बी.एससी. के तीन में से दूसरा वर्ष था। उस दिन कॉलेज से लौटा था। कुछ इनाम थे, छोटे-छोटे, कालेज की प्रतियोगिताओं में कहीं कहीं स्थान बना लेने के स्मृति चिन्ह। उन्हीं में था एक छोटा सा मैडल। कॉलेज के इंटर्नल टूर्नामेण्ट की कबड़्डी की चैम्पियन टीम के कप्तान के लिये। माँ और तो सभी चीजें जान गयी, उसे देख पूछा। ये क्या है?
“घर की शोभा”, मेरा जवाब था।
जवाब पर मेरी छोटी बहन सुनीता हँस पड़ी। ऐसी कि रुक ही नहीं रही थी। माँ ने उसे डाँटा। वह दूसरे कमरे में भाग गई।
मैं समझ नहीं पाया उस हँसी को। वह हँसी मेरे लिये एक पहेली छोड़ गयी। उसे सुलझाने में मुझे कई दिन लगे।
कोई छह माह पहले जब गर्मी की छुट्टियां थीं और मौसी की लड़की की शादी। सारा परिवार उस में आया था। मैं, बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई भी। शादी सम्पन्न हुई तो मैं ने मामा जी के गाँव जा कर कुछ दिन रहने को कहा। हर साल गर्मी में कुछ दिन मामा जी के गाँव में बिताने वाला मैं, दो बरस से वहाँ नहीं जा पाया था। पर बाबूजी ने सख्ती से कहा था– नहीं, वहाँ हम सब जा रहे हैं। तुम बाराँ जाओगे। वहाँ दादाजी अकेले हैं और परसों गंगा दशमी है। मन्दिर कौन सजाएगा?
बात सही थी। मामा जी के यहाँ जाने की अपनी योजना के असफल होने पर मन में बहुत गुस्सा था। जाना दूसरे दिन सुबह था। पर अब मौसी के यहाँ रुकने का मन नहीं रहा। मेरा एक दोस्त ओम भी शादी में था। उसे उसी समय तत्काल साथ लौटने को तैयार किया और हम चल दिए। रेलवे स्टेशन तक की पच्चीस किलोमीटर की दूरी बस से तय की। । वहाँ पहुँचने पर पता लगा ट्रेन दो घंटे लेट थी। अब क्या करें? स्टेशन से कस्बा डेढ़ किलोमीटर था जहाँ एक अन्य मित्र पोस्टेड था। स्टेशन के बाहर की एक मात्र चाय-नाश्ते की दुकान पर अपनी अटैचियां जमा कीं और पैदल चल दिये कस्बा।
कस्बे में मित्र मिला, चाय-पानी हुआ, बातों में मशगूल हो गए। ट्रेन का वक्त होने को आया तो वापस चल दिये, स्टेशन के लिए। कस्बे से बाहर आते ही कोयले के इंजन वाली ट्रेन का इंजन धुआँ उगलता दूर से दिखाई दे गया। उसे अभी स्टेशन तक पहुँचने में एक किलोमीटर की दूरी थी और हमें भी। अब ट्रेन छूट जाने का खतरा सामने था। फिर वापस मौसी के यहाँ जाना पड़ता, रात बिताने। सुबह के पहले दूसरी ट्रेन नहीं थी। जिस तरह मैं वहाँ से गुस्से मैं रवाना हुआ था। वापस मौसी के गाँव लौटने का मन न था। मन ही मन तय किया कि ट्रेन पकड़ने के लिये दौड़ा जाए।
कुछ दूर ही दौड़े थे कि ओम के पैरों ने जवाब देना शुरु कर दिया। मैं ने उस के हाथ में अपना हाथ डाल जबरन दौड़ाया। चाय-नाश्ते वाली दुकान के नौकर ने हमें दौड़ता देख, हमारी अटैचियां सड़क पर ला रखी। मैं ने दोनों को उठाया और प्लेटफॉर्म की तरफ दौड़ पड़ा। ट्रेन चल दी थी। डिब्बे के एक दरवाजे में ओम को चढ़ाया, दूसरे व तीसरे में अटैचियाँ और चौथे में मैं खुद चढ़ा। अन्दर पहुँच कर सब एक जगह हुए। सांसें फूल गई थीं जो दो स्टेशन निकल जाने तक मुकाम पर नहीं आयीं। आज मैं उस वाकय़े को स्मरण करता हूँ तो डर जाता हूँ, अपनी ही मूर्खता पर। मैं ने ओम को जबरन दौड़ाया था। उस की क्षमता से बहुत अधिक। अगर उसे कुछ हो जाता तो।
'शोभा' मेरी वेलेंटाइन (उत्तमार्ध) |
घर की शोभा कहने पर बहिन को हंसी आ कर नहीं रुकी थी।
13 टिप्पणियां:
क्या सुन्दर लिन्क बनाया है - मैडल से वेलेण्टाइन तक!
अपने जमाने का वेलेण्टाइन ऐसा ही होता था। डिस्को या समन्दर किनारे हाथ में हाथ डाले तो अगले जनम में देखेंगे। :-)
क्या बात है दिनेशजी। लेकिन, अब तो हम सब घर की शोभ देखना चाहेंगे।
बेहतरीन लेखन-ये हुई न सही वेलेन्टाईन वाली बात-जो हमें समझ में आये. :)
घर की शोभा ?
मैडल को घर की शोभा कहने पर बहन हँसी । क्योंकि अब तक सुना होगा कि घर की लक्षमी यानि बहू घर की शोभा होती है । इसलिये यह भी कहा जाता है कि घर की शोभा घर ही में रहे जो उसे शोभा देता है वही करे ।कुछ अलग करने लगी तो घर की शोभा [इज़्ज़त]नष्ट होगी पर ये बताइये क्या आप भी पत्नी को मैडल की तरह शोभित होने वाली वस्तु मानते हैं?
हैरानी है कि लडकियाँ कैसे सीख लेती हैं कि उनका स्थान क्या है ।
वेलेंटाइन दिवस पर लिखा लेख आज पढ़ पाया। फोटो कब लगेगी ब्लाग पर?
पसंद आया आपका ये लेख !
आत्मीय - अनुभव !
घर की शोभा अब आपकी जिन्दगी की शोभा बढा रहीं हैं .खूब.........
बढ़िया संस्मरण!!
अच्छा लगा पढ़ना!
अच्छा लगा पढ़कर।
उस उमे में हम अक्सर ऐसी बेवकूफ़ियां कर जाते हैं। हम भी कॉलेज के दिनों में चलती ट्रेन से कूद पड़े थे सिर्फ़ इस लिए कि कमलेश्वर जी को सुनना था जो उन दिनों बहुत चर्चित थे और हम उनके टी वी प्रोग्राम के फ़ैन थे। आज सोचते है तो डर जाते है कि कहीं हाथ पांव टूट जाते तो?
हां जी अब तो हमें भी घर की शोभा की तस्वीर देखने की लालसा है। आप ने कहा था कि वो खाना भी बहुत अच्छा बनाती है तो भैया कुछ रेसिपीस हमारे साथ भी शेयर करवाइए, एक पारिवारिक पोस्ट हो जाए…।
...वास्तविक वैलेन्टाइन !
प्रेम पगे पल तो बिखरे पडें हैं हमारे आसपास। जरूरत होती है केवल उन्हें अनुभव करने की।
प्रेम को समर्पित इस पोस्ट के लिए आप पर बलिहारी।
बहुत सुंदर पोस्ट है.
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