@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

रविवार, 7 दिसंबर 2025

आपदा में अवसर

लघुकथा

खूब बरसात हुई थी. नदी का पानी गाँव में घुस गया.

निचली पट्टी के घर डूब गए, कपड़े-बरतन बह गए, बच्चे भूखे थे.

नेता जी अफसर, बाबू और दो चपरासियों के साथ नाव पर आए. बोले, “घबराइए मत! सरकार आपके साथ है. राहत सामग्री पहुँचेगी, नए घर बनेंगे.”

गाँव वाले थोड़े आश्वस्त हुए.

फिर नेता जी मुस्कराए,

“देखिए भाइयों-बहनों, हर आपदा में अवसर छिपा होता है. पुल टूटा है, नया बनेगा. सड़क बह गई है, अब और चौड़ी बनेगी. आपको काम मिलेगा, जेबों में पैसा आएगा. जिनके कच्चे घर टूटे हैं, वे पक्के बनेंगे. हम इसकी योजना बनाएंगे.”

गाँव वाले दुःख में भी प्रसन्न हो गए. कुछ ने कहा, “साहब, अभी हम भूखे हैं.”

नेता जी ने आश्वासन दिया,

“भोजन की व्यवस्था हमने कर दी है, अभी पहुँचेगा.”

तभी जमींदार और महाजन पहुँचे, उनके घर ऊँचाई पर बने थे,जहाँ बाढ़ का पहुँचना संभव न था.

नेता जी ने पूछा, “आपके घर तो सुरक्षित हैं?”

जमींदार बोला,“हुजूर, कहाँ? फसलें नष्ट हो गईं, जानवर बह गए. आप खुद देख लीजिए.”

नेता जी जमींदार की गढ़ी पहुँचे. वहाँ कत्त बाफले बन रहे थे.

नेता जी ने कहा, “जब तक बाढ़ का पानी नहीं उतरता, गाँव वालों की मदद करनी होगी. पहले पूरी-सब्जी बनवाइए और स्कूल में शरण लिए लोगों को भेजिए. आपके नुकसान की भरपाई बीमा कर देगा.”
जमींदार हाथ जोड़ बोला, जो हुक्म सरकार.
महाजनों से सामान आया, ब्राह्मणों ने सब्जी-पूरी बनाई.

गाँव वालों को भोजन मिला, पर वे समझ गए कि यह मदद उनकी ही मेहनत और ब्याज की कमाई से आई है.
इस बीच नेता जी और अफसरों ने जमींदार के यहाँ कत्त बाफले की दावत उड़ाई.

दो माह बाद जमींदार उपहारों के साथ नेता जी के घर पहुँचा. बोला, “हुजूर, टेंडर पास हो गया है. पुल और सड़क का काम हमें मिला है.”

नेता जी मुस्कराए, “देखा! आपदा में अवसर.”

अगली बरसात आने को थी.

पुल और सड़क की मरम्मत बिखरने लगी थी. नए पुल और चौड़ी सड़क की योजना अब भी कागज़ पर थी. गाँव वालों के घर टूटे ही थे. राहत का वादा केवल कागज़ पर था.

गाँव वालों ने समझ लिया—आपदा उनकी थी, अवसर दूसरों का.

शनिवार, 6 दिसंबर 2025

"मकौले का भूत"

लघुकथा
दो दोस्त अर्जुन और सलीम यूनिवर्सिटी गार्डन में बरगद के नीचे बैठे चर्चा में लीन थे. दोनों इतिहास के विद्यार्थी, दोनों ही अपने-अपने तर्कों के हथियार से लैस.

बात लॉर्ड मकौले की शिक्षा योजना पर हो रही थी.

अर्जुन कह रहा था, "सलीम, अगर मैकाले की शिक्षा न होती, तो हम आज भी संस्कृत के श्लोकों और अरबी की आयतों में उलझे रहते. रेल, उद्योग, संविधान—सब अंग्रेज़ी शिक्षा से ही आए."

सलीम उसके कथन पर हँस पड़ा, "वाह! तो तुम कहना चाहते हो कि हमारी सारी भाषाएँ सिर्फ़ पूजा-पाठ और ग़ज़ल सुनाने के काम की थीं? संस्कृत में गणित नहीं था? फारसी में साहित्य नहीं था? अरबी में चिकित्सा नहीं थी? यह तो वही मकौले का तर्क है, ‘तीस फ़ीट के राजा और मक्खन का समुद्र’. ... न जाने कब भारत पर से मकौले का भूत विदा लेगा."

अर्जुन मुस्कराया और बोला, "अगर अंग्रेज़ी न होती, तो संसद में आज भी चार भाषाओं में बहस होती. एक मंत्री संस्कृत में बोलता, दूसरा अरबी में, तीसरा फारसी में, चौथा हिन्दुस्तानी में. जनता ताली बजाती—‘वाह, क्या विविधता है!’ लेकिन निर्णय लेने में सालों लग जाते."



"और आज क्या है?” सलीम ने पलटकर व्यंग्य किया. “मंत्री अंग्रेज़ी में बोलते हैं, जनता समझती नहीं, फिर भी ताली बजाती है. ‘वाह, क्या आधुनिकता है!’ फर्क सिर्फ़ इतना है कि पहले हम अपनी भाषा में बेखबर रहते, अब पराई भाषा में. यही तो गुलामी है."

बोलते बोलते सलीम गंभीर हो चला था, "हमारी भाषाओं में संस्कृति का अध्ययन था. वेदांत, सूफ़ी साहित्य, ग़ज़लें, दोहे; ये सब हमारी आत्मा थे. अंग्रेज़ी ने हमें उनसे काट दिया. आज बच्चे शेक्सपियर तो पढ़ते हैं, पर कबीर को नहीं. यही तो समस्या है."

सलीम को गंभीर होते देख अर्जुन शान्त स्वर में बोला, "संस्कृति बेहद ज़रूरी चीज है, किन्तु आधुनिकता भी उतनी ही जरूरी चीज है. अंग्रेज़ी ने हमें दुनिया से जोड़ा. इसी भाषा में हमने स्वतंत्रता और जनतंत्र के अर्थ सीखे और अपनी भाषाओं में अपनी संस्कृति के साथ चलते हुए आजादी के संघर्ष को आगे बढ़ाया. हमने इसी संगम को साथ लेकर आजादी हासिल की. हमने अंग्रेजी में हमने संविधान क्यों लिखा? क्योंकि अंग्रेजी में इंटरप्रिटेशन के नियम स्थिर थे, हम किसी भी अन्य भाषा में इसे लिखते तो उसकी अनेक व्याख्याएं होतीं. संविधान और कानून को प्रभावी बना पाना दुष्कर हो जाता. आज अंग्रेजी के कारण ही ह, वैश्विक मंच पर अपनी बात को मजबूती के साथ रख पाते हैं. हमारी भाषा और बोली पूरी दुनिया में कहीं भी अजनबी नहीं रहती है. और फिर संस्कृति कोई तालाब का ठहरा हुआ पानी नहीं. वह बहती हुई गंगा है जिसका रूप गंगोत्री में अलग है तो हरिद्वार में अलग, काशी में अलग तो प्रयाग में और अलग, गया में उसका रूप फिर बदलता है तो गंगासागर में बिलकुल अलग हो जाता है. संस्कृति में से बहुत कुछ हम सहेजते हुए चलते हैं, लेकिन पुराने पिछड़े मूल्यों को छोड़ते जाते हैं और उनमें नए आधुनिक और प्रगतीशील मूल्यों को जोड़ते जाते हैं. हम इतिहास के विद्यार्थी हैं, हम क्या नहीं जानते कि भारत की संस्कृति एक सी नहीं रही. वह हर युग में बदली है और बदलती रहेगी. ”

अर्जुन कुछ रुकता है तभी सलीम अपनी हाथ घड़ी में समय देख कर कहता है, “अब मैं चलूंगा, अम्मी को डाक्टर के यहाँ ले जाना है.” दोनों चल देते हैं.

उधर टीवी चैनलों पर बहस चल रही है, “हमें मैकाले की शिक्षा और अंग्रेज़ी को छोड़ना चाहिए." यह बहस अंग्रेज़ी में प्रसारित हो रही है.

आईटी दफ़्तरों में कर्मचारी कहते हैं, "हमें अपनी भाषा पर गर्व है." उसके तुरंत बाद ईमेल अंग्रेज़ी में लिखते हैं और कोडिंग तो बिना अंग्रेजी के संभव ही नहीं.

संसद में नेता कहते हैं, "हमें भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देना चाहिए" इसके बाद प्रेस कांन्फ्रेंस अंग्रेजी में कह रहै हैं.

विश्वविद्यालय में छात्र नारा लगाते हैं, "हिन्दी हमारी शान है." लेकिन अपना रिज़्यूमे अंग्रेज़ी में बनाते हैं.

दो दिन बाद दोनों मित्र फिर उसी उद्यान में फिर बैठे हैं. सलीम कह रहा है, "प्रधान मंत्री तक कहते हैं कि हमें उस गुलामी को समाप्त करना है, जिसकी नींव अंग्रेजों ने रखी है. अंग्रेज़ी ने हमें मानसिक रूप से बाँध दिया है."
जवाब में अर्जुन ने व्यंग्य किया, "हाँ, और वही प्रधान मंत्री विदेश जाते हैं तो अंग्रेज़ी में भाषण देते हैं. यही विडंबना है, गुलामी को कोसते हैं, पर उसी भाषा से दुनिया को प्रभावित करते हैं."

अर्जुन की कुछ देर चुप बैठा रहा. सलीम कुछ नहीं बोला रहा था. अर्जुन ने चुप्पी तोड़ी, “अम्मी कैसी हैं? डाक्टर ने क्या कहा.”

नहीं अर्जुन भाई, अम्मी ठीक हैं, बस डाक्टर ने महीने भर बाद एक बार दिखाने को कहा था इसलिए जाना पड़ा. अब तो दवाओं में बस एक गोली रह गयी है, बाकी सब बन्द कर दी हैं.”

“चलो अम्मां की ओर से कुछ तो निश्चिन्तता हुई. तुम भी अपने अध्ययन पर पूरा ध्यान दो सकोगे” अर्जुन ने कहा. फिर अपना वक्तव्य जारी रखा.

"सलीम, ये मकौले वाला मामला बहुत आसान है, प्रधानमंत्री उसे जान बूझ कर हवा दे रहे हैं. लोग धर्मों के आधार पर लोगों को बाँट कर अपनी राजनीति चलाने की उनकी भाषा को समझने लगे हैं. इसी कारण से वे लोगों को बाँटे रखने के लिए नए नए मुद्दए लेकर आते रहते हैं. जबकि समस्या भाषा नहीं, मानसिकता है. अगर हम अंग्रेज़ी को साधन मानें और अपनी भाषा को आत्मा, तो दोनों का मेल ही हमें आगे ले जाएगा."

सलीम ने सिर हिला कर बोला, "शायद तुम सही हो. हमें अंग्रेज़ी से आधुनिकता लेनी है, पर अपनी भाषाओं से संस्कृति और आत्मगौरव." यह कह कर सलीम हँस पड़ा, अर्जुन ने भी उसके जवाब में जोर का ठहाका लगाया.
फिर अर्जुन बोला, "तो तय रहा, “अंग्रेज़ी हमारी रेल है, और अपनी भाषा हमारी आत्मा. रेल बिना आत्मा बेकार, आत्मा बिना रेल ठहरी हुई."

सलीम ने जोड़ा, "और अगर हम फिर भी बहस करते रहे, तो जनता ताली बजाएगी- ‘वाह, क्या विविधता है!’

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

बदले का पाठ

कॉलेज की लाइब्रेरी में राधा ने पहली बार "फेमिनिज़्म" शब्द को किताब के पन्नों में देखा।

पन्नों पर लिखे विचार उसे आकर्षित कर रहे थे, पर भीतर कहीं एक और आवाज़ थी—

"बराबरी से पहले बदला क्यों दिखता है?"

किताब कहती थी—"फेमिनिज़्म बराबरी की लड़ाई है।"

पर राधा को बराबरी से पहले अन्याय का हिसाब दिखता था।

गली में ताने, बस में धक्के, घर में चुप रहने की सीख—ये सब उसके भीतर बदले की आग भरते थे। उसके दिमाग में सोच का तूफान उठ खड़ा हुआ था। बेचैनी में ही उसने आस पास देखा। वहाँ दूसरी टेबल पर मीना दी बैठी थी। वह एम.ए. कर रही थीं। जब कि वह खुद बी.ए. के आखिरी साल में थीं। वह तुरन्त मीना दी के पास जा कर बैठ गयी।

“अरे¡ राधा, तुम? क्या तुम्हारा काम हो गया?”

“नहीं दीदी, मेरे मन में विचारों का बहुत द्वंद्व चल रहा है, नहीं जानती यह कैसे शान्त होगा? शायद आप मेरी कुछ मदद करें?”

“हाँ, बोल। ऐसा क्या है?”

राधा ने पूरी बात बताई। मीना हँस पड़ी। फिर बोली, “राधा¡ फेमिनिज्म हमें बराबरी की लड़ाई सिखाती है, लेकिन हमने इस पुंसवादी समाज में जो यातनाएँ झेली हैं उनका अनुभव हमें बदला लेने को उकसाता ही है। हमें रोज मोहल्ले की आँखें सिखाती हैं। जब पड़ोसी लड़का खुलेआम गाली देता है और सब चुप रहते हैं, तब बदला हमारे भीतर अंकुरित होता है। फेमिनिज़्म तो बस हमें शब्द देता है, आवाज़ देता है। लेकिन, लेकिन हमें उस उकसावे में नहीं आना है, वरना हम अपराधी बन जाएंगे। किसी दिन जेल में होंगे। हमें लड़ना होगा। इस यौनिक बराबरी के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।"



राधा ने कहा, “ हाँ, दीदी मैं भी यही सोच रही थी। अब चलती हूँ, आपसे फिर मिलती हूँ।”

तभी राधा की निगाहें खिड़की के बाहर उठीं तो उसने देखा कि लाइब्रेरी की खिड़की से बाहर लड़कियों का एक समूह हँसते-बोलते जा रहा था।

उनकी हँसी में भी एक चुनौती थी, जैसे कह रही हों, "हम अब चुप नहीं रहेंगे।"

राधा के मन में विचार आया, “"यह लड़ाई किताबों से नहीं जीती जाएगी। यह लड़ाई उस समाज से है जिसने बदला बोया है और जब तक समाज अपनी ज़मीन साफ़ नहीं करेगा, बदले की फसल बार-बार उगती रहेगी।"

उसने मीना की ओर देखा और कहा, “दीदी, जानती हूँ, बराबरी की राह आसान नहीं होगी। लेकिन हमें समाज से यह ‘बदला’ नाम का शब्द ही विदा करना होगा। तभी बराबरी का पाठ पढ़ा जाएगा।"

मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

जय जनतंत्र, जय संविधान¡


"लघुकथा"


दिनेशराय द्विवेदी

जिले के सबसे बड़े गाँव चमनगढ़ की आबादी दस हज़ार होने को थी, ग्राम पंचायत भी बड़ी थी। दो बरस पहले यहाँ ग्राम पंचायत ने सरकारी मदद से सामुदायिक भवन बनाया था, जिसका उद्देश्य था कि, जाति, धर्म, वर्ग या समुदाय से परे उसका उपयोग कर सके। पहली बार एक दलित हरखू ने अपनी बेटी की शादी उसी भवन में करने का आवेदन दिया, और सचिव ने सरपंच पंडित शंकरलाल की अनुमति से निर्धारित शुल्क जमा कर के दलित परिवार को सामुदायिक भवन में शादी समारोह करने, बारात ठहराने की अनुमति दे दी।

यह खबर कानों कान गाँव के हर मोहल्ले, हर घर में पहुँच गयी। गाँव में विरोध के स्वर उठने लगे। सवर्णों और ओबीसी समुदायों का मत था कि यह नहीं हो सकता। सामुदायिक भवन दलितों को दिया जाने लगा तो सारी ऊँच-नीच खत्म होने लग जाएगी। कल से ये लोग निजी मंदिरों में भी घुसने लगेंगे, हमारे बीच खाने भी लगेंगे। पंचायत के अधिकांश पंच सरपंच के खिलाफ हो गए और सरपंच को पद से हटाने के लिए अविश्वास प्रस्ताव ले आए।

पंडित शंकरलाल ने गांधीजी के अनुयायी अपने पिता से जनतंत्र के आधारभूत मूल्य आत्मसात किए थे। वे प्राण तज सकते थे लेकिन उन मूल्यों पर समझौता नहीं कर सकते थे। वे चिंतित हो उठे। सवाल था कि, “क्या पंचायत बहुमत के दबाव में जनतंत्र के मूल सिद्धांतों को तोड़ देगी, या स्थायी मूल्यों की रक्षा करेगी?

पंडित शंकरलाल पूर्व अध्यापक थे, वे पीछे न हट सकते थे। उनका शिष्य और युवा पंच अर्जुन उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा था। दोनों सलाह करके गाँव के घर-घर गए और एक-एक व्यक्ति को समझाया कि सामुदायिक भवन सब का है। उन्होंने बताया कि वर्षों के संघर्षों से सब ने एक साथ यह आजादी, जनतंत्र हासिल किए हैं। दलितों का उसमें योगदान कम नहीं था। देश ने एक संविधान को स्वीकार किया है, जो सब को बराबर का हक देता है, कहता है, “स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा हर नागरिक का अधिकार है।

बहुत मेहनत के साथ यह काम करने के बाद भी उन्हें लगा कि वे लोगों को समझाने में सफल नहीं हुए। इक्का दुक्का लोगों को छोड़ कर कोई उन्हें आश्वासन नहीं दे सका। दोनों निराश होने लगे।

आखिर पंचायत की बैठक का निर्णायक दिन आ गया। पंचायत भवन के बाहर भीड़ जमा थी। नारे गूँज रहे थे, “जनमत ही सर्वोपरि है!, हम ये होने नहीं देंगे” दलित डरे हुए थे, अपने घरों में दुबके हुए, कोई-कोई छुप छुपा कर पंचायत की और नजर दौड़ा कर वापस घर में दुबक जाता। पंच भी दबाव में थे।

कार्यवाही आरंभ हुई, सरपंच ने कहा, “अगर हम बहुमत के दबाव में किसी को रोकते हैं, तो यह भवन सामुदायिक नहीं, जातिगत हो जाएगा। हमारा जनतंत्र और संविधान दोनों की आत्मा का वध हो जाएगा।”

अर्जुन ने साथ दिया, “जनमत क्षणिक है, लेकिन लोकतंत्र के मूल सिद्धांत स्थायी हैं। आज दलितों को रोकोगे, कल महिलाओं को रोकोगे। क्या हम हर बार संविधान को तोड़ देंगे, दुबारा फिर से गुलामी को न्यौता देंगे?”

भीड़ का शोर थम नहीं रहा था। तभी सरपंच का पुत्र रवि नगर के कॉलेज के अपने सहपाठियों और दोस्तों के साथ आगे आया। उसके कंधे पर बैटरी से चलने वाला लाउडस्पीकर लटका था। पंचायत भवन के सामने खड़ा हो कर ऊँचे स्वर में बोलने लगा।

“सोचो, अगर कल आपके बेटे या बेटी को सामुदायिक भवन में विवाह करने से रोका जाए, तो क्या आप इसे स्वीकार करेंगे? यह भवन सरकार ने सबके लिए बनाया है। क्या हम इसे जाति का किला बना देंगे, या भाईचारे का प्रतीक बना रहने देंगे?” सोचिए इस का लोकार्पण किसने किया था? वह कलेक्टर भी एक दलित था। क्या उस दिन कोई विरोध में सामने आया था?

उसके दोस्तों ने भीड़ में जाकर समझाया, “यह भवन हमारे करों से बना है। इसमें हर नागरिक का हिस्सा है। अगर हम किसी को रोकते हैं, तो हम अपने ही अधिकारों को ही कमजोर कर देंगे।”

भीड़ का शोर धीमा पड़ने लगा। लोग सोच में पड़ गए। अब वे आपस में कानाफूसी कर रहे थे।

अंदर पंचायत भवन में बैठक चल रही थी। आखिर पंडित शंकरलाल पंचायत भवन की छत पर आए। उनके साथ पंचायत के सभी पंच थे। उनके हाथ में पंचायत के लाउडस्पीकर का माइक था। वे निर्णय सुनाने लगे,

“हम सारे पंचों ने एक मत से निर्णय लिया है। हम सारे पंचों को विश्वास है कि पूरा गाँव, गाँव के सब लोग एकमत से हुए हमारे इस निर्णय को सम्मान देंगे। सामुदायिक भवन हर नागरिक के लिए है। गाँव के सभी निवासियों को उसके उपयोग का पूरा हक है। हरखू भाई की बेटी की शादी सामुदायिक भवन से ही होगी। यही जनतंत्र और हमारे संविधान का सम्मान है।”

  भीड़ में से किसी ने ताली बजाई, फिर दूसरे ने, फिर तीसरे ने। तुरन्त ही तालियों की गड़गड़ाहट में हर किसी के हाथ शामिल हो गए। रवि और उसके दोस्त खुशी से उछल पड़े। रवि ने अपने लाउडस्पीकर पर घोषणा की हम सब अब हरखू चाचा के घर चलेंगे और उन्हें यह खुश खबर देंगे। हम संविधान जिन्दाबाद के नारे लगाते चलेंगे।

रवि ने लाउडस्पीकर पर नारा लगाया, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”
भीड़ ने एक स्वर से उत्तर दिया, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”

भीड़ हरखू के घर की ओर जा रही थी, गाँव में नारा गूंज रहा था, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”

गाँव के चंन्द लोग अब भी समझ नहीं पा रहे थे कि यह क्या हुआ। वे चुपचाप अपने घरों को चल दिए।

सोमवार, 1 दिसंबर 2025

रुकने का साहस


खूबसूरत शहर था, नदी थी, तालाब थे, नदी और तालाब किनारे बाग थे। शहर में राजा का गढ़ था चार चार यूनिवर्सिटीज थीं। देश भर से पढ़ने आए विद्यार्थियों और उन्हें संभालने आते उनके अभिभावकों का निरन्तर प्रवाह था। यहाँ के लोगों ने शहर खूबसूरत बनाने में कोई कसर न छोड़ी थी। सड़कों पर ट्रैफिक का शोर हमेशा गूँजता रहता था। कुछ वर्ष पहले शहर की सड़कों और तिराहे-चौराहों को इस तरह का रूप दिया गया था कि अब यहाँ चौराहों पर लाल-हरी-पीली बत्तियाँ नहीं थीं, बस गाड़ियों का बहाव था और लोगों का इंतज़ार।

एक दिन, एक कार अचानक धीमी हुई। चालक ने देखा,- बच्चे, महिलाएँ, वृद्ध-सड़क पार करने के लिए ठिठके खड़े हैं। उसने ब्रेक दबाया और हाथ से इशारा किया, “आइए, निकल जाइए।”

पहले तो लोग हिचकिचाए। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई उनके लिए रुका है। फिर धीरे-धीरे कदम बढ़े, और वे सुरक्षित पार हो गए। पीछे से हॉर्न की आवाज़ आई, जैसे अधीरता का प्रतीक। लेकिन उस कार का चालक मुस्कुराया, क्योंकि उसने समझा कि सड़क पर सबसे बड़ा साहस तेज़ी से भागना नहीं, बल्कि रुकना है।

उसका नाम था अभय। वह एक शिक्षक था। अगले दिन उसने अपने छात्रों को यह अनुभव सुनाया। बच्चों ने कहा—“सर, अगर आप रुक सकते हैं तो हम भी रुकेंगे।”

धीरे-धीरे यह आदत फैलने लगी। अभय ने इसे नाम दिया—“रुकने का साहस अभियान।” उसने पोस्टर बनवाए, जिन पर लिखा था: “अगर ट्रैफिक सिग्नल नहीं है, तो इंसानियत ही सिग्नल बने।”

कुछ लोग हँसे, कुछ ने हॉर्न बजाया, लेकिन कई ने सीखा। राहगीरों के चेहरों पर भरोसा लौटने लगा। बच्चे अब डरते नहीं थे, महिलाएँ अब ठिठकती नहीं थीं।

शहर की सड़कों पर यह छोटा-सा साहस एक आंदोलन बन गया। और अभय को विश्वास था—अगर एक शहर रुकना सीख ले, तो पूरा समाज आगे बढ़ सकता है।









रविवार, 30 नवंबर 2025

चढ़ावा


गाँव के चौक में भीड़ थी. चुनाव का मौसम था. नेता जी की गाड़ी आई और लोगों में हलचल मच गई.

रामलाल, दिनभर दिहाड़ी पर काम करता था, हाथ जोड़कर खड़ा हो गया.

नेता जी ने मुस्कराकर कहा, “रामलाल, वोट देना मत भूलना.“ फिर एक थैला देकर कहने लगे, “देखो यह महीने पन्द्रह दिन का राशन है और कुछ दिन का शाम का इन्तजाम भी है.”

रामलाल ने सामान उठाया और मन ही मन सोचा, “भगवान नाराज़ हैं तभी तो मैं गरीब हूँ. शायद नेता जी ही भगवान के भेजे हुए दूत ही हैं. अगर खुश कर दूँ तो मेरी हालत सुधर जाएगी.”

नेताजी गाँव में प्रचार के लिए आए थे. उन्हें गाँव के लोगों की जरूरत थी जो उनके साथ पूरे गाँव में तब तक घूमता. वह नेताजी के पीछे पीछे हो लिया. वह दिन भर नेताजी से चिपका रहा जब तक कि गाँव में सब से मिल कर अगले गाँव के लिए न निकल लिए. नेताजी ने जाते जाते भी रामलाल से कहा, “चुनाव तक तुम ध्यान रखना. कोई खराब खबर हो तो बताना.“

नेताजी से इतनी सी बात सुन रामलाल गदगद हो गया. वह घर की ओर चल दिया. रास्ते में मंदिर मिला. उसने सोचा चलते चलते भगवान जी को ढोक दे चलूँ. आज का दिन अच्छा है. वे खुश हो जाएँ तो जिन्दगी कुछ और सुधर जाए.
मंदिर में भगवान की मूर्ति के सामने प्रसाद, फूलमाला के ढेर लगा था. भगवान के सामने रखे एक थाल में बहुत सारे सिक्के पड़े थे, उनमें कुछ बड़े नोट भी थे. पुजारी इन सब को देख बहुत खुश हो रहा था. वह जानता था कि किसी दिन कोई अमीर आएगा और सोने चांदी जैसे चढ़ावे भी चढ़ाएंगे.

रामलाल भगवान के सामने हाथ जोड़ खड़ा हो गया. उन्हें मन ही मन धन्यवाद देने लगा. उस ने प्रार्थना भी की. फिर उसे ध्यान आया कि भगवान उसकी नहीं उन लोगों की प्रार्थना पर अधिक ध्यान देंगे जिन्होंने वहाँ चढ़ावा चढ़ाया है. उसका हाथ फौरन अपने कुर्ते की जेब में गया. वहाँ बस एक रुपया पड़ा था. उसने वही थाली में चढ़ा दिया. उसके रुपया चढ़ाते ही पुजारी जी ने उस के माथे पर तिलक लगाया और चरणामृत दिया. फिर प्रसाद की थाली में से मिसरी के दो टुकड़े उसके हाथ पर रख बोला, “ईश्वर जरूर तुम पर भी कृपा करेगा, तुम्हारे दिन भी फिरेंगे”. उसने सोचा, “भगवान खुश गए तो जरूर उसकी गरीबी दूर होगी. वह आज से रोज मंदिर आया करेगा.

मंदिर से वह बाहर निकला. मंदिर के नीचे ही पास में उसका दोस्त शंकर मोची बैठता था, लोगों के जूते चप्पल दुरुस्त करता था, कोई कहता तो उसके लिए जूते जूती भी बना देता. शाम हो चली थी शंकर अपनी दुकान समेट रहा. रामलाल ने शंकर से राम- राम की, शंकर ने भी राम-राम कह कर जवाब दिया.

“अपनी दुकान समेट रहे हो?” रामलाल ने पूछा.

“ हाँ, शाम हो गयी है अब कोई ग्राहक नहीं आएगा, रुक कर भी क्या करूँगा. शंकर ने उत्तर दिया.

“ठीक है, मैं भी नेताजी के साथ घूम घूम कर थक गया हूँ, मैं भी घर ही जाता हूँ.“ इतना कह कर रामलाल भी वहाँ से चल दिया.

उस दिन के बाद रामलाल रोज शाम के समय मंदिर जाने लगा. कभी फूलमाला, कभी प्रसाद तो कभी रुपया चढ़ा कर आता. शंकर से उससे रोज राम-राम होती. इस तरह कई दिन हो गए. चुनाव भी बीत गया. नेताजी चुनाव जीत गए थे. एक शाम वह मंदिर से निकला तो शंकर अपनी दुकान पूरी तरह समेट चुका था और घर जाने को तैयार था. दोनों का घर एक ही ओर था तो दोनों साथ घर की ओर चले.

“तुम आज कल रोज मंदिर आते हो?” शंकर ने बात छेड़ी.

“हाँ, भाई आता तो हूँ. रोज कुछ न कुछ चढ़ाता भी हूँ. शायद किसी दिन भगवान सुन लें और जिन्दगी कुछ सुधर जाए.” रामलाल की आवाज में बहुत उदासी थी. वह आगे कहने लगा. नेताजी चुनाव में आए थे, महीने भर का राशन दे गए थे. चुनाव खत्म होते ही वह भी खत्म हो गया. तुम जानते हो आज कल काम तो कम ही मिलता है. घर चलाना मुश्किल हो चला है. रोज आता हूँ कि भगवान प्रसन्न हो गए तो दिन सुधर जाएंगे.“

उसकी बात सुनते ही शंकर हँसा और बोला, “ तुम बेवकूफ हो. रोज मंदिर आने और नेताजी के पीछे पीछे घूमने, थोड़े दिन के राशन और दारू के बदले वोट बेचना ही हमें और गरीब बनाता है. मैं तो कई साल से मंदिर के पास ही बैठता हूँ और जूते बनाता हूँ. रोज मंदिर आने जाने वाले लोगों को देखता हूँ. मंदिर आने से कभी किसी का कुछ न सुधरा. भगवान भी पैसे वालों और समर्थों का ही साथ देता है.“

“बात तो तुम्हारी सही लगती है. पर समझ नहीं आता कि करें तो क्या करें? भगवान ही चाहें तो जीवन सुधर सकेगा.”
“असल में हमारी गरीबी का कारण भगवान की नाराजगी नहीं है, भगवान को चढ़ावा चढ़ाना. चुनाव के वक्त इस या उस उम्मीदवार से राशन-पानी ले कर अपना वोट फैंक देना रिवाज बन गए हैं. इनसे कुछ नहीं बदला है न बदलेगा. हमारी गरीबी का कारण यह शोषणकारी व्यवस्था है. पैसे वालों ने ही सारे कमाई और रोजगार के साधन हथिया रखे हैं. जब तक हम अपने हक़ की लड़ाई नहीं लड़ेंगे तब तक कुछ नहीं बदलेगा.” शंकर ने कहा.

रामलाल चुप रहा. उसे लग तो रहा था कि शंकर की बात सही है. रोज-रोज और हर बार हम यही तो करते रहे हैं लेकिन बदलता कुछ भी नहीं.

शंकर कुछ रुक कर फिर कहने लगा, “ छोटा भाई किशन शहर की मिल में काम करता है. उसने देखा है, जब तक मजदूर अपनी मांगें कंपनी के सामने न रखें, उन्हें मनवाने के लिए हड़ताल न करें तब तक उनकी तनखा बढ़ती ही नहीं. वह कहता है कि ये मिल वाले ही नेताओं को चन्दा देते हैं. उसी से उनकी पार्टियाँ चलती हैं और कैसे भी बहला फुसला कर नेता लोग चुनाव में जीत जाते हैं और फिर उन्हीं का भला करते हैं. हम बैंक से लोन ले लें और भर न पाएँ तो बैंक वाले घर खेत सब नीलाम करने को तैयार रहते हैं, लेकिन पैसे वालों की कोई कंपनी घाटे में चली जाए और बैंक से लिए लाखों करोड़ों का लोन न चुका पाएँ तो नेता लोग उन्हें माफ करवा देते हैं या फिर लाखों के लोन के बदले हजारों में चुकता करवा देते हैं. इसलिए जब तक पैसे वालों की सरकार बनती रहेगी कुछ नहीं होगा.

रामलाल सुन कर अचम्भित था कि ऐसा भी होता है. फिर सोचा शंकर कह रहा है तो सही ही होगा. फिर वह सोचने लगा लेकिन पैसे वालों की सरकार न बनेगी तो किनकी बनेगी. गरीब मजदूरों किसानों की तो बन नहीं सकती. वे कैसे चुनाव लड़ेंगे और कैसे जीतेंगे? प्रचार तो पैसे से ही होता है. उसे सोचता देख शकर आगे कहने लगा.

“किशन तो यह भी कहता है कि ऐसे देश भी हैं जहाँ मजदूर किसानों की सरकारें हैं. कुछ देश ऐसे भी हैं जहाँ देश भर में दस में दो आदमी से ज्यादा कोई भगवान को मानता ही नहीं, और ये देश दुनिया के सबसे खुशहाल देश हैं. उससे भी बड़ी बात ये कि सबसे ज्यादा गरीबी उन्हीं देशों में हैं जिन देशों के सबसे ज्यादा लोग भगवान को मानते हैं.”

“ये मजदूर किसानों की सरकार बनती कैसे है? और अपने यहाँ कैसे बन सकती है?”

शंकर मन ही मन खुश हो रहा था। उसे लगा था कि अब रामलाल उसकी बात समझ रहा है। उसने अपनी बात जारी रखी, “हमारे देश में मजदूर-किसान कितने होंगे? उनकी संख्या चार में से तीन से कम नहीं अधिक ही होगी। अगर ये सब एक हो जाएँ तो क्या नहीं हो सकता?”

“हाँ, बात तो सही है। लेकिन सब एक कैसे होंगे? ये तो मेंढकों को तौलने जैसा लगता है.”

“अरे, सीधी सी बात है. तुम मकान बनाने की मजदूरी करते हो. एक दम तो मकान नहीं बनता. पहले नींव खोद कर भरनी होती है. फिर आहिस्ता आहिस्ता दीवारें उठती हैं, पहली मंजिल बनती है फिर दूसरी, तीसरी और चौथी. ऐसे ही दस-दस बीस-बीस मंजिल के मकान तक खड़े हो जाते हैं. कहीं से तो शुरुआत करनी ही होती है. तुम रुपया रोज मंदिर में खर्च कर आते हो. महीने भर बचाओ तो तीस होते हैं. तुम इसका आधा मजदूर किसानों की एकता बनाने के लिए खर्च कर सकते हो और आधे से अपने लिए कुछ कर सकते हो. ऐसे ही बहुत से लोग मिल जाएँ तो अपनी सरकार बनाने के लिए काम कर सकते हैं. शहरों और कई गाँवों में तो कर भी रहे हैं. किशन भी कहता है कि उसकी यूनियन वाले ग्रामीण किसान मजदूर सभा भी बनाते हैं, उससे कह रहे थे कि अपने गाँव में मजदूरों किसानों की मीटिंग रखो तो यहाँ भी किसान मजदूर सभा बना देंगे. फिर हम खुद अपने भले बुरे के बारे में मिल कर सोच सकते हैं.”

“ऐसा?” रामलाल यह सब सुन कर चकित हो गया था। वह सोच रहा था कि, “यदि किशन की यूनियन वाले मजदूर किसान सभा बनाते हैं तो अब तक किशन ने गाँव में मीटिंग क्यों नहीं की और क्यों नहीं यहाँ भी सभा बनाई? उसने अपनी यही बात शंकर के सामने रखी.

“भाई, यूनियन वाले मजदूरी भी करते हैं, अपनी यूनियन भी चलाते हैं. उसके भी बहुत काम होते हैं। हाँ, आजकल वे महीने में एक दो बार जरूर किसी गाँव में सभा बनाने के लिए जाते हैं. शंकर भी कह रहा था कि हमारे यहाँ भी इसी महीने या अगले महीने आएंगे.”

“बढ़िया शंकर भाई, यदि ऐसी कोई मीटिंग हो तो मुझे मत भूल जाना मैं जरूर आऊंगा. मैं सभा का मेम्बर जरूर बनूंगा और हर महीने पन्द्रह रुपए भी दूंगा। मुझे किसी ने अब तक ऐसा कुछ बताया ही नहीं. भगवान को किसने देखा है. ऐसे लोग तो खुद प्रत्यक्ष हैं. मैं जरूर आऊंगा, मुझे मत भूलना. मेरा घर आ गया है, फिर कल मिलते हैं.”
“कल मंदिर आओगे?” शंकर ने पूछा तो रामलाल हँस पड़ा.

‘’कल मंदिर आऊंगा या नहीं यह तो पता नहीं, अभी सोचूंगा. पर तुम से मिलने जरूर आऊंगा.”

“राम-राम.” शंकर ने कहा.

रामलाल ने जवाब दिया, “राम-राम.”

शनिवार, 29 नवंबर 2025

सत्यप्रार्थी वध

'लघुकथा'

एक समय की बात है, जब देश की आत्मा दो नगरों में बंटी हुई थी, एक था न्यायपुर, जहाँ दीवारें काली थीं, और दूसरा आस्थागढ़, जहाँ मंदिरों की घंटियाँ हर पल गूंजती थीं।

 न्यायपुर की अदालतें अब युद्धभूमि बन चुकी थीं। वहाँ जज नहीं, सेनापति बैठते थे। उनके हाथों में न्याय की कलम नहीं, आदेश की मुहर थी। हर सुबह उन्हें एक सूची मिलती, "इन मुकदमों का आज एनकाउंटर करना है।"

मुकदमे अब जीवित नहीं थे, वे कागज़ी प्राणी थे, जिनके पास आँखें थीं, तर्क थे, और कभी-कभी आँसू भी।

 एक दिन, एक मुकदमा, नाम था सत्यप्रार्थी, काँपते हुए न्यायाधीश के सामने आया।

"महोदय, मेरा एक दस्तावेज़ अभी प्रतिवादी से नहीं आया है। कृपया मुझे थोड़ा समय दीजिए, अन्यथा मेरा वध हो जाएगा।"

 जज ने उसकी ओर देखा, जैसे कोई पत्थर किसी फूल को देखता है।

"यह टारगेट मुकदमा है। देरी नहीं चलेगी। हमें रोज़ ऊपर जवाब देना होता है।"

और फिर सत्यप्रार्थी का वध हो गया।

उसी दिन, आस्थागढ़ में उत्सव था। ध्वजारोहण की तैयारी थी। मंदिर के शिखर पर केसरिया पताका लहराने वाली थी।

राजा स्वयं आए थे, आरती की थाली लिए। गणेशजी की मूर्ति के सामने दीप जलाया गया।
घंटियाँ बजीं, पुष्पवर्षा हुई, और सोलह नगरों में रथयात्रा निकली।

न्यायपुर के एक वृद्ध दरबारी ने यह दृश्य देखा और बुदबुदाया,

"जब न्याय कालकोठरी में बंद हो, तब भी उत्सव तो हो ही सकता है।"

उसने अपनी आँखें बंद कर लीं।

एक ओर अंधेरा था, जहाँ सत्य का वध हो रहा था।

दूसरी ओर उजाला था, जहाँ आस्था का जयघोष हो रहा था।

और देश… ?

कुछ कहते थे, “उसका गौरव बढ़ रहा है”।

कुछ अंधेरे में आँसुओं के साथ कहते थे, “देश मर रहा है।