@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: मैं वकील, एक आधुनिक उजरती मजदूर, अर्थात सर्वहारा ही हूँ।

मंगलवार, 4 मई 2010

मैं वकील, एक आधुनिक उजरती मजदूर, अर्थात सर्वहारा ही हूँ।

पिछले आलेख में मैं ने एक कोशिश की थी कि मैं आम मजदूर और सर्वहारा में जो तात्विक भेद है उसे सब के सामने रख सकूँ। एक बार मैं फिर दोहरा रहा हूँ कि सर्वहारा का तात्पर्य उस 'आधुनिक उजरती मजदूर से है जिस के पास उत्पादन के अपने साधन नहीं होते और जो जीवन यापन के लिए अपनी श्रमशक्ति को बेचने के लिए मजबूर है"।
ह परिभाषा अपने आप में बहुत स्पष्ट है। सब से पहले इस में आधुनिक शब्द का प्रयोग हुआ है। मजदूर तो सामंती समाज में भी हुआ करता था। बहुधा वह बंधक होता था। एक बंधुआ मजदूर अपनी श्रम शक्ति को बेचने के लिए स्वतंत्र नहीं होता। वह एक ही स्वामी से बंधा होता है। उस का पूरा दिन और रात अपने स्वामी के लिए होती है।  सर्वहारा के लिए जिस मजदूर का उल्लेख हुआ है वह इस मजदूर से भिन्न है। यह मजदूर तो है लेकिन अपनी श्रम शक्ति को बेचने के लिए स्वतंत्र है। दूसरे यह मजदूर आधुनिकतम  तकनीक पर काम करता है उस के निरंतर संपर्क में है। यह उजरती मजदूर है, अर्थात अपनी श्रम शक्ति को बेचता है। वह घंटों, दिनों के हिसाब से, अथवा काम के हिसाब से अपनी श्रम शक्ति को बाजार में बेचता है।  इस के पास उत्पादन के अपने साधन नहीं हैं। जीवन यापन के लिए इस के पास अपनी श्रम शक्ति को बेचने के अलावा और कोई अन्य बेहतर साधन नहीं है।  
मैं स्वयं अपना उदाहरण देना चाहूँगा। मैं एक वकील हूँ और किसी का कर्मचारी नहीं हूँ। अपनी मर्जी का स्वयं मालिक भी हूँ। लेकिन उस के बावजूद मैं एक उजरती मजदूर ही हूँ। रोज अपने दफ्तर में बैठता हूँ और समय से अदालत पहुँच जाता हूँ। ये दोनों स्थान मेरे लिए अपने श्रम को बेचने के बाजार हैं। किसी भी व्यक्ति को जब मेरे श्रम की आवश्यकता होती है तो वह मेरे पास आता है और सब से पहले यह देखता है कि मेरा श्रम उस के लिए उपयोगी हो सकता है अथवा नहीं। जब वह पाता है कि मेरा श्रम उसके उपयोगी हो सकता है तो वह मुझे बताता है कि मुझ से वह क्या काम लेना चाहता है। मैं उस काम का हिसाब और उस में लगने वाले श्रम का मूल्यांकन करता हूँ। वह मुझ से उस काम में लगने वाले श्रम का मूल्य पूछता है। मैं उसे  बताता हूँ तो वह फिर मोल-भाव करता है। यदि मुझे उस समय अपने श्रम को बेचने की अधिक आवश्यकता होती है तो मुझे अपना भाव कम करना होता है यदि परिस्थिति इस के विपरीत हुई, खऱीददार को मेरे श्रम की अधिक आवश्यकता हुई और मुझे अपने श्रम को बेचने की आवश्यकता कम तो मेरे श्रम के मूल्य में वृद्धि हो जाती है। इस तरह कुल मिला कर मैं एक  आधुनिक उजरती मजदूर ही हूँ।  मेरे पास आय का अर्थात जीवन यापन का कोई अन्य साधन नहीं है । इस तरह मैं एक सर्वहारा हूँ। मेरे प्रोफेशन में बहुत लोग ऐसे भी हैं जिन के पास जीवन यापन के अन्य साधन भी हैं। अनेक तो ऐसे भी हैं जिन के जीवन यापन के प्रधान साधन कुछ और हैं, वकालत का प्रोफेशन नहीं। निश्चित रूप से ऐसे लोग सर्वहारा नहीं हैं। लेकिन आज स्थिति यह है कि वकालत के प्रोफेशन में 60-70 प्रतिशत लोग वही हैं जिन के जीवन यापन का एक मात्र जरिया वकालत ही है और निश्चित रूप से वे सर्वहारा हैं। यही स्थिति डाक्टरों की है। इंजिनियरों में तो सर्वहाराओं की संख्या और भी अधिक है। 
स तरह हम पाते हैं कि पूंजीवाद ने चिकित्सकों, अधिवक्ताओं और इंजिनियरों को भी आधुनिक उजरती मजदूरों में परिवर्तित कर दिया है। यह दूसरी बात है कि इन में बहुत कम, केवल चंद लोग हैं जो अपनी इस स्थिति को स्वीकार करने को तैयार होंगे। लेकिन उस से क्या? जैसे जैसे वर्तमान व्यवस्था का संकट बढ़ता जाता है, उन्हें इस वास्तविकता का बोध होता जाता है, वे स्वीकारने लगते हैं कि वे आधुनिक उजरती मजदूर अर्थात सर्वहारा हैं।

15 टिप्‍पणियां:

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

राम राम सा
ऐसा है जी मजदूर भी तीन श्रेणी में होते हैं
1-अकुशल,2-अर्धकुशल,3-कुशल
इस हिसाब से सारे ही मजदूर हैं।
और हम मजबूर हैं देखिए,अब टिप्प्णी ना कर पाना भी जुर्म हो गया है।

हमारे उपर तो टिप्पणी लौटाने के लिए
मुकदमें की तैयारी हो रही है, टिप्पणी
लौटाने की धमकी दी जा रही है आप
यहां पर दे्खिए:)
जय टिप्पणी माता

Arvind Mishra ने कहा…

मैं भी मजदूर जी तो हुआ -अच्छी व्याख्या !

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

ताऊ तो सबसे बडा मजदूर है. ताऊगिरी में कितनी मेहनत लगती है? कोई अंदाज लगा सकता है क्या?

रामराम.

Unknown ने कहा…

मजदूर एकता जिन्दाबाद

हम भी कहने को बैक अधिकारी है पर है तो मजदूर ही.

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर लिखा,मजदुर हम सभी है.... लेकिन भारत मै सिर्फ़ मजदुर उन्हे ही कहते है जो दिहाडी पर मजदुरी करते है, ओर मजदुर दिवस पर पुरे युरोप मै सब को छूट्टी होती है

mukta mandla ने कहा…

क्या कहने साहब
जबाब नहीं निसंदेह
यह एक प्रसंशनीय प्रस्तुति है
धन्यवाद..साधुवाद..साधुवाद
satguru-satykikhoj.blogspot.com

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

पूंजीवाद ने चिकित्सकों, अधिवक्ताओं और इंजिनियरों को भी आधुनिक उजरती मजदूरों में परिवर्तित कर दिया है।

मजदूर होने में शर्म कैसी। मजदूर की चौधराहट करने और मजदूर का शोषण करने वाले - दोनो को शर्म आनी चाहिये!

Ashok Kumar pandey ने कहा…

मज़दूर शब्द को हाड़ मास के जिस इंसान की कल्पना की जाती है वह अक्सर भ्रम पैदा करती है।

आपका लेख मज़दूर शब्द की सर्वहारा के रूप में सही व्याख्या प्रस्तुत करता है। वैसे मैं इसकी जगह कामगार शब्द का प्रयोग करता हूं।

बेनामी ने कहा…

बढिया प्रस्तुति...
आम मानस में यह बात पहुंचना जरूरी है...

विष्णु बैरागी ने कहा…

बहुत ही साफ-सुथरा, तार्किक विश्‍लेषण। साधुवाद। असहमत होने की रंचमात्र भी गुंजाइश नहीं रखी आपने। यूँ तो सुखद जीवन के लिए कई भ्रम जरूरी होते हैं किन्‍तु श्रेष्‍ठ स्थिति वहीं कि आदमी और कुछ भी पाल ले - शेर तक पाल ले किन्‍तु कोई भ्रम न पाले।

एक बार फिर से साधुवाद।

Abhishek Ojha ने कहा…

...उन्हें क्या कहेंगे जो आपकी इस पोस्ट से अपने आपको मजदूर की श्रेणी में पा ख़ुशी महसूस कर रहे हैं? सभी किसी न किसी के लिए काम करते हैं... कंपनी के सीईओ भी... फिर चंद लोगों को छोड़ सभी सर्वहारा ही हुए?

शरद कोकास ने कहा…

द्विवेदी जी यह बहुत अच्छी पोस्ट है इसे पढ़कर बहुत से लोगों के भ्रम दूर हुए होंगे । मैने भी बरसों पहले सर्वहारा पर एक कविता लिखी थी , आपके लिये प्रस्तुत कर रहा हूँ ..

दो तिहाई ज़िन्दगी

भुखमरी पर छिड़ी बहस
ज़िन्दगी की सड़क पर
मज़दूरी करने का सुख
कन्धे पर लदी अपंग संतान है
जो रह रह मचलती है
रंगीन गुब्बारे के लिये

कल्पनाओं के जंगल में ऊगे हैं
सुरक्षित भविष्य के वृक्ष
हवा में उड़ –उड़ कर
सड़क पर आ गिरे हैं
सपनों के कुछ पीले पत्ते

गुज़र रहे हैं सड़क से
अभावों के बड़े- बड़े पहिये
जिनसे कुचले जाने का भय
महाजन की तरह खड़ा है
मन के मोड़ पर

तब
फटी जेब से निकल कर
लुढ़कती हुई
इच्छाओं की रेज़गारी
बटोर लेना आसान नहीं है
मशीनों पर चिपकी जोंक
धीरे-धीरे चूस रही है
मुश्किलें हल करने की ताकत

चोबीस में से आठ घंटे बेच देने पर
बची हुई दो तिहाई ज़िन्दगी
कई पूरी ज़िन्दगियों के साथ मिलकर
बुलन्द करती है
जीजिविषा रोटी और नींद का समाधान ।
शरद कोकास

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

वाह! सुन्दर व्याख्या। शरद जी की कविता भी शानदार रही। यह सर्वहारा की अच्छी व्याख्या है।

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

श्रम से विलग होने पर आपकी पोस्ट तक समय के जरिये पहुँचा था। फिर यहाँ आ गया था।