केन्टीन के इस बंटवारे से दुखी बड़ा पुत्र नशे की लत का शिकार हो गय़ा। वह विक्रय के लिए सर्वोत्तम माल तैयार करने और ग्राहकों को खींचने में सक्षम। लेकिन व्यापार में अक्षम। दिन भर सर्वाधिक बिक्री होने के बाद भी उस के हाथ गिनती के ही रुपए लगें। नौकर बीच में ही ग्राहकों से रुपया मार लें। पता लग जाने पर वह नौकरों से युद्ध पर उतर आए और धन्धे के औजार करछी-लोटा ही हथियार बन जाऐं। दूसरे दिन फिर सब कुछ सामान्य। कभी अति हो जाए तो लंच ऑवर के पहले नौकर काम छोड़ कर कोने में खड़े हड़ताली नजर आएं। रोज के लंच के ग्राहक समझौता करा कर अपनी चाय की जुगत करें। केन्टीन की चाय ऐसी कि ग्राहक को दूसरे की चाय ही पसंद न आए। आखिर उस की केन्टीन सिर्फ चाय-कॉफी की दुकान भर रह गई। कभी भाइयों से झगड़ा हो जाए और उन पर खार आए तो। चाय के साथ कचौड़ी, समौसे, सेव, लड्डू भी मिलने लगें और दुकान कुछ दिनों के लिए फिर कैंटीन नजर आने लगी।
कभी वह नौकरों से और कभी नौकर उस से परेशान। रोज रणभेरी बजती लेकिन युद्ध नहीं होता दोनों पक्ष एक दूसरे की जरुरत हैं। ग्राहक भी ऐसे ही हो गए हैं। बाईस की जगह बीस रुपए ही दे कर चल देते। वह भी उस्ताद कि उन्नीस की जगह बीस ही मार लेता। फिर भी हिसाब में ग्राहक ही लाभ में रहता।
कुछ सप्ताहों से एक परिवर्तन देखने को मिला। वह ग्राहकों से उलझने लगा। पूरे बाईस लेने लगा। कभी कभी एक चाय की संख्या बढ़ा कर पच्चीस भी वसूलने की फिराक में रहता। दुकान से भी पाँच के बजाय तीन, साढ़े तीन बजे ही खिसकने लगा। बाद में नौकर ही दुकान चलाते नजर आते। जब तक वह रहता सब नौकर कामचोर नजर आते। उस के जाते ही वे ऐसी दुकानदारी करते जैसे उन से अच्छा संचालक कोई नहीं।
आज जब शाम साढ़े तीन बजे उस के यहाँ चाय के लिए पहुँचे तो वह नहीं था। मैं ने उस के सब से पुराने नौकर से इशारे में पूछा तो उस ने इशारे में ही बताया कि वह जा चुका है। सीनियर नौकर जूनियरों पर मालिक की तरह हुक्म चला रहा था। बाकी दोनों नौकर दौड़-दौड़ कर हुक्म बजा रहे थे। ग्राहकों को भी शानदार सेवाएं मिल रही थीं और चाय की क्वालिटी भी उत्तम थी। मैं ने सीनियर को बुला कर बात की।
सीनियर ने बताया कि उनका मालिक तो तीन बजे बाद ही तब तक हो चुका कैश कलेक्शन ले कर जा चुका है। दूध, चाय, शक्कर, कॉफी आदि सब कुछ की कीमत अलग निकाल कर अपना मुनाफा ले कर जा चुका है। कुछ दूध, चाय, शक्कर, कॉफी छोड़ गया है। इन से माल बना कर बेचकर हम तीनों नौकरों को अपनी तनख्वाह निकालनी है। ज्यादा कमा लिया तो हम बाँट लेंगे।
कितना ज्यादा कमा लोगे? मैं ने पूछा। तो उस ने बताया कि तीनों पचास पचास रुपया तो बेशी कर ही लेंगे।
इस तरह चल रहा था उनका आफ्टर लंच आन्ट्रॅप्रॅनर (Entrepreneur)।
3 टिप्पणियां:
रोचक है यह उद्यमिता का दृष्टान्त। कई सिद्धान्त सिखा देता है।
बहुत अच्छा लगा आलेख।
सबकी समस्याएँ, सब जूझ रहे हैं और कोई ना कोई समाधान निकाल ही लेते हैं । मालिक भी, नौकर भी, ग्राहक भी । अच्छा लगा ।
घुघूती बासूती
बेहतरीन लेख, भाई.
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