@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: नवरात्र को आत्मानुशासन का पर्व बनाएँ

मंगलवार, 30 सितंबर 2008

नवरात्र को आत्मानुशासन का पर्व बनाएँ

छह माह पहले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ नववर्ष का पहला पखवाड़ा नीम की कोंपलों और काली मिर्च के सेवन और एक समय अन्नाहार से प्रारंभ हुआ था। समाप्त हुआ श्राद्ध के सोलह दिनों से जिसमें पूर्वजों की स्मृति के माध्यम से विप्र, परिजनों और मित्रों के साथ खूब गरिष्ठ पकवान्नों का सेवन हुआ। नतीजा कि तुल आएँ तो तीन से चार किलोग्राम वजन अवश्य ही बढ़ गया होगा। यह पतलून के पेट पर कसाव से ही पता लगता है। अवश्य ही कोलेस्ट्रोल भी वृद्धि को ही प्राप्त हुआ होगा। लेकिन वर्ष के उत्तरार्ध ने जैसे ही दस्तक दी नवरात्र के साथ और साथ ही जता दिया कि जितना बढ़ाया है वापस घटाना होगा वरना यह उत्तरार्ध चैन नहीं लेने देगा। एक समय अन्नाहार आज से फिर प्रारंभ हो गया है।

दोनों नवरात्र मौसम परिवर्तन के साथ आते हैं। उधर दिन रात से बड़े होने लगते हैं और इधर रातें दिन से बड़ी। मौसम में तापमान लघु जीवों के लिए इतना पक्षधर होता है कि उन की संख्या बढ़ने लगती है। मनुष्य को यह मौसम कम रास आता है। पेट के रोग, जीवाणुओं और विषाणुओं से उत्पन्न रोगों की बहुतायत हो जाती है। उस का सब से अच्छा बचाव यह है कि आप आहार की नियमितता बना लें।अन्नाहार एक समय के लिए सीमित कर दें और फलाहार करें। शरीर को विटामिनों की मात्रा प्राकृतिक रूप से मिले। आप किसी धार्मिक कर्मकांड को न मानें तो भी स्वाध्याय अवश्य करें। किसी पुस्तक का ही अध्ययन सिलसिलेवार कर डालें। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में कहा जाता है कि वे अपने पूजा के लंबे समय में पुस्तकों का अध्ययन करते थे। मैं ने इन दिनों धर्म और दर्शन संबन्धी कुछ पुस्तकें हासिल कर ली हैं, अवश्य ही नवरात्र में पढ़ लूंगा। आज के अवकाश में अपनी दुछत्ती की सफाई भी करवा ली है, जहां से बहुत सारी पत्रिकाओं के पुराने अंक बरामद हुए हैं जिन में बहुत सी काम की जानकारी है। मेरा खुद का इतिहास सामने आ गया है।

नवरात्र के पहले दिन ही राजस्थान को एक बहुत बड़े हादसे को झेलना पड़ा है। दो सौ से कुछ कम लोग जोधपुर में चामुंडा मंदिर हादसे में जान गंवा बैठे हैं, इतने ही घायल हैं। यह हादसा किसी आतंकी के कारण नहीं हमारी अपनी अव्यवस्था, अनुशासन हीनता और अंधविश्वास का परिणाम है। भाई ईश्वर है, तो एक ही ना? फिर देवी माँ भी एक ही होंगी। नगर में देवी माँ के अनेक मंदिर होंगे। फिर सब की दौड़ एक ही मंदिर की ओर क्यों? क्यों मन्दिर ही जाया जाए। वहाँ भीड़ लगाई जाए। घर में भी आप घट स्थापना करते ही हैं। हर श्रद्धालु के घर एक चित्र तो कम से कम देवी माँ का अवश्य ही होगा। वहीं उस के दर्शन कर प्रार्थना, अर्चना की जा सकती है। क्यों देवी मंदिर ही देवी माँ और आप के बीच आवश्यक है?  फिर घर में और घर में नहीं तो पड़ौस में कम से कम एक महिला/बालिका तो होगी ही क्यों न उसे ही देवी का रूप मान लेते हैं। उस से भी देवी माँ रुष्ट नहीं होंगी। शायद प्रसन्न ही होंगी। क्यों हम एक मूर्तिकार या चित्रकार की घड़ी मूर्ति या चित्र पर विधाता की घड़ी मूरत से अधिक तरजीह देते हैं?

क्या हमारी यह अनुशासनहीनता, अन्धविश्वास और सामाजिक अव्यवस्था उस आतंकवाद से अधिक खतरनाक नहीं जो अनायास ही सैंकड़ों जानें ले लेते हैं? हम कुछ तो सामाजिक हों। नवरात्र आत्मानुशासन का पर्व है। उसी पर हम उसे खो बैठते हैं। पुलिस और प्रशासन को दोष देने से कुछ नहीं होगा। क्यों नहीं जो नगर 20-25 हजार श्रद्धालु सूर्योदय के पूर्व 400 फुट ऊंचे मंदिर पर चढ़ाई करने को तैयार कर देता है वह 200-250 स्वयंसेवक इस पर्व पर सेवा के लिए तैयार कर पाता है? और भी बहुत से प्रश्न हैं जो कुलबुला रहे हैं। जरूर आप के पास भी होंगे? क्यों न हम किसी सामाजिक संस्था से जुड़ कर उन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न करें?

कल ईद की नमाज भी होने वाली है। हजारों हजार लोग देश भर की ईदगाहों पर नमाज अदा करेंगे। वैसे वे सभी रमजान के पूरे महीने एक अनुशासन पर्व से गुजर कर निकलें हैं। इतना तो अनुशासन होगा कि किसी हादसे का समाचार सुनने को न मिले। 


आज के लिए बस इतना ही। सभी पाठकों को नवरात्र के लिए और आने वाली ईद के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ।

18 टिप्‍पणियां:

Vivek Gupta ने कहा…

उत्तम विचार | आपने हिन्दी राईटर लगा कर काफी अच्छा किया |

सचिन मिश्रा ने कहा…

jai mata di

Asha Joglekar ने कहा…

सुंदर आलेख । आप से प्रेरणा लेकर देवी का पाठ मैं भी करूंगी । वजन ..........उसके लिये भी कुछ तो करना होगा ।

Smart Indian ने कहा…

"क्यों नहीं जो नगर 20-25 हजार श्रद्धालु सूर्योदय के पूर्व 400 फुट ऊंचे मंदिर पर चढ़ाई करने को तैयार कर देता है वह 200-250 स्वयंसेवक इस पर्व पर सेवा के लिए तैयार कर पाता है?"

बहुत ही दुखद ख़बर है. हर बार कहीं न कहीं भगदड़ में मौत की ख़बर मिलती है. कहीं भगवान् के दर्शन के नाम पर और कहीं मुफ्त सारी वितरण के नाम पर.

सही कहा आपने. स्वयंसेवक बनने-बनाने की परम्परा तो कभी आम जीवन का हिस्सा बन ही नहीं सकी. संगठन हैं भी तो सिर्फ़ धरने हड़ताल के लिए न कि सेवा के लिए. मंदिरों की इमारतों के पुराने स्वरुप भी आज की बढ़ी हुए जनसंख्या के अनुरूप नहीं हैं. कभी-कभी तो यह भी लगता है कि जिस तरह लोग बम फोड़ते हैं शायद कुछ लोग भीड़ भरे धार्मिक स्थलों में भगदड़ भी कराते हैं. कारण जो भी हों, समस्या के हल के लिए बहुत सोच-विचार, योजना और और उसे लागू करने के प्रयास की ज़रूरत है.

मगर इस सब से पहले बड़ी ज़रूरत है मानव जीवन का आदर करने की - उसकी सुरक्षा सुनिश्चित करने की.

प्रवीण त्रिवेदी ने कहा…

द्विवेदी जी !
प्रणाम !
आपकी बात और उठाये गए प्रश्न दोनों ही सम-सामयिक हैं . बहुत अच्छा हो की हम इसे अपने जीवन में प्रेरणा का आधार माने .

Udan Tashtari ने कहा…

बढ़िया आलेख. नवरात्रि के पावन अवसर पर्व पर हार्दिक मंगलकामनाऐ‍.

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

बढ़ती भीड़ और अव्यवस्था के मद्दे नजर पर्व मनाने के तरीके में परिवर्तन होना चाहिये।
और जैसा भी किया जाये, मानवीय मूल्यों का विकास होना चाहिये।

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

आदरणीय, जोधपुर का हादसा अत्यन्त ही दुखद है ! आज किसी अखबार में पढ़ रहा हूँ की नारियल पानी के बहने
से फिसलन हुई और उस फिसलन पर कुछ लोग फिसले , और यह हादसा हुवा ! ऐसे में आदरणीय ज्ञान जी का यह कहना "बढ़ती भीड़ और अव्यवस्था के मद्दे नजर पर्व मनाने के तरीके में परिवर्तन होना चाहिये।" इन हादसों की पुनरावृती रोकने का सक्षम उपाय हो सकता है ! और इसमे कुछ परम्पराओं में बदलाव भी नही होता ! अगर नारियल पानी वाली बात सही है तो इसके
लिए आप क्या कहेंगे ? जोधपुर हादसे में दिवंगत आत्माओं को ईश्वर शकुन दें !

सतीश पंचम ने कहा…

बढ़िया आलेख, अच्छा लगा।

रंजू भाटिया ने कहा…

दुर्गा पूजा की शुभ कामनाये ...जो भी कल हुआ वह दुखद पूर्ण है ..आपने इस विषय पर सही लिखा है ..इस तरह के हादसे निरंतर हो रहे हैं ..अनुशासन तो हर जगह जरुरी है ...

Anil Pusadkar ने कहा…

सत्य वचन महाराज्। व्यवसथा मे सुधार बेहद ज़रुरी है।

डॉ .अनुराग ने कहा…

आप चीजो को जिस तरह पोसिटिव परिपेक्ष्य में देखते है ,काबिले -तारीफ़ है

anuradha srivastav ने कहा…

आलेख निःसदेह उपयोगी है । जोधपुर त्रासदी ने अभी तक हिला कर रखा हुआ है। भगवान दिवंगत आत्मा को शान्ति दे।

Arvind Mishra ने कहा…

मैं भी तो यही चाहता हूँ पर हो नही पाता -देखिये कोशिश करता हूँ !

विष्णु बैरागी ने कहा…

आपने सही सवाल उठाया है - जब देवी एक ही है और घर में ही घट स्‍थापना कर ली है तो मन्दिर क्‍यों जा रहे हैं ।
जवाब इसी सवाल में निहित है - धार्मिक होना जरूरी नहीं है, धार्मिक दिखना जरूरी है ।
आपका आलेख सदैव की तरह शानदार है ।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

जोधपुर मँदिर मेँ ऐसी वारदात का होना कितना अनुचित है जो कि सर्वथा रोका जा सकता था - हम भारतीय लोग कब, इस भीड मेँ फँसे भेडोँ के झुँड से अलग बन पायेँगेँ ? यहाँ अमरीका मेँ भी भारतीय यही करते हैँ अगर शादी ब्याह का भोज हो या कोई अन्य भारतीय त्योहार :-(
अनुशाशन और शिस्तबध्ध होना हमारी आदतोँ के खिलाफ है ..जो अफसोस जनक बात है ..अच्छी पोस्ट
जय माता दी !

महेन्द्र मिश्र ने कहा…

उत्तम विचार जय भगवती अम्बे मां

Unknown ने कहा…

मेरी और से सभी पाठकों को नवरात्र के लिए और ईद के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ।

बहुत अच्छी बात लिखी है आपने.