@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

सोमवार, 21 मार्च 2011

कल की बासी खबर : श्रीमान पिट लिए नहीं आए, सम्मान समारोह कैंसल ... चंदे की ठंडाई छानी गई

ये जो होली है ना!  आती है, तो महिने भर पहले से जितनी भी सीरियस बातें होती हैं, वे सब सिर पर से रपट कर निकलने की कोशिश में रहती हैं।  पूरे महीने के अभ्यास के बाद होली के एक दो दिन पहले तक सीरियस बातों को इतना अभ्यास हो जाता है कि वे भेजे का रुख करना बंद कर देती हैं। भूले-भटके कोई सिर पर लेंड हो भी जाए तो तुरंत ही रपट कर निकल लेती है। जितनी भी जन-मन-रंजन की बातें होती हैं, उन्हें भेजे में  खेले कूदने को अच्छी खासी जगह मिल जाती है। वे चाहें तो उस पर क्रिकेट या गोल्फ भी खेल सकती हैं। किसी किसी का भेजा तो शानदार पिकनिक स्पॉट की तरह हो जाता है। वहाँ वे पूरी मौज में रहती हैं। ऐसे में कोई गंभीर विषय पर कुछ करना चाहे तो वह निश्चय ही चरम-मूर्ख कहा जाएगा। लेकिन वही व्यक्ति यदि जन-रंजन के लिए अपनी पर उतर आए तो उस की पौ-बारह हो जाती है। वह जनता के दिल में तीर की तरह घुसता है और वहीं चिपक कर रह जाता है। जो लोग साल भर बेसिर-पैर की बातों और हरकतों से लोगों को हँसाने का निष्फल प्रयास करते हैं उन की इन दिनों भारी पूछ हो जाती है। वे चैनल और अखबारों को ब्लेक मेल पर उतर आते हैं। लेकिन ये जो सीरियस बातें करने वाले लोग हैं ना, वे भी कम चालू किस्म के नहीं होते। मौसम की नजाकत को वे पूरी तरह समझते हैं और अपनी सारी सीरियसता को पोटली में बांध कर घर के किसी अंधेरे कमरे में महीने-डेढ़ महीने के लिए दफ़्न कर देते हैं।
ये सीजन होली के ठीक एक महीने पहले के पूरे चांद के दिन आरंभ हो जाता है। पहचान के लिए चौराहों पर जहाँ हो कर भारी ट्रेफिक गुजरता है बीचों बीच गड्ढ़ा खोद कर गाड़ दिया जाता है, अक्सर उस पर निशान के रूप में खजूर का बना पुराना घिसा-पिटा-गंदा झाड़ू बांध दिया जाता है। आज कल शहरों के सोफिस्टिकेट लोग उस पर झाड़ू बांधना पसंद नहीं करते, वे उस पर लाल रंग का झंड़ा बांध देते हैं। (कलयुग में जैसे होली के दिन फिरे वैसे सब के फिरें)
धर होली जलते ही लोग अपनी पर उतर आते हैं। दूसरे दिन जो सब कुछ होता है, उसे बताने से कोई लाभ नहीं है, आप सब जानते ही हैं। जानने की तो बात ही क्या, आप तो भुक्तभोगी भी हैं। यह सीजन हमारे हाड़ौती में तेरह दिन बाद न्हाण तक चलता है, मध्यप्रदेश में पाँच दिन बाद रंगपंचमी तक चलता है। पर जो लोग इस सीजन का यहीं अन्त समझ लेते हैं वे भी निरे मूर्ख हैं। जब से अंग्रेज हिन्दुस्तान में आए इस सीजन को एक अप्रेल तक का जीवन दे गए हैं। आप भी तब तक सावधान रहिएगा।
स बार हम भी रपट गए। सीरियस टाइप की बातें करते रहते तो ब्लाग पर कोई नहीं पूछता। दो चित्रों को आपस में घस्स-मस्स कर एक पहेली पूछ डाली। हमने सोचा था कि ऊपर की मंजिल सरकने के इस काल में कोई तो सही सलामत बचा होगा। पर जो लोग ब्लाग पर आए उन में से अनेक तो टिपियाये बिना ही खिसक लिए। जो पाँच-सात परसेंट लोग टिपियाए उन में से कोई भी सही सलामत नहीं निकला। सब कोई होली के मूड़ में थे। हमने ईनाम घोषित किया था। लेकिन एक भी उसे पाने को लालायित नहीं था। झक मार कर हमने ही पहेली का उत्तर बताया। पर इस बार हमने बिलकुल सीजनल वाली पहेली पूछ डाली। ऐसी कि जो देखे उसे ही उत्तर समझ में आ जाए। पर शायद यह सीजनल खतरनाक वाला ईनाम पाने से हर कोई कतरा रहा था, इधर-उधर की बातें सब करते रहे। कोई कहता मैं  ने और आप ने उस के साथ शाम का भोजन किया था। (यह भी याद नहीं रहा कि भोजन दोपहर को किया था) उस शाम का भोजन तो मैं ने अपनी बेटी के घर जा कर किया था। कोई कह रहा था -पहचान तो लिया है पर नाम नहीं बताएंगे। कोई कह रहा था -ठंडाई जरा ज्यादा हो गई है, असर खत्म होने पर बताएँगे। किसी ने कहा ये तो अपने कार्टूनिस्ट बाबू हैं। संकेत तो लोग देते रहे पर नाम बताने में सब को नानी याद आ रही थी। अब इस में डरने की बात क्या थी? ये कोई गिल्ली-डंडा का खेल तो था नहीं, जो बाद में कावड़* भरनी पड़ती। 
मारे कवि महोदय पिट-लिए उर्फ श्रीमान सतीश सक्सेना जी ही एक मात्र सीधे-सादे प्राणी निकले जो उधर ताऊ के गरही कवि सम्मेलन में सब के लट्ठ खा कर, वहाँ से किसी तरह जान बचा कर भागे थे। जल्दी में उन की अक्ल की पोटली ताऊ के घर ही छूट गई थी या फिर रास्ते में छोड़ आए थे। (रास्ते में छूटी होगी तो भी ताऊ के किसी बंदे ने ताऊ के पास पहुँचा दी होगी, इसी तरह दूसरों की अक्ल की पोटलियाँ समेट कर आज कल ताऊ अक्ल का जागीरदार बना बैठा है) उन्हों ने लौटते ही हाँफते-हाँफते पहेली पढ़ डाली, चित्र देखा,  और फट्ट से पहचान लिया, अरे! ये तो हमारे कार्टूनिस्ट बाबू हैं। आव देखा न ताव तुरंत टिपियाए "यह इरफ़ान तो नहीं"।  
ब क्य़ा था तीर कमान से निकल चुका था। टिप्पणी छप गई थी। उसे हटाते तब भी हमारे डाक डब्बे में मौजूद रहती। बहुत बाद में उन्हें समझ आया कि ईनाम के लालच में फँस गए। सोचने लगे ... अब ईनाम दिए जाने में अपनी हालत न जाने क्या की जाएगी? ताऊ के यहाँ से तो कविता सुना कर बच निकले पर यहाँ से निकलना आसान नहीं है। कहीं जान के लाले ही न पड़ जाएँ। पर अब क्या होता? चिड़िया चुग गई खेत पाछे पछताए क्या होत? अब करते भी तो क्या? फिर सोचा ईनाम लेने वाला मैं अकेला थोड़े ही हूंगा, और भी बहुतेरे होंगे। जो सब के साथ होगा, वही मेरे साथ हो जाएगा। लेकिन धुलेंडी की सुबह जब उठ कर देखा कि बंदा अकेला ही रह गया है तो बहुत घबड़ाए। श्रीमान पिट-लिए को ताऊ के घर हुआ लठियाया सम्मान याद कर के रोना आने लगा। सुबह-सुबह उन की हालत देख भाभी जी ने पूछ लिया -लट्ठ की मार तो कल की मालिश से निकल गई होगी, अब क्या हो गया? सूरत सरदारों का टाइम क्यों बजा रही है? वे क्या कहते? सीधे अनवरत की पोस्ट पर अपना कमेंट पढ़ाया।
-ओ...हो! बस इस में ही घबरा गए। तुम ईनामी समारोह में जाओ ही मत। एक तार कर दो, कि ट्रेन छूट गई है सड़क पर हुरियाए लोगों ने जाम कर रखा है। बस बात बन जाएगी। तुम अकेले ही तो हो, तुम्हारा तार मिलेगा तो आयोजकों को प्रोग्राम रद्द ही करना पड़ेगा। इस में उन का भी फायदा है। आयोजन न करने से सारा खर्चा बच जाएगा। जितना चंदा प्रोग्राम के लिए इकट्ठा किया है आयोजक का बैंक बैलेंस बढ़ाएगा। एक अप्रेल निकलने पर जब सीजन खत्म हो जाए तो आयोजकों को फोन कर के कहना -मेरे कारण आप ने बहुत रुपया कमाया है, उस में आधा हिस्सा मेरा है, सीधे-सीधे भेज दो, वर्ना अदालत में दावा कर दूंगा। पिटे-पिटाए महाशय बोले -भली मनख! दो नंबर के कामों के पैसे का हिस्सा मांगने के लिए अदालत में दावा नहीं होता। भाभी बोलीं -नहीं होता तो क्या जनता का चंदा हजम करने के लिए चार सौ बीस का इस्तगासा भी नहीं होता? कर के देखना आधा तो क्या उन्हें पौना देना पड़ेगा। नहीं तो पुलिस उन्हें भी पिटा-पिटाया बनाए बिना नहीं छोड़ेगी।
म क्या करते जैसे ही हमें पिट-लिए महाशय का तार मिला, ईनाम का कार्यक्रम कैंसल करना पड़ा। भाभी के प्लान की खबर हमें लीक हो गई, सो हमने इकट्ठा होने वालों को बोल दिया कि शाम को नहा-धो कर, रंग छुड़ा कर आ जाओ, सारे चंदे की ठंडाई छानी जाएगी। (चार सौ बीस के इस्तगासे से बचने का और कोई तरीका नजर ही नहीं आया) अब कल शाम जो-जो भी ठंडाई छान कर गया आज शाम तक नींद निकाल रहा था। हमारी भी नींद शाम को खुली है, तब जा कर यह सारा कच्चा-चिट्ठा मांडा है।

जय बोलो नीलकंठ, भोले भंडारी की!!
जय बोलो आषुतोष प्रिया विजया मैया की!!!
फिर मिलेंगे ... जल्दी ही ... 


*कावड़ भरना = गिल्ली डंडा में हारने वाला जीतने वाले को अपनी पीठ पर बैठा कर वापस खेल के स्थान पर लाता है उसे कावड़ भरना कहते हैं।

शनिवार, 19 मार्च 2011

कल कोई नहीं जीता, मौका है, आज जीत लें

जंगल में होली
मैं ने कल की पोस्ट में उस ख्यातनाम ब्लागर का नाम पूछा था, जिस के घर से मैं दो तस्वीरें उतार लाया था और आप को दोनों तस्वीरें मिला कर दिखाई थीं। तस्वीर देख कर उड़नतश्तरी वाले समीरलाल जी ने तुरंत आरोप लगाया कि "ओह! तो आप आये थे घर पर...पता चला कि तस्वीरें खींच कर ले गये हैं. :)" अब उन के घर कौन आ कर चित्र उतार कर ले गया? यह मुझे नहीं पता। कम से कम मैं तो नहीं ही गया था। वैसे भी वे तो इन दिनों कनाडा में रह रहे हैं, अपनी बिसात कहाँ कि उड़ कर वहाँ जा सकें। हमारे पास उन की तरह उड़नतश्तरी जो नहीं है।
धिकतर टिप्पणीकर्ताओं ने तस्वीरों को पाबला जी के घर की बताया जिन में डा० अमर कुमार, योगेन्द्र पाल, निर्मला कपिला और सञ्जय झा शामिल हैं। मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ कि ये तस्वीरें पाबला जी के घर की नहीं हैं। उन के घर तो गए हमें दो बरस हो चुके हैं। इन में सञ्जय झा ने तो उत्तर में ई-स्वामी जी और रवि-रतलामी जी को भी शामिल कर लिया। इन के घर तो हम ने आज तक नहीं देखे हैं। ई-स्वामी जी का तो निवास का नगर भी हमें पता नहीं। रवि रतलामी जी के घर जाने का सौभाग्य अभी तक नहीं मिला। पिछली बार भोपाल गए थे तो वे पहले ही कहीं बाहर चले गए और हम उन के घर नहीं जा सके। Neeraj Rohilla जी ने तो पंकज सुबीर का घर बता डाला। ये ठीक है कि हम उन से मिल चुके हैं, उन का कंप्यूटर इन्स्टीट्यूट भी देख चुके हैं, लेकिन तीन दिन उन के शहर में रहने के बावजूद भी उन के घर नहीं जा सके। लेकिन ये तस्वीरें तो उन के घर क्या, उन के इंस्टीट्यूट के किसी कोने की भी नहीं हैं। 
ये किस का घर है? और यहाँ क्या हो रहा है?
तीश सक्सेना जी ने अनुमान लगाया कि ऐसा काम तो कोई सरदार ही कर सकता है। हम समझ नहीं पा रहे कि वे किस की तरफ इशारा कर रहे हैं? ये कबाड़ इकट्ठा करने वाले की तरफ या फिर चित्र खींचने वाले की तरफ। चित्र खींचने वाला तो यकीनन सरदार है। पर उन का इशारा कबाड़ इकट्ठा करने वाले की ओर हो तो वो यकीनन सरदार नहीं है। हमारे शहर के नौजवान वकील और साल में सर्वाधिक पोस्टें लिखने वाले हिन्दी ब्लागर akhtar khan akela, आए और ना समझा जा सकने वाला जुमला मार गए। पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने उन्हीं की तरफ इशारा कर दिया कि मेरे पडौसी तो वे ही हैं। खुशदीप सहगल सहगल आए और पूरे कबीराना अंदाज में लिख गए, "ये तो उसी ब्लॉगर का घर लगता है जिसका फ़लसफ़ा हो...  आई मौज फ़कीर की, दिया झोपड़ा फूंक..." अब खुशदीप का लिखा समझना खुद एक पहेली हो गया। सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, सञ्जय झा और रमेश कुमार जैन उर्फ़ "सिरफिरा" इसे अपना ही घर समझ बैठे। 
राज भाटिय़ा जी तो हम पर ही चढ़ बैठे, कहने लगे -अजी यह तो हमारे वकील बाबू दिनेशराय जी का ही कमरा लग रहा हे:) हमारा ईनाम भाभी जी को दे दें। अब उन्हें कौन समझाए कि जो ईनाम देना है वह तो उन्हीं के सौजन्य से दिया जाने वाला है। अब वे खुद के लिए तो अपना सौजन्य इस्तेमाल करने से रहीं। काम की बात कही प्रवीण पाण्डेय जी ने कि, "जो भी हों, असरदार तो हैं"। निश्चित रूप से जिन ख्यातनाम ब्लागर के घर की ये तस्वीर है वे असरदार तो हैं। लेकिन सटीक और सही उत्तर कोई भी नहीं दे सका।
वाकई कलम तोड़ते हुए
प इतना भी नहीं समझ पाए। अरे! एक ही तो ख्यातनाम है, हिन्दी ब्लागजगत में जो खम ठोक कर लिखता और कहता है कि "बंदा 16 साल से कलम-कंप्यूटर तोड़ रहा है"। अब भी आप न समझें हो तो मै ही बता देता हूँ, यह ख्यातनाम ब्लागर खुशदीप सहगल हैं। जो बंदा 16 बरस से कलम-कंप्यूटर तोड़ रहा हो उस के घर का ये हाल तो होना ही था। 
क टिप्पणी ऐसी भी थी, जिस ने हमें ही पशोपेश में डाल दिया। रचना कह रही थी, " invasion of privacy पर कौन सी धारा लग सकती है? कल से समीर ई-मेलकर कर के पूछ रहे हैं, दिनेश जी क्या करूँ?" अब ऐसे प्रश्न हम से तीसरा खंबा कानूनी सवाल पूछने के लिए आते हैं।  लेकिन यदि समीर जी को ही पूछना होता तो मुझ से पूछ सकते थे। वैसे इशारे में तो उन्हों ने कह ही दिया था। कुछ भी कहो समीर जी ने ये सवाल बार-बार रचना से पूछ कर जो उन्हें हलकान किया उस पर कुछ धाराएँ अवश्य लग सकती हैं। पर आज दिन में एक पुलिस वाला बता रहा था कि वे सभी धाराएँ सरकार ने होली का डांडा गाड़ दिए जाने के बाद से होली के बारहवें दिन तक के लिए सस्पेंड कर दी गई हैं। अब मैं रचना जी को बताऊँ तो क्या बताऊँ? समीर जी उन्हें सवाल पूछ कर होली की तेरहीं होने तक हलकान तो कर ही सकते हैं। वैसे भी इस एक माह बारह दिन की अवधि में सभी को अपनी निजता की सुरक्षा के लिए चैतन्य रहना चाहिए। क्यों कि सरकार और उस की पुलिस तो कुछ करने से रही। रात में ही नहीं दिन में भी हर आधे घंटे बाद तीस बार "जागते रहो" का नारा बुलंद करते रहना ही इस समस्या का तात्कालिक इलाज है। फिर निजता की सुरक्षा में कुछ सेंध लग भी जाए तो चिंता की बात कुछ नहीं इस से व्यक्ति सेलेब्रिटी हो जाता है। क्यों कि उन की निजता में सेंध लगते ही खबर पैदा होती है और कोई मुकदमा नहीं होता। बहुत सारे तो सेलेब्रिटी कहलाने के लिए अपनी निजता में सेंध लगवाने के लिए ठेके तक देते हैं। 
कौन है यह ब्लागर?
वैसे किसी की निजता में सैंध लगा कर हम ने अब तक कोई एक नहीं, बहुत से लिए हैं। एक चित्र यहाँ पेश है, आप बता सकते हों, तो बताएँ ये किस ब्लागर का चित्र है? चूँकि आज कोई ईनाम का हकदार नहीं है इसलिए कल वाला ईनाम बरकार है, यानी वही कि सही सही बताने वालों का धुलेंडी की सुबह नौ बजे खतरनाक वाला सम्मान किया जाएगा। सब से पहले सही जवाब देने वाले को उस दिन का सब से बड़ा सरदार ब्लागीर घोषित किया जाएगा। ईनाम आज जीता जा सकता है।  

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

बताइए किस ख्यातनाम ब्लागीर ने किया है ये हाल अपने घर का?

पूरा एक सप्ताह गुजर चुका है, इस ब्लाग पर एक शब्द भी नहीं लिख सका हूँ। हुआ यूँ कि पिछले शुक्रवार को एक विवाह में जाना हुआ। शनिवार को लौटा तो थका हुआ था। रविवार को इस सप्ताह में होने वाला अदालत का काम देखा, तो लगा कि कैसे इतना सब कर पाऊंगा? तुरंत काम में लगना पड़ा। इसी सप्ताहान्त में होली का त्यौहार आ रहा है। बेटा तो इस होली पर नहीं आ पाएगा, लेकिन बिटिया आ रही है। उस की आवश्यकताएँ पूछी गईं। उस के बाद पत्नी जी को भी तुरंत काम में लग जाना पड़ा। उन्हें बाजार से अपनी तैयारियों के लिए बहुत कुछ लाना था, सो कल और आज की शाम खरीददारी में उन के साथ जाना पड़ा। वापस लौटीं तो कहने लगी, दो दिन बहुत समय खराब हो गया। इस से अच्छा तो यह था कि मैं ऑटोरिक्शा से चली जाती। कम से कम आप का ऑफिस का समय तो खराब न होता। 
ल अदालत में काम कम है। कुछ फुरसत मिली है, तो टिपियाने बैठ गया हूँ। पिछले सप्ताह एक लंबी कहानी आरंभ की थी। दो किस्तें लिखीं और प्रकाशित भी कर दीं, लेकिन आगे ब्रेक लग गया।  विवाह में जाने ने सब क्रम तोड़ दिया। अब होली के पहले उस क्रम को आरंभ कर पाना संभव नहीं। इधर हिन्दी ब्लागजगत में होली आरंभ हो चुकी है। लोग फगुनाए मूड में हैं। मैं ने भी सोचा, देखा जाए ब्लागरों के घरों का क्या हाल है? तो चल दिया। एक ख्यात नाम ब्लागीर के घर पहुँचा, वे तो काम पर गए हुए थे। भाभी जी से मुलाकात हुई। हमने पूछा भाई साहब के क्या हाल हैं? 
भाभी बताने लगीं, मैं क्या बताऊँ? आप खुद ही देख लीजिए। वे मुझे एक कमरे में ले गईं। वहाँ देखा तो बहुत बुरा हाल था, पूरा कमरा कबाड़ से अटा पड़ा था। मैं हैरान रह गया। आखिर कोई कैसे अपने घर का ऐसा हाल बना कर रख सकता है। मैं ने जल्दी से अपने मोबाइल से दो चित्र लिए और कमरे से बाहर निकल आया। अब आप ही देख लिजिए कोई अपने घर का ऐसा हाल बना सकता है भला? अब आप इस चित्र को देख कर खुद ही समझ जाएंगे कि ये ख्यातनाम ब्लागीर कौन हैं? समझ गए हों, तो झट से टिपियाइये और बता दीजिए कि ये ख्यातनाम ब्लागीर कौन हैं? सही सही बताने वालों का धुलेंडी की सुबह नौ बजे खतरनाक वाला सम्मान किया जाएगा। सब से पहले सही जवाब देने वाले को उस दिन का सब से बड़ा सरदार ब्लागीर घोषित किया जाएगा। 


बताइए किस ख्यातनाम ब्लागीर ने किया है ये हाल अपने घर का?

गुरुवार, 10 मार्च 2011

यात्रारंभ : बिन्दु और वृत्त

पिछले अंक रूप बदलती आकृतियाँ  से आगे  .....
कृतियों के बनने का आरंभ हमेशा की तरह इस बार भी एक बिंदु से हुआ था, पहले की तरह उस में से कोई रेखा बाहर की ओर नहीं निकली थी। इस बार वह बिंदु ही एक गुब्बारे की तरह फूलने लगा था। वह एक वृत्त में तब्दील हो गया था। वृत्त के भीतर खाली स्थान था, जो शनै-शनै वृत्त की परिधि के साथ-साथ बढ़ता जाता था। अचानक वह प्रस्थान बिंदु उसे अत्यन्त महत्वपूर्ण लगने लगा था। वह सोचने लगा कि जीवन में हर चीज एक बिंदु से ही तो आरंभ होती है। उस ने जब पहली बार ईंट के टुकड़े से लिखने का प्रयास किया था तब भी सब से पहले बिंदु ही तो बना था और उसी से वह आड़ी-तिरछी रेखा फूट पड़ी थी जिस से उस ने बाद में अक्षर बनाए थे, अक्षरों से शब्द और शब्दों से वाक्य। अब तो वह उस बिंदु से आरंभ कर के कुछ भी सिरज सकता था, कोई संदेश, मन की बात या फिर कोई ऐसी चीज जो किसी के दिल में तीर सी जा कर लगे। वह उसी से फूलों का रूप और गंध पैदा कर सकता था और किसी चिट्ठी के माध्यम से अपने किसी प्रिय तक पहुँचा सकता था। वह बिंदु से ऐसी चीज भी पैदा कर सकता था, जिस से लोग चिढ़ने लगते। वह उसी बिंदु से रेखाएँ उपजा कर किसी और के सिरजे को ढक भी सकता था। वह बिन्दु से पहिया भी बना सकता था जिस पर दुनिया घूमी जा सकती थी। वह पत्थर का ढेला भी सिरज सकता था, जो पहिए की ओट बन कर उसे रोक ले, गिरा दे। ओट में उस की कोई रुचि नहीं थी। उस से पहिए की गति रुक जाती है। गतिशील दुनिया थम जाती है। एक थमी हुई दुनिया भी कोई दुनिया है। गति उसे पसंद थी। उसे लगा कि गति ही जीवन है। गति समाप्त हो जाए तो सब कुछ रुक जाएगा। गति ही तो समय है, वह समाप्त हो गई तो समय का क्या होगा? क्या वह भी समाप्त हो जाएगा? समय समाप्त हुआ तो क्या शेष  रहेगा? सिर्फ ढेला, या  फिर सिर्फ बिंदु?
सोच में व्यक्ति अंतर्मुखी होने लगता है, वह सिर्फ अपने अनुभवों से रूबरू होता रहता है। नवीन का संज्ञान, उस के बस का नहीं रहता। ऐसा लगता है, जैसे वह किसी महासागर के तल में पहुँच गया है, जहाँ एक नई दुनिया है। जब कि वाकई वह नई नहीं होती। वह केवल उस के पूर्व अनुभवों के मेल से निर्मित कोई चीज होती है, जिसे वह नया समझ बैठता है। सोच ने उस का ध्यान बंटा दिया था। उस की यात्रा बिन्दु से आरंभ हो कर वृत्त पर आ कर रुक गई थी। उसे बिंदु याद आ रहा था। वही सब से ताजा प्रस्थान बिंदु। उस ने अपने सोच की यात्रा को ढेला लगा दिया। परिधि की ओर से ध्यान हटा, उस ने वृत्त के केंद्र पर देखा, वहाँ एक और बिंदु विराजमान था। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह वही प्रस्थान बिंदु था या कोई और। तभी परिधि ने अपनी गोलाई को त्याग दिया। वह हिल-डुल रही थी। उसे देख उसे अमीबा याद आया। जिसे पहले पहल उस ने बायो-लैब में बनाई एक स्लाइड को माइक्रोस्कोप पर लगा कर देखा था। वह भी ऐसे ही हिलता-डुलता था, हर समय अपनी आकृति बदलता रहता था। उसे ड्रॉ करना सब से मुश्किल काम था। ऐसी आकृति को कैसे उकेरा जा सकता था जो कभी स्थिर होती ही न हो? फिर जब उस ने उसे ड्रॉ करने की कोशिश की तो उसे वह बहुत आसान लगा था। एक बिंदु से आरंभ करो और कैसे भी आड़े-तिरछे पेंसिल घुमाते हुए वापस बिंदु पर ले जा कर छोड़ दो। बस तैयार हो गई अमीबा की बाह्याकृति। 
ब तक वृत्त के भीतर वाला बिंदु भी विस्तार पा चुका था। पर इस बार उस के भीतर खाली स्थान न था, कुछ भरा था।  उस ने देखा, यह तो वैसी ही आकृति है जैसी उस ने पहली बार अमीबा को ड्रॉ कर के बनाई थी। उसे अपनी बायो-साइंस की पढ़ाई स्मरण आने लगी। अमीबा तो सब से सरल जीव था, एक कोषीय। शायद यही गतिमय जीवन का प्रस्थान बिंदु भी था। क्या अजीब बात थी? एक बिंदु, उस से वृत्त। वृत्त में  फिर एक बिंदु, विस्तार पाता हुआ। उस से बना एक अमीबा, जो फिर एक प्रस्थान बिंदु है। इस के आगे? उसे पढ़ी हुई बायो-साइंस याद आने लगी। बहुकोषिय सरल जंतु, पाइप जैसे। आगे, कुछ बड़े और जटिल भी। कुछ पानी में रहने वाले, कुछ गीली जमीन में और कुछ सूखी जमीन पर रहने वाले, कुछ हवा में उड़ने वाले जन्तु। रीढ़ वाले और बिना रीढ़ वाले जंतु। विविध जंतुओं की विशाल श्रंखला। इतनी विशाल कि मनुष्य उन्हें सूचीबद्ध करने लगे तो सूची हमेशा अनन्तिम ही बनी रहे। विशाल, विस्तृत, विविध दुनिया। ज्ञात और अज्ञात, अनन्त विश्व। फिर एक सवाल उस के जेहन में उमड़ पड़ा, कहाँ से आया यह सब? क्या एक बिन्दु मात्र से?
स विचार से उसे हँसी आने लगी। क्या मजाक है? एक बिन्दु से यह सब कुछ कैसे उपज सकता है? पर उस का अनुभव और तर्क तो यही इशारा करते हैं, कि यह सब, सब का सब, एक बिन्दु से ही उपजा है। अब उसे आश्चर्य हो रहा था। एक बिन्दु से सब का सब उपज गया। उसे कुछ-कुछ विश्वास होने लगा कि ऐसा हो सकता है। बल्कि ऐसा ही हुआ होगा। निश्चित रूप से ऐसा ही हुआ है। बिन्दु में गति, गति से समय, बिन्दु से आकृतियाँ, बिन्दु से वृत्त, बिन्दु से ही स्थान, बिन्दु से दुनिया, बिन्दु से विश्व, अखिल विश्व। तभी अचानक अमीबा सिमटने लगा। शनै-शनै सब कुछ सिमट गया। रह गया एक बिंदु। फिर वह भी गायब हो गया। अब कुछ नहीं था। उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था।  उसे अपने काम का अहसास हुआ। कितना बड़ा काम मिला है उसे। उस ने उसे समय सीमा में सफलता पूर्वक कर दिया तो वह एक नए प्रस्थान बिंदु पर खड़ा होगा। वह किस सोच में पड़ा है? उसे काम तुरंत आरंभ करना चाहिए। समय बहुत कीमती है, कम से कम इस नए प्रस्थान बिंदु पर जिस की मंजिल पर पहुँच कर वह एक नई दुनिया में होगा, एक नए प्रस्थान बिंदु पर, एक नई यात्रा आरंभ करने को तैयार। उसे मार्ग मिल गया था। एक बिंदु से सारी दुनिया, अखिल विश्व सिरजा जा सकता है तो वह इस काम को तयशुदा समय में नहीं कर सकता? अवश्य कर सकता है। वह करेगा, और तयशुदा समय से कम समय में कर सकता है। वह उठा, और काम में जुट गया । उस की यात्रा आरंभ हो चुकी थी।
...... क्रमश: जारी

बुधवार, 9 मार्च 2011

रूप बदलती आकृतियाँ

गातार रूप बदलती उन आकृतियों ने उसे बहुत परेशान कर रखा था। जब भी उस ने दिमाग को जरा भी फुरसत होती, वे सामने आने लगतीं। वे लगातार गतिमय रहती थीं और रूप बदलती रहती थीं। शुरु शुरू में उसे सिर्फ एक बिंदु दिखाई दिया था। जल्दी ही उस से एक रेखा निकल पड़ी और घूम कर वापस उसी बिंदु पर आ मिली। वह एक गोला था, पर वह गोला जैसा भी नहीं था। यूँ कहा जा सकता था कि वह किसी इंसान के पैर के अंगूठे जैसा दिखाई देता था। वह कुछ सोच पाता उस के पहले ही वह छोटा होना शुरु हो गया। लगता था जैसे वह अंगूठे के पास की उंगली हो गया हो, फिर उस के पास की उंगली, फिर उस के पास की उंगली, फिर पैर की सब से छोटी उंगली जैसा। फिर उस के जेहन में कोई और बात आ गई, सारी आकृतियाँ गायब हो गईं। कई दिन तक वे फिर नहीं दिखीं। हफ्ता भर ही निकला होगा, वह अपने दफ्तर में बैठा हुआ किसी समस्या के हल के बारे में कुछ सोच रहा था, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। वे आकृतियाँ दिखना फिर आरंभ हो गयी। इस बार बिंदु सीधे एक पैर की शक्ल जैसी आकृति में बदल गया था जो जल्दी-जल्दी उलटा-सीधा होता रहा। कभी लगता वह दायाँ पैर है ते कभी लगता वह बायाँ पैर है। वह उस आकृति के बारे में कुछ अधिक सोच पाता, उसे अपनी समस्या के हल का मार्ग सूझ पड़ा और वह गतिमय आकृति अचानक लुप्त हो गई, जैसे वह कोई सपना देख रहा  था और पूरा होने के पहले ही नींद टूट गई हो।
ह व्यस्त हो गया। रोज काम के बाद इतना थक जाता कि बिस्तर पर पड़ते ही नींद आ जाती। सुबह उठता तो महसूस होता कि अभी अभी सोया था और जाग पड़ा है, कुछ ही क्षणों में पूरी रात बीत गई। इस व्यस्तता के बीच उसे वे रूप बदलती आकृतियाँ दिखाई नहीं दीं, वह भी उन्हें भूल गया। लेकिन जैसे ही उसे कुछ फुरसत हुई वे फिर से टपक पड़ीं। इस बार भी वे एक बिंदु से आरंभ होती थीं, लेकिन इस बार बनी आकृतियों का पैरों से कोई सामंजस्य न था। अब उसे लगता कि ये आकृतियाँ पैरों के बजाय हाथों की उंगलियों के पौर बना रही हैं, फिर शनै शनै एक हाथ के पंजे में तब्दील हो रही हैं। हाथ के पंजे उसी तरह उलट-पलट हो रहे हैं कि कभी दायें हाथ का, तो कभी बाएँ हाथ का अहसास होता है। हर बार कुछ दिनों के अंतराल से ये आकृतियाँ दिखाई देतीं। धीरे-धीरे उसे मानव शरीर के सभी अंग उन बदलती हुई आकृतियों में दिखाई देने लगे। चेहरा भी बना पर यह पहचान पाना कठिन था कि वह चेहरा किसी स्त्री की तरह लगता था अथवा किसी पुरुष की तरह। वह परेशान हो गया, सोचने लगा कि यदि वह चेहरा किसी पुरुष  का होता तो उस पर दाढ़ी मूँछ अवश्य होते। लेकिन अब तक जितनी भी आकृतियाँ उसे दिखाई दी थीं, उन में केश या रोमों का नामो-निशाँ तक न था। उस ने ऐसे पुरुष भी देखे  थे जिन्हें  बार बार रेजर फेरते भी ता-उम्र दाढ़ी-मूँछ नसीब न हुई थी। कहीं यह आकृतियाँ किसी ऐसे ही पुरुष की ओर तो इशारा नहीं कर रही थीं? उस के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। फिर वे आकृतियाँ छिन भर को भी स्थिर नहीं रहती थीं, दिखाई देतीं, लगातार बदलती रहतीं और फिर गायब हो जातीं। कभी वह सोचता कि  काश वह चित्रकार होता, तो कितना अच्छा होता। वह इन आकृतियों को किसी कागज पर चित्रित करने का प्रयत्न करता। 
न आकृतियों में उसे गले के नीचे, और घुटनों के ऊपर के हिस्से का अहसास आज तक नहीं हो सका था। उन में से कुछ भी यदि दिखाई दिया होता, तो वह अनुमान कर सकता था कि ये आकृतियाँ उसे क्या दिखाना चाहती हैं? वह सोचता था कि आकृतियाँ एक स्त्री से संबंधित होना चाहिए। यदि वे आकृतियाँ किसी पुरुष  से संबंधित होतीं तो अभी तक उस के पुरुष होने की पहचान उजागर हो गई होती। पर फिर वह यह भी सोचता कि वह स्वयं एक पुरुष है, और एक नैसर्गिक आकर्षण के तहत एक स्त्री के बारे में सोच रहा है। पुरुषों को तो स्वप्न में भी स्त्रियाँ ही दिखाई पड़ती हैं। शायद इस कारण भी कि वे उसे प्रिय हैं। जब कभी उस के स्वप्न में पुरुष दिखाई दिया भी तो एक प्रतिस्पर्धी के रूप में, बल्कि एक प्रतिद्वंदी के रूप में। इसी लिए उसे हमेशा किसी भी तरीके की आकृतियों में स्त्रियाँ ही पहले दिखाई देती हैं। चाहे वे बाद में पुरुष ही क्यों न निकलें। उस ने अपने सिर को झटक दिया। वह क्या सोचने लगा? ऐसा क्या है स्त्री में जो हमेशा ही उस के जेहन पर कब्जा जमाए बैठी रहती है? वह फिर इन आकृतियों में स्त्री की कल्पना करने लगा। लेकिन अंत में ये भी कहीं किसी पुरुष से संबंधित ही निकलीं तो। उस का सोचना सब बेकार ही चला जाएगा। इस वक्त वह चाहने लगा था कि उसे वे आकृतियाँ फिर से दिखाई देने लगें।  वह उन में खोजने का प्रयत्न करेगा कि वे किसी पुरुष से संबंधित हैं या स्त्री से?  कुछ  देर के लिए उस ने अपनी आँखें बंद कर लीं और देखने का प्रयत्न करने लगा कि शायद वे आकृतियाँ उसे दिखने लगें। बचपन में उस के साथ ऐसा ही होता था। वह कोई खूबसूरत हसीन सपने में खोया होता, सपने का क्लाईमेक्स चल रहा होता कि कभी माँ या बहिन या कोई और उसे जगा देता। उसे बहुत झुँझलाहट होती। आखिर उस ने इन लोगों का क्या बिगाड़ा था जो सपना भी पूरा नहीं देखने दिया। तब उसे गुस्सा आने लगता, जब उसे जगा कर पूछा जाता कि क्या उसे चाय पीनी है? अब यह भी कोई बात हुई कि किसी को जगा कर पूछा जाए कि उसे चाय पीनी है। उस की तो नींद फोकट में खराब हो गई। सपना गया, सो अलग। वह गुस्से में चाय के लिए मना कर देता, नहीं पीनी उसे चाय। चादर तान कर फिर से सोने की कोशिश करता। इस कोशिश में कि उसे फिर से नींद लग जाए और टूटा हुआ सपना फिर से दिखाई देने लगे, उसे पता लग सके कि क्लाइमेक्स के बाद क्या हुआ?
स ने बहुत बार ऐसा किया। फिर से उसी सपने में लौटने की कोशिश की। लेकिन ज्यादातर वह सफल नहीं हुआ। अक्सर ही टूटी हुई नींद फिर से नहीं जुड़ती।  वह कुछ मिनट कोशिश करने के बाद उठ बैठता और माँ या बहिन को जोर से चिल्ला कर कहता। अब जगा दिया है, उसे नींद नहीं लग रही है लेकिन आलस भगाने को चाय चाहिए। पहले तो माँ या बहिन लड़ने लगती कि अब फिर से उस की चाय के लिए पतीली चढ़ाई जाए। पहले ही क्यों न बता दिया? लेकिन बाद में वे उस की आदत को समझने लगीं और उस के दुबारा सोने का प्रयत्न करने के समय कुछ देर इंतजार करतीं और जब वह पाँच-सात मिनट में चाय की मांग करने लगता तो पतीली चढ़ातीं। अब वे चाय चढ़ाने के समय के पंद्रह मिनट पहले ही उसे जगाने लगीं। कभी कभी नींद वापस लग भी जाती, लेकिन कोई सपना नहीं आता। कभी सपना आता तो वह कोई और ही सपना होता, वह नहीं, जिसे देखने के लिए वह फिर से नींद के आगोश में कूद पड़ा था। कभी वही सपना भी फिर से दिखाई देने लगता जिस के क्लाईमेक्स के बाद की कहानी जानने के लिए वह चादर फिर से तान लेता था। ऐसे में क्लाईमेक्स के बाद की कहानी हू-ब-हू वैसी ही होती जैसी वह सोचता जाता। कहानी पूरी हो जाती और वह उठ बैठता। फिर सोचने लगता कि उस की नींद दुबारा लगी भी थी या नहीं। या फिर वह जैसा सोचता था वैसा ही उसे दिखता जाता था। वह फिर वही कोशिश दुहरा रहा था। चाह रहा था कि वे आकृतियाँ उसे फिर से दिखने लगें और उन का संबंध किसी स्त्री से ही हो। एक खूबसूरत सी स्त्री, जो उस की सारी आकांक्षाएँ पूरी कर सके। उस की कोशिश कामयाब न होनी थी और न हुई। कोशिश करने पर भी उसे वे आकृतियाँ नहीं दिखाई दीं। उस ने कोशिश छोड़ी नहीं, बार-बार करता रहा। कई दिनों, सप्ताहों और महिनों तक। लेकिन वे आकृतियाँ उसे दिखाई नहीं दीं। उस ने एक दिन सोचा, चलो उन से पीछा छूटा। उस ने उन के बारे में सोचना बिलकुल बंद कर दिया। फिर धीरे-धीरे उन्हें भूल गया, जैसे उसे वे उसे कभी दिखाई दी ही नहीं थीं। वह अपने काम में जुट गया। अब तो फुरसत होने पर भी उसे वे दिखाई नहीं देतीं थीं। 
फिर एक दिन, जब उसे अपने जीवन का अब तक का सब से बड़ा और मुश्किल लगने वाला काम करना था। वह एक प्रोफेशनल था। उसे जो काम मिला था वह बहुत महत्वपूर्ण था, जिसे उसे एक निश्चित समय  पर पूरा कर के देना था। उस का कैरियर उस पर निर्भर करता था। यदि वह उस काम को निश्चित समय पर सफलता पूर्वक न कर सका तो उस का वर्तमान दाँव पर लग जाता, और कर लेता तो उसे उन ऊँचाइयों पर पहुँचा देता जिस की वह बरसों से सिर्फ कल्पना करता आ रहा था। वह उस काम को आरंभ करने की जुगत ही नहीं बैठा पा रहा था, कि उसे कहाँ से शुरु करे? ..... वे आकृतियाँ उसे फिर से दिखाई देने लगीं। वह काम को भूल गया। आकृतियों में तलाशने लगा कि आखिर उन आकृतियों में स्त्री है या पुरुष।   

महिलाओं का समान अधिकार प्राप्त करने का संकल्प धर्म की सत्ता की समाप्ति की उद्घोषणा है

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस था। हिन्दी ब्लाग जगत की 90% पोस्टों पर महिलाएँ काबिज थीं। उन की खुद की पोस्टें तो थीं ही, पुरुषों की पोस्टों पर भी वे ही काबिज थीं। महिला दिवस के बहाने धार्मिक प्रचार की पोस्टों की भरमार थीं। कोई उन्हें देवियाँ घोषित कर रहा था तो कोई उन्हें केवल अपने धर्म में ही सुरक्षित समझ रहा था। मैं शनिवार-रविवार यात्रा पर था। आज मध्यान्ह बाद तक वकालत ने फुरसत न दी। अदालत से निकलने के पहले कुछ साथियों के साथ चाय पर बैठे तो मैं ने अनायास ही सवाल पूछ डाला कि क्या कोई धर्म ऐसा है जो महिलाओं को पुरुषों से अधिक या उन के बराबर अधिकार देता हो। जवाब नकारात्मक था। दुनिया में कोई धर्म ऐसा नहीं जो महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देता हो। कोई उन्हें देवियाँ बता कर भ्रम पैदा करता है तो कोई उन्हें केवल पुरुष संरक्षण में ही सुरक्षित पाता है मानो वह जीती जागती मनुष्य न हो कर केवल पुरुष की संपत्ति मात्र हों। मैं ने ही प्रश्न उछाला था, लेकिन चर्चा ने मन खराब कर दिया। 
चाय के बाद तुरंत घर पहुँचा तो श्रीमती जी  टीवी पर आ रही एक प्रसिद्ध कथावाचक की लाइव श्रीमद्भागवतपुराण कथा देख-सुन रही थीं। साथ के साथ साड़ी पर फॉल टांकने का काम भी चल रहा था। फिर प्रश्न उपस्थित हुआ कि क्यों महिलाएँ धर्म की ओर इतनी आकर्षित होती हैं?  जो चीज उन्हें पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त करने से रोक रही हैं, उसी ओर क्यों प्रवृत्त होती हैं। लाइव कथा में स्त्रियों की संख्या पुरुषों से दुगनी से भी अधिक थी। वास्तव में उन में से अधिक महिलाएँ तो वे थीं जो स्वतंत्रता पूर्वक केवल ऐसे ही आयोजनों में जा सकती थीं। लेकिन इन आयोजनों को करने में पुरुषों और व्यवस्था की ही भूमिका प्रमुख है। शायद इस लिए कि पुरुष चाहते हैं कि महिलाओं को इस तरह के आयोजनों में ही फँसा कर रखा जाए। इन के माध्यम से लगातार उन के जेहन में यह बात ठूँस-ठूँस कर भरी जाए कि पुरुष के आधीन रहने में ही उन की भलाई है।
न सब तथ्यों ने मुझे इस निष्कर्ष तक पहुँचाया कि महिलाओं की पुरुषों के समान अधिकार और समाज में बराबरी का स्थान प्राप्त करने का उन का संघर्ष तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि वे धर्म से मुक्ति प्राप्त नहीं कर लेती। महिलाओं का समान अधिकार प्राप्त करने का संकल्प धर्म की सत्ता की समाप्ति की उद्घोषणा है। इस बात से महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करने के विरोधी धर्म-प्रेमी बहुत चिंतित हैं।  आजकल ब्लाग जगत में  इस तरह के लेखों की बाढ़ आई हुई है और वे स्त्रियों को धर्म की सीमाओं में बांधे रखने के लिए न केवल हर तीसरी पोस्ट में पुरानी बातों को दोहराते हैं, अपितु एक ही पोस्ट को एक ही दिन कई कई ब्लागों पर चढ़ाते रहते हैं। मुझे तो ये हरकतें बुझते हुए दीपक की तेज रोशनी की तरह प्रतीत होती हैं।

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

शमशेर के साहित्य को उन के जीवन और समकालीन सामाजिक यथार्थ की पृष्ठभूमि में समझा जाना चाहिए

शमशेर जन्म शताब्दी पर कोटा में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी की रपट
पिछले माह 12-13 फरवरी को कवि शमशेर बहादुर सिंह की शताब्दी वर्ष पर राजस्थान साहित्य अकादमी और 'विकल्प जन सांस्कृतिक मंच द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी 'काल से होड़ लेता सृजन' संपन्न हुई। कल आप ने इस संगोष्ठी रिपोर्ट के पूर्वार्ध  में पहले दिन का हाल जाना। आज यहाँ संगोष्ठी की रिपोर्ट का उत्तरार्ध प्रस्तुत है ... 
मुख्य अतिथि का स्वागत करते कवि ओम नागर
बोलते हुए महेन्द्र 'नेह'
गले दिन 13 फरवरी का पहला सत्र ‘शमशेर की कविताओं में जनचेतना’ विषय पर था। जिस का  आरंभ ओम नागर की कविता ‘काट बुर्जुआ भावों की बेड़ी’ से आरंभ हुआ। इस सत्र में. बीना शर्मा ने कहा कि शमशेर को ऐंद्रिकता, दुर्बोधता और सौंदर्य का कवि कह कर पल्ला नहीं छुड़ा सकते। हम उन के समूचे काव्य कर्म का मूल्यांकन करें तो वहाँ पाएंगे कि पीड़ित जन की पीड़ा की अभिव्यक्ति उन के काव्य का केंद्र है। अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि उन के लेखन का मानवीय पक्ष बहुत सशक्त है, वे रूस की समाजवादी क्रांति से प्रभावित हुए और अंत तक श्रमजीवी जनता के लिए लेखन करते रहे। जयपुर से आए प्रेमचंद गांधी ने कहा कि वे सचेत जनपक्षधरता के कवि ही नहीं थे अपितु जनसंघर्षों में जनता के साथ सक्रिय रूप से खड़े थे। उन के जन का अर्थ बहुत व्यापक है। वे पूरी दुनिया के जन की बात करते हैं। वे आजादी के दौर में ही पूरी दुनिया के जन की मुक्ति की बात करते हैं। उन के काव्य की अमूर्तता अनेक स्तरों पर बोलती है। जब उस के अर्थ खुलते हैं तो दो पंक्तियों में पूरी दुनिया दिखाई देने लगती है। उन की कविता का दर्शन पूरी दुनिया कि जन की मुक्ति का दर्शन है। इस सत्र का मुख्य वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए शैलेंद्र चौहान ने कहा कि शमशेर वामपंथी तो हैं, लेकिन वे वाम चेतना को पचा कर रचनाकर्म करते हैं। वे एक सम्पूर्ण कलाकार के रूप में सामने आते हैं जो अन्य ललितकलाओं के रूपों को कविता में ले आते हैं। इस सत्र की अध्यक्षता कर रहे मनु शर्मा ने कहा कि शमशेर के साहित्य को समझने के लिए चित्रकला को समझना जरूरी है। उन का चित्रकला का अभ्यास उन की कविता में रूपायित हुआ है। इस सत्र का सफल संचालन डॉ. उषा  झा ने किया।
डॉ. हरे प्रकाश गौड़
महत्वपूर्ण प्रतिभागी हितेष व्यास, शकूर अनवर, नन्द भारद्वाज और उन के पीछे शैलेन्द्र चौहान
संगोष्ठी का चौथा सत्र ‘शमशेर : जीवन, कला और सौंदर्य’ विषय पर था। इस विषय को खोलते हुए कवि-व्यंगकार अतुल कनक ने कहा कि शमशेर की रूमानियत व्यक्तिगत नहीं अपितु सत्यम शिवम् सुंदरम है। डॉ. राजेश चौधरी ने कहा कि शमशेर ने अपनी हर रचना के साथ कला का नया प्रयोग किया, इसी से उन्हें दुर्बोध कहना उचित नहीं। साहित्यकार रौनक रशीद ने कहा कि शमशेर को दुरूह कहना उन के साथ अन्याय करना है वे ग़ज़ल जैसी परंपरागत विधा के साथ पूरा न्याय करते हैं और पूरी तरह सहज हो जाते हैं। वरिष्ठ ब्लागर दिनेशराय द्विवेदी ने उन की कविताएँ ‘काल से होड़’ और ‘प्रेम’ प्रस्तुत करते हुए कहा कि शमशेर का अभावों से परिपूर्ण जीवन अभावग्रस्त जनता के साथ उन का तादात्म्य स्थापित  करता था। उन के साहित्य में जीवन साधनों से ले कर प्रेम और सौंदर्य के अभाव की तीव्रता पूरी संश्लिष्टता के साथ प्रकट होती है। डॉ. नन्द भारद्वाज ने कहा कि शमशेर के साहित्य को उन के जीवन और समकालीन सामाजिक यथार्थ की पृष्ठभूमि में समझा जाना चाहिए, ऐसा करने पर दुरूह नहीं रह जाते हैं। इस सत्र के अध्यक्ष सुरेश सलिल ने सब से महत्वपूर्ण पत्र वाचन करते हुए बताया कि शमशेर में मानवीय सौंदर्य से राजनैतिक दृष्टि का विकास दिखाई देता है, उन्हें समझने के लिए हम साहित्य के पुराने प्रतिमानों से काम नहीं चला सकते। हमें उन के लिए नए प्रतिमान खोजने होंगे। इस सत्र संचालन अजमेर से आए कवि अनंत भटनागर ने किया।
सुसज्जित सभागार और प्रतिभागी
     संगोष्ठी के समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि व केन्द्रीय साहित्य अकादमी (राजभाषा) के सदस्य अम्बिकादत्त ने कहा कि शमशेर बहादुर सिंह का साहित्य यह चुनौती प्रस्तुत करता है कि समीक्षा के औजारों में सुधार किया जाए और आवश्यकता होने पर नए औजार ईजाद किए जाने चाहिए। यही कारण है कि शमशेर के साहित्य को व्याख्यायित करने की आवश्यकता अभी तक बनी हुई है और आगे भी बनी रहेगी। समापन सत्र में ‘शमशेर का गद्य और विचार भूमि’ विषय पर डॉ.गीता सक्सेना, कवियित्री कृष्णा कुमारी, साहित्यकार भगवती प्रसाद गौतम तथा डॉ. विवेक शंकर ने पत्र वाचन किया तथा कथाकार विजय जोशी ने अपना वक्तव्य प्रस्तुत किया। इस सत्र का संचालन करते हुए विकल्प के अध्यक्ष महेन्द्र नेह ने कहा कि केवल शमशेर ही हैं जो यह बताते हैं कि किस तरह एक महत्वाकांक्षी लेखक अपनी परंपरा, विश्वसाहित्य का सघन अध्ययन करते हुए तथा जनता के साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए वाल्मिकी, तुलसी, शेक्सपियर जैसा महान साहित्यकार बन सकता है।
    इस संगोष्ठी का आयोजन कोटा की प्राचीनतम संस्था भारतेंदु समिति के भवन पर किया गया था। भारतेंदु समिति ने इस के लिए संगोष्ठी स्थल की सज्जा स्वयं की थी। संगोष्ठी पुराने नगर के मध्य में आयोजन का लाभ यह भी रहा कि आम-जन भी इस में उपस्थित होते रहे। इस आयोजन में आगे बढ़ कर आर्थिक सहयोग प्रदान करने वाले वरिष्ठ नागरिक जवाहरलाल जैन ने सभी अतिथियों का धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि इस संगोष्ठी ने उन्हे पुराने दिन याद दिला दिये हैं जब इसी भवन में साहित्यकार अक्सर ही एकत्र हो कर साहित्य आयोजन करते थे और आम लोग उन में बढ़-चढ़ कर भाग लेते थे। वे चाहते हैं कि कोटा में इस तरह के आयोजन होते रहें। देश के महत्वपूर्ण रचनाकार यहाँ आते रहें और उन के बीच नगर के रचनाकारों को सीखने और अपना विकास करने का वातावरण मिले और जनता भी उन से प्रेरणा प्राप्त करे। उन्हों ने बाबा नागार्जुन का अनायास कोटा में आ निकलने और पूरे पखवाड़े तक यहाँ जनता के बीच रहने का उल्लेख करते हुए कहा कि इस वर्ष नागार्जुन की जन्म शताब्दी भी है और उन पर भी एक बड़ा आयोजन करना चाहिए। उस के लिए जो भी सहयोग चाहिए उसे के लिए वे तैयार हैं।

नन्द भारद्वाज
संगोष्ठी के अंत में सब ने यह महसूस किया कि शमशेर बहादुर सिंह के रचनाकर्म को न केवल पढ़ना जरूरी है, अपितु उस का गहरा अध्ययन जनता के मनोभावों की अभिव्यक्ति के लिए नए कलारूपों का द्वार खोल सकता है।