@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

रविवार, 22 नवंबर 2009

"फिल वक्त" महेन्द्र 'नेह' की एक कविता 'थिरक उठेगी धरती से'

ज मथुरा में महेन्द्र 'नेह' के नए काव्य संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' का लोकार्पण है। उन के पिता श्री विश्वंभरनाथ चतुर्वेदी 'शास्त्री' का स्मृति समारोह भी है। निजि कारणों से इस समारोह में उपस्थित नहीं हो पा रहा हूँ, इस का बहुत अफसोस भी है। इस अवसर पर इस काव्य संकलन से एक कविता आप के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। शायद इसे ही उस समारोह में मेरी उपस्थिति मान ली जाए। 

फिल वक्त
  • महेन्द्र 'नेह' 

फिल वक्त
खामोश हैं / मेरे साथी


इस खामोशी में 
पल रहे हैं बवंडर
इस खामोशी में 
छुपी हैं समूची धरती की 
झिलमिलाती तस्वीरें / जिन पर 
इन्सानी फसलों को तबाह करते
खूनखोर जानवरों ने 
रख दिए हैं अपने / भारी भरकम बूट


पाँवो सहित 
तोड़ दिए जाएँगे बूट
तब हिंसा नहीं / प्रतिहिंसा होगी मुखर
जब टूटेगी खामोशी
मेरे साथियों की


धरती / अपनी धुरी पर
तनिक और झुकेगी
और तेजी से थिरक उठेगी तब 


फिल वक्त
खामोश हैं मेरे साथी।

*************************

शनिवार, 21 नवंबर 2009

महेन्द्र 'नेह' के काव्य संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' का लोकार्पण विश्वंभर नाथ चतुर्वेदी 'शास्त्री' समारोह में 22 नवम्बर को

प अष्टछाप के कवियों कुम्भनदास (१४६८ ई.-१५८२ ई.), सूरदास (१४७८ ई.-१५८० ई.), कृष्णदास (१४९५ ई.-१५७५ ई.), परमानन्ददास (१४९१ ई.-१५८३ ई.), गोविन्ददास (१५०५ ई.-१५८५ ई.), छीतस्वामी (१४८१ ई.-१५८५ ई.), नन्ददास (१५३३ ई.-१५८६ ई.) और चतुर्भुजदास से अवश्य ही परिचित होंगे। इन में 'छीतस्वामी' स्वामी के वंश में प्रत्येक पीढ़ी में कम से कम एक वंशज कवि अवश्य ही हुआ है। इन्हीं के वंश में थे विश्वंभरनाथ चतुर्वेदी 'शास्त्री'। वे स्वातंत्र्य चेतना, जनतांत्रिक मूल्यों, और श्रम सम्मान के उन्नायक; शिक्षा, साहित्य व संस्कृति के साधक; और पेशे से अध्यापक थे। प्रतिवर्ष उन की स्मृति में एक समारोह का आयोजन मथुरा के उन के प्रेमी और प्रशंसक करते हैं। इस वर्ष भी उन का स्मृति समारोह 22 नवम्बर,2009 रविवार को का. धर्मेंद्र सभागार बिजलीघऱ केंट, मथुरा में अपरान्ह 2 बजे से आयोजित किया जा रहा है।

स समारोह में मुख्य अतिथि साहित्यकार और समालोचक डॉ. जीवन सिंह हैं और अध्यक्षता डॉ. अनिल गहलोत कर रहे हैं। इस समारोह में कोटा से नाटककार-कवि शिवराम, दिल्ली से कवि रामकुमार कृषक, बड़ौदा से कवि डॉ. विष्णु विराट, जयपुर से कवि शैलेंद्र चौहान. रतलाम से कवि अलीक, दिल्ली से कवि रमेश प्रजापति और मथुरा से हनीफ मदार उपस्थित रहेंगे, समारोह का संचालन शिवदत्त चतुर्वेदी करेंगे। समारोह में एक परिचर्चा 'यह दौर और कविता' विषय पर होगी और महेन्द्र 'नेह' के काव्य संकलन 'थिरक उठेगी धरती' का लोकार्पण होगा। समारोह में सम्मिलित होने वालों के लिए रविकुमार (रावतभाटा) के कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी बोनस होगी।

मैं ने आरंभ में ही कहा था कि छीत स्वामी के वंशजों की हर पीढ़ी में कोई न कोई कवि हुआ है। स्व. विश्वंभरनाथ चतुर्वेदी 'शास्त्री' की अगली पीढ़ी के कवि आप के चिर-परिचित महेन्द्र 'नेह' हैं जिन के काव्य संग्रह का लोकार्पण इस समारोह में होना है। मेरी इस समारोह में उपस्थित होने की अदम्य इच्छा थी, पिछले पूरे सप्ताह यात्रा पर होने और थकान व सर्दी के असर से पीड़ित होने से मैं स्वयं इस समारोह में उपस्थित नहीं हो पा रहा हूँ। लेकिन यह मथुरा और आस-पास के लोगों के लिए अनुपम अवसर है इस समारोह में उपस्थित होने और इन सभी साहित्यिक व्यक्तियों का सानिध्य प्राप्त करने का। आप सभी इस समारोह में सादर आमंत्रित हैं।

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

हमारे समय के अग्रणी रचनाकार : गजानन माधव मुक्तिबोध (2)

महेन्द्र 'नेह' द्वारा मुक्तिबोध के रचना कर्म का संक्षिप्त अवलोकन (2)

 मुक्तिबोध पर यह महेन्द्र 'नेह' का यह आलेख मुझे दिल्ली प्रवास में प्राप्त हुआ था। इसे यहाँ दो कड़ियों में प्रस्तुत कर रहा हूँ। पहली कड़ी आप कल पढ़ चुके हैं, पढ़िए दूसरी कड़ी .....
संस्कृति के प्रति मुक्तिबोध का रवैया वहुत व्यापक और संश्लिष्ट होते हुए भी अपने निहितार्थ में 'जन-संस्कृति’ के आलोक को विस्तीर्ण-करने का ही था।  उनका मानना था कि जिस तरह समाज प्रभुवर्ग और श्रमजीवी वर्ग में विभाजित है, कला, साहित्य और संस्कृति का स्वरूप भी आम तौर पर वर्गीय होता है। प्रभुवर्ग अपने हितों और दृष्टिकोंण के आधार पर संस्कृति की व्याख्या तथा संरक्षण देता है, दूसरी और श्रमजीवी वर्ग अपनी चेतना से नई प्रतिरोध की संस्कृति और साहित्य का सृजन करता रहता है। अपनी गतिमान और दृन्दात्मक स्थिति के कारण संस्कृति के श्रेष्ठ मानवीय तत्वों का संचयन भी चलता रहता है, जिसे अपनाने में नई संस्कृति के निर्माताओं को गुरेज नहीं करना चाहिए। मुक्तिबोध परम्परा के नाम पर वासनाजन्य साहित्य को स्वीकृति नहीं देते थे, चाहे उसे कालिदास जैसे महाकवि ने ही क्यों न रचा हो।  धर्म ने नाम पर अकर्मष्यता और साम्प्रदायिक के कथित पुरातन संस्कृति पोषक महाधीशों पर वे अपनी कविता में प्रहार करते हैं -
‘‘भारतीय संस्कृति के खंडेरों में
जीवन्त कीर्ति की विदीर्ण युक्तियों
के लतियाये भालों पर / स्तम्भों के शीर्श पर /
मन्दिरों के श्रंगों पर। बैठे ये जनद्वेषी धुघ्घू ये घनघोर /
चीखते हैं रात दिन!!
घूमते हैं खंडेरों की गलियों में चारों ओर /
कुकुर पुराने और दम्भ के नये जोर
जनता के विद्वेषी / अनुभवी / कामचोर ........’’

मुक्तिबोध का मेरी रचनादृष्टि पर कैसा और कितना प्रभाव पड़ा है, यह तो मेरे पाठक और समीक्षक ही बेहतर बता पायेंगे। लेकिन मेरा मानना है कि मुक्तिबोध के साहित्य ने मेरी तत्व-दर्शी दृष्टि और भाव-बोध में इजाफा किया है। मेरे वर्ग - बोध को भी मुक्तिबोध के साहित्य ने अधिक पुख्ता तथा जन पक्षधरता को पहले से अधिक सच्चा ओर मजबूत बनाया है। मुक्तिबोध के साहित्य ने केवल मुझे ही नहीं, उन सभी रचनाकारों को गहराई से प्रभावित किया है, जो साहित्य की सामाजिक व परिवर्तनकारी भूमिका को आवश्यक मानते है।

मुक्तिबोध को आधुनिकतावादी - कलावादियों तथा जनवादी लेखओं आलोचकों दोनों के ही द्वारा पसंद करने के कई कारण रहे हैं। जनवादी लेखकों-आलोचकों द्वारा तो मुक्तिबोध को पसंद किया जाना स्वाभाविक है, क्योंकि उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में नई रचनाशीलता और समझ को जन्म दिया। प्रगतिशील लेखन को अपने पुराने कलेतर से निकालकर एवं व्यापक प्रष्ठभूमि पर अवास्थित किया। कला और समीक्षा के नये मापदण्ड निर्धारित किये। जहाँ तक आधुनिकतावादी-कलावादी लेखकों द्वारा मुक्तिबोध को पसंद किया जाने का प्रश्न है, उसको दो तरह से समझा जा सकता है। पहला तो मुक्तिबोध की प्रतिभा और सुजन कला है, जो अपनी समग्रता में बहुत कुछ ऐसा समेटे हुए है, जिसे नकारा नहीं जा सकता। दूसरा कारण आधुनिकतावादियों द्वारा मुक्तिबोध के साहित्य को जटिलता और रहस्यवाद की और धकेलना और उसकी भ्रम पूर्ण व्याख्याऐं करना रहा है। लेकिन जिस तरह प्रेम चंद और भगत सिंह के विचारों को विरूपित करने की अधिकांश चेष्ठाऐं अंततः भूलुंठित हुई है, मुक्तिबोध के साहित्य की कोंध भी मन को मानवीय और जन को जन-जन बनाने की बड़ी सामर्थ्य रखती है।

मुक्तिबोध के अंतर्विरोधों की व्याखा उनके देशकाल और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही की जानी चाहिए। मुक्तिबोध को अपने पारिवारिक दायित्वों और अत्यधिक धनाभाव में ही अपनी ज्ञानात्मक, साहित्यिक व सामाजिक भूमिका के लिए संघर्ष करना पड़ा। उनके सामने बहुत बड़े लक्ष्य थे, लेकिन उन्हें कई स्तरों पर जूझना था। एक ओर प्रगतिशील आन्दोलन अपनी चमक खो रहा था तो दूसरी ओर अज्ञेय के नेतृत्व  में आधुनिकतावाद और कलावाद के अखाड़े में व्यक्तिवादी-सुविधावादी लेखकों की गोलबंदी हो रही थी। मुक्तिबोध को चूँकि साहित्य की पुरानी जमीन तोड़ कर नई जमीन का निर्माण करना था, नये पौधों को रोपना था, नई ज्ञाानात्मक चेतना में पक कर नये संस्कारों का निर्माण करना था, वे प्रत्यक्ष रूप से जनता के मुक्ति संग्रामों में न कूद सके। इसी कारण कबीर की तरह ज्ञानात्मक चेतना से युक्त होते हुए भी वे सधुक्कड़ी जन-भाषा का उस तरह का ताना-बाना न बुन सके। इसके बावजूद युग के अंतर्विरोधों की सर्वाधिक प्रखर व विवेक संगत समझ और जन-क्राान्तिकारी भूमिका न निभा पाने की आंतरिक वेदना का उनके मन-मस्तिष्क पर संघातिक असर पड़ा, जिसने उनके जीवन को ही छीन लिया।
  • महेन्द्र नेह

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

हमारे समय के अग्रणी रचनाकार : गजानन माधव मुक्तिबोध (1)


महेन्द्र 'नेह' द्वारा मुक्तिबोध के रचना कर्म का संक्षिप्त अवलोकन
 मुक्तिबोध पर यह महेन्द्र 'नेह' का यह आलेख मुझे दिल्ली प्रवास में प्राप्त हुआ था। इसे यहाँ दो कड़ियों में प्रस्तुत कर रहा हूँ। पढ़िए पहली कड़ी.....
जानन माधव मुक्तिबोध हमारे समय के उन अग्रणी रचनाकारों में हैं, जिन्होंने देशकाल और परिस्थितियों की त्रासद सचाइयों और उसके साधारण जन पर पड़ने वाले प्रभावों की पड़ताल पूरी शिद्दत से की और अपनी कविताओं, कहानियों, लेखों व समीक्षा में युग की सच्चाइयों को उद्धाटित किया। मेरा मानना है कि निराला के अलावा मुक्तिबोध ही ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होने हिन्दी साहित्य को विश्व-साहित्य की कोटि में रखे जाने का मात्र सपना ही नहीं देखा, बल्कि इस बड़ी चुनौती के लिए प्राण-प्रण से चेष्टा भी की। अपने अध्ययन, मनन, चिंतन और संघर्ष के द्वारा उन्होंने इस दिशा में जो काम किया है, वह अभी हिन्दी के आम पाठकों तक नहीं पहुँच पाया।


मुक्तिबोध उन विरले लेखकों में से थे, जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से देश की कथित ‘आजादी’ के मर्म और 1947 के बाद भारत की राज्य-सत्ता पर काबिज नये शासक वर्ग के चरित्र की सच्चाई को समझ कर अपने लेखन के उद्देश्य तय किए थे। जब केवल सत्ता से नाभिनालबध्द लेखकों का समूह ही नहीं, बल्कि प्रगतिशील लेखकों का बड़ा हिस्सा भी नेहरू-युग की भ्रामक प्रगतिशीलता से सम्मोहित था, तब मुक्तिबोध ही थे, जिन्होंने अपनी रचनाओं में इस सचाई को उद्घाटित किया कि देश का नये शासक-वर्ग का चरित्र मात्र जन-विरोधी ही नहीं है, बल्कि साम्राज्यवादियों जैसा ही क्रूर, निरंकुश और हिंसक भी है। उसके हित साम्राज्यवाद से टकराव के नहीं अपितु वह साम्राज्यवादी शोषण-दमन और उत्पीड़न में सहायक व साँझीदार है। इस संदर्भ में उनकी कहानी ‘क्लाड ईथरली’ को पढ़ना चाहिए, जिसमें वे लिखते हैं - ‘‘तो तुमने मैकामिलन की वह तकरीर भी पढ़ी होगी जो उसने.......... को दी थी। उसने क्या कहा था? यह देश, हमारे सैनिक गुट में तो नहीं है किन्तु संस्कृति और आत्मा से हमारे साथ है। क्या मैकमिलन सफेद झूठ कह रहा था? कतई नहीं। वह एक महत्वपूर्ण तथ्य पर प्रकाश डाल रहा था। उनकी कविता ‘‘बारह बजे रात के’’ से भी कुछ पंक्तिया उद्धृत करना चाहता हूँ -  
‘‘युध्द के लाल-लाल / प्रदीप्त स्फुलिंगों से लगते हैं / बिजली के दीप हमें / लंदन में वाशिंगटन / वाशिंगटन में पेरिस की पूँजी की चिंता में / युध्द की वात्र्ताऐं सोने न देती हैं / किराये की आजादी / चाँटे सी पड़ी है, पर रोने न देती है / जर्मनी संगीत / अमरीकी संगीत / जब मानव और मनुष्य हमें / होने न देता है’’   
मुक्तिबोध निरूद्देश्य लेखन के बजाय उद्येश्यपूर्ण व लक्ष्य-बद्ध लेखन के समर्थक थे। उनका मानना था कि साहित्य का उद्देश्य मानवीय भावनाओं के परिष्कार, जन को जन-जन करना, शोषण और सत्ता के घमण्ड को चूर करने वाला तथा ‘मानव-मुक्ति’ के लक्ष्यों से संचालित होना चाहिए। मानव-मुक्ति का उनके लिए अर्थ वर्गीय-मुक्ति से था। शोषित-पीड़ित मजदूरों और किसानों की मुक्ति उनके लिए कोई नारेबाजी नहीं थी, बल्कि इसमें वे समूचे मानव समाज की भूख, अंधेरे और अज्ञान से मुक्ति से जोड़ कर देखते थे।
वे कविता को केवल भावनाओं के उच्छवास का माध्यम नहीं मानते थे बल्कि मानवीय संवेदनाओं के ज्ञान व विवेक संगत होने के पक्षधर थे। ज्ञानात्मक संवेदनाऐं और संवेदनात्मक ज्ञान की अवधारणा मुक्तिबोध द्वारा सौन्दर्यशास्त्र पर उनके गहन अध्ययन की मौलिक अवधारणा है। लेखक की रचना-प्रक्रिया पर भी मुक्तिबोध ने जितना गहन पर्यवेक्षण व चिंतन किया है, उसे परवर्ती समीक्षक आगे नहीं बढ़ा सके।
मुक्तिबोध पश्चिमी आयातित विचारों को ज्यों का त्यों अपना लेने के विरोधी तथा अपनी संस्कृति की श्रेष्ठ विरासत व स्वदेशी के प्रबल समर्थक थे। उनकी कविताओं में यूकीलिप्टस और कैक्टस के बजाय पीपल, वट और बबूल के बिम्ब दिखाई देते हैं। इस संदर्भ में उनकी कुछ कविताओं, विशेष रूप से ‘‘चाहिए मुझे मेरा असंग बबूलपन’’ ‘‘घर की तुलसी’’ को पढ़ा जाना चाहिए। ‘घर की तुलसी’ की कुछ पंक्तियाँ देखिये -
‘‘मैं काल-विहंग परीक्षा के निज प्रहरों में
भी रहा खोज अपने स्वदेश का कोना निज
उग चलूँ अंधेरे के निःसंग सरोवर में
पंखुरियाँ खोलता लाल-लाल अग्निम सरसिज
वह भव्य कल्पना रूपायित
जब हुई कि मन में अकस्मात
इनकार भरी वह असंतोष की वन्हि
कह गई थी जरूर
घर की तुलसी तुमसे इतनी दूर
रेगिस्तानों से ज्यों नदियों का पूर’’
 वे भारतीय लेखकों और मीडिया के पश्चिम - प्रेम पर कटाक्ष करते हुए ‘क्लॉड ईथरली’ कहानी में कहते हैं - ‘‘यह भी सही है कि उनकी संस्कृति और आत्मा का संकट हमारी संस्कृहित और आत्मा का संकट है। यही कारण है कि आजकल के लेखक और कवि अमरीकी, ब्रिटिश तथा पश्चिम यूरोपीय साहित्य तथा विचारधाराओं में गोते लगाते हैं और वहाँ से अपनी आत्मा को शिक्षा और संस्कृति प्रदान करते हैं। क्या यह झूठ है ? और हमारे तथाकथित राष्ट्रीय अखबार और प्रकाशन-केन्द्र! वे अपनी विचारधारा और दृष्टिकोण कहाँ से लेते हैं ?’’
अपनी लम्बी कविता ‘‘जमाने का चेहरे’’ में वे कहते हैं -
‘‘साम्राज्यवादियों के पैसों की संस्कृति
भारतीय आकृति में बँध कर / दिल्ली को वाशिंगटन व लंदन का उपनगर / बनाने पर तुली है!! भारतीय धनतंत्री / जनतंत्री बुद्धिवादी / स्वेच्छा से उसी का कुली है!!’’
मुक्तिबोध के लेखन की एक और बड़ी मौलिक देन को मैं रेखांकित करना चाहता हूँ, वह है - आत्मालोचना और आत्म - संघर्ष!
हिन्दी के लेखकों की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि उनमें से अधिकांश बहुत थोड़ा और कम महत्वपूर्ण लिख कर ही आत्म-प्रशंसा और आत्म-मुग्धता के शिकार हो जाते हैं। इसके ठीक विपरीत मुक्तिबोध निरन्तर श्रेष्ठ लेखन की और बढ़ते हुए भी स्वयं की तीखी और मारक आलोचना करते हैं। जैसे जन-गण के प्रति अपने दायित्वों को पूरी तरह न निभाने के लिए स्वयं पर कोड़े बरसा रहें हो! मुक्तिबोध का समूचा साहित्य सत्ता-व्यवस्था के विरूद्ध औचित्यपूर्ण संघर्ष के साथ-साथ निरन्तर आत्म-संघर्ष और आत्म परिष्कार की प्रक्रिया से गुजरता है! एक ओर वे मानते है कि ‘‘तोड़ने ही होंगे गढ़ और दुर्ग सब’’ तो दूसरी और ‘‘नहीं चाहिए मुझे हवेली’’ में वे वर्तमान में पदों और पुरस्कारों की कुक्कुर-दौड़ में लगे सत्ता के चाकर साहित्यकारों के बरक्स लिखते हैं -
‘‘नहीं चाहिए मुझे हवेली
नहीं चाहिए मुझे इमारत
नहीं चाहिए मुझको मेरी
अपनी सेवाओं की कीमत
नहीं चाहिए मुझे दुश्मनी
करने कहने की बातों की
नहीं चाहिए वह आईना
बिगाड़ दे जो सूरत मेरी
बड़ो बड़ों के इस समाज में
शिरा शिरा कम्पित होती है
अहंकार है मुझको भी तो
मेरे भी गौरव की भेरी
यदि न बजे इन राजपथों पर
तो क्या होगा!! मैं न मरूँगा
कन्धे पर पानी की काँवड़
का यह भार अपार सहूँगा!!’’

  • महेन्द्र नेह

बुधवार, 18 नवंबर 2009

पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की एक बाल कविता 'गुटर गुटर गूँ'

मैं चार दिन कोटा से बाहर यात्रा पर रहा। इन चार दिनों में दिल्ली में अनेक ब्लागरों से मिलना हुआ। आप को उस यात्रा के बारे में बताता लेकिन कल रात यहाँ पहुँचने के पहले ही जोधपुर से संदेश मिला कि कल ही वहाँ पहुँचना है और तुरंत टिकट कट गया। अब शनिवार को कोटा पहुँचने पर ही मुलाकात होगी। इस बीच बाल दिवस निकल गया। पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की यह बाल कविता बाल दिवस पर छूट गई। चलिए देर 'आयद दुरुस्त आयद' सही। इस कविता को आज पढ़ लीजिए .....


गुटर गुटर गूँ
  •   पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
गुटर गुटर गूँ, गुटर गुटर गूँ
श्वेत सलौना एक कबूतर
नाच रहा था अपनी धुन में
गीत प्रीत के अलमस्ती के
सुना रहा था झूम-झूम कर
मौसम सरगम छेड़ रहा था
गुटर गुटर गूँ, गुटर गुटर गूँ

म्याऊँ म्याऊँ म्याऊँ म्याऊँ
क़दम दबा कर पूँछ उठा कर
बिल्ली आई और ग़ुर्राई
म्याऊँ म्याऊँ तुझ को खाऊँ

बेचारा मासूम कबूतर
भूल गया सब प्रेम तराने
गुटर गुटर गूँ, ठुमके सारे
डर के मारे आँख मूँद लीं
कानों वाली गर्दन दुबका ली
काँधों में, उसे लगा बस
ख़तरा टला मुसीबत छूटी

म्याऊँ म्याऊँ म्याऊँ म्याऊँ
बिल्ली मन ही मन मुस्काई
कैसा है नादान कबूतर
आँख मूँद कर सोच रहा है
ओझल हुई नज़र से बिल्ली
इस का मतलब चली गई मैं
और बच गया वो मरने से

अपनी मूँछों पर बिल्ली ने
पंजा फेरा बड़ी शान से
और कबूतर आसानी से
अपने मुँह में दबा लिया फिर
मन ही मन ऊपर वाले का
शुक्र मनाया म्याऊँ म्याऊँ

देखा बच्चो ! गया जान से
बेचारा मासूम कबूतर
और बिल्ली का काम गया बन
सीना उस का और गया तन

अच्छा बच्चो! अब तुम बोलो
कोई ख़तरा अगर तुम्हारे
सम्मुख आए तब तुम अपनी
समझ-बूझ से बचने की कुछ
राह करोगे ; आने वाले
हर ख़तरे से लोहा लोगे
या ख़तरों से आँख मूँद कर
अपने दुश्मन आप बनोगे

सोचो बच्चो! बडे़ ध्यान से
पहले सोचो फिर बतलाओ
पहले सोचो फिर बतलाओ


***************************
 

सोमवार, 16 नवंबर 2009

किस ने दिया कीचड़ उछालने का अवसर?


चिन तेंदुलकर के ताजा बयान से  निश्चित रूप से शिवसेना  और मनसे  की परेशानी बढ़नी  थी। दोनों ही दलों की  राजनीति जनता  को किसी भी रूप में बाँटने  उन में एक  दूसरे  के प्रति  गुस्सा पैदा कर अपने हित साधने  की  रही है। दोनों दल इस  से कभी बाहर नहीं निकल सके, और न ही कभी निकल पाएँगे। बाल ठाकरे का  सामना में लिखा  गए  आलेख  से सचिन का तो क्या बनना बिगड़ना है? पर उन का यह आकलन तो सही सिद्ध  हो ही गया कि  पिटी हुई शिवसेना को  और ठाकरे को  इस  से मीडिया बाजार में कुछ भाव मिल जाएगा। मीडिया ने  उन्हें यह भाव दे  ही  दिया।  इस बहाने मीडिया काँग्रेस और कुछ अन्य  दलों के जिन जिन नेताओं  को भाव देना चाहती थी उन्हें भी उस का अवसर मिल गया। लेकिन जिन कारणों से तुच्छ  राजनीति करने वाले लोगों को  अपनी राजनीति  करने का अवसर मिलता है, उन पर मीडिया चुप ही रहा।
  
भारत  देश, जिस के पास अपार प्राकृतिक संपदा है, दुनिया के  श्रेष्ठतम  तकनीकी लोग हैं, जन-बल  है, वह अपने इन साधनों के सुनियोजन से दुनिया की किसी भी शक्ति को चुनौती दे सकता  है।  वह पूँजी के लिए दुनिया की तरफ कातर निगाहों से देखता है। क्या देश के अपने साधन दुनिया  की पूँजी का मुकाबला नहीं कर सकते? बिलकुल कर सकते हैं। आजादी के 62 वर्षों के बाद  भी हम अपने लोगों के लिए पर्याप्त  रोजगार उपलब्ध  नहीं करा सके। वस्तुतः हमने इस ओर ईमानदार प्रयास ही नहीं किए। अब पिछले 20-25 वर्षों  से तो हम ने इस काम को पूरी तरह से निजि पूँजी और बहुराष्ट्रीय निगमों के हवाले कर दिया  है। यदि हमारे कथित राष्ट्रीय दलों ने जो केंद्र की सत्ता  में भागीदारी कर चुके हैं और आंज भी भागीदार  हैं, बेरोजगारी की समस्या को हल करने में अपनी पर्याप्त रुचि दिखाई होती तो देश को बाँटने वाली इस तुच्छ राजनीति का  कभी का पटाक्षेप  हो गया होता। यह देश में  बढ़ती बेरोजगारी  ही है जो देश की जनता को जाति, क्षेत्र, प्रांत,  धर्म  आदि के आधार पर बाँटने का अवसर  प्रदान  करती है।

चिन जैसे व्यक्तित्वों पर कीचड़ उलीचने की जो हिम्मत  ये तुच्छ राजनीतिज्ञ कर पाते हैं उस के लिए काँग्रेस और भाजपा जैसे हमारे कथित  राष्ट्रीय दल अधिक जिम्मेदार  हैं।

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

छोड़ कर, प्रिय समारोह, बाहर जाना

चाहता तो यह था कि रोज आप को कोटा नगर निगम चुनाव के दौरान राजनैतिक दलों, प्रत्याशियों और जनता के रंग-रूप का अवलोकन कराता।  मैं 76 दिनों की हड़ताल के दौरान न तो कहीं बाहर गया और न ही कमाई की।  अपने दफ्तर के कामों से होने वाली कमाई से तो आज के जमाने में सब्जी बना लें वही बहुत है। ऐसे में पत्नी श्री शोभा का यह दबाव तो था ही कि कोटा से बहुत जरूरी काम निपटा लिए जाएँ।  लेकिन इतना आसान नहीं होता। एक तो अदालतों में मुकदमों के अंबार के कारण पहले ही वकीलों के लिए एक लंबी मंदी का दौर आरंभ हो चुका है। मंदी के दौर में व्यवसायी की मानसिकता कैसी होती है यह तो मोहन राकेश की कहानी 'मंदी'
ढ़ कर जानी जा सकती है। इन दिनों व्यवसायी अधिक चौकस रहता है। ग्राहक का क्या भरोसा कब आ जाए? वह अपनी ड्यूटी से बिलकुल नहीं हटता। ग्राहक आता है तो लगता है जैसे भगवान आ गए। उन की हर हालत में सेवा करने को तैयार रहता है। क्यों कि जो खर्चे हो रहे हैं उन्हें तो कम किया जाना संभव नहीँ और जो कम किए जा सकते हैं वे पहले ही किए जा चुके हैं।  ऐसे में आप दुकान का शटर डाउन कर बाहर चलें जाएँ तो यह परमवीर चक्र पाने योग्य करतब ही होगा।  पर शोभा का यह कहना कि हम पिछली फरवरी से अपनी बेटी के पास नहीं गए हैं, लोग क्या सोचते होंगे? कैसे माँ-बाप हैं जी, कम से कम एक बार तो संभालते जी, टाले जा सकने योग्य तो कतई नहीं था। हमने इस शनिवार-रविवार का अवकाश बेटी के पास ही गुजारने का मन बनाया। कल सुबह हम चलेंगे और दोपहर तक उस के पास बल्लभगढ़ पहुँच जाएँगे।

धर पता लगा कि इन्हीं दिनों बी.एस. पाबला जी भिलाई वाले दिल्ली पहुँच रहे हैं। इस खबर को सुन कर अजय झा जी बहुत उत्साहित दिखे। उन्हों ने एक ब्लागरों के मिलने का कार्यक्रम ही बना डाला। अब यह तो हो नहीं सकता न कि पाबला जी रविवार को हम से पचास किलोमीटर से भी कम दूरी पर हों और वहाँ बहुत से हिन्दी ब्लागर मिल रहे हों तो हम वहाँ न जाएँ। हमने भी तय कर लिया, कुछ भी हो हम दिल्ली जरूर पहुँचेंगे। इधर पाबला जी का ब्लाग देखा तो गणित की गड़बड़ दिखाई दी। वे हम को पहले ही बल्लभगढ़ पहुँचा चुके हैं। अब तो जाना और भी जरूरी हो गया है। ऐसे में हो सकता है मैं अपने ब्लागों से अगले तीन चार दिन गैर-हाजिर रहूँ। शायद आप को मेरी यह गैर हाजिरी न अखरे लेकिन मुझे तो सब के बीच से गैर हाजिर होना जरूर अखरेगा।

स बीच कोटा में चुनाव अपने पूरे रंग में दिखाई पड़ने लगेगा। आज ही शाम मुहल्ले से नारे लगाते जलूस निकला, किस प्रत्याशी का था यह पता नहीं लगा। हाँ शोर से यह जरूर पता लगा की रंग खिलना आरंभ हो चुका है।  शाम को घर पहुँचते ही निमंत्रण मिला, वह भी ऐसा कि जिस में उपस्थित होना मेरी बहुत बड़ी आकांक्षा थी। मैं उन  से बहुत नाराज था कि वे कोटा के अनेक साहित्यकारों की किताबें प्रकाशित करा चुके हैं, लेकिन अपनी नहीं करा रहे हैं।  उन की किताबें आनी चाहिए। लेकिन किस्मत देखिए कि शिवराम के नाटक का हाड़ौती रूपांतरण तीन माह पहले प्रकाशित हुआ और उस का विमोचन हुआ तो मैं कोटा में नहीं था। फिर उन के नाटकों की दो किताबों का लोकार्पण हुआ तो मैं हाजिर था। जिस की रिपोर्ट आप पढ़ चुके हैं। अब 15 नवम्बर को उन के की कविताओँ की तीन किताबों "माटी मुळकेगी एक दिन", "कुछ तो हाथ गहो" और "खुद साधो पतवार" का एक साथ लोकार्पण है और मैं फिर यहाँ नहीं हूँ।  हालाँ कि लोकार्पण के निमंत्रण में मैं एक स्वागताभिलाषी अवश्य हूँ।  यह समारोह भी शामिल होने लायक अद्वितीय होगा। जो साथी इस में सम्मिलित हो सकते हों वे अवश्य ही इस में सम्मिलित हों।

सभी साथी और पाठक सादर आमंत्रित हैं





वापस लौटने पर इन कविता संग्रहों और समारोह के बारे में जानूंगा और आप के साथ बाँटूंगा।