@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: पाबला जी के घर और बीएसपी के मानव संसाधन भवन के पु्स्तकालय में

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

पाबला जी के घर और बीएसपी के मानव संसाधन भवन के पु्स्तकालय में

पाबला जी बताते जा रहे थे, यहाँ दुर्ग समाप्त हुआ और भिलाई प्रारंभ हो गया। यहाँ यह है, वहाँ वह है।  मेरे लिए सब कुछ पहली बार था, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था।  मेरी आँखे तलाश रही थीं, उस मकान को जिस की बाउण्ड्रीवाल पर केसरिया फूलों की लताएँ झूल रही हों।  और एक मोड़ पर मुड़ते ही वैसा घर नजर आया।  बेसाख्ता मेरे मुहँ से निकला पहुँच गए।  पाबला जी पूछने लगे कैसे पता लगा पहुँच गए? मैं ने बताया केसरिया फूलों से। वैन खड़ी हुई, हम उतरे और अपना सामान उठाने को लपके।  इस के पहले मोनू (गुरूप्रीत सिंह) और वैभव ने उठा लिया। हमने भी एक एक बैग उठाए।  पाबला जी ने हमें दरवाजे पर ही रोक दिया।  अन्दर जा कर अपनी ड़ॉगी को काबू किया। उन का इशारा पा कर वह शांत हो कर हमें देखने लगी।  उस का मन तो कर रहा था कि सब से पहले वही हम से पहचान कर ले।  उस ने एक बार मुड़ कर पाबला  की और शिकायत भरे लहजे में कुछ कहा भी। जैसे कह रही हो कि मुझे नहीं ले गए ना, स्टेशन मेहमान को लिवाने।  डॉगी बहुत ही प्यारी थी।

लॉन में पाबला जी के पिताजी से और बैठक में माता जी से भेंट हुई।  बहुत ही आत्मीयता से मिले।  मुझे लगा मेरे माताजी पिताजी बैठे हैं।  उन के चरण-स्पर्श में जो आनंद प्राप्त हुआ कहा नहीं जा सकता।  जैसे मैं खुद अपने आप के पैर छू रहा हूँ।  पाबला जी ने बैठक में बैठने नहीं दिया।  बैठक के दायें दरवाजे से एक छोटे कमरे में प्रवेश किया जहाँ डायनिंग टेबल थी और उस के पीछे एक छोटा सा कमरा।  जिस में एक टेबल पर पीसी था।  पीसी पर काम करने की कुर्सी, और एक तखत। एक अलमारी जिस में किताबें सजी थीं। पाबला जी बोले, बस यही हमारी सोने और काम करने की जगह है।  अब भिलाई प्रवास तक आप के हवाले। फिर पूछा, क्या? चाय या कॉफी? मैं ने तुरंत कॉफी कहा, चाय मैं ने पिछले सोलह साल से नहीं पी।

कॉफी के बाद हमें टायलट दिखा दी गई। हमने उन का उपयोग किया और प्रातःकालीन सत्कार्यों से निवृत्त हो लिए।  तब तक टेबल पर नाश्ता तैयार था।  दो पराठे हमने मर्जी से लिए, तीसरा पाबला जी के स्नेह के डंडे से। उस के तुरंत बाद पाबला जी हमें ले कर स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लि. के भिलाई स्टील प्लांट के मानव संसाधन भवन पहुँचे।  हमें वहाँ अपने कुछ सह कर्मियों और अधिकारियों से मिलाया।  फिर पुस्तकालय दिखाया। पुस्तकालय में बहुत किताबें थीं।  तकनीकी तो थी हीं,  कानून की महत्वपूर्ण और नई पुस्तकें भी वहाँ मौजूद थीं।  रीडिंग रूम में दुनिया भर की महत्वपूर्ण पत्रिकाएं और जर्नल मौजूद थे।  बहुत कम सार्वजनिक उपक्रमों में ऐसे पुस्तकालय होंगे।  पुस्तकालय घूमते हुए किसी बात पर जरा जोर से हँसी आ गई। पाबला जी ने मुझे तुरंत टोका।  मुझे अच्छा लगा कि वहाँ लोग अनुशासन बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं।  उस दिन वैभव के पंजीकरण का काम नहीं होना था, यह पाबला जी पहले ही बता चुके थे।  कुछ आवश्यक कारणों से यह काम कुछ दिनों से केवल सोमवार को होने लगा था।  इस समाचार को जानते ही मैं बिलकुल स्वतंत्र हो गया था।  वैभव का जो भी होना था मेरे वहाँ से लौटने के बाद होना था।  हम घूम फिर कर वापस घर आ गए।

घर पहुँचे तब तक माता जी दोपहर के भोजन की तैयारी कर चुकी थीं।  मेरे जैसे केवल दो बेर खाने वाले प्राणी को यह ज्यादती लगी।  अभी तो सुबह के पराठों ने पेट के नीचे सरकना शुरू ही किया था।  माता जी ने बनाया है तो भोजन तो करना पड़ेगा, पाबला जी की इस सीख का कोई जवाब हमारे पास नहीं था। फिर याद आयी दादा जी की सीख, कि बने भोजन और मेजबान का अनादर नहीं करते।  हम चुपचाप टेबल पर बैठ गए। सोचा केवल दो चपाती खाएंगे।  इस बार माता जी के आग्रह पर फिर तीन हो गईं।  भोजन के बाद कुछ देर अपनी मेल देखी और पाबला जी के तख्त पर ढेर हो गए।  वैभव बैठक के दूसरी ओर बने मोनू के कमरे में चला गया।  यहाँ तो बाकायदे गर्मी थी। सर्दी का नामोनिशान नहीं।  पंखा चल रहा था। नींद आ गई।

आँख खुली तो डॉगी चुपचाप मेरी गंध ले रही थी।  मन तो कर रहा था उसे सहला दूँ।  पर सोच कर कि यह चढ़ बैठेगी, चुप रहा। तभी पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया।  उन्हें देख कर वह तुरंत कमरे से निकल गई।  पाबला जी ने पूछा, परेशान तो नहीं किया?  -नहीं केवल पहचान कर रही थी।  बाहर देखा तो शाम होने को थी।   मैं ने पूछा- अवनींद्र के यहाँ कब चलेंगे?  बोले छह बजे के बाद चलेंगे, तब तक वे ऑफिस से भी आ लेंगे।  अवनींद्र, मेरा भाई, मेरी बुआ का पुत्र, भिलाई में ही बीएसएनएल में अधिकारी है।  मैं उस को कोटा से रवाना होने के पहले सूचित करना चाहता था।  पर पाबला जी ने मना कर दिया था, कि उस के घर सीधे जा कर बेल बजाएँगे।  सरप्राइज देंगे तो आनंद कुछ और ही होगा।  मैं उन से सहमत हो गया।  समय था, इस लिए कॉफी पी गई और मैं तैयार हो गया।  मैं, वैभव और पाबला जी तीनों पैदल ही अवनींद्र के घर की ओर चले।
चित्र
1. पाबला जी के घर की बाउंड्रीवाल,   2. पाबला जी के पिता जी और माता जी,   3. भिलाई स्टील प्लाण्ट,    4. पाबला जी का घर बाहर से और   5. पाबला जी का पुत्र गुरूप्रीत सिंह (मोनू)
 

और यहाँ नीचे देख सकते हैं मोनू और डॉगी का शानदार वीडियो।

14 टिप्‍पणियां:

PD ने कहा…

शुरू से पढ़ते हुये मैं सोच रहा था की अंत में उलाहना दूंगा की डॉगी का फोटो नहीं लगाये.. मगर अंत में आने पर पूरा का पूरा विडीयो ही मिल गया.. :)

आज पाबला जी ने मुझसे और मैंने पाबला जी से फोन पर संपर्क साधने की बहुत कोशिश की, मगर सफल नहीं हो सका.. लेकिन चैट पर खूब बातें हुई.. :)

Udan Tashtari ने कहा…

पता नहीं क्यूँ, विडियो नहीं दिखा. अच्छा लगा पाबला जी मेहमाननवाजी के बारे में जानकर. सोचता हूँ भिलाई जाकर पराठें खा ही आयें. बचपन भी याद कर लूँगा जब एक साल भिलाई में पढ़े. :)

Arvind Mishra ने कहा…

पाबला जी के परिवर के साथ बितए क्षण और डागी से मुलाकात अच्छी रही !

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

पाबला जी के परिवार के बारे में पढ़ना बहुत अच्छा लगा। उनके माता पिता जी का चित्र प्रस्तुत कर आपने इस वर्चुअल परिवार के सामान्यत प्रकाश में आने वाले सदस्यों के बारे में बता कर भी सही किया।
सीनियर सिटीजन की पीढ़ी को जितनी अहमियत मिल रही है, उससे कहीं अधिक की जरूरत है। उनके सम्मान में ही भारत का सांस्कृतिक पुनरुत्थान निहित है।

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
अभिषेक मिश्र ने कहा…

बीएसपी के पुस्तकालय और उसकी व्यवस्था के बारे में जान अच्छा लगा. वरना ऐसे संस्थानों में पुस्तकों की ओर भला कौन देखता है!

विष्णु बैरागी ने कहा…

पाबलाजी के माताजी-पिताजी के बारे में जानकर और उनका चित्र देख कर अच्‍छा लगा। अधिक अच्‍छा यह लगा कि घर मे प्रवेश करते ही वे बैठे मिले। अन्‍यथा, बूढों को तो सबसे पीछे वाले कमरे में जगह दी जाती है-आगन्‍तुकों की नजरों से बचाने के लिए।
मोनू और डागी का वीडियो अच्‍छा है।
और हां, केसरिया फूलों से लदी-ढंकी दीवाल सचमुच में 'दर्शनीय' है।

Abhishek Ojha ने कहा…

सबकुछ बढ़िया ! और विडियो सच में शानदार.

बेनामी ने कहा…

'उड़न तश्तरी' भिलाई में !?
सुखद आश्चर्य

विवरण बढ़िया लिखते हैं द्विवेदी जी।

Sanjeet Tripathi ने कहा…

पराठें……………
बॉस भिलाई लपकना पड़ेगा मुझे तो ;)

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत ही सुंदर लगा आप का यह लेख ओर पाबला साहब की खातिरदारी,पाबला जी के माता पिता मे तो हमे अपने ही माता पिता दिखे.
धन्यवाद

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

ये भी बढिया रहा !
- लावण्या

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

पाबलाजी के माताजी-पिताजी के बारे में जानकर और उनका चित्र देख कर बहुत अच्‍छा लगा.....

बेनामी ने कहा…

कोटा में 'अटकने' का कारन अब समझ में आ रहा है धीरे धीरे.
पर......मैं तो खलनायिका का रोल प्ले करून्गीच.ऐसिच हूँ मैं तो