभी हथेली को एक नली का रूप दे कर आँख के सामने रख देखते थे तो वे साफ दिखाई देने लगती थीं। कहते हैं कि यदि गहरे कुएँ में नीचे उतर कर आसमान में देखें तो दिन में तारे देखे जा सकते हैं। शायद वही प्रयोग वे घूंघटधारी महिलाएँ कर रही थीं। निश्चित रूप से वे दूर तक अधिक साफ देख पा रही होंगी। मैं ने उधर नजर दौड़ाई तो भीड़ में कुछ न दिखाई दिया। गणेश जी भीड़ से ढके थे।
ब एक एक कर लोग चौपाल पर लौटने लगे थे। हवन फिर से होने लगा। कुछ ही देर में मेहमान और गाँव के लोग हाथों में थैलियाँ लेकर तैयार नजर आए। अब कार्यक्रम का समापन नजदीक था। अंत में पूजा करने वाले मेजबान परिवार के जोड़ों को ये सब कपड़े भेंट करने वाले थे। कुछ ही देर में यह सब भी होने लगा। इतने में नाइन आ गई, सब को ढोबा (दोनों हाथों से बनी अंजुरी)  भर-भर बताशे बांटने लगी। मुझे भी लेने पड़े। मुझे समझ नहीं आया की उन बताशों का मैं क्या करूँ। बच्चों को बुलाया और उन्हें बांटने लगा, कुछ मैं ने भी खाए। मीठे बताशे खा कर पानी पीने से लगा जैसे गर्मी में शरबत की कमी पूरी हो गई है।  एक-एक कर लोग कपड़े पहनाने जाते रहे और वापस लौटते रहे। चौपाल पर फिर बातें होने लगीं। कोई कह रहा था। इन गणेश जी के साथ ही गाँव के सब देवता जमीन से चबूतरों और मंदिरों में आ चुके हैं। किसी दूसरे ने कहा-गणेश जी यूँ तो प्रथम पूज्य हैं लेकिन जिम्मेदार भी हैं। शेष सब देवताओं को चबूतरों पर बिठाने के बाद अपने लिए स्थान बनवाया है। मैं उन ग्रामीणों की समझ पर दंग था। जो सब काम वे खुद कर रहे थे, उस का सारा श्रेय देवताओं को दिए जाते थे। 
भी हनुमान जी के चबूतरे की बात चल निकली। कोई नेता था जो यह श्रेय खुद लेना चाहता था। गाँव वाले कहते थे, हमारे देवता हैं तो हम ही सब कुछ करेंगे। दूसरे की मदद क्यों लें? जब गाँव वाले करने लगे तो उस ने पुलिस का सहारा लिया और गाँव वालों पर मुकदमा बना दिया। सब गाँव वाले मुकदमे में कोटा जाने की बातें ताजा करने लगे। छह माह मुकदमा चला, हर माह कोटा जाना पड़ता था। जब मुकदमा खत्म हुआ तो  आखरी दिन उन में से एक आदमी उदास हो गया। उसे नयापुरा चौराहे पर रतन सेव भंड़ार की कचौड़ियाँ अच्छी लगती थीँ। वह हर पेशी पर जाता तो कचौड़ियाँ जरूर खाता। कहने लगा अब न जाने कब कचौड़ियाँ मिलेंगी। उस की इस आदत का लोग आनंद लेने लगे। जब भी जी चाहता उसे कहते -यार नोटिस आ गए हैं, फिर से तारीखों पर चलना पड़ेगा। वह कहता -जरूर चलेंगे, कचौड़ियाँ तो खाने को मिलेंगी। धीरे-धीरे यह होने लगा कि जब भी कोई बाइक से अकेला कोटा जाने को होता तो उसे साथ चलने को कहता। वह हमेशा तैयार हो जाता, उस की एक ही शर्त होती, रतन सेव वाले की कचौड़ियाँ खिलानी पड़ेंगी।

मुझे लघुशंका हो रही थी। मैं ने एक सज्जन से पूछा किधर जाना होगा। उस ने बिजली के दो खंबों के पीछे निकल जाने को कहा। मैं उधर गया तो वह गणेश जी का पिछवाड़ा निकला। और पीछे गया तो गाँव खत्म हो चला था, खेत आ गए थे। मैं निबट कर लौटा तो एक ने आवाज दे दी -हाथ धोने इधर आ जाओ। वहाँ  बाड़े में हेण्डपंप पर चौपाल पर बैठे लोगों में से एक मौजूद था। मैं वहाँ गया हाथ धोए तो पानी बहुत ठंडा था, जैसे फ्रिज में से निकला हो। मैं ने पानी पिया भी। मैं ने प्रतिक्रिया व्यक्त की, यहाँ तो पानी ठंडा करने की जरूरत ही नहीं। उन सज्जन ने कहा -यहाँ गर्मी में कोई मटकी का पानी नहीं पीता। सीधे हेण्डपंप से ही निकाल कर पीते हैं। मैं चौपाल पर पहुँचा तो वह खाली थी। सब लोग कपड़े पहना कर जा चुके थे। बस एक बचा था जो मेरा पूर्व परिचित निकला था। वह एक पोस्टमेन था जो आठ वर्ष पहले सेवानिवृत्त होने तक लगातार सोलह सत्रह वर्ष तक कोटा में मेरी बीट में डाक बांटता रहा था। अब सेवानिवृत्त हो जाने पर यहाँ अपने गाँव में वापस आ कर रहने लगा था। वह कहने लगा  -लो, आप को घर दिखा दूँ। मैं उस के साथ चल पड़ा।
......... क्रमशः

12 टिप्‍पणियां:

अन्तर सोहिल ने कहा…

जय गणपति महाराज की

यह श्रंखला पढने में बहुत मजा आ रहा है जी

प्रणाम

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत आंन्द आ रहा है आप की यह कहानी पढ कर, लगता है जेसे हम ही यह सब कर रहे हो,
पटासो की याद आप ने जिंदा कर दी मुझे बहुत स्वाद लगते है. धन्यवाद

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है ।

अरुणेश मिश्र ने कहा…

अहा ! ग्राम्यजीवन भी क्या है ।

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

एक ही शर्त होती, रतन सेव वाले की कचौड़ियाँ खिलानी पड़ेंगी।

Hamari bhi yahi shart hai ji.

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

हम चूक गये...
श्रृंखला को सिरे से देखते हैं....

Gyan Darpan ने कहा…

बढ़िया लगी ग्राम्य श्रंखला

Arvind Mishra ने कहा…

जय गणपति .....

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } ने कहा…

इस श्रंखला की तीनो पोस्टे आज ही पढी . मेरा तो रोज़ ही गांव का सम्पर्क है . लेकिन गान्वो का शहरीकरण इन सब रितियो को निगल रहा है .
यह जो स्वत: पानी निकलने वाले बोरिंग होते है अगर उन्हे उपर से बन्द कर दिया जाये तो फ़िर कभी पानी नही देते . हमारे यहा तराई में ऎसे ही बोरिंग होते है

उम्मतें ने कहा…

घूंघट और बाइनाकुलर का साम्य खूब ढूंढा आपने :)

Himanshu Mohan ने कहा…

मज़ा आ गया, जी लिए आपके चमत्कारी वर्णन के सहारे ये क्षण; इस जीवन के नैसर्गिक आनन्द के क्षण। काश कि सशरीर वहीं इहलीला कर पाते!

विष्णु बैरागी ने कहा…

हम भी आपके सहयात्री हैं इस ग्राम यात्रा में। आनन्‍द आ रहा है।