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शनिवार, 3 अगस्त 2013

राजनीति के विकल्प का साहित्य रचना होगा।

  -अशोक कुमार पाण्डे

"प्रेमचन्द जयन्ती पर साहित्य, राजनीति और प्रेमचन्द पर परिचर्चा" 

 

'विकल्प' जन-सांस्कृतिक मंच, कोटा द्वारा  प्रेमचन्द के जन्मदिवस पर आयोजित परिचर्चा रविवार 28 जुलाई को दोपहर बाद प्रेसक्लब भवन में आयोजित की गई थी। प्रेमचन्द जयन्ती पर आयोजित समारोह सदैव ही बरसात से व्यवधानग्रस्त  हो जाते हैं।  इस परिचर्चा के दिन भी दिन भर बरसात होती रही। लेकिन बरसात के बावजूद भी परिचर्चा में भाग लेने वाले वक्ताओँ और श्रोताओं की संख्या अच्छी  खासी थी। उस दिन इतनी अधिक वर्षा हुई कि मुख्य अतिथि अशोक पाण्डे जी के वापस लौटने की ट्रेन निरस्त हो गई और उन्हें स्टेशन से वापस लौटना पड़ा। सुबह बस से ही उन की वापसी संभव हो सकी।  



इस परिचर्चा का विषय 'साहित्य, राजनीति और प्रेमचन्द' था। अतिथियों को स्वागत के बाद परिचर्चा का आरंभ करते हुए विकल्प के अध्यक्ष और वरिष्ठ कवि-गीतकार महेन्द्र 'नेह' ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि इस परिचर्चा का उद्देश्य रचनाकारों-कलाकारों के बीच संवाद करते हुए शिक्षण और रचनाशीलता के लिए नई ऊर्जा का संचार करना तथा विचारहीनता के विरुद्ध मुहिम चलाते हुए समाज के अन्तर्विरोधों की समझदारी विकसित करना है। मनुष्य का सामाजिक जीवन ही साहित्य और कला का एक मात्र स्रोत है। फिर भी साहित्य और कला में जीवन का प्रतिबिम्बित होना ही पर्याप्त नहीं है उसे वास्तविक जीवन से अधिक तीव्र, अधिक केंद्रित, विशिष्ठतापूर्ण, आदर्श के अधिक निकट और सांन्द्र होना चाहिए जिस से वह  पाठक और कला के भोक्ता को अधिक तीव्रता  के साथ प्रभावित कर सके। साहित्य और कलाएँ राजनीति से अछूते नहीं होते अपितु वे राजनीति के अधीन होते हैं, लेकिन वे राजनीति को प्रभावित भी करते हैं। वे जनता को जाग्रत करते हैं, उत्साह से भर देते हैं और वातावरण  को रूपान्तरित करने के लिए एकताबद्ध होने और संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं।  कला और साहित्य को समाज के लिए उपयोगी होना चाहिए।   खुद प्रेमचन्द अक्सर कहते थे कि "मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि मैं और चीजो की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तौलता हूँ।" वे कहते थे " साहित्य जीवन की आलोचना है।" "हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिस में उच्च चिन्त हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो - जो हम में गति, संघर्ष और बैचेनी पैदा करे-सुलाए नहीं, क्यों कि अब और सोना मृत्यु का लक्षण है।" अपनी अर्धांगिनी शिवरानी देवी से उन्हों ने कहा कि "साहित्य, समाज और राजनीति तीनों एक ही माला के तीन अंग हैं, जिस भाषा का साहित्य अच्छा होगा, उस का समाज भी अच्छा होगा, समाज के अच्छा होने पर मजबूरन राजनीति भी अच्छी होगी। हमें आज की इस परिचर्चा में प्रेमचंद के साहित्य व जीवन के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज और राजनीति के अन्तर्सबंधों की छानबीन करनी है।

परिचर्चा का आरंभ करते हुए दिनेशराय द्विवेदी ने कहा कि प्रेमचन्द समाज के चितेरे थे। हम आसपास के साधारण और विशिष्ठ चरित्रों के नजदीक रह कर भी जितना नहीं जान पाते उस से अधिक हमें प्रेमचन्द का साहित्य उन के बारे में बताता है। उन की रचनाएँ केवल यह नहीं बताते कि लोग कैसे हैं और कैसा व्यवहार करते हैं। वे यह भी बताते हैं कि वे ऐसे क्यों हैं और ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं। चरित्रों की वर्गीय और सामाजिक परिस्थितियाँ उन के जीवन और व्यवहार को निर्धारित करती हैं। प्रेमचन्द इसी कारण आज भी प्रासंगिक हैं और वे आज भी अपने साहित्य के उपभोक्ता को अन्य रचनाओं से अधिक दे रही हैं। आज का सामान्य व्यक्ति जब राजनीति को देखता, परखता है तो उस की प्रतिक्रिया होती है कि राजनीति दुनिया की सब से बुरी चीज है। सामान्य व्यक्ति का यह निष्कर्ष गलत नहीं हो सकता क्यों कि वह उस के जीवन के वास्तविक अनुभव पर आधारित सच्चा निष्कर्ष है।  सामान्य व्यक्ति जानता है कि राजनीति से बचा नहीं जा सकता, लेकिन यह नहीं सोच पाता कि यदि राजनीति सब से बुरी है तो फिर उस का विकल्प क्या है? लेकिन प्रेमचंद अपने उपन्यास 'कर्मभूमि' में उस का विकल्प सुझाते हैं "गवर्नमेंट तो कोई जरूरी चीज नहीं। पढ़े-लिखे आदमियों ने गरीबों को दबाए रखने के लिए एक संगठन बना लिया है। उसी का नाम गवर्नमेंट है। गरीब और अमीर का फर्क मिटा दो और गवर्नमेंट का खातमा हो जाता है" हम समझ सकते हैं कि प्रेमचन्द यहाँ समाज से वर्गों की समाप्ति की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि राजनीति का विकल्प ऐसी नीति हो सकती है जिस से अंतत समाज से राज्य ही समाप्त हो जाए। 

डॉ. प्रेम जैन ने कहा कि प्रेमचन्द गांधी जी और स्वतंत्रता आंदोलन से अत्यन्त प्रभावित थे। लेकिन उन की रचनाओं से स्पष्ट होता है कि वे स्वतंत्रता के रूप में सामन्ती और पूंजीवादी शोषण से मुक्त समाज चाहते थे। 
शून्य आकांक्षी ने कहा कि प्रेमचंद का काल कृषक सभ्यता के ह्रास और औद्योगिक सभ्यता के उदय का काल था। उन्हों ने उस काल के सामाजिक यथार्थ और अन्तर्विरोधों को अत्यन्त स्पष्टता के साथ अपने साहित्य में उजागर किया। सर्वाधिक संप्रेषणीय भाषा का प्रयोग किया। जीवन का यथार्थ चित्रण किया जिस के कारण वे संपूर्ण भारत में सर्वग्राह्य बने। 

प्रो. हितेष व्यास ने कहा कि प्रेमचन्द कहते थे कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। लेकिन आज के साहित्य को देखते हुए ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रेमचन्द ने साहित्य और भाषा के माध्यम से राजनीति की। उन्हों ने अपने राजनैतिक विचारों को साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्ति दी। उन की भाषा उन की राजनीति थी। उन की साहित्यिक यात्रा एक विकास यात्रा है उन्हों ने गांधीवाद से समाजवाद तक का सफर तय किया। 
मुख्य वक्ता अशोक कुमार पाण्डे ने कहा कि साहित्य, समाज और राजनीति तीनों नाभिनालबद्ध हैं। कोई चीज राजनीति से परे नहीं होती, निष्पक्षता का भी अपना पक्ष होता है, राजनीति विहीनता की भी अपनी राजनीति है जो सदैव यथास्थिति के पक्ष में जाती है। हम जब प्रेमचन्द की परम्परा की बात करते हैं तो देखें कि उन के पास क्या परम्परा थी? साहित्य के नाम पर ऐयारी का साहित्य था। भाषा के नाम पर उर्दू फारसी भाषा की परंपरा थी। उन्हें बुनियाद भी रखनी थी और मंजिलें भी खड़ी करनी थीं। हलकू पहली बार साहित्य में नायक बना तो का्य वह फारसी शब्दों से लबरेज उर्दू बोलता या फिर संस्कृत के तत्सम शब्दों से भरी हिन्दी बोलता? तब हलकू की बोलचाल की भाषा उन के साहित्य की भाषा बनी। उन के साहित्य के पात्र अपनी जैसी भाषा बोलते हैं। उन का पात्र यदि पण्डित है तो संस्कृतनिष्ठ भाषा बोलता है, मौलाना है तो अरबी फारसी के शब्द उस की बोली में आते हैं। जैसा पात्र है वैसी भाषा है। उन की आरंभिक कहानियों में 'मंत्र' जैसी कहानियाँ भी हैंऔर 'कफन' भी। उन का साहित्य संघर्ष करते हुए आगे बढ़ता है। उन के साहित्य में गांधी के आन्दोलन का प्रभाव आना स्वाभाविक था।उन के कुछ साहित्य में टाल्सटाय का प्रभाव है लेकिन वे इन सब को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ते हैं और समाजवाद तक पहुँचकर कहते हैं कि मैं बोल्शेविक विचारों का कायल हो गया हूँ। 

उन्हों ने कहा कि यह सही है की प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक है। लेकिन यह जितनी उनकी सफलता है, उससे कहीं अधिक हमारे समाज की असफलता भी है। प्रेमचन्द के बाद देश को साम्राज्यवदी शासन से मुक्ति मिली। हम ने अपनी सार्वभौम सरकार की स्थापना की, एक तथाकथित दुनिया का सब से बड़ा लोकतंत्र स्थापित कर लिया। लेकिन सामाजिक स्तर पर कुछ नहीं बदला। गाँवों में अभी भी वही शोषण बरकरार है, गाँव का किसान उतना ही मजबूर है और नगर में मजदूर भी उतना ही मजबूर है। बल्कि शोषण का दायरा बढ़ा है। अमीरों की संख्या और अमीरी बढ़ी है तो गरीबों की संख्या और गरीबी भी बढ़ गई है। इंसान की जिन्दगी और अधिक दूभर हुई है। जनतंत्र में वोट के जरिए परिवर्तन का विकल्प सामने रखा जाता है लेकिन वोट के जरिए जिसे हटा कर जो लाया जा सकता है उस में कोई अन्तर आज दिखाई नहीं देता।  ऐसे में मौजूदा राजनीति का विकल्प जरूरी हो गया है। एक विकल्पहीनता की स्थिति दिखाई देती है। लेकिन समाज में कभी विकल्पहीनता नहीं होती। विकल्प हमेशा होता है। आज के समय में भी विकल्प है। हमें साहित्य में मौजूदा राजनीति के उसी विकल्प को उजागर करना होगा। हमें उसी  विकल्प का साहित्य रचना होगा। 

हाड़ौती के गीतकार दुर्गादान सिंह गौड़ ने कहा। प्रेमचन्द को समझना अलग बात है। मैं गाँव का हूँ और गाँव में सभी को प्रत्यक्ष देखा है। लेकिन गाँव का यथार्थ तब समझा जब प्रेमचन्द को पढ़ा। उन्हों ने समाज के यथार्थ को समझाया कि राजनीति उन के दुखों का कारण है। कर दबे, कुचले लोगों को एक होने संघर्ष करते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। हमें उन की इसी साहित्यिक परंपरा को आगे बढ़ाना चाहिए।

अम्बिकादत्त ने कहा कि प्रेमचन्द और उन की परम्परा को समझने के लिए हमें उन के साहित्य को फिर से पढ़ना चाहिए। उन्हों ने हिन्दी के साहित्य को चन्द्रकान्ता के तिलिस्म से आगे बढ़ाया और समाज के बीच ले गए।  डा. रामविलास शर्मा कहते हैं कि प्रेमचन्द कबीर के बाद सब से प्रखर व्यंगकार हैं। उन से सीखते हुए लेखकों को भद्रलोक के घेरे से बाहर निकल कर जीवन की यथार्थ छवियाँ अंकित करनी चाहिए। 
परिचर्चा के अध्यक्ष बशीर अहमद 'मयूख' ने कहा कि प्रेमचन्द सही अर्थों में कालजयी रचनाकार थे। यह विवाद बेमानी है कि साहित्य को राजनीति के आगे चलनी वाली मशाल होनी चाहिए या वह राजनीति के आगे चलने वाली मशाल नहीं हो सकती। साहित्य राजनीति से प्रभावित होता है और वह राजनीति को प्रभावित करता है। दोनों एक दूसरे को मार्ग दिखाते हैं। 

परिचर्चा का संचालन करते हुए उर्दू शायर शकूर अनवर ने कहा कि प्रेमचन्द हिन्दी के ही नहीं उर्दू के भी उतने ही महत्वपूर्ण साहित्यकार हैं। भाषा की सरलता के सम्बन्ध में जो कुछ वे हिन्दी में करते और कहते हैं उन्हों ने ही सब से पहले उर्दू में भी भाषा की सरलता के बिन्दु पर जोर दिया। 

बुधवार, 3 जुलाई 2013

धरती पिराती है

'कविता'


धरती के अंतर में
धधक रही ज्वाला के
धकियाने से निकले 

गूमड़ हैं,     पहाड़

मदहोश इंसानो! 

जरा हौले से 
चढ़ा करो इन पर
धरती पिराती है,

जब भी पक जाते हैं, गूमड़

तो फूट  पड़ते हैं।
  • दिनेशराय द्विवेदी

शुक्रवार, 28 जून 2013

मुसीबत गलत पार्किंग की

कुछ दिनों से एक समस्या सामने आने लगी।  मेरे मकान के गेट के ठीक सामने सड़क के दूसरी ओर कोई अक्सर एक गाड़ी पार्क कर जाता है।  उस के बाद इतना स्थान शेष नहीं रहता कि मैं अपनी कार को अपने घर से बाहर निकाल सकूँ या बाहर रहे तो घर के पोर्च में ला कर खड़ी कर सकूँ।  घर के बाहर सड़क पर अपना वाहन पार्क करना बहुत बेहूदा लगता है।  सप्ताह भर पहले यह पहचान हुई की वह वाहन किस व्यक्ति के अधिकार में है। फिर एक दिन उस ने अपना वाहन वहाँ खड़ा किया ही था कि मेरी निगाह पड़ गई। मैं ने उसे समझाया कि मेरे गेट के सामने वाहन खड़ा करने में मुझे अपनी कार निकालने में समस्या आती है। कुछ आगे सरका कर खड़ी कर दी जाए तो सामने की सड़़क से इधर उधर मुड़ते समय सामने आने वाले से टक्कर की संभावना बनी रहती है। मैं ने उसे कहा कि वह मेरे मकान के गेट के सामने का स्थान छोड़ कर कुछ दूर उस की गाड़ी खड़ी कर दे तो किसी को कोई परेशानी नहीं होगी। अगले दिन से गाड़ी मेरे बताए स्थान पर या अन्यत्र कहीं खड़ी होने लगी। मुझे लगा कि मेरी परेशानी मिट गई।

ल सुबह जब मैं अदालत जाने के लिए कार निकालने लगा तो गेट के सामने गा़ड़ी फिर खड़ी थी। मैं परेशान कैसे अपनी कार निकालूँ।  मैं उस गाड़ी के के घर गया तो वहाँ सिर्फ बुजुर्ग महिलाएँ थीं।  वे कहने लगीं कि "भैया ने गलती से खड़ी कर दी होगी, कहीं इधर उधर चला गया होगा, आएगा तब हटवा देंगे। पर मैं तो "भैया" के आने तक रुक नहीं सकता था। मैं ने जैसे तैसे अपने गेट के बाहर के रेम्प पर से कार को कुदा कर निकाला। नतीजा ये हुआ कि रेम्प की दो टाइल्स टूट कर निकल गईँ।


दोपहर बाद सवा तीन बजे लौटा तब भी वह गाड़ी वहीँ खड़ी थी। मुझे बहुत गुस्सा आया। मैं ने भी अपनी कार उस के बराबर ला कर खड़ी की ही थी कि अचानक बंद हो गई। उसे किनारे लगाने के लिए स्टार्ट करना चाहा तो उस ने स्टार्ट होने से मना कर दिया। अब सड़क से मोटर बाइक तो निकल सकती थी पर और कोई वाहन नहीं। एक कार वाले सज्जन आए तो उन से कहा कि मेरी कार तो सेल्फ स्टार्ट नहीं हो रही है,  धक्का लगाना पड़ेगा वे दूसरी वाली गाड़ी हटवा लें। वे बेचारे अपनी कार को दूसरी ओर से निकाल कर ले गए। गलत पार्किंग वाले सज्जन के घर तलाश किया तो किसी ने दरवाजा ही न खोला। बाद में पता लगा कि गाड़ी के प्रभारी बाहर गए हैं कब आएंगे पता नहीं। 


खिर मैं ने पुलिस थाने को फोन किया तो वहाँ से जवाब मिला रिपोर्ट करने थाने आना पड़ेगा। जब कि इस में थाने जाने वाली कोई बात नहीं थी। सूचना मिलने पर सड़क से यातायात बाधा हटाने का काम पुलिस का है। उसे तुरन्त आना चाहिए था। खैर!


मैं ने पुलिस थानाधिकारी और पुलिस अधीक्षक  को अपनी शिकायत ई-मेल से भेज दी।  एक घंटे तक उस का कोई असर न होने पर उसी शिकायत को यह लिखते हुए पुलिस कंट्रोल रूम को फॉरवर्ड किया कि घंटा भर हो गया है, वाहन अभी हटा नहीं है।  मैं अपना वाहन रात को सड़क पर नहीं छोड़ सकता। घंटे भर बाद एक पुलिस जीप आई जिस में एक अधिकारी और चार सिपाही थे। उन्हों ने गाड़ी वाले का घर पता किया और उस के घऱ जा कर पूछा तो वह फिर नदारद था। अब गाड़ी कैसे हटाई जाए। अब तो गा़ड़ी हटाने वाली क्रेन के बगैर यह सब नहीं हो सकता था। मैं ने क्रेन मंगाने का सुझाव दिया। लेकिन सुझाव जल्दी ही गाड़ी वाले के परिजनों तक पहुँच गया। सन्देश आया कि चाबी घऱ पर है। तब एक सिपाही उस के घर से चाबी ले कर आया और गाड़ी को वहाँ से हटाया। मैं ने राहत की साँस ली और अपनी कार को ला कर पोर्च में खड़ा किया। 


मोहल्ले में गलत पार्किंग वाली गाड़ी पुलिस द्वारा आ कर हटाने से यह संदेश गया कि इस तरह की छोटी मोटी परेशानियों के लिए भी पुलिस को शिकायत की जा सकती है, और पुलिस ऐसी शिकायत पर नागरिकों की मदद भी करती है। दूसरे पुलिस के प्रति विश्वास में वृद्धि हुई। तीसरे इस तरह केवल अपनी सुविधा देखने और पड़ौसियों को कष्ट पहुँचाने वालों के कान खड़े हुए कि पुलिस हस्तक्षेप कर सकती है। गाड़ी हटाना तो ठीक है पर गाड़ी जब्त कर पुलिस कंट्रोल रूम पर भी ले जाई जा सकती थी जहाँ से वह बिना जुर्माने के नहीं छूटती।

सोमवार, 24 जून 2013

बहुत भद्द होती है जी देश की


                                       -शिवराम

कैसा चुगद लगता है वह
जब चरित्र की बातें करता है
देशभक्ति का उपदेश देते वक्त तो
एकदम हास्यास्पद हो जाता है
जब धर्म पर बोलता है
तो हँसने लगते हैं लोग

नेताओं को और कुछ आए न आए
अभिनय अवश्य आना चाहिए

पुराने नेता कितने अनुभवी होते थे
कुछ भी बोलते थे
ऐसा लगता था कि
बिलकुल सच बोल रहे हैं
एकदम सत्यमेव जयते

लेकिन आजकल
अनाड़ी और नौसिखिया लोग चले आ रहे हैं
तुरन्त पकड़े जाते हैं
मामला बोलने-चालने का हो
या लेन-देन का

मेरी इच्छा होती है कि
इन से नाटक कराऊँ
रिहर्सल में कुछ तो सीखेंगे

वैसे, सरकारों को चाहिए कि
गौशालाओं की तर्ज पर हर जिले में
रंगशालाएँ खोलें

प्रशिक्षण शिविर लगाएँ
राजनीति में प्रवेश के लिए
अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए
कम से कम थ्री इयर्स डिप्लोमा
इन ऐक्टिंग एण्ड गिविंग एण्ड टेकिंग


बहुत भद्द होती है जी देश की
संसद की और हमारी-आप की।

गुरुवार, 30 मई 2013

बांझ अदालतें

मैं 2004 से एक बुजुर्ग महिला का मुकदमा लड़ रहा हूँ। उन के पति ने अपने पुश्तैनी मकान में रहते हुए एक और मकान बनाया था। उसे एक फर्म को किराए पर दे दिया। फिर फर्म के एक पार्टनर के भतीजे ने उसी नाम से एक फर्म और रजिस्टर करवा ली। मूल फर्म तो शहर से कारोबार समेट कर चल दी और भतीजा उस मकान में पुरानी फर्म का साइन बोर्ड लगा कर नई फर्म का कारोबार करता रहा। महिला ने मकान खाली करने को कहा तो भतीजे ने खाली करने से मना कर दिया। महिला की उम्र 73 वर्ष की थी और बीमार रहती थी तो उस ने अपने बेटे को मुख्तार आम बनाया हुआ था वही मुकदमे को देखता था। मुकदमे में 2010 में निर्णय हुआ और मकान खाली करने का निर्णय हो गया। तब तक महिला की उम्र अस्सी के करीब हो गई। उच्च न्यायालय ने वरिष्ठ नागरिकों के मुकदमे वरीयता से निपटाने का स्थाई निर्देश दे रखा है लेकिन इस के बावजूद प्रक्रिया की तलवार का लाभ उठाने  में कोई भी वकील नहीं चूकता। पेशी पर कोई न कोई बिना किसी आधार के कोई न कोई आवेदन प्रस्तुत होता।  मैं तुरन्त उसी वक्त उस उत्तर देता। तब भी बहस के लिए अगली तिथि दे दी जाती। आदेश होने पर उच्च न्यायालय में उस की रिट कर दी जाती। इसी तरह तीन वर्ष गुजर गए। 

हिला का पुत्र नरेश इतना मेहनती कि वह हर पेशी के पहले मेरे दफ्तर आता मुकदमें की तैयारी करवाता और पेशी के दिन सुबह अदालत खुलते ही अदालत में उपस्थित रहता। आज उसी मुकदमे में पेशी थी और हम सोचते थे कि आज बहस सुन ली जाएगी। 

मुझे कल रात देर तक नींद नहीं आई। सुबह उठा तो निद्रालू था। मैं प्रातः भ्रमण निरस्त कर एक घंटा और सोया। फिर भी तैयार होते होते मुझे देरी हो गई।  मैं नौ बजे अदालत पहुँचा और जाते ही अपने सहायकों और क्लर्क से पूछा कि नरेशआया क्या? लेकिन उन्हों ने मना कर दिया। मुझे आश्चर्य था कि आज उस का फोन भी न आया, जब कि वह इतनी देर में तो चार बार मुझे फोन कर चुका होता। मैं ने तुरंत उसे फोन किया। फोन उस की बेटी ने उठाया। मैं ने पूछा नरेश कहाँ है। बेटी ने पूछा - आप कौन अंकल? मैं ने अपना नाम बताया तो वह तुरन्त पहचान गई और रुआँसी आवाज में बोली कि पापा जी को तो कल रात हार्ट अटैक हुआ और वे नहीं रहे। 

मैं जब अदालत के इजलास में पहुँचा तो आज विपक्षी और उन के वकील पहले से उपस्थित थे। जब कि आज से पहले कभी भी वे अदालत द्वारा तीन चार बार पुकारे जाने पर भी नहीं आते थे। मैं ने अदालत को कहा कि बहस सुन ली जाए। तब विपक्षी ने तुरन्त कहा कि आज बहस कैसे होगी नरेश का तो कल रात देहान्त हो गया है। मैं ने उन्हें कहा कि नरेश इस प्रकरण में पक्षकार नहीं है उस की मृत्यु से यह मुकदमा प्रभावित नहीं होता इस कारण से बहस सुन ली जाए। लेकिन न्यायाधीश ने कहा कि केवल कल कल ही न्यायालय और खुले हैं उस के बाद एक माह के लिए अवकाश हो जाएगा। मैं निर्णय नहीं लिखा सकूंगा। इस लिए जुलाई में ही रख लेते हैं।  मैने विपक्षी उन के वकीलों को उन के द्वारा मेरी पक्षकार के पुत्र की मृत्यु के आधार पर पेशी बदलने पर बहुत लताड़ा लेकिन वे अप्रभावित रहे। न्यायालय को भी कहा कि वह प्रथम दृष्टया बेबुनियाद आवेदनों की सुनवाई के लिए भी समय देता है जिस के नतीजे में मुकदमों का निस्तारण नहीं होता और न्यायार्थी इसी तरह न्यायालयों के चक्कर काटते काटते दुनिया छोड़ जाते हैं। लेकिन न तो इस का प्रतिपक्षी और उन के वकीलों पर इस का कोई असर था और न ही अदालत पर। मुकदमे में दो माह आगे की पेशी दे दी गई।   

ज से 34 बरस पहले जब मैं वकालत के पेशे में आया था तो सोचा था मेरा पेशा उन लोगों को न्याय दिलाने में मदद करने का है जो समाज के अन्याय से त्रस्त हैं। जब भी मैं किसी व्यक्ति को अपनी मदद से न्याय प्राप्त करने में सफल होते देखता तो प्रसन्न हो जाता था। लेकिन इन 34 बरसों में न्याय की यह दुनिया इतनी बदल चुकी है कि अदालतों पर काम का चार गुना बोझा है। कोई न्यायाधीश न्याय करना भी चाहे तो समय पर नहीं कर सकता। जब वह कर पाता है तब तक न्यायार्थी दुनिया छोड़ चुका होता है या फिर उस की कमर टूट चुकी होती है। अब तो एक नए न्यायार्थी के मेरे पास आते ही यह सोचना पड़ता है कि इसे क्या कहा जाए। मैं आकलन करता हूँ तो अधिकांश मामलों में पाता हूँ कि न्याय प्राप्त करने में इसे जितने कष्ट न्यायार्थी को उठाने पड़ेंगे उस से तो अच्छा यह है कि वह इन बांझ अदालतों से न्याय की आस ही न लगाए।                                                     

गुरुवार, 23 मई 2013

राजस्थान में श्रम कानूनों का प्रवर्तन पैरालाइज्ड

राजस्थान में श्रमिकों की स्थितियाँ बहुत बुरी हैं। राज्य का श्रम विभाग जो श्रम कानूनों के प्रवर्तन कराने का काम करता था वह पैरालाइज कर दिया गया है। विभाग में स्वीकृत पदों से आधे भी अधिकारी नहीं हैं। वर्षों तक स्टाफ के पद रिक्त रखे जाते हैं और फिर उन्हें समाप्त कर दिया जाता है। श्रम न्यायालय ठीक से काम नहीं कर रहे हैं। कोटा संभाग की स्थिति इस से भी बुरी है। वहाँ कर्मचारी क्षतिपूर्ति आयुक्त,वेतन भुगतान, ग्रेच्युटी, न्यूनतम वेतन आदि के मामले देखने वाली पाँच में से चार अदालतों में कोई पीठासीन अधिकारी नहीं है। कोटा के श्रम न्यायालय में पाँच हजार मुकदमे लंबित हैं और एक मामले में पेशी ही चार-छह माह की जाती है। कुछ मुकदमे तो ऐसे हैं जो तीस से भी अधिक वर्षों से लंबित हैं।
न्ही समस्याओं को ले कर अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र (एआईसीटीयू) की राजस्थान इकाई राजस्थान ट्रेड यूनियन केंद्र की कोटा डिवीजनल कमेटी ने आज मुख्यमंत्री को ज्ञापन दिया और इन समस्याओं को समाप्त करने की दिशा में तत्काल कदम नहीं उठाए जाने पर आंदोलन चलाने और उसे राज्यव्यापी बनाने की चेतावनी दी। ज्ञापन निम्न प्रकार है -

ज्ञापन
दिनांक – 23.05.2013

प्रतिष्ठा में,

श्री अशोक गहलोत

मुख्यमंत्री, राजस्थान सरकार

जयपुर

द्वारा – जिला कलेक्टर, कोटा

विषय- 
कोटा में स्थित श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण में स्वीकृत स्टाफ की नियुक्ति करने, दो अतिरिक्त श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण और स्थापित करने तथा इन अधिकरणों में सक्षम न्यायाधीशों की नियुक्ति करने तथा श्रम विभाग को सक्षम बनाए जाने के संबंध में ज्ञापन एवं मांग पत्र।

मान्यवर,

राजस्थान ट्रेड यूनियन केन्द्र निम्न आग्रह करता है-

1. यह कि कोटा एक पुराना औद्योगिक नगर है। उसी अनुपात में यहाँ औद्योगिक विवाद भी उत्पन्न होते हैं तथा उसी अनुपात में श्रम कानूनों के प्रवर्तन के लिए मशीनरी की नितान्त आवश्यकता है। इस के लिए वर्तमान में यहाँ एक संयुक्त श्रम आयुक्त, एक सहायक श्रम आयुक्त के कार्यालय हैं। इन के अंतर्गत चार जिले हैं। कोटा में वेतन भुगतान अधिनियम, न्यूनतम वेतन अधिनियम, ग्रेच्यूटी भुगतान अधिनियम, कर्मचारी क्षतिपूर्ति आयुक्त व अन्य उद्देश्यों के लिए दो न्यायालय स्थापित हैं तथा बाराँ, झालावाड़ व बूंदी में एक एक न्यायालय स्थापित हैं। किन्तु इन में से केवल कोटा में एक पीठासीन अधिकारी नियुक्त है कोटा की एक तथा तीनों जिलों के तीन कुल चार न्यायालयों में कोई पीठासीन अधिकारी नियुक्त नहीं है। इन चारों कार्यालयों में स्टाफ भी पर्याप्त नहीं है। जिस के कारण स्थिति यह है कि अक्सर ही बाराँ, झालावाड़ और बूंदी में स्थित श्रम विभाग के कार्यालयों में कार्य दिवस के दिन भी ताला लगा रह जाता है। कार्यालय खोलने वाला भी कोई नहीं होता है। इस के अलावा श्रम विभाग को उन के नियमिति कार्यों के अलावा दूसरे दूसरे कई काम दे दिए जाते हैं जिस से कानून के प्रवर्तन और न्यायालयों के कार्य अक्सर बाधित होते रहते हैं। मुकदमों में बरसों बरस तारीखे पड़ती रहती हैं। यहाँ तक कि बहस हो जाने के बाद भी महीनों तक पत्रावलियों में निर्णय नहीं होते।

2. यह कि इन चारों जिलों के लिए केवल एक श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण स्थापित है। जिस में लगभग पाँच हजार मुकदमे लंबित हैं। एक मुकदमें में चार से छह माह तक की पेशी होती है और वर्ष में कभी दो तो कभी तीन पेशी एक मुकदमे में होती है। नतीजा यह है कि मुकदमे 10 -10, 20-20 वर्ष तक लंबित रहते हैं। कुछ मुकदमे तो पिछले तीस वर्ष से अधिक समय से लंबित हैं। श्रमिकों की मृत्यु हो जाती है या वे रिटायर हो जाते हैं। इस से सरकार का मंतव्य यही प्रतीत होता है कि श्रमिकों की किसी समस्या को हल करने की जरूरत नहीं है। लंबे समय तक मुकदमा लंबित रहने से श्रमिक या तो रिटायर हो जाएगा या मर जाएगा तो अपने आप ही विवाद समाप्त हो जाएगा। इस से राजस्थान भर में नियोजकों के हौंसले बढ़े हैं और वे खुले आम मजदूरों का शोषण करते हैं और कानूनों का उल्लंघन करते हैं। श्रम विभाग में जो मशीनरी काम कर रही है उस पर नियोजकों का उचित और अनुचित रीति से इतना दबाव है कि वे श्रमिकों की कोई बात सुनते ही नहीं हैं। सुनते भी हैं तो इस तरह कार्यवाही करते हैं कि श्रमिकों को उन के अधिकार मिलें ही नहीं और नियोजक उन की मनमानी चलाते रहें।

3. यह कि इस का कारण है कि श्रम विभाग और श्रम न्यायालय में पर्याप्त स्टाफ नहीं है, पर्याप्त से आधे भी अधिकारी नहीं हैं। स्वीकृत पदों पर नियुक्तियाँ नहीं की जाती हैं और कुछ वर्ष बाद उन पदों को समाप्त कर दिया जाता है। श्रम न्यायालय को राजस्थान सरकार आज तक एक कंप्यूटर तक नहीं दे सकी जब कि यह काम दस वर्ष पूर्व ही हो जाना चाहिए था। लेकिन न तो पिछली सरकार ने और न ही इस सरकार ने यह काम किया। अब जो कंप्यूटर लगा भी है वह उच्चन्यायालय के कोष से लगा है। जब कि यह राज्य सरकार की जिम्मेदारी थी।

4. यह कि कोटा में जितने मुकदमों की संख्या है उस के लिए कोटा में कम से कम चार श्रम न्यायालय स्थापित होने चाहिए थे। अजमेर, उदयपुर, भीलवाड़ा में पाँच सौ मुकदमों से कम होने पर भी पूरे एक एक न्यायालय स्थापित हैं। उस हिसाब से तो कोटा में दस न्यायालय होने चाहिए थे। लेकिन कम से कम चार न्यायालयों की तुरंत आवश्यकता है। दो न्यायालय तो तुरंत नए खोले जाने की आवश्यकता है जिस से कोटा में स्थित विवादों को जल्दी से जल्दी निपटाया जा सके।

5. यह कि श्रम न्यायालयों के लिए राजस्थान उच्च न्यायालय अपने जिला न्यायाधीश श्रेणी के न्यायाधीश डेपुटेशन पर भेजता है। पंद्रह वर्ष पूर्व तक जो न्यायाधीश डेपुटेशन पर भेजे जाते थे वे अनुभवी और औद्योगिक मामलों को निपटाने में सक्षम होते थे तथा इतने वरिष्ठ होते थे कि दो चार वर्ष उपरान्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश नियुक्त हो जाते थे। लेकिन विगत पंद्रह वर्षों में श्रम समस्याओं की तरफ राज्य सरकार का उदासीनता का रुख देख कर तथा उन्हें डेपुटेशन पर मिलने वाली सुविधाएँ न देने के कारण उच्च न्यायालय ने अपने अच्छे न्यायाधीशों को नियुक्त करना बंद कर दिया है। वे यहाँ ऐसे न्यायाधीश नियुक्त करते हैं जो यहाँ औद्योगिक विवादों के निपटारे के लिए सक्षम ही नहीं होते।

6. यह कि कोटा के श्रम न्यायालय में वर्तमान पीठासीन अधिकारी विगत दो वर्ष से अधिक समय से नियुक्त हैं। लेकिन उन्हों ने हमारे राजस्थान ट्रेड यूनियन केंद्र के प्रतिनिधि के विरुद्ध आदेश पारित कर रखा है कि वे उन की बहस ही नहीं सुनेंगे। एक जज जो अपने ही न्यायालय में लंबित मुकदमों की बहस सुनने से खुले आम इन्कार करता है उसे उस न्यायालय में पदस्थापित रखना कहाँ तक न्यायोचित है? हमारे प्रतिनिधि के अतिरिक्त भी सभी ट्रेड यूनियनों के प्रतिनधि वर्तमान पीठासीन अधिकारी के समक्ष काम नहीं करना चाहते। राजस्थान सरकार को ऐसे अधिकारी को तुरंत उस का डेपुटेशन समाप्त कर उच्च न्यायालय वापस भेज देना चाहिए।

7. यह कि उक्त परिस्थितियों में कोटा के समस्त श्रमिक वर्ग में सरकार के प्रति असंतोष व्याप्त है। उस का यह असंतोष कभी भी बड़े आंदोलन का रूप ले सकता है। जिस से राज्य सरकार और प्रशासन को परेशानी झेलनी पड़ सकती है। वर्तमान में कोटा में सेमटेल के दो कारखाने बंद हुए हैं, उन के श्रमिक लगातार पिछले सात माह से आंदोलन पर हैं। लेकिन राज्य का श्रम विभाग उन को उन के अधिकार दिलाना तो दूर रहा उन्हें उन के काम किए हुए दिनों का वेतन भी नहीं दिला सका है। राजस्थान सरकार के श्रम विभाग के मुख्यालय तक ने हाथ खड़े कर दिए हैं कि वे कानूनों की पालना नहीं करवा सकते। श्रमिकों की इस से बुरी स्थिति राज्य में और क्या हो सकती है? और राज्य सरकार के लिए इस से अधिक शर्मनाक स्थिति और क्या हो सकती है?

इन तमाम परिस्थितियों में हमारा आप से आग्रह है कि आप इस स्थिति को स्वयं संभालें और राज्य के श्रम विभाग और श्रम न्यायालय के स्वरूप को सुधारने के लिए तुरन्त आवश्यक कदम उठाएँ। अन्यथा राज्य के श्रमिकों में अन्दर ही अन्दर आग सुलग रही है। राज्य भर में बड़ा श्रमिक आंदोलन खड़ा हो सकता है जो राजनैतिक परिस्थितियों को भी बुरी तरह प्रभावित करेगा और राज्य सरकार को पछताना पड़ेगा कि उस ने समय रहते आवश्यक कदम क्यों न हीं उठाए। हम अभी आप के समक्ष निम्न मांगे प्रस्तुत कर रहे हैं इन पर तुरन्त विचार किया जा कर एक दो सप्ताह में ही निर्णय लिए जाने की आवश्यकता है।

हमारी मांगें-

1- राज्य के श्रम विभाग को सक्षम बनाया जाए। सभी कार्यालयों में तथा न्यायालयों में पर्याप्त स्टाफ और पर्याप्त अधिकारियों की नियुक्ति की जाए।

2- श्रम विभाग से संबंधित न्यायालयों में लंबित मुकदमों का निर्णय निश्चित समयावधि में होना निश्चित किया जाए। कोटा में सहायक श्रम आयुक्त के रिक्त पद तथा बूंदी, बाराँ और झालावाड में श्रम कल्याण अधिकारी के रिक्त पदों को तुरंत भरा जाए।

3- कोटा में तुरन्त दो अतिरिक्त श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण स्थापित किए जाएँ।

4- कोटा के श्रम न्यायालय और औद्योगिक न्यायाधिकरण के वर्तमान पीठासीन अधिकारी का डेपुटेशन तुरंत निरस्त कर यहाँ सक्षम पीठासीन अधिकारी की नियुक्ति की जाए।

5- कोटा में स्थापित वर्तमान श्रम न्यायालय एवं औद्योगिक न्यायाधिकरण में रिक्त पदों पर तुरन्त नियुक्ति की जाए।

हमारा अनुरोध है कि उक्त मामलों मे तुरन्त राज्य सरकार क्या कदम उठा रही है उस से हमें अगले दो सप्ताह में सूचित किया जाए। दो सप्ताह में राज्य सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलने पर राजस्थान ट्रेड यूनियन केन्द्र आंदोलन आरंभ करेगा। अन्य ट्रेड यूनियनों के साथ सहयोग करते हुए इसे व्यापक आंदोलन का रूप देने का प्रयत्न करेगा और इसे राज्य व्यापी बनाने के पथ पर आगे बढ़ेगा।

आशा है आप इसे गंभीरता से लेंगे।

भवदीय

(आर.पी. तिवारी)

अध्यक्ष
राजस्थान ट्रेड यूनियन केंद्र
जिला कमेटी, कोटा (राजस्थान)

रविवार, 12 मई 2013

शादी में और क्या होना चाहिए?



मौजूदा जरूरत की बीस फीसदी अदालतों में मुकदमे बहुत लंबे चलते हैं।  इस बीच मुवक्किल लगातार संपर्क में रहते हैं तो उन से मुहब्बत के रिश्ते कायम होना स्वाभाविक है। वैसे भी जब तक मुझे कोई मुवक्किल पसंद नहीं होता तो उस का मुकदमा मैं नहीं करता। ऐसे ही एक मुवक्किल से कोई पच्चीस साल पहले परिचय हुआ था। फिर वे बड़े भाई से हो गए। जीवन में उन्हों ने बहुत कुछ पाया तो बहुत कुछ खोया भी, लेकिन जीवन पूरा जीवट से जिया। कोई पचास बरस पहले पसंद की लड़की से मंदिर में माला पहन पहना कर ब्याह किया। फौज की नौकरी की, छोड़ी फिर कारखाने में क्लर्क रहे। यूनियन के नेतृत्व भी किया और फिर जिस दिन मालिक ने देखा कि मौका है तो उन्हें नौकरी से निकाल भी दिया। वे मुकदमा लड़ते रहे। और मुकदमे तो फिर भी जल्दी निपट जाते हैं। लेकिन मजदूरों के मुकदमे शायद कभी नहीं निपटते। कम से कम आठ दस साल तो लेबर कोर्ट निपटा देती है। फिर मालिक हाईकोर्ट चला गया तो वहाँ तो मुकदमों का अंबार है। वैसे भी बड़ी अदालतों को नेताओं-अभिनेताओं के मुकदमों से फुरसत कहाँ जो मजदूरों के मुकदमे निपटाएँ। तो वे चलते रहते हैं। मजदूर आस लगाए बैठा रहता है शायद इस जिन्दगी में फैसला हो जाए। हो भी जाता है तो उसे लागू कराने में जीवन समाप्त हो जाता है। 
दो हफ्ते पहले उन का फोन आया। छोटे बेटे की शादी तय कर दी है। 12 मई को गोदावरी स्कूल में आना है। कोई कार्ड नहीं, कोई बुलावा नहीं। हम ने कहा पहुँच जाएंगे। आज दिन में उन्हें फोन कर के पूछा कार्यक्रम क्या है? तो कहने लगे बस आठ बजे आना है। माला पहनाएंगे और खाना खाएंगे और बस मौज करेंगे। 
हम सवा आठ बजे पहुँचे। स्कूल के बीच के मैदान में भोजन की संक्षिप्त व्यवस्था थी। एक और मंच बना था। दू्ल्हा दुलहिन की कुर्सी खाली थी। मंच के नजदीक संगीत जरूर बज रहा था। वे दरवाजे से घुसते ही मैदान में दिखाई दे गए। हम ने उन के एक दो चित्र ले लिए। इतने में किसी ने पूछा दूल्हा दुलहिन कहाँ हैं? 
- दोनों ब्यूटी पार्लर गए हैं। अभी आते होंगे। आप तो भोजन कीजिए।
किसी ने उन्हें लिफाफा देना चाहा। उन्हों ने सख्ती से इन्कार कर दिया।
म चुपचाप खाने की तरफ चल दिए। प्लेट उठाई, सलाद लिया और आगे बढ़ गए। एक पनीर मटर थी पर तरी बहुत थी, आगे बढ़े तो भरवाँ टिंडे, वे भी बहुत चिकने थे, हम और आगे बढ़ गए।  दही का रायता दिखा एक प्याली भर लिया। आगे रसगुल्ले थे, एक उठाया। फिर दाल की बर्फी, वह भी एक उठा ली। आगे गरम पूरियाँ थीं सादा और पालक वाली, एक एक वे भी उठायी। फिर थी दाल की कचौरियाँ जिन के बिना कोटा में शादी की दावत मुश्किल होती है। एक वह भी उठायी। फिर दाल थी, सादी, यानी बिना लहसुन प्याज की, पर मसालेदार थी, स्वाद की कमी को ढकने के लिए लहसुन की जरूरत न थी। आगे तंदूर था, पर तंदूर की कच्ची पक्की हमें पसंद नहीं थी। सोचा जरूरत हुई तो पूरी उठा लेंगे। 
हम भोजन करने लगे तो वे भी पास आ गए। पूछने लगे भोजन कैसा है। हमें तो स्वादिष्ट लगा था। हम ने कह दिया कि मजा आ गया। 
धर मंच पर हलचल हुई थी। दूल्हा पहुँच गया था। हम भी भोजन से निपट कर उधर मंच की ओर बढ़ चले। ढोल बजने लगा और दुलहिन भी एक दो लड़कियों के साथ मंच पर थी। फिर कुछ देर हलचल होती रही। फिर मालाएँ आ गईं। दुल्हिन दूल्हे के गले में डालने लगी तो दूल्हा पंजों पर ऊंचा हो गया। यही क्रिया दुबारा दोहराई गई। दुलहिन शरमा कर पीछे हट गई, ऐसे कि जैसे अब नहीं पहनाएगी। दूल्हा जरा सुस्त हुआ और उस ने लपक कर माला दूल्हे के गले में डाल दी। दुल्हा सकपका गया। इस बार पाँव के पंजे पिछड़ गए थे। 
दूल्हे ने आसानी से माला दुलहिन के गले में डाल दी। दुलहिन पीछे हटना चाहती थी पर हट न सकी। इस बीच कैमरे और मोबाइल रोशनियाँ चमकाते रहे। मैं ने भी एक चित्र लेने के लिए मोबाइल निकालने को जेब की तरफ हाथ बढ़ाया तो वे कहने लगे लिफाफा नहीं चलेगा।.
मैं ने भी कहा- आप को लिफाफा दे कौन रहा है और आप होते कौन हैं लेने वाले?
खैर, कुछ लोग नवयुगल को बधाई देने मंच पर चढ़ते और उतर आते। मैं ने भी उत्तमार्ध को इशारा किया और मंच पर चढ़ा दूल्हे को बधाई दी। इस बीच उत्तमार्ध ने लिफाफा दुलहिन को पकड़ा दिया। उस ने उस के पैर छू कर शुभकामनाएँ झटक लीं। 
म मंच से नीचे उतरे तो उन से पूछ लिया। अब आगे क्या कार्यक्रम है? वे बताने लगे...
दुलहिन का पिता पंडित है और अध्यापक भी। अभी हवन करा कर सप्तपदी करा देंगे। हमारी तरफ से तो दोनों ने माला पहन ली शादी हो गयी। रात को एक दो बजे तक घर पहुँच जाएंगे।
दुलहिन मोहल्ले की है? मैं ने पूछा।
-नहीं बहुत दूर उत्तर प्रदेश के हरदोई की है। औदिच्य ब्राह्मण हैं। एक शादी में लड़की वालों के साथ हरदोई से आए थे। यहाँ व्यवस्था में बेटा भी था। दुर्घटना ये हुई कि फेरे होने के पहले दुलहिन के पिता का देहान्त हो गया। किसी को नहीं बताया। बेटा काम में जुटा था तो उसे बताया। उस ने चुपचाप एंबुलेंस की व्यवस्था कर दुलहिन के पिता के शव को रवाना किया। फिर शादी हुई। बेटे का स्वभाव देख कर कुछ दिन बाद लड़की के पिता आए और शादी पक्की कर गए। मैं ने उन्हें तभी कह दिया था कि हमें कुछ नहीं चाहिए। लड़की को ले आओ एक दिन मित्रों रिश्तेदारों को बुला कर भोजन कराएंगे, लड़के लड़की एक दूसरे को माला पहनाएंगे और शादी हो जाएगी। वे कहने लगे फेरे तो कराने होंगे। मैं ने कह दिया- वह तुम्हारी मर्जी है। 
शादी में कोई ढाई तीन सौ लोग उपस्थित थे। कोई बैंड नहीं, कोई घोड़ी नहीं, कोई जलूस नहीं। पर शादी बहुत शान्त और मधुर थी।  शादी में और क्या होना चाहिए? एक नया घर बस गया।