@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: खिन्नता यहाँ से उपजती है

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

खिन्नता यहाँ से उपजती है

दो दिन कुछ काम की अधिकता और कुछ देश की न्याय व्यवस्था से उत्पन्न मन की खिन्नता ने  न केवल अनवरत पर अनुपस्थिति दर्ज कराई, पठन कर्म भी नाम मात्र का हुआ।  मैं भी इस न्याय व्यवस्था का ही एक अंग हूँ। अधिक खिन्नता का कारण भी यही है कि देश की ध्वस्त होती न्याय व्यवस्था का प्रत्यक्षदर्शी गवाह भी हूँ। 
32 वर्ष पहले जिस माह में मुझे वकालत की सनद मिली थी। उसी माह आप के सुपरिचित कवि-गीतकार महेन्द्र 'नेह' को अपने एक साथी के साथ बिना किसी कारण नौकरी से हटा दिया गया था। उन्हों ने मुकदमा दायर किया। जो श्रम विभाग में पाँच वर्ष घूमते रहने के उपरांत श्रम न्यायालय को प्रेषित किया गया। इस बीच उन के एक और साथी को नौकरी से हटाया गया। उन का मुकदमा भी उसी वर्ष श्रम न्यायालय में पहुँच गया। 1995 में तीनों व्यक्तियों के मुकदमे अंतिम बहस में लग गए। पाँच जज उस में अंतिम बहस सुन भी चुके। लेकिन हर बार उन के फैसला लिखाने के पहले ही उन का स्थानान्तरण हो जाता है। एक ही मुकदमें में पाँच बार बहस करना वकील के लिए बेगार से कम नहीं। आखिर उसे एक ही काम को पाँच बार करना पड़ रहा है। दूसरी ओर एक व्यक्ति का अदालत में 26 वर्ष से मुकदमा चल रहा है और पाँच बार बहस करने के उपरांत भी उस का निर्णय देने में अदालत सक्षम नहीं हो सकी। खिन्नता यहाँ से उपजती है।
क मुकदमा आज न्यायालय में एक प्रारंभिक प्रश्न पर बहस के लिए था। जब कि उस मुकदमे को चलते बीस साल हो चुके हैं। आज फिर उस प्रारंभिक प्रश्न को दर किनार कर कुछ नए मुद्दे उठाए गए। कर्मचारी से अदालत ने पूछा कि उस की उम्र कितनी हो गई है? उस का उत्तर था साढ़े अट्ठावन वर्ष। अब नौकरी के डेढ़ वर्ष शेष रह गए हैं। मैं जानता था कि इतने समय में उस मुकदमे का निर्णय नहीं हो सकता। दो-तीन साल में उस के पक्ष में निर्णय हो भी गया तो नौकरी पर तो वह जाने से रहा। कुछ आर्थिक लाभ उसे मिल सकते हैं। लेकिन उन्हें रोकने के लिए हाईकोर्ट है। मैं ने कल पता किया था कि हाईकोर्ट का क्या हाल है? पता लगा कि वहाँ अभी 1995-96 में दर्ज मुकदमों की सुनवाई चल रही है, अर्थात पंद्रह वर्ष पूर्व के मुकदमे। अब यदि इस कर्मचारी का मुकदमा हाईकोर्ट गया जिस की 99 प्रतिशत संभावना है को उस के जीवन में हो चुका फैसला!
हस के दौरान ही मैं ने कर्मचारी से कहा -बेहतर यह है कि तुम अदालत को हाथ जोड़ लो और कहो कि अदालत उस का मुकदमा उस के जीवन में निर्णीत करने में सक्षम नहीं है। वह इसे चलाएगा तब भी उसे उस का लाभ नहीं मिलेगा। इस लिए वह इसे चलाना नहीं चाहता। अदालत ने कहा कि इस का जल्दी फैसला कर देंगे। चाहे दिन प्रतिदिन सुनवाई क्यों न करनी पड़े। लेकिन ऐसे मुकदमों की संख्या अदालत में लंबित चार हजार में से पचास प्रतिशत से अधिक लगभघ दो हजार है। उन सब की दिन प्रतिदिन सुनवाई हो ही नहीं सकती। 

मैं तीसरा खंबा के लिए लिखी जा रही भारत मे विधि का इतिहास श्रंखला के लिए पढ़ रहा था तो मुझे उल्लेख मिला कि 1813 में लॉर्ड हेस्टिंग्स के बंगाल का गवर्नर जनरल बनने के समय लगभग ऐसे ही हालात थे। वर्षों तक निर्णय नहीं होने से लोगों की आस्था न्याय पर से उठ गई थी। लोग संपत्ति और अन्य विवादों का हल स्वयं ही शक्ति के आधार पर कर लेते थे। तब राजतंत्र था। आज जनतंत्र है लेकिन शायद हालात उस से भी बदतर हैं। उस समय भी यह समझा जाता था कि आर्थिक कारणों से अधिक अदालतें स्थापित नहीं की जा सकती हैं। लेकिन लॉर्ड हेस्टिंग्स ने उस समय की आवश्यकता को देखते हुए न केवल न्यायालयों की संख्या में वृद्धि की अपितु शीघ्र न्याय के लिए आवश्यक कदम उठाए। आज देश में न्याय व्यवस्था की स्थिति बदतर है, देश के मुख्य न्यायाधीश कह चुके हैं कि देश में 60000 के स्थान पर केवल 16000 न्यायालय हैं। इन की संख्या तुरंत बढ़ा कर 35 हजार करना जरूरी है अन्यथा देश में विद्रोह हो सकता है।
लेकिन देश के शासनकर्ताओं पक्ष-विपक्ष के किसी राजनेता के कान पर जूँ  तक नहीं रेंगती। उन्हें न्याय से क्या लेना-देना। शायद इसलिए कि न्याय उन की गतिविधियों में बाधक बनता है? केन्द्र सरकार ने जो ताजा बजट पेश किया है उस में सु्प्रीम कोर्ट के लिए जिस धन का प्रावधान किया गया है वह पिछले वर्ष से कम धन का है। जब कि इसी अवधि में महंगाई के कारण रुपए का अवमूल्यन हुआ है।

15 टिप्‍पणियां:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

who is responsible for all that mess. not the common man, definitely. it is the government who is indifferent towards the common man, sir.

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

लेकिन देश के शासनकर्ताओं पक्ष-विपक्ष के किसी राजनेता के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। उन्हें न्याय से क्या लेना-देना। शायद इसलिए कि न्याय उन की गतिविधियों में बाधक बनता है? केन्द्र सरकार ने जो ताजा बजट पेश किया है उस में सु्प्रीम कोर्ट के लिए जिस धन का प्रावधान किया गया है वह पिछले वर्ष से कम धन का है।..
yh chintneey bindu hai.

अजय कुमार झा ने कहा…

हां सर एक एक शब्द सत्य है और आपके अनुभव ने इसे प्रमाणित भी कर दिया है ...हालांकि देश की राजधानी दिल्ली में इससे तो बेहतर हैं हालात ....मगर यकीनन ही ऐसे तो नहीं कि कहा जाए कि न्याय सुलभ ,सस्ता और तीव्र है ...सरकार और प्रशासन को फ़ुर्सत कहां है इन बातों पर सोचने करने के लिए
अजय कुमार झा

जय पुष्‍प ने कहा…

किसी ने कहा है कि कोर्ट-कचहरी तो बुर्जुआ जनतंत्र के दिखाने के दांत हैं। अपना काम तो वह लाठी और पैसे के बल पर लगातार किए जाता है। चाहे कोर्ट का फैसला उसके हक में रहे न रहे।

शरद कोकास ने कहा…

उफ़............!!!

उम्मतें ने कहा…

जय सिंह की टिप्पणी से सहमत !

Arvind Mishra ने कहा…

हाँ यह दुखद है मगर क्या समाधान हो सकेगा इसका ?

Himanshu Pandey ने कहा…

हे भगवान ! यह स्थिति तो मन को नैराश्य से भर रही है !
समाधान क्या है !

Udan Tashtari ने कहा…

स्थितियाँ दयनीय सी प्रतीत होती हैं.

sanjay vyas ने कहा…

स्थितियां निराश करती हैं, लगातार....

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

हाँ यह दुखद है मगर क्या समाधान हो सकेगा इसका ?

राज भाटिय़ा ने कहा…

बाप रे...लेकिन भारत मै हर तरफ़ ओर हर जगह यही हाल है, किसी भी दफ़तर मै जाओ.... यह गलती तो हमारे शासन की है,

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

जागेंगे इस देश के कर्ताधर्ता भी जागेंगे, जब नक्सवाद की तरह पानी सर से गुजरने लगेगा ये तब तब जागेंगे...स्थिती निराशाजनक ही नहीं है बल्कि अब भयावाह दिखने लगी है.

यही कारण है कि अब्दुल कलाम साहब ने अपने राष्ट्रपतित्व में एक भी मृत्युदंड को कन्फ़र्म नहीं किया, उनका मानना था कि जिनके मुक़द्दमे ढंग से नहीं लड़े जाते वही मौत की सज़ा पाते हैं. वहीं दूसरी तरफ़ वे लोग हैं जिनके मुक़द्दमे हर पेशी के 2 लाख रूपये लेने वाले वकील लड़ते हैं... उन्हें फांसी नहीं होती...

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून ने कहा…

@JAI SINGH की टिप्पणी से आगे...

एक बार रायबरेली में मैंने भी किसी को यही कहते सुना था -"साहेब थाना-कचेहरी तो कायर लोगन का काम हय, तोहार फ़ैसला तो हमैहीं करब.."

विष्णु बैरागी ने कहा…

आपने बिलकुल सही लिखा। आप अकेले इस खिन्‍नता को नहीं भोग रहे। पूरा देश आपके साथ है। मैं भी।