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सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

कॉपीराइट को न जानना आप को कैद की सजा तक पहुँचा सकता है

इन दिनों हिन्दी ब्लॉगिंग में कॉपीराइट का चर्चा रहा। एक-दो चिट्ठाकार साथियों से बातचीत से ऐसा अनुभव हुआ कि अधिकांश चिट्ठाकारों को कॉपीराइट कानून के सम्बन्ध में प्रारंभिक जानकारी भी नहीं है। कोई भी मामला अदालत के सामने आने पर कानून हमेशा यह मानता है कि प्रत्येक कानून का सभी नागरिकों को ज्ञान है। यदि आप किसी कानून के उल्लंघन के बारे में अदालत के समक्ष यह दलील दें कि आप तो उस से अनभिज्ञ थे और अनजाने में आप उस का उल्लंघन कर के कोई अपराध कर बैठे हैं तो अदालत आप की इस दलील पर कोई ध्यान नहीं देगी और आप को अनजाने में किए गए अपराध की सजा भुगतनी पड़ेगी। हाँ, अदालत सजा देते समय उस की मात्रा और प्रकार के बारे में विचार करते समय इस तथ्य को जरुर ध्यान में रखेगी कि आप ने यह अपराध पहली बार किया है या फिर दोहराया है। पहली बार में सजा मामूली चेतावनी या अर्थदण्ड होगी तो दूसरी बार में जेल जाने का अवसर आना अवश्यंभावी है।
आप की जानकारी के लिए इतना बता दूँ कि किसी भी कॉपीराइट के उल्लंघन पर कम से कम छह माह की कैद जो तीन वर्ष तक की भी हो सकती है, साथ में अर्थदण्ड भी जरुर होगा जो पचास हजार रुपयों से कम का न होगा और जो दो लाख रुपयों तक का भी हो सकता है। इस सजा को अदालत पर्याप्त और विशिष्ठ कारणों से कम कर सकती है लेकिन उसे इन पर्याप्त और विशिष्ठ कारणों का अपने निर्णय में उल्लेख करना होगा।
सभी चिट्ठाकारों को कॉपीराइट कानून की प्रारंभिक जानकारी होना आवश्यक है। इस कारण से इस कानून से सम्बन्धित प्रारंभिक जानकारी "अनवरत" के सहयोगी ब्लॉग "तीसरा खंबा" पर कुछ कड़ियों में प्रस्तुत की जा रही है जो सप्ताह में एक-या दो बार प्रकाशित की जाऐंगी।

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2008

लड़कियां क्यों उपलब्ध स्पेस का उपयोग नहीं करतीं?

आज हमें एक विवाह संगीत में जाना पड़ा। पहले विवाहों के समय एक एक हफ्ते तक महिलाओं का संगीत चलता रहता था। अब वह सब एक समारोह में सिमट गय़ा है। इस के साथ ही लोकरंजन की यह विधा नगरों से विदाई लेती नजर आती है, कस्बे उन का अनुकरण कर रहे हैं और गाँव भी पीछे नहीं हैं। वहाँ भी टीवी ने सब कुछ पहुँचा दिया है। अब लगता है महिलाओं से वे लोकगीत सुनना दूभर हो जाएगा जो विवाहों में सहज ही सुनाई दे जाते थे। खैर!

संगीत सभा को निमन्त्रण पत्र में महिला संगीत प्रदर्शित किया गया था। मेरे विचार से यह गलत शीर्षक था। इसे सीधे-सीधे विवाह संगीत लिखा जा सकता था।

वहाँ एक हॉल में ढ़ाई फुट ऊंचा डीजे मंच लगाया गया था। कोई पन्द्रह फुट लम्बा और दस फुट चौड़ा रहा होगा। रोशनियाँ नाच रही थीं, तेज गूँजती आवाज और वही कान में रुई का ढ़क्कन लगा कर सुनने योग्य तेज फिल्मी संगीत। बहुत सी लड़कियों ने इन रिकॉर्डेड गीतों पर नृत्य किए। सब लड़कियों ने अच्छे भाव दिखाए जिन में कठोर श्रम झलक रहा था। उन में से शायद ही कोई हो, जिसने किसी गुरु से नृत्य की शिक्षा ली हो। फिर भी उन के नृत्यों में बहुत परिपक्वता थी। ऐसा लग रहा था कि उन्होंने एकलव्य की कथा से बहुत कुछ सीखा है। यह महसूस किया कि वाकई लड़कियाँ लड़कों के मुकाबले शीघ्र परिपक्व हो जाती हैं, क्यों कि उन भावों को जो वे प्रदर्शित कर रहीं थीं, ठीक से समझे बिना प्रदर्शित करना कठिन था। सचमुच लड़कियाँ अन्दर से बहुत गहरी होती हैं।

मुझे एक बात अखरी, और मैं ने इस का उल्लेख एक-दो लोगों से किया भी। उन्होंने भी इसे नोट किया। मंच पर पाँच-पाँच वर्गफुट के छह वर्ग थे। तीन आगे, तीन पीछे। नृत्य करते समय तकरीबन सभी लड़कियाँ केवल बीच के दो वर्गों का ही उपयोग कर रही थीं। उनमें भी आगे पीछे के दो-दो फुट स्थान का भी वे उपयोग नहीं कर रही थीं। इस तरह उस पन्द्रह गुणा दस वर्गफुट के मंच में से केवल पांच फुट गुणा छह फुट मंच का ही वे उपयोग कर रही थीं। पूरे मंच के केवल मात्र 20 प्रतिशत हिस्से का। जब कि लड़के जब भी उस मंच पर नृत्य के लिए आए उपलब्ध समूची स्पेस का उपयोग कर रहे थे।

क्यों लड़कियां उन के पास उपलब्ध स्पेस का उपयोग नहीं कर पा रही थीं? मेरे लिए यह प्रश्न एक पहेली की तरह खड़ा था। मन हुआ कि किसी लड़की से पूछा जाए। पर उस समारोह में ऐसा कर पाना संभव नहीं हो सका।

मैं इस प्रश्न का उत्तर तलाशना चाहता हूँ। कुछ उत्तर मेरे पास हैं भी। क्या इसलिए कि न्यूनतम स्पेस में काम करने की उन की आदत ड़ाल दी गई है? या उन्हें इस बात का भय है कि वे मंच के किनारों से दूर रहें कहीं नृत्य में मग्न उन का कोई पैर मंच के नीचे न चला जाए और उन्हें कुछ समय का या जीवन भर का कष्ट दे जाए?

सही उत्तर क्या है? मैं अभी उस की तलाश में हूँ।

शायद आप में से कोई सही उत्तर सुझा पाए?

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

वह थी औरत (दूध मां का)

मुझे मेरे एक मित्र ने ही इस घटना का ब्यौरा दिया था। मस्तिष्क के किसी कोने में पड़े रहने के कारण हो सकता है इस में कुछ उलट फेर हो गया हो। लेकिन जिस तरह की बहसें छिड़ गई हैं उन में यह प्रासंगिक है।

वाई माधोपुर से गंगापुर सिटी के बीच ट्रेन के दूसरे दर्जे के डब्बे में किसी जवां मर्द ने एक महिला की छातियां दबा दीं और आगे खिसक लिया। बिलकुल ग्रामीण कामकाजी महिला, वैसी ही उसकी वेशभूषा, गौर वर्ण, सुगठित शरीर। महिला ने उस युवक पर निगाह रखी। उसे अपने से दूर न होने दिया। गंगापुर सिटी स्टेशन पर युवक दरवाजे की ओर बढ़ा, पीछे-पीछे वह महिला भी। दोनों आगे-पीछे नीचे प्लेटफॉर्म पर उतरे।

नीचे उतरते ही महिला ने एक हाथ से युवक का हाथ पकड़ा, दूसरे हाथ से अपनी अंगिया ऊँची कर छातियाँ उघाड़ दीं और जोर से कहने लगी -लल्ला। तेरी अम्मां जल्दी मर गई बेचारी, सो कसर रह गई दूध पिलाने की। अम्माँ को दूध पी लियो होतो तो छिछोरापन ना होतो। वो कसर आज पूरी कर देऊँ हूँ। पी ले दूध मेरो। आगे से कोई तेरी माँ को गाली ना देगो तेरी हरकत के कारन। तू ने तो सारे जग की मैयन की शान बिगार दीन्हीं।

युवक ने बहुत कोशिश की हाथ छुड़ाने की, पर हाथ तो लौह-शिकंजे में जकड़ गया था जैसे। प्लेटफॉर्म पर भीड़ जुट गई। युवक महिला के सामने गिड़गिड़ाने लगा। मैया छोड़ दे मोहे। गलती हो गई मोसे। आगे से नहीं होगी।
बहुत गिड़गिड़ाने पर महिला ने कहा- खा कसम तेरी मैया की।
-मैया कसम, कभी गलती नाहीं होगी।
-मेरे सर पर हाथ धर के खा, कसम।
युवक ने महिला के सर हाथ धर के कसम खाई - मैया कसम, आगे कभी गलती नाहीं होगी।
- मैं तेरी कौन?
-तू मेरी मैया।

हाँ भीड़ में जुटी महिलाओं की ओर इंगित कर कहा-और ये कौन तेरी?
-ये सब भी मेरी मैया।
तब उस महिला ने कहा। चल बेटा सामान उठा मेरा और मेरे कूँ मोटर में बिठा।

युवक ने महिला का सामान उठाया और चल दिया मैया को मोटर में बिठाने। पीछे पीछे था लोगों का हजूम।

बुधवार, 20 फ़रवरी 2008

भाषा का संस्कार (पानी देना)

"पानी देना "
आज कहीं भी यह वाक्य सुन ने को मिल जाता है।
बचपन में एक बार भोजन करते समय तेज मिर्च लगने पर मैं एकाएक कह बैठा -अम्माँ, पानी देना।
दादी वहीं थी। पानी मिलना तो दूर वह डाँटने लगी- ऐसा नहीं बोलते।
मैं ने पूछा -क्यों।
तो, वे बोलीं - पानी मरने वाले को दिया जाता है।
उस के बाद इस शब्द का प्रयोग हमने नहीं किया।

आज इस बात की याद फिर आयी। शाम को शोभा (पत्नी) ने भोजन तैयार होने की सूचना दी। तो हम ऑफिस से उठे और कहा- हम हाथ मुंहँ धोकर ( शौच से निवृत्त हो कर) आते हैं। तब तक आप भोजन लगा दो। नहीं तो फिर कोई आ मरेगा।
पत्नी ने टोक दिया - ऐसा क्या बोलते हो? जरा शुभ-शुभ बोला करो।
मैं ने सफाई दी - इस में क्या गलत है? यह तो मुहावरा है।
-हो, मुहावरा। इस से भाषा तो खराब होती है।
मैं ने उसे सही बताते हुए अपनी गलती स्वीकार की। आइंदा सही बोलने का वायदा किया, और हाथ मुहँ धोने चल दिया।

वास्तव में परिवार में मिली इन छोटी-छोटी बातों से भाषा को संस्कार मिला। जीवन सहयात्री ने इसे बनाए रखने में सहयोग किया। अनेक ब्लॉगर साथियों को इस तरह के संस्कार नहीं मिले। वे इस अवसर से वंचित रह गए। सोचता हूँ, मैं ही उन्हें टोकना प्रारंभ कर दूँ। पर भय लगता है वे इसे अन्यथा ले कर कतराने लगे तो कहीं साथियाना व्यवहार ही न टूट जाऐ।

रविवार, 17 फ़रवरी 2008

खेमाबन्दी नहीं चलेगी, खेमाबन्दी मुर्दाबाद

खेमाबन्दी नहीं चलेगी

कोई रजाई में घुसे घुसे चिल्लाया

खेमाबन्दी मुर्दाबाद।

कोई क्या खेमे बनाए

खेमे तो बने हुए हैं,

पहले से

मेरे, तुम्हारे, उस के या इसके

पैदा होने के पहले से।

एक खेमे में मैं हूँ

और मेरे जैसे लोग

जो फिल्म देख कर निकले हैं

उसी खेमे में हैं , या कि दूसरे में?

बात करते हैं...

कि फिल्म कैसी है?

कोई कहता है- बिलकुल बोर

कोई कहता है- टाइम पास

और कोई कहता है

-नहीं, बड़ा संदेश छिपा है इस में।

अब छोड़ो भी यार देख ली ना

समझ में न आई हो तो टिकट लो

और दुबारा घुस लो,

पसंद आई हो तो टिकट लो

और दुबारा घुस लो।

मुझे भूख लगी है,

कोई खाने की जगह देखो

और वहां घुस लो।

कई जगह देखते हैं।

एक, एक को पसंद नहीं

दूसरी दूसरे को

आखिर वहाँ पहुँचते हैं

जिस के बाद कोई खाने की जगह नही.

सभी कहते हैं, सब से रद्दी

ये कोई जगह है?

न बैठने को ठीक, न खाने को

वापस चलें?

वापस पिछला, एक किलोमीटर पहले छूटा है?

मुझे भूख लगी है

वापस नहीं जा सकता

भूख सभी को लगी है।

अब कौन वापस लौटेगा।

चलो यहीं बैठते हैं।

सभी घुस जाते हैं

खाना खाते हैं

बाहर निकलते हुए कोई कहता है

-कुछ बुरा भी नहीं था खाना

बुरा नहीं था? तू यहीं महीना लगवा ले।

और तुम?

मैं भूखा रह लूंगा पर यहाँ नहीं आउंगा।

तो मैं कैसे यहाँ आउंगा।

चल कल नया ढूंढेंगे।

चल, चल कर सोते हैं

सब चल देते हैं

एक बोलता है

तू ने सही कहा, खाना वैसे बुरा नहीं था

साथ खाया, बुरा कैसे होता?

तो फिर तय रहा

बुरा हो या अच्छा

खाएंगे, साथ साथ

खेमाबन्दी नहीं चलेगी

कोई रजाई में घुसे घुसे चिल्लाया

खेमाबन्दी मुर्दाबाद।

गुड नाइट दोस्तों

अब सोता हूँ।

-दिनेशराय द्विवेदी,

17.02.2008, रात्रि 11:16 IST

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2008

सौ साल पहले ............ आज भी है, और कल भी रहेगा।

बी.एससी. के तीन में से दूसरा वर्ष था। उस दिन कॉलेज से लौटा था। कुछ इनाम थे, छोटे-छोटे, कालेज की प्रतियोगिताओं में कहीं कहीं स्थान बना लेने के स्मृति चिन्ह। उन्हीं में था एक छोटा सा मैडल। कॉलेज के इंटर्नल टूर्नामेण्ट की कबड़्डी की चैम्पियन टीम के कप्तान के लिये। माँ और तो सभी चीजें जान गयी, उसे देख पूछा। ये क्या है?
घर की शोभा, मेरा जवाब था।
जवाब पर मेरी छोटी बहन सुनीता हँस पड़ी। ऐसी कि रुक ही नहीं रही थी। माँ ने उसे डाँटा। वह दूसरे कमरे में भाग गई।
मैं समझ नहीं पाया उस हँसी को। वह हँसी मेरे लिये एक पहेली छोड़ गयी। उसे सुलझाने में मुझे कई दिन लगे। 

कोई छह माह पहले जब गर्मी की छुट्टियां थीं और मौसी की लड़की की शादी। सारा परिवार उस में आया था। मैं, बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई भी। शादी सम्पन्न हुई तो मैं ने मामा जी के गाँव जा कर कुछ दिन रहने को कहा। हर साल गर्मी में कुछ दिन मामा जी के गाँव में बिताने वाला मैं, दो बरस से वहाँ नहीं जा पाया था। पर बाबूजी ने सख्ती से कहा थानहीं, वहाँ हम सब जा रहे हैं। तुम बाराँ जाओगे।  वहाँ दादाजी अकेले हैं और परसों गंगा दशमी है। मन्दिर कौन सजाएगा?

बात सही थी। मामा जी के यहाँ जाने की अपनी योजना के असफल होने पर मन में बहुत गुस्सा था। जाना दूसरे दिन सुबह था। पर अब मौसी के यहाँ रुकने का मन नहीं रहा। मेरा एक दोस्त ओम भी शादी में था। उसे उसी समय तत्काल साथ लौटने को तैयार किया और हम चल दिए। रेलवे स्टेशन तक की पच्चीस किलोमीटर की दूरी बस से तय की। । वहाँ पहुँचने पर पता लगा ट्रेन दो घंटे लेट थी। अब क्या करें? स्टेशन से कस्बा डेढ़ किलोमीटर था जहाँ एक अन्य मित्र पोस्टेड था। स्टेशन के बाहर की एक मात्र चाय-नाश्ते की दुकान पर अपनी अटैचियां जमा कीं और पैदल चल दिये कस्बा।

स्बे में मित्र मिला, चाय-पानी हुआ, बातों में मशगूल हो गए। ट्रेन का वक्त होने को आया तो वापस चल दिये, स्टेशन के लिए। कस्बे से बाहर आते ही कोयले के इंजन वाली ट्रेन का इंजन धुआँ उगलता दूर से दिखाई दे गया। उसे अभी स्टेशन तक पहुँचने में एक किलोमीटर की दूरी थी और हमें भी। अब ट्रेन छूट जाने का खतरा सामने था। फिर वापस मौसी के यहाँ जाना पड़ता, रात बिताने। सुबह के पहले दूसरी ट्रेन नहीं थी। जिस तरह मैं वहाँ से गुस्से मैं रवाना हुआ था। वापस मौसी के गाँव लौटने का मन न था। मन ही मन तय किया कि ट्रेन पकड़ने के लिये दौड़ा जाए।

कुछ दूर ही दौड़े थे कि ओम के पैरों ने जवाब देना शुरु कर दिया। मैं ने उस के हाथ में अपना हाथ डाल जबरन दौड़ाया। चाय-नाश्ते वाली दुकान के नौकर ने हमें दौड़ता देख, हमारी अटैचियां सड़क पर ला रखी। मैं ने दोनों को उठाया और प्लेटफॉर्म की तरफ दौड़ पड़ा। ट्रेन चल दी थी। डिब्बे के एक दरवाजे में ओम को चढ़ाया, दूसरे व तीसरे में अटैचियाँ और चौथे में मैं खुद चढ़ा। अन्दर पहुँच कर सब एक जगह हुए। सांसें फूल गई थीं जो दो स्टेशन निकल जाने तक मुकाम पर नहीं आयीं। आज मैं उस वाकय़े को स्मरण करता हूँ तो डर जाता हूँ, अपनी ही मूर्खता पर। मैं ने ओम को जबरन दौड़ाया था। उस की क्षमता से बहुत अधिक। अगर उसे कुछ हो जाता तो। 

'शोभा' मेरी वेलेंटाइन (उत्तमार्ध)
र की शोभा कहने पर बहिन की हँसी की पहेली सुलझाने में कुछ दिन लगे। जिस दिन मैं ने खुद के साथ ओम को दौड़ाया था। उस के दूसरे दिन मामाजी के यहाँ जाने के रास्ते में पड़े एक कस्बे में बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई किसी के मेहमान बने थे और मुझ से ब्याहने के लिए उस परिवार की सबसे बड़ी बेटी देख रहे थे।  जब से मुझे उस के बारे में पता लगा। मैं उस लड़की के बारे में लोगों से जानकारियाँ लेता रहा। कल्पना में उस के चित्र गढ़ता रहा। उसे देखा न था, लेकिन मुझे उस से प्रेम हो गया था।

मुझे उस लड़की को देखने का पहला का अवसर दो बरस बाद तब मिला जब मेरी शादी हो चुकी थी और मुझे मेरी ब्याहता घर की शोभा के साथ कोहबर में बन्द कर घर की महिलाऐं जगराता कर रही थीं। उस से पहले तो हम एक दूसरे के चित्र भी न देख पाए थे।
घर की शोभा ही थी मेरी पहली और आखरी वैलेण्टाइन।
घर की शोभा कहने पर बहिन को हंसी आ कर नहीं रुकी थी।

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

सावधान! हमले से बचें। परागकण आ रहे हैं।

शनिवार-रविवार दो दिन अवकाश के थे। सोचा था पड़ा हुआ कुछ काम करेंगे। लेकिन मेरे जैसे वकीलों के लिए जिन का कार्यालय भी घर पर हो अवकाश का अर्थ कुछ और होता है। एक तो वकील का काम अदालत और अपने कार्यालय तक बिखरा होता है। कार्यालय अपने घर पर होने का मतलब है वकालत-घर-परिवार-ब्लॉगिंग सबका गड्ड-मड्ड हो जाना। अवकाश कभी कभी काम का व्यस्त दिन बन जाता है। इस बीच कुछ अवांछित मेहमान भी आ टपकते हैं।
शनिवार को भी ऐसा ही हुआ। दोपहर के भोजन के तुरन्त बाद की सुस्ती और सरदी लगने के भाव ने धूप सेंकने का मन बनाया और अपने राम चटाई ले छत पर जा लेटे। तेज धूप थी तो चुभती ठंडी हवा भी। रास्ता ये निकला कि पास में धुलाई के बाद सूख चुका पत्नी शोभा का शॉल औढ़ा और उस से छनती हुई धूप सेंकी एक घंटे और नीचे अपने कार्यालय में आकर काम पर लगे।
शाम होते होते नाक में जलन होने लगी। हम समझ गए कम से कम तीन दिन का कष्ट मोल ले चुके हैं। हम ने तुरंत शोभा को सूचना दी। उस ने भी तुरंत हमारी (जिस पर अब उस का एकाधिकार है) होमियोपैथी डिस्पेंसरी से जो अलमारी के दो खानों में अवस्थित है और जिसने हमें पिछले पच्चीस सालों से किसी अन्य चिकित्सक की शरण में जाने से बचाए रखा है, लाकर दवा दी। हम उसी को लेकर दो दिनों से अपने धर्मों को निबाह रहे हैं।
मैं सोच रहा था कि इस जुकाम के आगमन का कारण क्या रहा होगा। घर के सामने पार्क में बहुत से पेड़ हैं जिन में यूकेलिप्टस की बहुतायत है। उन से इन दिनों परागकण झर रहे हैं। वास्तव में वे ही इस अनचाहे मेहमान के कारण बने। खैर जुकाम तो काबू में है और एक दो दिन में विदा भी हो लेगा। पर इस मौसम में जो अभी मध्य अप्रेल तक चलेगा सभी को इन पराग कणों से बचने के प्रयत्न करते रहना चाहिए जो केवल जुकाम ही नहीं, नाक से लेकर फेपड़ों तक को असर कर सकते हैं। इन से हे-फीवर तक हो सकता है और कुछ अन्य प्रकार की ऐलर्जियाँ भी। बीमारी अनचाहे मेहमान बन कर आ जाए तो आप के कामों और आनंद सभी में खलल तो पैदा करेगी ही जेब पर हमला भी करेगी।