@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

बुधवार, 8 मार्च 2023

बेटों वाली विधवा


"कहानी" 
- प्रेमचंद

पंडित अयोध्यानाथ का देहान्त हुआ तो सबने कहा, ईश्वर आदमी की ऐसी ही मौत दे। चार जवान बेटे थे, एक लड़की। चारों लड़कों के विवाह हो चुके थे, केवल लड़की क्वॉँरी थी। सम्पत्ति भी काफी छोड़ी थी। एक पक्का मकान, दो बगीचे, कई हजार के गहने और बीस हजार नकद। विधवा फूलमती को शोक तो हुआ और कई दिन तक बेहाल पड़ी रही, लेकिन जवान बेटों को सामने देखकर उसे ढाढ़स हुआ। चारों लड़के एक-से-एक सुशील, चारों बहुऍं एक-से-एक बढ़कर आज्ञाकारिणी। जब वह रात को लेटती, तो चारों बारी-बारी से उसके पॉँव दबातीं; वह स्नान करके उठती, तो उसकी साड़ी छॉँटती। सारा घर उसके इशारे पर चलता था। बड़ा लड़का कामता एक दफ्तर में 50 रू. पर नौकर था, छोटा उमानाथ डाक्टरी पास कर चुका था और कहीं औषधालय खोलने की फिक्र में था, तीसरा दयानाथ बी. ए. में फेल हो गया था और पत्रिकाओं में लेख लिखकर कुछ-न-कुछ कमा लेता था, चौथा सीतानाथ चारों में सबसे कुशाग्र बुद्धि और होनहार था और अबकी साल बी. ए. प्रथम श्रेणी में पास करके एम. ए. की तैयारी में लगा हुआ था। किसी लड़के में वह दुर्व्यसन, वह छैलापन, वह लुटाऊपन न था, जो माता-पिता को जलाता और कुल-मर्यादा को डुबाता है। फूलमती घर की मालकिन थी। गोकि कुंजियॉँ बड़ी बहू के पास रहती थीं बुढ़िया में वह अधिकार-प्रेम न था, जो वृद्धजनों को कटु और कलहशील बना दिया करता है; किन्तु उसकी इच्छा के बिना कोई बालक मिठाई तक न मँगा सकता था।

संध्या हो गई थी। पंडित को मरे आज बारहवाँ दिन था। कल तेरहीं हैं। ब्रह्मभोज होगा। बिरादरी के लोग निमंत्रित होंगे। उसी की तैयारियॉँ हो रही थीं। फूलमती अपनी कोठरी में बैठी देख रही थी, पल्लेदार बोरे में आटा लाकर रख रहे हैं। घी के टिन आ रहें हैं। शाक-भाजी के टोकरे, शक्कर की बोरियॉँ, दही के मटके चले आ रहें हैं। महापात्र के लिए दान की चीजें लाई गईं-बर्तन, कपड़े, पलंग, बिछावन, छाते, जूते, छड़ियॉँ, लालटेनें आदि; किन्तु फूलमती को कोई चीज नहीं दिखाई गई। नियमानुसार ये सब सामान उसके पास आने चाहिए थे। वह प्रत्येक वस्तु को देखती उसे पसंद करती, उसकी मात्रा में कमी-बेशी का फैसला करती; तब इन चीजों को भंडारे में रखा जाता। क्यों उसे दिखाने और उसकी राय लेने की जरूरत नहीं समझी गई? अच्छा वह आटा तीन ही बोरा क्यों आया? उसने तो पॉँच बोरों के लिए कहा था। घी भी पॉँच ही कनस्तर है। उसने तो दस कनस्तर मंगवाए थे। इसी तरह शाक-भाजी, शक्कर, दही आदि में भी कमी की गई होगी। किसने उसके हुक्म में हस्तक्षेप किया? जब उसने एक बात तय कर दी, तब किसे उसको घटाने-बढ़ाने का अधिकार है?

     आज चालीस वर्षों से घर के प्रत्येक मामले में फूलमती की बात सर्वमान्य थी। उसने सौ कहा तो सौ खर्च किए गए, एक कहा तो एक। किसी ने मीन-मेख न की। यहॉँ तक कि पं. अयोध्यानाथ भी उसकी इच्छा के विरूद्ध कुछ न करते थे; पर आज उसकी ऑंखों के सामने प्रत्यक्ष रूप से उसके हुक्म की उपेक्षा की जा रही है! इसे वह क्योंकर स्वीकार कर सकती?

     कुछ देर तक तो वह जब्त किए बैठी रही; पर अंत में न रहा गया। स्वायत्त शासन उसका स्वभाव हो गया था। वह क्रोध में भरी हुई आयी और कामतानाथ से बोली-क्या आटा तीन ही बोरे लाये? मैंने तो पॉँच बोरों के लिए कहा था। और घी भी पॉँच ही टिन मँगवाया! तुम्हें याद है, मैंने दस कनस्तर कहा था? किफायत को मैं बुरा नहीं समझती; लेकिन जिसने यह कुऑं खोदा, उसी की आत्मा पानी को तरसे, यह कितनी लज्जा की बात है!

     कामतानाथ ने क्षमा-याचना न की, अपनी भूल भी स्वीकार न की, लज्जित भी नहीं हुआ। एक मिनट तो विद्रोही भाव से खड़ा रहा, फिर बोला-हम लोगों की सलाह तीन ही बोरों की हुई और तीन बोरे के लिए पॉँच टिन घी काफी था। इसी हिसाब से और चीजें भी कम कर दी गई हैं।

     फूलमती उग्र होकर बोली-किसकी राय से आटा कम किया गया?

     हम लोगों की राय से।

     तो मेरी राय कोई चीज नहीं है?’

     है क्यों नहीं; लेकिन अपना हानि-लाभ तो हम समझते हैं?’

     फूलमती हक्की-बक्की होकर उसका मुँह ताकने लगी। इस वाक्य का आशय उसकी समझ में न आया। अपना हानि-लाभ! अपने घर में हानि-लाभ की जिम्मेदार वह आप है। दूसरों को, चाहे वे उसके पेट के जन्मे पुत्र ही क्यों न हों, उसके कामों में हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार? यह लौंडा तो इस ढिठाई से जवाब दे रहा है, मानो घर उसी का है, उसी ने मर-मरकर गृहस्थी जोड़ी है, मैं तो गैर हूँ! जरा इसकी हेकड़ी तो देखो।

उसने तमतमाए हुए मुख से कहा मेरे हानि-लाभ के जिम्मेदार तुम नहीं हो। मुझे अख्तियार है, जो उचित समझूँ, वह करूँ। अभी जाकर दो बोरे आटा और पॉँच टिन घी और लाओ और आगे के लिए खबरदार, जो किसी ने मेरी बात काटी।

     अपने विचार में उसने काफी तम्बीह कर दी थी। शायद इतनी कठोरता अनावश्यक थी। उसे अपनी उग्रता पर खेद हुआ। लड़के ही तो हैं, समझे होंगे कुछ किफायत करनी चाहिए। मुझसे इसलिए न पूछा होगा कि अम्मा तो खुद हरेक काम में किफायत करती हैं। अगर इन्हें मालूम होता कि इस काम में मैं किफायत पसंद न करूँगी, तो कभी इन्हें मेरी उपेक्षा करने का साहस न होता। यद्यपि कामतानाथ अब भी उसी जगह खड़ा था और उसकी भावभंगी से ऐसा ज्ञात होता था कि इस आज्ञा का पालन करने के लिए वह बहुत उत्सुक नहीं, पर फूलमती निश्चिंत होकर अपनी कोठरी में चली गयी। इतनी तम्बीह पर भी किसी को अवज्ञा करने की सामर्थ्य हो सकती है, इसकी संभावना का ध्यान भी उसे न आया।

     पर ज्यों-ज्यों समय बीतने लगा, उस पर यह हकीकत खुलने लगी कि इस घर में अब उसकी वह हैसियत नहीं रही, जो दस-बारह दिन पहले थी। सम्बंधियों के यहॉँ के नेवते में शक्कर, मिठाई, दही, अचार आदि आ रहे थे। बड़ी बहू इन वस्तुओं को स्वामिनी-भाव से सँभाल-सँभालकर रख रही थी। कोई भी उससे पूछने नहीं आता। बिरादरी के लोग जो कुछ पूछते हैं, कामतानाथ से या बड़ी बहू से। कामतानाथ कहॉँ का बड़ा इंतजामकार है, रात-दिन भंग पिये पड़ा रहता हैं किसी तरह रो-धोकर दफ्तर चला जाता है। उसमें भी महीने में पंद्रह नागों से कम नहीं होते। वह तो कहो, साहब पंडितजी का लिहाज करता है, नहीं अब तक कभी का निकाल देता। और बड़ी बहू जैसी फूहड़ औरत भला इन सब बातों को क्या समझेगी! अपने कपड़े-लत्ते तक तो जतन से रख नहीं सकती, चली है गृहस्थी चलाने! भद होगी और क्या। सब मिलकर कुल की नाक कटवाऍंगे। वक्त पर कोई-न-कोई चीज कम हो जायेगी। इन कामों के लिए बड़ा अनुभव चाहिए। कोई चीज तो इतनी बन जाएगी कि मारी-मारी फिरेगा। कोई चीज इतनी कम बनेगी कि किसी पत्तल पर पहूँचेगी, किसी पर नहीं। आखिर इन सबों को हो क्या गया है! अच्छा, बहू तिजोरी क्यों खोल रही है? वह मेरी आज्ञा के बिना तिजोरी खोलनेवाली कौन होती है? कुंजी उसके पास है अवश्य; लेकिन जब तक मैं रूपये न निकलवाऊँ, तिजोरी नहीं खुलती। आज तो इस तरह खोल रही है, मानो मैं कुछ हूँ ही नहीं। यह मुझसे न बर्दाश्त होगा!

     वह झमककर उठी और बहू के पास जाकर कठोर स्वर में बोली-तिजोरी क्यों खोलती हो बहू, मैंने तो खोलने को नहीं कहा?

     बड़ी बहू ने निस्संकोच भाव से उत्तर दिया-बाजार से सामान आया है, तो दाम न दिया जाएगा।

     कौन चीज किस भाव में आई है और कितनी आई है, यह मुझे कुछ नहीं मालूम! जब तक हिसाब-किताब न हो जाए, रूपये कैसे दिये जाऍं?’

     हिसाब-किताब सब हो गया है।

     किसने किया?’

     अब मैं क्या जानूँ किसने किया? जाकर मरदों से पूछो! मुझे हुक्म मिला, रूपये लाकर दे दो, रूपये लिये जाती हूँ!

     फूलमती खून का घूँट पीकर रह गई। इस वक्त बिगड़ने का अवसर न था। घर में मेहमान स्त्री-पुरूष भरे हुए थे। अगर इस वक्त उसने लड़कों को डॉँटा, तो लोग यही कहेंगे कि इनके घर में पंडितजी के मरते ही फूट पड़ गई। दिल पर पत्थर रखकर फिर अपनी कोठरी में चली गयी। जब मेहमान विदा हो जायेंगे, तब वह एक-एक की खबर लेगी। तब देखेगी, कौन उसके सामने आता है और क्या कहता है। इनकी सारी चौकड़ी भुला देगी।

     किन्तु कोठरी के एकांत में भी वह निश्चिन्त न बैठी थी। सारी परिस्थिति को गिद्घ दृष्टि से देख रही थी, कहॉँ सत्कार का कौन-सा नियम भंग होता है, कहॉँ मर्यादाओं की उपेक्षा की जाती है। भोज आरम्भ हो गया। सारी बिरादरी एक साथ पंगत में बैठा दी गई। ऑंगन में मुश्किल से दो सौ आदमी बैठ सकते हैं। ये पॉँच सौ आदमी इतनी-सी जगह में कैसे बैठ जायेंगे? क्या आदमी के ऊपर आदमी बिठाए जायेंगे? दो पंगतों में लोग बिठाए जाते तो क्या बुराई हो जाती? यही तो होता है कि बारह बजे की जगह भोज दो बजे समाप्त होता; मगर यहॉँ तो सबको सोने की जल्दी पड़ी हुई है। किसी तरह यह बला सिर से टले और चैन से सोएं! लोग कितने सटकर बैठे हुए हैं कि किसी को हिलने की भी जगह नहीं। पत्तल एक-पर-एक रखे हुए हैं। पूरियां ठंडी हो गईं। लोग गरम-गरम मॉँग रहें हैं। मैदे की पूरियाँ ठंडी होकर चिमड़ी हो जाती हैं। इन्हें कौन खाएगा? रसोइए को कढ़ाव पर से न जाने क्यों उठा दिया गया? यही सब बातें नाक काटने की हैं।

     सहसा शोर मचा, तरकारियों में नमक नहीं। बड़ी बहू जल्दी-जल्दी नमक पीसने लगी। फूलमती क्रोध के मारे ओ चबा रही थी, पर इस अवसर पर मुँह न खोल सकती थी। बोरे-भर नमक पिसा और पत्तलों पर डाला गया। इतने में फिर शोर मचा-पानी गरम है, ठंडा पानी लाओ! ठंडे पानी का कोई प्रबन्ध न था, बर्फ भी न मँगाई गई। आदमी बाजार दौड़ाया गया, मगर बाजार में इतनी रात गए बर्फ कहॉँ? आदमी खाली हाथ लौट आया। मेहमानों को वही नल का गरम पानी पीना पड़ा। फूलमती का बस चलता, तो लड़कों का मुँह नोच लेती। ऐसी छीछालेदर उसके घर में कभी न हुई थी। उस पर सब मालिक बनने के लिए मरते हैं। बर्फ जैसी जरूरी चीज मँगवाने की भी किसी को सुधि न थी! सुधि कहॉँ से रहे-जब किसी को गप लड़ाने से फुर्सत न मिले। मेहमान अपने दिल में क्या कहेंगे कि चले हैं बिरादरी को भोज देने और घर में बर्फ तक नहीं!

     अच्छा, फिर यह हलचल क्यों मच गई? अरे, लोग पंगत से उठे जा रहे हैं। क्या मामला है?

     फूलमती उदासीन न रह सकी। कोठरी से निकलकर बरामदे में आयी और कामतानाथ से पूछा-क्या बात हो गई लल्ला? लोग उठे क्यों जा रहे हैं? कामता ने कोई जवाब न दिया। वहॉँ से खिसक गया। फूलमती झुँझलाकर रह गई। सहसा कहारिन मिल गई। फूलमती ने उससे भी यह प्रश्न किया। मालूम हुआ, किसी के शोरबे में मरी हुई चुहिया निकल आई। फूलमती चित्रलिखित-सी वहीं खड़ी रह गई। भीतर ऐसा उबाल उठा कि दीवार से सिर टकरा ले! अभागे भोज का प्रबन्ध करने चले थे। इस फूहड़पन की कोई हद है, कितने आदमियों का धर्म सत्यानाश हो गया! फिर पंगत क्यों न उठ जाए? ऑंखों से देखकर अपना धर्म कौन गॅवाएगा? हा! सारा किया-धरा मिट्टी में मिल गया। सैकड़ों रूपये पर पानी फिर गया! बदनामी हुई वह अलग।

     मेहमान उठ चुके थे। पत्तलों पर खाना ज्यों-का-त्यों पड़ा हुआ था। चारों लड़के ऑंगन में लज्जित खड़े थे। एक दूसरे को इलजाम दे रहा था। बड़ी बहू अपनी देवरानियों पर बिगड़ रही थी। देवरानियॉँ सारा दोष कुमुद के सिर डालती थी। कुमुद खड़ी रो रही थी। उसी वक्त फूलमती झल्लाई हुई आकर बोली-मुँह में कालिख लगी कि नहीं या अभी कुछ कसर बाकी हैं? डूब मरो, सब-के-सब जाकर चिल्लू-भर पानी में! शहर में कहीं मुँह दिखाने लायक भी नहीं रहे।

     किसी लड़के ने जवाब न दिया।

     फूलमती और भी प्रचंड होकर बोली-तुम लोगों को क्या? किसी को शर्म-हया तो है नहीं। आत्मा तो उनकी रो रही है, जिन्होंने अपनी जिन्दगी घर की मरजाद बनाने में खराब कर दी। उनकी पवित्र आत्मा को तुमने यों कलंकित किया? शहर में थुड़ी-थुड़ी हो रही है। अब कोई तुम्हारे द्वार पर पेशाब करने तो आएगा नहीं!

     कामतानाथ कुछ देर तक तो चुपचाप खड़ा सुनता रहा। आखिर झुंझला कर बोला-अच्छा, अब चुप रहो अम्मॉँ। भूल हुई, हम सब मानते हैं, बड़ी भंयकर भूल हुई, लेकिन अब क्या उसके लिए घर के प्राणियों को हलाल-कर डालोगी? सभी से भूलें होती हैं। आदमी पछताकर रह जाता है। किसी की जान तो नहीं मारी जाती?

     बड़ी बहू ने अपनी सफाई दी-हम क्या जानते थे कि बीबी (कुमुद) से इतना-सा काम भी न होगा। इन्हें चाहिए था कि देखकर तरकारी कढ़ाव में डालतीं। टोकरी उठाकर कढ़ाव मे डाल दी! हमारा क्या दोष!

     कामतानाथ ने पत्नी को डॉँटा-इसमें न कुमुद का कसूर है, न तुम्हारा, न मेरा। संयोग की बात है। बदनामी भाग में लिखी थी, वह हुई। इतने बड़े भोज में एक-एक मुट्ठी तरकारी कढ़ाव में नहीं डाली जाती! टोकरे-के-टोकरे उड़ेल दिए जाते हैं। कभी-कभी ऐसी दुर्घटना होती है। पर इसमें कैसी जग-हँसाई और कैसी नक-कटाई। तुम खामखाह जले पर नमक छिड़कती हो!

     फूलमती ने दांत पीसकर कहा-शरमाते तो नहीं, उलटे और बेहयाई की बातें करते हो।

     कामतानाथ ने नि:संकोच होकर कहा-शरमाऊँ क्यों, किसी की चोरी की हैं? चीनी में चींटे और आटे में घुन, यह नहीं देखे जाते। पहले हमारी निगाह न पड़ी, बस, यहीं बात बिगड़ गई। नहीं, चुपके से चुहिया निकालकर फेंक देते। किसी को खबर भी न होती।

     फूलमती ने चकित होकर कहा-क्या कहता है, मरी चुहिया खिलाकर सबका धर्म बिगाड़ देता?

     कामता हँसकर बोला-क्या पुराने जमाने की बातें करती हो अम्मॉँ। इन बातों से धर्म नहीं जाता? यह धर्मात्मा लोग जो पत्तल पर से उठ गए हैं, इनमें से कौन है, जो भेड़-बकरी का मांस न खाता हो? तालाब के कछुए और घोंघे तक तो किसी से बचते नहीं। जरा-सी चुहिया में क्या रखा था!

     फूलमती को ऐसा प्रतीत हुआ कि अब प्रलय आने में बहुत देर नहीं है। जब पढे-लिखे आदमियों के मन मे ऐसे अधार्मिक भाव आने लगे, तो फिर धर्म की भगवान ही रक्षा करें। अपना-सा मुंह लेकर चली गयी।

 

2

 

दो

 महीने गुजर गए हैं। रात का समय है। चारों भाई दिन के काम से छुट्टी पाकर कमरे में बैठे गप-शप कर रहे हैं। बड़ी बहू भी षड्यंत्र में शरीक है। कुमुद के विवाह का प्रश्न छिड़ा हुआ है।

     कामतानाथ ने मसनद पर टेक लगाते हुए कहा-दादा की बात दादा के साथ गई। पंडित विद्वान् भी हैं और कुलीन भी होंगे। लेकिन जो आदमी अपनी विद्या और कुलीनता को रूपयों पर बेचे, वह नीच है। ऐसे नीच आदमी के लड़के से हम कुमुद का विवाह सेंत में भी न करेंगे, पॉँच हजार तो दूर की बात है। उसे बताओ धता और किसी दूसरे वर की तलाश करो। हमारे पास कुल बीस हजार ही तो हैं। एक-एक के हिस्से में पॉँच-पॉँच हजार आते हैं। पॉँच हजार दहेज में दे दें, और पॉँच हजार नेग-न्योछावर, बाजे-गाजे में उड़ा दें, तो फिर हमारी बधिया ही बैठ जाएगी।

     उमानाथ बोले-मुझे अपना औषधालय खोलने के लिए कम-से-कम पाँच हजार की जरूरत है। मैं अपने हिस्से में से एक पाई भी नहीं दे सकता। फिर खुलते ही आमदनी तो होगी नहीं। कम-से-कम साल-भर घर से खाना पड़ेगा।

     दयानाथ एक समाचार-पत्र देख रहे थे। ऑंखों से ऐनक उतारते हुए बोले-मेरा विचार भी एक पत्र निकालने का है। प्रेस और पत्र में कम-से-कम दस हजार का कैपिटल चाहिए। पॉँच हजार मेरे रहेंगे तो कोई-न-कोई साझेदार भी मिल जाएगा। पत्रों में लेख लिखकर मेरा निर्वाह नहीं हो सकता।

     कामतानाथ ने सिर हिलाते हुए कहाअजी, राम भजो, सेंत में कोई लेख छपता नहीं, रूपये कौन देता है।

     दयानाथ ने प्रतिवाद कियानहीं, यह बात तो नहीं है। मैं तो कहीं भी बिना पेशगी पुरस्कार लिये नहीं लिखता।

     कामता ने जैसे अपने शब्द वापस लियेतुम्हारी बात मैं नहीं कहता भाई। तुम तो थोड़ा-बहुत मार लेते हो, लेकिन सबको तो नहीं मिलता।

     बड़ी बहू ने श्रद्घा भाव ने कहाकन्या भग्यवान् हो तो दरिद्र घर में भी सुखी रह सकती है। अभागी हो, तो राजा के घर में भी रोएगी। यह सब नसीबों का खेल है।

     कामतानाथ ने स्त्री की ओर प्रशंसा-भाव से देखा-फिर इसी साल हमें सीता का विवाह भी तो करना है।

     सीतानाथ सबसे छोटा था। सिर झुकाए भाइयों की स्वार्थ-भरी बातें सुन-सुनकर कुछ कहने के लिए उतावला हो रहा था। अपना नाम सुनते ही बोलामेरे विवाह की आप लोग चिन्ता न करें। मैं जब तक किसी धंधे में न लग जाऊँगा, विवाह का नाम भी न लूँगा; और सच पूछिए तो मैं विवाह करना ही नहीं चाहता। देश को इस समय बालकों की जरूरत नहीं, काम करने वालों की जरूरत है। मेरे हिस्से के रूपये आप कुमुद के विवाह में खर्च कर दें। सारी बातें तय हो जाने के बाद यह उचित नहीं है कि पंडित मुरारीलाल से सम्बंध तोड़ लिया जाए।

     उमा ने तीव्र स्वर में कहादस हजार कहॉँ से आऍंगे?

सीता ने डरते हुए कहामैं तो अपने हिस्से के रूपये देने को कहता हूँ।

और शेष?’

मुरारीलाल से कहा जाए कि दहेज में कुछ कमी कर दें। वे इतने स्वार्थान्ध नहीं हैं कि इस अवसर पर कुछ बल खाने को तैयार न हो जाऍं, अगर वह तीन हजार में संतुष्ट हो जाएं तो पॉँच हजार में विवाह हो सकता है।

     उमा ने कामतानाथ से कहासुनते हैं भाई साहब, इसकी बातें।

     दयानाथ बोल उठे-तो इसमें आप लोगों का क्या नुकसान है? मुझे तो इस बात से खुशी हो रही है कि भला, हममे कोई तो त्याग करने योग्य है। इन्हें तत्काल रूपये की जरूरत नहीं है। सरकार से वजीफा पाते ही हैं। पास होने पर कहीं-न-कहीं जगह मिल जाएगी। हम लोगों की हालत तो ऐसी नहीं है।

     कामतानाथ ने दूरदर्शिता का परिचय दियानुकसान की एक ही कही। हममें से एक को कष्ट हो तो क्या और लोग बैठे देखेंगे? यह अभी लड़के हैं, इन्हें क्या मालूम, समय पर एक रूपया एक लाख का काम करता है। कौन जानता है, कल इन्हें विलायत जाकर पढ़ने के लिए सरकारी वजीफा मिल जाए या सिविल सर्विस में आ जाऍं। उस वक्त सफर की तैयारियों में चार-पॉँच हजार लग जाएँगे। तब किसके सामने हाथ फैलाते फिरेंगे? मैं यह नहीं चाहता कि दहेज के पीछे इनकी जिन्दगी नष्ट हो जाए।

     इस तर्क ने सीतानाथ को भी तोड़ लिया। सकुचाता हुआ बोलाहॉँ, यदि ऐसा हुआ तो बेशक मुझे रूपये की जरूरत होगी।

क्या ऐसा होना असंभव है?’

असभंव तो मैं नहीं समझता; लेकिन कठिन अवश्य है। वजीफे उन्हें मिलते हैं,  जिनके पास सिफारिशें होती हैं, मुझे कौन पूछता है।

     कभी-कभी सिफारिशें धरी रह जाती हैं और बिना सिफारिश वाले बाजी मार ले जाते हैं।

     तो आप जैसा उचित समझें। मुझे यहॉँ तक मंजूर है कि चाहे मैं विलायत न जाऊँ; पर कुमुद अच्छे घर जाए।

     कामतानाथ ने निष्ठाभाव से कहाअच्छा घर दहेज देने ही से नहीं मिलता भैया! जैसा तुम्हारी भाभी ने कहा, यह नसीबों का खेल है। मैं तो चाहता हूँ कि मुरारीलाल को जवाब दे दिया जाए और कोई ऐसा घर खोजा जाए, जो थोड़े में राजी हो जाए। इस विवाह में मैं एक हजार से ज्यादा नहीं खर्च कर सकता। पंडित दीनदयाल कैसे हैं?

     उमा ने प्रसन्न होकर कहाबहुत अच्छे। एम.ए., बी.ए. न सही, यजमानों से अच्छी आमदनी है।

     दयानाथ ने आपत्ति कीअम्मॉँ से भी पूछ तो लेना चाहिए।

कामतानाथ को इसकी कोई जरूरत न मालूम हुई। बोले-उनकी तो जैसे बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई। वही पुराने युग की बातें! मुरारीलाल के नाम पर उधार खाए बैठी हैं। यह नहीं समझतीं कि वह जमाना नहीं रहा। उनको तो बस, कुमुद मुरारी पंडित के घर जाए, चाहे हम लोग तबाह हो जाऍं।

     उमा ने एक शंका उपस्थित कीअम्मॉँ अपने सब गहने कुमुद को दे देंगी, देख लीजिएगा।

     कामतानाथ का स्वार्थ नीति से विद्रोह न कर सका। बोले-गहनों पर उनका पूरा अधिकार है। यह उनका स्त्रीधन है। जिसे चाहें, दे सकती हैं।

उमा ने कहास्त्रीधन है तो क्या वह उसे लुटा देंगी। आखिर वह भी तो दादा ही की कमाई है।

किसी की कमाई हो। स्त्रीधन पर उनका पूरा अधिकार है!

यह कानूनी गोरखधंधे हैं। बीस हजार में तो चार हिस्सेदार हों और दस हजार के गहने अम्मॉँ के पास रह जाऍं। देख लेना, इन्हीं के बल पर वह कुमुद का विवाह मुरारी पंडित के घर करेंगी।

उमानाथ इतनी बड़ी रकम को इतनी आसानी से नहीं छोड़ सकता। वह कपट-नीति में कुशल है। कोई कौशल रचकर माता से सारे गहने ले लेगा। उस वक्त तक कुमुद के विवाह की चर्चा करके फूलमती को भड़काना उचित नहीं। कामतानाथ ने सिर हिलाकर कहाभाई, मैं इन चालों को पसंद नहीं करता।

उमानाथ ने खिसियाकर कहागहने दस हजार से कम के न होंगे।

कामता अविचलित स्वर में बोलेकितने ही के हों; मैं अनीति में हाथ नहीं डालना चाहता।

तो आप अलग बैठिए। हां, बीच में भांजी न मारिएगा।

मैं अलग रहूंगा।

और तुम सीता?’

अलग रहूंगा।

लेकिन जब दयानाथ से यही प्रश्न किया गया, तो वह उमानाथ से सहयोग करने को तैयार हो गया। दस हजार में ढ़ाई हजार तो उसके होंगे ही। इतनी बड़ी रकम के लिए यदि कुछ कौशल भी करना पड़े तो क्षम्य है।

 

3

 

फू

लमती रात को भोजन करके लेटी थी कि उमा और दया उसके पास जा कर बैठ गए। दोनों ऐसा मुँह बनाए हुए थे, मानो कोई भरी विपत्ति आ पड़ी है। फूलमती ने सशंक होकर पूछातुम दोनों घबड़ाए हुए मालूम होते हो?

     उमा ने सिर खुजलाते हुए कहासमाचार-पत्रों में लेख लिखना बड़े जोखिम का काम है अम्मा! कितना ही बचकर लिखो, लेकिन कहीं-न-कहीं पकड़ हो ही जाती है। दयानाथ ने एक लेख लिखा था। उस पर पॉँच हजार की जमानत मॉँगी गई है। अगर कल तक जमा न कर दी गई, तो गिरफ्तार हो जाऍंगे और दस साल की सजा ठुक जाएगी।

     फूलमती ने सिर पीटकर कहाऐसी बातें क्यों लिखते हो बेटा? जानते नहीं हो, आजकल हमारे अदिन आए हुए हैं। जमानत किसी तरह टल नहीं सकती?

     दयानाथ ने अपराधीभाव से उत्तर दियामैंने तो अम्मा, ऐसी कोई बात नहीं लिखी थी; लेकिन किस्मत को क्या करूँ। हाकिम जिला इतना कड़ा है कि जरा भी रियायत नहीं करता। मैंने जितनी दौंड़-धूप हो सकती थी, वह सब कर ली।

     तो तुमने कामता से रूपये का प्रबन्ध करने को नहीं कहा?’

     उमा ने मुँह बनायाउनका स्वभाव तो तुम जानती हो अम्मा, उन्हें रूपये प्राणों से प्यारे हैं। इन्हें चाहे कालापानी ही हो जाए, वह एक पाई न देंगे।

     दयानाथ ने समर्थन कियामैंने तो उनसे इसका जिक्र ही नहीं किया।

     फूलमती ने चारपाई से उठते हुए कहाचलो, मैं कहती हूँ, देगा कैसे नहीं? रूपये इसी दिन के लिए होते हैं कि गाड़कर रखने के लिए?

     उमानाथ ने माता को रोककर कहा-नहीं अम्मा, उनसे कुछ न कहो। रूपये तो न देंगे, उल्टे और हाय-हाय मचाऍंगे। उनको अपनी नौकरी की खैरियत मनानी है, इन्हें घर में रहने भी न देंगे। अफ़सरों में जाकर खबर दे दें तो आश्चर्य नहीं।

     फूलमती ने लाचार होकर कहातो फिर जमानत का क्या प्रबन्ध करोगे? मेरे पास तो कुछ नहीं है। हॉँ, मेरे गहने हैं, इन्हें ले जाओ, कहीं गिरों रखकर जमानत दे दो। और आज से कान पकड़ो कि किसी पत्र में एक शब्द भी न लिखोगे।

     दयानाथ कानों पर हाथ रखकर बोलायह तो नहीं हो सकता अम्मा, कि तुम्हारे जेवर लेकर मैं अपनी जान बचाऊँ। दस-पॉँच साल की कैद ही तो होगी, झेल लूँगा। यहीं बैठा-बैठा क्या कर रहा हूँ!

     फूलमती छाती पीटते हुए बोलीकैसी बातें मुँह से निकालते हो बेटा, मेरे जीते-जी तम्हें कौन गिरफ्तार कर सकता है! उसका मुँह झुलस दूंगी। गहने इसी दिन के लिए हैं या और किसी दिन के लिए! जब तुम्हीं न रहोगे, तो गहने लेकर क्या आग में झोकूँगीं!

     उसने पिटारी लाकर उसके सामने रख दी।

     दया ने उमा की ओर जैसे फरियाद की ऑंखों से देखा और बोलाआपकी क्या राय है भाई साहब? इसी मारे मैं कहता था, अम्मा को बताने की जरूरत नहीं। जेल ही तो हो जाती या और कुछ?

     उमा ने जैसे सिफारिश करते हुए कहायह कैसे हो सकता था कि इतनी बड़ी वारदात हो जाती और अम्मा को खबर न होती। मुझसे यह नहीं हो सकता था कि सुनकर पेट में डाल लेता; मगर अब करना क्या चाहिए, यह मैं खुद निर्णय नहीं कर सकता। न तो यही अच्छा लगता है कि तुम जेल जाओ और न यही अच्छा लगता है कि अम्मॉँ के गहने गिरों रखे जाऍं।

     फूलमती ने व्यथित कंठ से पूछाक्या तुम समझते हो, मुझे गहने तुमसे ज्यादा प्यारे हैं? मैं तो प्राण तक तुम्हारे ऊपर न्योछावर कर दूँ, गहनों की बिसात ही क्या है।

     दया ने दृढ़ता से कहाअम्मा, तुम्हारे गहने तो न लूँगा, चाहे मुझ पर कुछ ही क्यों न आ पड़े। जब आज तक तुम्हारी कुछ सेवा न कर सका, तो किस मुँह से तुम्हारे गहने उठा ले जाऊँ? मुझ जैसे कपूत को तो तुम्हारी कोख से जन्म ही न लेना चाहिए था। सदा तुम्हें कष्ट ही देता रहा।

     फूलमती ने भी उतनी ही दृढ़ता से कहा-अगर यों न लोगे, तो मैं खुद जाकर इन्हें गिरों रख दूँगी और खुद हाकिम जिला के पास जाकर जमानत जमा कर आऊँगी; अगर इच्छा हो तो यह परीक्षा भी ले लो। ऑंखें बंद हो जाने के बाद क्या होगा, भगवान् जानें, लेकिन जब तक जीती हूँ तुम्हारी ओर कोई तिरछी आंखों से देख नहीं सकता।

     उमानाथ ने मानो माता पर एहसान रखकर कहाअब तो तुम्हारे लिए कोई रास्ता नहीं रहा दयानाथ। क्या हरज है, ले लो; मगर याद रखो, ज्यों ही हाथ में रूपये आ जाऍं, गहने छुड़ाने पड़ेंगे। सच कहते हैं, मातृत्व दीर्घ तपस्या है। माता के सिवाय इतना स्नेह और कौन कर सकता है? हम बड़े अभागे हैं कि माता के प्रति जितनी श्रद्घा रखनी चाहिए, उसका शतांश भी नहीं रखते।

     दोनों ने जैसे बड़े धर्मसंकट में पड़कर गहनों की पिटारी सँभाली और चलते बने। माता वात्सल्य-भरी ऑंखों से उनकी ओर देख रही थी और उसकी संपूर्ण आत्मा का आशीर्वाद जैसे उन्हें अपनी गोद में समेट लेने के लिए व्याकुल हो रहा था। आज कई महीने के बाद उसके भग्न मातृ-हृदय को अपना सर्वस्व अर्पण करके जैसे आनन्द की विभूति मिली। उसकी स्वामिनी कल्पना इसी त्याग के लिए, इसी आत्मसमर्पण के लिए जैसे कोई मार्ग ढूँढ़ती रहती थी। अधिकार या लोभ या ममता की वहॉँ गँध तक न थी। त्याग ही उसका आनन्द और त्याग ही उसका अधिकार है। आज अपना खोया हुआ अधिकार पाकर अपनी सिरजी हुई प्रतिमा पर अपने

प्राणों की भेंट करके वह निहाल हो गई।

 

4

 

ती

न महीने और गुजर गये। मॉँ के गहनों पर हाथ साफ करके चारों भाई उसकी दिलजोई करने लगे थे। अपनी स्त्रियों को भी समझाते थे कि उसका दिल न दुखाऍं। अगर थोड़े-से शिष्टाचार से उसकी आत्मा को शांति मिलती है, तो इसमें क्या हानि है। चारों करते अपने मन की, पर माता से सलाह ले लेते या ऐसा जाल फैलाते कि वह सरला उनकी बातों में आ जाती और हरेक काम में सहमत हो जाती। बाग को बेचना उसे बहुत बुरा लगता था; लेकिन चारों ने ऐसी माया रची कि वह उसे बेचते पर राजी हो गई, किन्तु कुमुद के विवाह के विषय में मतैक्य न हो सका। मॉँ पं. पुरारीलाल पर जमी हुई थी, लड़के दीनदयाल पर अड़े हुए थे। एक दिन आपस में कलह हो गई।

     फूलमती ने कहामॉँ-बाप की कमाई में बेटी का हिस्सा भी है। तुम्हें सोलह हजार का एक बाग मिला, पच्चीस हजार का एक मकान। बीस हजार नकद में क्या पॉँच हजार भी कुमुद का हिस्सा नहीं है?

     कामता ने नम्रता से कहाअम्मॉँ, कुमुद आपकी लड़की है, तो हमारी बहन है। आप दो-चार साल में प्रस्थान कर जाऍंगी; पर हमार और उसका बहुत दिनों तक सम्बन्ध रहेगा। तब हम यथाशक्ति कोई ऐसी बात न करेंगे, जिससे उसका अमंगल हो; लेकिन हिस्से की बात कहती हो, तो कुमुद का हिस्सा कुछ नहीं। दादा जीवित थे, तब और बात थी। वह उसके विवाह में जितना चाहते, खर्च करते। कोई उनका हाथ न पकड़ सकता था; लेकिन अब तो हमें एक-एक पैसे की किफायत करनी पड़ेगी। जो काम हजार में हो जाए, उसके लिए पॉँच हजार खर्च करना कहॉँ की बुद्धिमानी है?

     उमानाथ से सुधारापॉँच हजार क्यों, दस हजार कहिए।

     कामता ने भवें सिकोड़कर कहानहीं, मैं पाँच हजार ही कहूँगा; एक विवाह में पॉँच हजार खर्च करने की हमारी हैसियत नहीं है।

     फूलमती ने जिद पकड़कर कहाविवाह तो मुरारीलाल के पुत्र से ही होगा, पॉँच हजार खर्च हो, चाहे दस हजार। मेरे पति की कमाई है। मैंने मर-मरकर जोड़ा है। अपनी इच्छा से खर्च करूँगी। तुम्हीं ने मेरी कोख से नहीं जन्म लिया है। कुमुद भी उसी कोख से आयी है। मेरी ऑंखों में तुम सब बराबर हो। मैं किसी से कुछ मॉँगती नहीं। तुम बैठे तमाशा देखो, मैं सबकुछ कर लूँगी। बीस हजार में पॉँच हजार कुमुद का है।

कामतानाथ को अब कड़वे सत्य की शरण लेने के सिवा और मार्ग न रहा। बोला-अम्मा, तुम बरबस बात बढ़ाती हो। जिन रूपयों को तुम अपना समझती हो, वह तुम्हारे नहीं हैं; तुम हमारी अनुमति के बिना उनमें से कुछ नहीं खर्च कर सकती।

     फूलमती को जैसे सर्प ने डस लियाक्या कहा! फिर तो कहना! मैं अपने ही संचे रूपये अपनी इच्छा से नहीं खर्च कर सकती?

     वह रूपये तुम्हारे नहीं रहे, हमारे हो गए।

     तुम्हारे होंगे; लेकिन मेरे मरने के पीछे।

     नहीं, दादा के मरते ही हमारे हो गए!

     उमानाथ ने बेहयाई से कहाअम्मा, कानूनकायदा तो जानतीं नहीं, नाहक उछलती हैं।

     फूलमती क्रोधविहृल रोकर बोलीभाड़ में जाए तुम्हारा कानून। मैं ऐसे कानून को नहीं जानती। तुम्हारे दादा ऐसे कोई धन्नासेठ नहीं थे। मैंने ही पेट और तन काटकर यह गृहस्थी जोड़ी है, नहीं आज बैठने की छॉँह न मिलती! मेरे जीते-जी तुम मेरे रूपये नहीं छू सकते। मैंने तीन भाइयों के विवाह में दस-दस हजार खर्च किए हैं। वही मैं कुमुद के विवाह में भी खर्च करूँगी।

     कामतानाथ भी गर्म पड़ाआपको कुछ भी खर्च करने का अधिकार नहीं है।

     उमानाथ ने बड़े भाई को डॉँटाआप खामख्वाह अम्मॉँ के मुँह लगते हैं भाई साहब! मुरारीलाल को पत्र लिख दीजिए कि तुम्हारे यहॉँ कुमुद का विवाह न होगा। बस, छुट्टी हुई। कायदा-कानून तो जानतीं नहीं, व्यर्थ की बहस करती हैं।

     फूलमती ने संयमित स्वर में कहीअच्छा, क्या कानून है, जरा मैं भी सुनूँ।

     उमा ने निरीह भाव से कहाकानून यही है कि बाप के मरने के बाद जायदाद बेटों की हो जाती है। मॉँ का हक केवल रोटी-कपड़े का है।

     फूलमती ने तड़पकर पूछाकिसने यह कानून बनाया है?

     उमा शांत स्थिर स्वर में बोलाहमारे ऋषियों ने, महाराज मनु ने, और किसने?

     फूलमती एक क्षण अवाक् रहकर आहत कंठ से बोलीतो इस घर में मैं तुम्हारे टुकड़ों पर पड़ी हुई हूँ?

     उमानाथ ने न्यायाधीश की निर्ममता से कहातुम जैसा समझो।

     फूलमती की संपूर्ण आत्मा मानो इस वज्रपात से चीत्कार करने लगी। उसके मुख से जलती हुई चिगांरियों की भॉँति यह शब्द निकल पड़ेमैंने घर बनवाया, मैंने संपत्ति जोड़ी, मैंने तुम्हें जन्म दिया, पाला और आज मैं इस घर में गैर हूँ? मनु का यही कानून है? और तुम उसी कानून पर चलना चाहते हो? अच्छी बात है। अपना घर-द्वार लो। मुझे तुम्हारी आश्रिता बनकर रहता स्वीकार नहीं। इससे कहीं अच्छा है कि मर जाऊँ। वाह रे अंधेर! मैंने पेड़ लगाया और मैं ही उसकी छॉँह में खड़ी हो सकती; अगर यही कानून है, तो इसमें आग लग जाए।

     चारों युवक पर माता के इस क्रोध और आंतक का कोई असर न हुआ। कानून का फौलादी कवच उनकी रक्षा कर रहा था। इन कॉँटों का उन पर क्या असर हो सकता था?

     जरा देर में फूलमती उठकर चली गयी। आज जीवन में पहली बार उसका वात्सल्य मग्न मातृत्व अभिशाप बनकर उसे धिक्कारने लगा। जिस मातृत्व को उसने जीवन की विभूति समझा था, जिसके चरणों पर वह सदैव अपनी समस्त अभिलाषाओं और कामनाओं को अर्पित करके अपने को धन्य मानती थी, वही मातृत्व आज उसे अग्निकुंड-सा जान पड़ा, जिसमें उसका जीवन जलकर भस्म हो गया।

     संध्या हो गई थी। द्वार पर नीम का वृक्ष सिर झुकाए, निस्तब्ध खड़ा था, मानो संसार की गति पर क्षुब्ध हो रहा हो। अस्ताचल की ओर प्रकाश और जीवन का देवता फूलवती के मातृत्व ही की भॉँति अपनी चिता में जल रहा था।

 

 

5

 

फू

लमती अपने कमरे में जाकर लेटी, तो उसे मालूम हुआ, उसकी कमर टूट गई है। पति के मरते ही अपने पेट के लड़के उसके शत्रु हो जायेंगे, उसको स्वप्न में भी अनुमान न था। जिन लड़कों को उसने अपना हृदय-रक्त पिला-पिलाकर पाला, वही आज उसके हृदय पर यों आघात कर रहे हैं! अब वह घर उसे कॉँटों की सेज हो रहा था। जहॉँ उसकी कुछ कद्र नहीं, कुछ गिनती नहीं, वहॉँ अनाथों की भांति पड़ी रोटियॉँ खाए, यह उसकी अभिमानी प्रकृति के लिए असह्य था।

     पर उपाय ही क्या था? वह लड़कों से अलग होकर रहे भी तो नाक किसकी कटेगी! संसार उसे थूके तो क्या, और लड़कों को थूके तो क्या; बदमानी तो उसी की है। दुनिया यही तो कहेगी कि चार जवान बेटों के होते बुढ़िया अलग पड़ी हुई मजूरी करके पेट पाल रही है! जिन्हें उसने हमेशा नीच समझा, वही उस पर हँसेंगे। नहीं, वह अपमान इस अनादर से कहीं ज्यादा हृदयविदारक था। अब अपना और घर का परदा ढका रखने में ही कुशल है। हाँ, अब उसे अपने को नई परिस्थितियों के अनुकूल बनाना पड़ेगा। समय बदल गया है। अब तक स्वामिनी बनकर रही, अब लौंडी बनकर रहना पड़ेगा। ईश्वर की यही इच्छा है। अपने बेटों की बातें और लातें गैरों ककी बातों और लातों की अपेक्षा फिर भी गनीमत हैं।

वह बड़ी देर तक मुँह ढॉँपे अपनी दशा पर रोती रही। सारी रात इसी आत्म-वेदना में कट गई। शरद् का प्रभाव डरता-डरता उषा की गोद से निकला, जैसे कोई कैदी छिपकर जेल से भाग आया हो। फूलमती अपने नियम के विरूद्ध आज लड़के ही उठी, रात-भर मे उसका मानसिक परिवर्तन हो चुका था। सारा घर सो रहा था और वह आंगन में झाडू लगा रही थी। रात-भर ओस में भीगी हुई उसकी पक्की जमीन उसके नंगे पैरों में कॉँटों की तरह चुभ रही थी। पंडितजी उसे कभी इतने सवेरे उठने न देते थे। शीत उसके लिए बहुत हानिकारक था। पर अब वह दिन नहीं रहे। प्रकृति उस को भी समय के साथ बदल देने का प्रयत्न कर रही थी। झाडू से फुरसत पाकर उसने आग जलायी और चावल-दाल की कंकड़ियॉँ चुनने लगी। कुछ देर में लड़के जागे। बहुऍं उठीं। सभों ने बुढ़िया को सर्दी से सिकुड़े हुए काम करते देखा; पर किसी ने यह न कहा कि अम्मॉँ, क्यों हलकान होती हो? शायद सब-के-सब बुढ़िया के इस मान-मर्दन पर प्रसन्न थे।

     आज से फूलमती का यही नियम हो गया कि जी तोड़कर घर का काम करना और अंतरंग नीति से अलग रहना। उसके मुख पर जो एक आत्मगौरव झलकता रहता था, उसकी जगह अब गहरी वेदना छायी हुई नजर आती थी। जहां बिजली जलती थी, वहां अब तेल का दिया टिमटिमा रहा था, जिसे बुझा देने के लिए हवा का एक हलका-सा झोंका काफी है।

     मुरारीलाल को इनकारी-पत्र लिखने की बात पक्की हो चुकी थी। दूसरे दिन पत्र लिख दिया गया। दीनदयाल से कुमुद का विवाह निश्चित हो गया। दीनदयाल की उम्र चालीस से कुछ अधिक थी, मर्यादा में भी कुछ हेठे थे, पर रोटी-दाल से खुश थे। बिना किसी ठहराव के विवाह करने पर राजी हो गए। तिथि नियत हुई, बारात आयी, विवाह हुआ और कुमुद बिदा कर दी गई फूलमती के दिल पर क्या गुजर रही थी, इसे कौन जान सकता है; पर चारों भाई बहुत प्रसन्न थे, मानो उनके हृदय का कॉँटा निकल गया हो। ऊँचे कुल की कन्या, मुँह कैसे खोलती? भाग्य में सुख भोगना लिखा होगा, सुख भोगेगी; दुख भोगना लिखा होगा, दुख झेलेगी। हरि-इच्छा बेकसों का अंतिम अवलम्ब है। घरवालों ने जिससे विवाह कर दिया, उसमें हजार ऐब हों, तो भी वह उसका उपास्य, उसका स्वामी है। प्रतिरोध उसकी कल्पना से परे था।

     फूलमती ने किसी काम मे दखल न दिया। कुमुद को क्या दिया गया, मेहमानों का कैसा सत्कार किया गया, किसके यहॉँ से नेवते में क्या आया, किसी बात से भी उसे सरोकार न था। उससे कोई सलाह भी ली गई तो यही-बेटा, तुम लोग जो करते हो, अच्छा ही करते हो। मुझसे क्या पूछते हो!

     जब कुमुद के लिए द्वार पर डोली आ गई और कुमुद मॉँ के गले लिपटकर रोने लगी, तो वह बेटी को अपनी कोठरी में ले गयी और जो कुछ सौ पचास रूपये और दो-चार मामूली गहने उसके पास बच रहे थे, बेटी की अंचल में डालकर बोलीबेटी, मेरी तो मन की मन में रह गई, नहीं तो क्या आज तुम्हारा विवाह इस तरह होता और तुम इस तरह विदा की जातीं!

     आज तक फूलमती ने अपने गहनों की बात किसी से न कही थी। लड़कों ने उसके साथ जो कपट-व्यवहार किया था, इसे चाहे अब तक न समझी हो, लेकिन इतना जानती थी कि गहने फिर न मिलेंगे और मनोमालिन्य बढ़ने के सिवा कुछ हाथ न लगेगा; लेकिन इस अवसर पर उसे अपनी सफाई देने की जरूरत मालूम हुई। कुमुद यह भाव मन मे लेकर जाए कि अम्मां ने अपने गहने बहुओं के लिए रख छोड़े, इसे वह किसी तरह न सह सकती थी, इसलिए वह उसे अपनी कोठरी में ले गयी थी। लेकिन कुमुद को पहले ही इस कौशल की टोह मिल चुकी थी; उसने गहने और रूपये ऑंचल से निकालकर माता के चरणों में रख दिए और बोली-अम्मा, मेरे लिए तुम्हारा आशीर्वाद लाखों रूपयों के बराबर है। तुम इन चीजों को अपने पास रखो। न जाने अभी तुम्हें किन विपत्तियों को सामना करना पड़े।

     फूलमती कुछ कहना ही चाहती थी कि उमानाथ ने आकर कहाक्या कर रही है कुमुद? चल, जल्दी कर। साइत टली जाती है। वह लोग हाय-हाय कर रहे हैं, फिर तो दो-चार महीने में आएगी ही, जो कुछ लेना-देना हो, ले लेना।

     फूलमती के घाव पर जैसे मानो नमक पड़ गया। बोली-मेरे पास अब क्या है भैया,  जो इसे मैं दूगी? जाओ बेटी, भगवान् तुम्हारा सोहाग अमर करें।

कुमुद विदा हो गई। फूलमती पछाड़ गिर पड़ी। जीवन की लालसा नष्ट हो गई।

 

6

 

क साल बीत गया।

फूलमती का कमरा घर में सब कमरों से बड़ा और हवादार था। कई महीनों से उसने बड़ी बहू के लिए खाली कर दिया था और खुद एक छोटी-सी कोठरी में रहने लगी, जैसे कोई भिखारिन हो। बेटों और बहुओं से अब उसे जरा भी स्नेह न था, वह अब घर की लौंडी थी। घर के किसी प्राणी, किसी वस्तु, किसी प्रसंग से उसे प्रयोजन न था। वह केवल इसलिए जीती थी कि मौत न आती थी। सुख या दु:ख का अब उसे लेशमात्र भी ज्ञान न था।

उमानाथ का औषधालय खुला, मित्रों की दावत हुई, नाच-तमाशा हुआ। दयानाथ का प्रेस खुला, फिर जलसा हुआ। सीतानाथ को वजीफा मिला और विलायत गया, फिर उत्सव हुआ। कामतानाथ के बड़े लड़के का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ, फिर धूम-धाम हुई; लेकिन फूलमती के मुख पर आनंद की छाया तक न आई! कामताप्रसाद टाइफाइड में महीने-भर बीमार रहा और मरकर उठा। दयानाथ ने अबकी अपने पत्र का प्रचार बढ़ाने के लिए वास्तव में एक आपत्तिजनक लेख लिखा और छ: महीने की सजा पायी। उमानाथ ने एक फौजदारी के मामले में रिश्वत लेकर गलत रिपोर्ट लिखी और उसकी सनद छीन ली गई; पर फूलमती के चेहरे पर रंज की परछाईं तक न पड़ी। उसके जीवन में अब कोई आशा, कोई दिलचस्पी, कोई चिन्ता न थी। बस, पशुओं की तरह काम करना और खाना, यही उसकी जिन्दगी के दो काम थे। जानवर मारने से काम करता है; पर खाता है मन से। फूलमती बेकहे काम करती थी; पर खाती थी विष के कौर की तरह। महीनों सिर में तेल न पड़ता, महीनों कपड़े न धुलते, कुछ परवाह नहीं। चेतनाशून्य हो गई थी।

     सावन की झड़ी लगी हुई थी। मलेरिया फैल रहा था। आकाश में मटियाले बादल थे, जमीन पर मटियाला पानी। आर्द्र वायु शीत-ज्वर और श्वास का वितरणा करती फिरती थी। घर की महरी बीमार पड़ गई। फूलमती ने घर के सारे बरतन मॉँजे, पानी में भीग-भीगकर सारा काम किया। फिर आग जलायी और चूल्हे पर पतीलियॉँ चढ़ा दीं। लड़कों को समय पर भोजन मिलना चाहिए। सहसा उसे याद आया, कामतानाथ नल का पानी नहीं पीते। उसी वर्षा में गंगाजल लाने चली।

     कामतानाथ ने पलंग पर लेटे-लेटे कहा-रहने दो अम्मा, मैं पानी भर लाऊँगा, आज महरी खूब बैठ रही।

     फूलमती ने मटियाले आकाश की ओर देखकर कहातुम भीग जाओगे बेटा, सर्दी हो जायगी।

     कामतानाथ बोलेतुम भी तो भीग रही हो। कहीं बीमार न पड़ जाओ।

     फूलमती निर्मम भाव से बोलीमैं बीमार न पडूँगी। मुझे भगवान् ने अमर कर दिया है।

     उमानाथ भी वहीं बैठा हुआ था। उसके औषधालय में कुछ आमदनी न होती थी, इसलिए बहुत चिन्तित था। भाई-भवाज की मुँहदेखी करता रहता था। बोलाजाने भी दो भैया! बहुत दिनों बहुओं पर राज कर चुकी है, उसका प्रायश्चित्त तो करने दो।

     गंगा बढ़ी हुई थी, जैसे समुद्र हो। क्षितिज के सामने के कूल से मिला हुआ था। किनारों के वृक्षों की केवल फुनगियॉँ  पानी के ऊपर रह गई थीं। घाट ऊपर तक पानी में डूब गए थे। फूलमती कलसा लिये नीचे उतरी, पानी भरा और ऊपर जा रही थी कि पॉँव फिसला। सँभल न सकी। पानी में गिर पड़ी। पल-भर हाथ-पाँव चलाये, फिर लहरें उसे नीचे खींच ले गईं। किनारे पर दो-चार पंडे चिल्लाए-अरे दौड़ो, बुढ़िया डूबी जाती है। दो-चार आदमी दौड़े भी लेकिन फूलमती लहरों में समा गई थी, उन बल खाती हुई लहरों में, जिन्हें देखकर ही हृदय कॉँप उठता था।

     एक ने पूछायह कौन बुढ़िया थी?

     अरे, वही पंडित अयोध्यानाथ की विधवा है।

     अयोध्यानाथ तो बड़े आदमी थे?’

     हॉँ थे तो, पर इसके भाग्य में ठोकर खाना लिखा था।

     उनके तो कई लड़के बड़े-बड़े हैं और सब कमाते हैं?’

     हॉँ, सब हैं भाई; मगर भाग्य भी तो कोई वस्तु है!


रविवार, 5 मार्च 2023

पुष्टिकरण-पूर्वाग्रह को चुनौती देने की योग्यता

पूर्वाग्रह

सामाजिक जीवन में लोगों में सहज प्राप्य औपचारिक-अनौपचारिक शिक्षा (Learning) के माध्यम से एक दूसरे के बारे में उनकी जाति, धर्म, लिंग, भाषा, नागरिकता, सामाजिक स्थिति, आर्थिक स्थिति और समूह सदस्यता को आधार मानते हुए एक सकारात्मक या नकारात्मक सोच विकसित हो जाती है। इस का प्रभाव यह होता है कि वे लोग ये जानने का प्रयत्न नहीं करते कि उस व्यक्ति में उस तरह के गुण या दोष हैं या नहीं। दैनिक जीवन में यह महसूस किया जा सकता है कि लोगों में अनुकूल भावनाएँ ही नहीं प्रतिकूल भावनाएँ भी होती हैं। समाज में लोग कुछ लोगों से प्रेम या स्नेह करते हैं, और उसी आधार पर उनके प्रति हृदय में सहयोग अथवा सहानुभूति के भाव मौजूद रहते हैं। इसके विपरीत लोग कुछ व्यक्तियों और समूहों से घृणा करने लगते हैं या उनकी उपेक्षा करते हैं। इस तरह लोग प्रत्येक विषय में कुछ व्यक्तियों और समूहों के सदस्यों को अपने समूह से अलग और हीन समझने लगते हैं और अपनी इसी समझ और विश्वास के अनुसार उनके प्रति अपने व्यवहार को ढालते हैं। ऐसा करने का कोई तार्किक कारण नहीं होता फिर भी दूसरे समूहों और उनके सदस्यों के प्रति जो संवेगात्मक मनोभाव लोगों में पनप जाता है, उसके अनुरूप वे उनके प्रति विद्वेष, घृणा और अत्याचारपूर्ण व्यवहार करने को तत्पर रहते हैं। इस तरह समूहों और व्यक्तियों के प्रति लोगों के इन्हीं मनोभावों तथा व्यवहार प्रतिमानों को पूर्वाग्रह कहते हैं।

पुष्टिकरण-पूर्वाग्रह

लोगों में उनके दिमागों में पहले से जो विश्वास मौजूद होते हैं। उनमें उनके अनुरूप जानकारी खोजने या उसकी व्याख्या करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। वे अपने ही विश्वासों को पुष्ट करते रहना चाहते हैं, इसे ही हम पुष्टिकरण-पूर्वाग्रह कहते हैं। इस तरह आम तौर पर लोग उनकी यथास्थिति को चुनौती देने वाले तथ्यों, विचारों, तरीकों को खोजने और उसके लिए काम करने प्रति उनकी प्रवृत्ति नकारात्मक होती है। जबकि नया सीखने (Learning), पुरानी गलत सीखों से मुक्ति पाने (Unlearning) और सही लेकिन विस्मृत बातों को फिर से सीखने (Relearning) के लिए व्यक्तियों को अपने विश्वासों को फिर से जाँचने, परखने और उन पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता होती है।

सीखने के इस दृष्टिकोण को अपनाने की क्षमता को सुधारने के लिए, एक व्यक्ति को अपने पुष्टिकरण-पूर्वाग्रह के बारे में जागरूकता विकसित करने पर काम करना आवश्यक है। ऐसी जागरूकता के विकास के बाद ही कोई व्यक्ति अपनी मौजूदा राय से अलग राय कायम करने में समर्थ हो सकता है। तब हम कह सकते हैं कि किसी व्यक्ति विशेष ने अपने पुष्टिकरण-पूर्वाग्रह को चुनौती देने की योग्यता हासिल कर ली है। ऐसे ही व्यक्ति विभिन्न स्रोतों से जानकारी एकत्र करके और विविध पृष्ठभूमि के लोगों के साथ विचारों पर चर्चा करके अपने पुष्टिकरण-पूर्वाग्रह को चुनौती दे सकते हैं।

शनिवार, 7 जनवरी 2023

राजमिस्त्री

दिसम्बर का तीसरा सप्ताह था। मुझे बाराँ से कोटा आना था। काम निपटाने के बाद घर पर माँ से मिलने में समय हो गया और मुझे रात सात बजे की बस मिली। सूर्यास्त हुए डेढ़ घंटा हो चुका था और पूस के माह की सर्दी ने काटना शुरु कर दिया था। कोटा पहुँचने में दो घण्टे की दूरी थी। बस चली और बस स्टेण्ड के बाहर निकलते ही रुकी। बदहवासी की दशा में एक बन्दा बस में चढ़ा और बस चल दी। वह एक साधारण सूरत का मेहनतकश इन्सान लगता था। जैसे कोई राजमिस्त्री या फिर किसी गैराज का सिद्धहस्त मैकेनिक हो। हम उसे इस किस्से के लिए राजमिस्त्री कह सकते हैं। सीढ़ी चढ़ कर जैसे ही वह बस के फ्लोर पर पहुँचा उसने बस में एक नजर दौड़ाई। बस में कुल जमा 11 सवारियाँ थी और वह बारहवाँ था। बस के पीछे की पाँच पंक्तियाँ पूरी तरह से खाली थी। वह पीछे गया और पीछे से चौथी लाइन की ड्राइवर साइड की तीन सीटों में बीच वाली पर जा बैठा। शहर छोड़ने के पहले बस दो एक जगह और रुकी, सवारियाँ बैठाईं और फिर चल दी। शहर के बाहर निकलने के बाद एक जगह और रुकी। यहाँ कुछ वीराना था, लेकिन यहाँ भी दो सवारियाँ मिल गयीं। राजमिस्त्री ने इस बार खड़े हो कर कण्डक्टर से पूछा कि क्या वह नीचे उतर कर पेशाब कर के आ सकता है? कण्डकर ने पलट कर कहा, -क्या वह दस बीस मिनट नहीं रुक सकता। अगले स्टाप पर यह काम करना।

राजमिस्त्री के आगे की सीट पर सवारियाँ आ गयी थीं। वह अपनी सीट से निकला और पीछे तीसरी पंक्ति में बीच की सीट पर बैठ गया। उसके आगे की पंक्ति फिर खाली थी। अगला अधिकारिक स्टाप पंद्रह किलोमीटर पर था। मुश्किल से बीस बाईस मिनट का रास्ता। लेकिन दस मिनट बाद राजमिस्त्री फिर खड़ा हुआ और कंडक्टर से फिर पूछा कि बस कब रुकेगी?

कंडक्टर अब सवारियों के टिकट बना रहा था। उसने फिर कहा दस मिनट बाद अगला स्टाप है। राजमिस्त्री फिर बैठ गया। पाँच मिनट बाद वह फिर खड़ा हुआ और इस बार उसने पूछा, अगला स्टाप कितनी दूर है। कंडक्टर ने जवाब दिया कि बस तीन चार मिनट में आ जाएगा। उसके बाद अगले स्टाप तक राजमिस्त्री चुपचाप अपनी सीट पर बैठा रहा।

बस ने अंता कस्बे में प्रवेश किया और बस स्टैंड पर रुकी। ड्राइवर ने इंजन बन्द किया और नीचे उतर गया। बस की सारी सवारियों का ध्यान उसी राजमिस्त्री पर था कि वह अब अपनी सीट से खड़ा होगा, तेजी से दरवाजे की तरफ बढ़ेगा और पेशाब करके वापस लौटेगा। बस से तीन सवारियाँ उतर गयीं और दो वहाँ से बैठ गयीं। लेकिन राजमिस्त्री अपनी जगह से नहीं हिला। कंडक्टर ने राजमिस्त्री से कहा, -उठ भाई¡ उतर कर तेरा काम कर आ। तब तक हम चाय पी लेंगे।

राजमिस्त्री ने कुछ देर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। कंडक्टर ने फिर से जोर से कहा, - अब क्या हो गया? रास्ते में तो बार बार पूछ रहा था।

राजमिस्त्री ने बड़ी शान्ति से जवाब दिया, -अब जरूरत नहीं रही। रुक नहीं रहा था तो यहीँ कर लिया।

कंडक्टर ने पीछे जा कर टार्च की रोशनी में देखा तो सीट के नीचे बहुत गीला हो रहा था। वह राजमिस्त्री पर बरस पड़ा, -पहले नहीं कह सकता था कि यहीं निकल जाएगा। बस गंदी कर दी। अब इसे क्या तेरा बाप धोएगा?

राजमिस्त्री ने बहुत शान्ति से जवाब दिया, -उस्ताद नाराज मत होओ। मैं ने दो बार तुम्हें कहा था। तुम न समझे तो मेरी क्या गलती है। दोस्तों के बीच ज्यादा बीयर पी ली थी। निकलनी तो थी ही। मैंने बहुत रोका पर फिर भी निकल गयी तो मैं क्या करता। कोटा पहुँचने पर फर्राश से धुलवा लेना उसकी मजूरी मैं दे दूंगा।

कंडक्टर ने राजमिस्त्री को माफ नहीं किया और बस के अन्ता से चलने तक उसे गालियाँ देता रहा। बाकी सवारियाँ मन ही मन मुस्कुरा रही थीं।

मंगलवार, 22 नवंबर 2022

सावरकर और उसकी विचारधारा देश की प्रगति और विकास के लिए सब से बड़ा रोड़ा है

सावरकर भारतीय हिन्दू दक्षिणपंथ के नायक होने के साथ साथ कमजोर नस भी हैं। राहुल गांधी ने महाराष्ट्र में प्रवेश करते हुए इस कमजोर नस को दबा दिया है। इस नस के दबते ही सारे भाजपाई एक साथ उबल पड़े हैं। यहाँ तक कि महाराष्ट्र में उनका साथ देने वाला और राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले ठाकरे परिवार को भी राहुल गांधी के बयान पर अपनी आपत्ति दर्ज करानी पड़ी। हालाँकि उद्धव ठाकरे ने राहुल गांधी के बयान की आलोचना के साथ ही भाजपाइयों पर हमला बोल कर इस बात की सावधानी बरती कि कांग्रेस के साथ उसके रिश्ते खराब न हों और उनका अगाड़ी मोर्चा बरकरार रहे।

राहुल गांधी ने इतना ही कहा था कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी, पर साथ ही आजादी के आंदोलन में उनके योगदान को एक हद तक स्वीकार करके अपने आलोचना कर्म को हलका कर दिया। लेकिन अब महात्मा गांधी के प्रपोत्र तुषार गांधी सावरकर की आलोचना के मैदान में उतर पड़े। उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी की हत्या के लिए पिस्तौल सावरकर ने उपलब्ध करवाने में मदद की थी। इस तरह सीधे सीधे उन्हें हत्या में सहयोगी कह दिया है। साथ ही उन्होंने कहा कि आजादी आंदोलन के दौरान सावरकर ने अंग्रेजों की मदद की। जिसका अर्थ था कि सावरकर ने आजादी आंदोलन की पीठ में छुरा घोंपा है।

सावरकर अपने कामों के लिए हमेशा विवादास्पद बने रह सकते हैं। क्यों कि यह बात तो अब भाजपाई भी मान रहे हैं कि सावरकर ने माफी मांगी थी और बचाव में वे झूठी कहानियाँ गढ़ रहे हैं कि दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों ने भी माफी मांगी थी। अब ये झूठी कहानियाँ उनके गले पड़ने वाली हैं।

सावरकर पर उनके कर्मों के कारण होने वाले हमलों से न भाजपा विचलित होगी और न ही अन्य भारतीय हिन्दू दक्षिणपंथी। हिन्दू दक्षिणपंथ के पास सावरकर के अतिरिक्त कोई अन्य सिद्धान्तकार है ही नहीं। विश्व में अकेले सिद्धान्तकार हैं जो भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने का सिद्धान्त देते हैं। हालाँकि सभी हिन्दू दक्षिणपंथी अपने हिन्दू राष्ट्र को एक धार्मिक राष्ट्र के रूप में देखते-दिखाते हैं क्यों कि उसके बिना उनका इस रास्ते पर आगे बढ़ना बिलकुल संभव नहीं है। हिन्दू राष्ट्र से धर्म को अलग करते ही उनका हिन्दू राष्ट्र का यह राजमहल बिलकुल ताश के महल की तरह भरभराकर गिर पड़ेगा।

दूसरी ओर इस मामले में सावरकर उनके आड़े आ जाते हैं। सावरकर पूरी तरह नास्तिक थे। उनका हिन्दू राष्ट्र बिलकुल भी धार्मिक नहीं था। हिन्दू राष्ट्र की सबसे बड़े प्रतीक गौ माता के मामले में उनके विचार बहुत प्रगतिशील थे। वे कहते हैं कि गाय अन्य जानवरों की तरह ही जानवर है और उसे कोई इंसान माता कैसे मान सकता है। इस तरह सावरकर का उपयोग करने में अनेक अंतर्विरोध मौजूद हैं। फिर भी हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा देने वाला और कोई सिद्धान्तकार नहीं होने के कारण वही हिन्दू दक्षिणपंथ के सर्वोपरि आदर्श हो सकते हैं अन्य कोई भी व्यक्ति नहीं।

कम्प्यूटराइज्ड औद्योगिक समाजों के इस युग में आगे बढ़ने के लिए किसी भी देश के लिए एक धार्मिक राष्ट्र का होना एक बहुत बड़ा अवरोध है। ये दोनों एक साथ संभव नहीं हैं। देश को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाना है तो उसे दक्षिणपंथ पर काबू पाना होगा। अभी भाजपा इस हिन्दू दक्षिणपंथ पर सवार हो कर देश पर काबिज है। अब यदि राहुल गांधी और अन्य कोई भी नेता और उनकी पार्टियाँ चाहती हैं कि देश को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाने कि लिए देश पर से भाजपा के इस कब्जे को नेस्तनाबूत किया जाए तो उन्हें समूचे दक्षिणपंथ को निशाने पर लेना होगा। हिन्दू दक्षिणपंथ इस का बड़ा हिस्सा है। हिन्दू दक्षिणपंथ को मुख्य लक्ष्य बनाने के लिए सावरकर और उसके द्विराष्ट्र सिद्धान्त को ध्वस्त करना होगा। यह सावरकर ही था जिसने पहले पहल भारत में द्विराष्ट्र का सिद्धान्त दिया और धार्मिक पहचान के आधार पर देश के दो टुकड़े करने की नींव रखी। मुस्लिम नेता तो उसकी प्रतिक्रिया में अलग पाकिस्तान मांगने लगे। वस्तुतः देश के विभाजन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है तो वह सावरकर है। यदि सावरकर न होते तो भारत आज अखंड होता।

अब यदि अन्य नेता और राजनीतिक दल वास्तव में चाहते हैं कि भारत प्रगति के पथ पर आगे बढ़े तो उन्हें हिन्दू दक्षिणपंथ पर घातक हमले करने होंगे। यह उनकी विचारधारा को ध्वस्त करके ही किया जा सकता है, जिसका आधार सावरकर है। हम समझ सकते हैं कि आज देश की प्रगति और विकास के मार्ग में कोई सबसे बड़ी बाधा है तो वह सावरकर और उसकी विचारधारा है। इस कारण केवल सावरकर के कर्मों पर हमला करके काम नहीं चलेगा। सावरकर की विचारधारा के प्रति आक्रामक होना होगा और उस विचारधारा को ध्वस्त करना होगा।

सोमवार, 31 अक्टूबर 2022

मोरबी का पुल हादसा

ल शाम गुजरात के मोरबी में हुई दुर्घटना आज टीवी पर छायी हुई है। दुर्घटना बहुत बड़ी है। अब तक 134 लोगों के मरने और 100 से अधिक के घायल होने की पुख्ता जानकारी है। लापता लोगों की जानकारी भी लापता है।



यह कोई 100 बरस पुराना पुल है। इसे मरम्मत के लिए कोई सात माह पहले बन्द किया गया था। मरम्मत का ठेका एक कंपनी को दिया था। जिसका काम इलेक्ट्रोनिक घड़ियाँ और अन्य इलेक्ट्रोनिक वस्तुओं के उत्पादन का काम है। पर मुनाफा कमाने के लिए कंपनियाँ कैसे भी काम कर लेती हैं। इस ठेके में मरम्मत और अगले अनेक वर्षों के लिए पुल की देखभाल और संचालन का काम भी सम्मिलित है। कंपनी उस पर प्रवेश के लिए 17 रुपए प्रति व्यक्ति भी वसूल कर रही है।

यह पुल मात्र साढ़े चार फुट के लगभग चौड़ा है। इस पर एक व्यक्ति पैदल आ रहा हो तो शेष स्थान बस इतना बचता है कि सामने से आने वाला दूसरा व्यक्ति बगल से निकल जाए। यदि दो व्यक्ति साथ चल रहे हों तो सामने से आने वाले व्यक्ति को जाने देने के लिए एक व्यक्ति को हट कर दूसरे के पीछे आना पड़ेगा। इस पुल को तीन दिन पहले खोल दिया गया। आश्चर्य की बात है कि पुल पर तीन दिन से एक बार में सैंकड़ों अर्थात 500 व्यक्ति उस पुल पर चढ़ रहे थे। जबकि पुल की क्षमता 100 व्यक्तियों द्वारा एक बार में उपयोग करने की है। ऐसा लगता है रखरखाव रखने वाली कंपनी ने पुल को यातायात के साधन के रूप में नहीं बल्कि एक पर्यटन स्थल के रूप में बदल दिया था और कमाई कर रही थी। यह तथ्य भी सामने आयी है कि मरम्मत के बाद पुल को चालू करने के पहले नगर पालिका से एनओसी प्राप्त करनी थी और नगर पालिका ने ऐसी अनुमति नहीं दी थी पुल उसके बिना ही उपयोग में लिया जा रहा था। इस का मुख्य कारण कारपोरेट द्वारा मुनाफे के लालच से जनता की असीम लूट ही है।


नगर पालिका की ड्यूटी थी कि यदि पुल को बिना अनुमति चालू कर दिया था तो उसके उपयोग को रुकवाती और यह सुनिश्चित करती कि एक बार में उस पर 100 से अधिक लोग न चढ़ सकें। नगर पालिका के पास स्टाफ होता है जो अवैध निर्माण और संचालन पर निगाह रखता है। पर देश भर के नगर निकायों के तमाम ऐसे निगरानी स्टाफ पूरी तरह से भ्रष्टाचार में ऊब डूब है। जो पांच दस प्रतिशत ईमानदार स्टाफ है वह ठेकेदारों और उनसे संबंधित राजनीतिक लोगों द्वारा प्रतिशोध लेने से भयभीत रहता है और ऐसी घटनाओं से आँख मूंद लेता है। इसी कारण हर शहर में अवैध इमारतों, निर्माणों की भरमार हो चुकी है। फुटपाथ तो दुकानदारों की बपौती है। उस पर उन्हीं का माल फैला रहता है। यहाँ तक कि फुटपाथ के बाद का स्थान पार्किंग से भरा रहता है। सड़क पर यातायात अक्सर फँसा रहता है। जनता यह सब बर्दाश्त करती रहती है।

लेकिन जब राजनीतिक लोगों और पूंजीपतियों ठेकेदारों का भ्रष्टाचारी गठजोड़ लोगों की जाने लेने लगे तो जनता तत्काल उफनने लगती है। यह उफान भी सोडावाटरी होता है। तत्काल पुलिस ठेकेदार के कुछ कर्मचारियों को गिरफ्तार कर मुकदमा बनाती है। लेकिन पीछे पीछे भ्रष्टाचारी गठजोड़ काम करता रहता है। जो मुकदमे बनाए जाते हैं उनमें सबूत होते ही नहीं या फर्जी होते हैं। दसियों साल मुकदमा चलने के बाद सारे मुलजिम बरी हो जाते हैं। राजनीतिक लोगों और पूंजीपतियों ठेकेदारों का भ्रष्टाचारी गठजोड़ बना रहता है।

गुजरात में सारा प्रशासन भाजपा के हाथों में है केन्द्र् में भी उनकी सरकार है। प्रधानमंत्री का मन भटक कर टूटे पुल के पीड़ितों के आसपास भटक रहा है जाँच की घोषणा कर दी गयी है। लेकिन कोई राजनेता यह नहीं कह रहा है कि ठेकेदार, पालिका और सरकारी कर्मचारियों के साथ साथ उनसे यह सब काम करवाने में लिप्त रहे राजनेता भी दंडित किए जाएंगे। कौन अपनी माँ को डाकिन कहता है।

दो चार दिन हल्ला रहेगा। फिर चुनाव होगा। परिणाम आ जाएंगे। अफसर कर्मचारी जिन पर मुकदमा किया जाएगा वे सब बरी हो जाएंगे। किसी राजनेता पर कोई आँच नहीं आएगी और जनता फिर सो कर खर्राटे लेने लगेगी या फिर हिन्दू मुसलमान करते हुए धर्म की अफीम की पिनक में डूब जाएगी।

रविवार, 23 अक्टूबर 2022

धनतेरस का धन से कोई संबंध नहीं, वह केवल स्वास्थ्य संबंधी त्यौहार है

आज कार्तिक कृष्ण पक्ष की तेरस है। लोग इस को धनतेरस भी कहते हैं। ऐतिहासिक रूप से इसका धन अर्थात भौतिक संपत्ति से कोई संबंध नहीं है। वस्तुतः पौराणिक रूप से इसका महत्व सिर्फ इस कारण है कि समुद्र मंथन के दौरान इस दिन धन्वन्तरि उत्पन्न हुए जिन्हें आयुर्वेद (भारतीय चिकित्सा शास्त्र) का जनक माना जाता है। यही कारण है कि भारत सरकार ने इस दिन को राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस घोषित किया है।  

आज के दिन का धन अर्थात भौतिक संपत्ति से संबंध पहली बार बाजार ने ही स्थापित किया है। विशेष रूप से सोना चांदी और रत्न व्यापारियों ने। वरना न तो ऐतिहासिक और न ही पौराणिक रूप से इस संबंध के बारे में कहीं कोई सूचना नहीं मिलती है।

हमारी कुछ ज्योतिषीय मान्यताएँ हैं। चैत्रादि जिस मास में सूर्य की संक्रान्ति न पड़े वह अधिक मास होता है। यदि एक ही माह में दो संक्रान्तियाँ हों तो उन्हें पखवाड़े भर के दो माह माना जाता है। उसी तरह एक मान्यता है कि जिस तिथि में सूर्योदय न हो वह तिथि क्षय तिथि है और जिस तिथि में दो सूर्योदय हों वह तिथि बढ़ कर दो हो जाती है। इन्हीं मान्यताओं से एक और मान्यता निकली है कि जिस दिन का सूर्योदय जिस तिथि में हो अगले सूर्योदय के पूर्व तक वही तिथि मानी जाएगी। इस हिसाब से असली धन तेरस आज है। जो आयु बढ़ाने, स्वास्थ्य को उत्तम बनाए रखने के शास्त्र के प्रति समर्पित है। कल बाजारोत्पन्न नकली धन तेरस थी।

हमारे कई संकट हैं। उनमें एक संकट चंद्र सूर्य ग्रहण भी है। जिस दिन यह हो उस दिन पूजा वगैरा नहीं की जा सकती। अब अमावस तिथि पर सूर्य ग्रहण है इस कारण बाजार को दीवाली मनाने का एक दिन कम पड़ गया। उसने कल द्वादशी को धनतेरस मना डाली आज त्रयोदशी को नरक/ रूप चतुर्दशी मनाएगा और कल चतुर्दशी को तो दीवाली होगी ही। दीवाली ठीक है क्यों कि अमावस की रात तो कल ही होगी। अमावस की समाप्ति सूर्य ग्रहण के मध्य मंगलवार को होगी।

एक बात और कि किसी भी बड़े भारतीय त्यौहार का मूलतः किसी धार्मिक अनुष्ठान से कोई संबंध नहीं है। दीपावली भी एक कृषि त्यौहार है। बरसात का मौसम समाप्त हो चुका होता है। हम घरों में हुई बरसाती क्षतियों को मिटा कर उनकी साफ सफाई करके उन्हें फिर से साल भर के लिए रहने योग्य बनाते हैं। इसी समय बरसात की फसलें मूलतः धान की कटाई आरंभ होती है। यह खेतों में उत्पन्न धान्य को घर लाने के लिए कटाई शुरू करने का त्यौहार है। इसी लिए दीवाली के अगले दिन बैल सजाए जाते हैं। वे इस समारोह के साथ फसल कटाई के लिए निकलते हैं। सभी धर्मों को लोकोत्सवों और तमाम सुन्दर मनभावन स्थानों को कब्जाने का अद्भुत गुण होता है। तो संस्थागत धर्मों के विकास के साथ साथ हर त्यौहार के साथ कुछ न कुछ धार्मिक कर्मकांड जोड़ कर उन्हें धार्मिक संज्ञा दे दी गयी है। इससे वे त्यौहार देश के एक खास धर्म के लोगों के लिए रह गया है। यदि इन त्यौहारों को अपने मूल प्राकृतिक रूप में मनाया जाए तो देश की सारी आबादी को चाहे वह किसी भी धर्म की क्यों न हो इन त्यौहारों के साथ जोड़ा जा सकता है। असल में दीवाली हिन्दू त्यौहार नहीं भारतीय त्यौहार है।

मैंने कल घर से बाहर कदम नहीं रखा। बाजार नहीं गया जिससे कुछ भी खरीद सकूँ। बेटा-बेटी बाजार गए थे। कुछ बाथरूम फिटिंग्स खरीद कर लाए हैं। आज का दिन हम लोग घर में कुछ पकवान्न बनाने में बिताएंगे और दुनिया में सब के अच्छे स्वास्थ्य के लिए कामना करेंगे।

सभी मित्रों को भी धन्वन्तरि तेरस मुबारक¡ सभी लोग जीवन में स्वस्थ बने रहें।

शनिवार, 22 अक्टूबर 2022

जज, या ............... ?

कोलिसिस्टेक्टोमी (पित्ताशय उच्छेदन) का ऑपरेशन 8 अक्तूबर 2022 को हुआ, 10 अक्तूबर को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया। पाँच दिन बाद दिखाने को कहा गया। मैं 15 अक्तूबर को खुद कार ड्राइव करके डाक्टर को दिखाने गया तो टाँके हटा दिए गए। अदालत जाने की इजाजत मिल गयी। लेकिन न झुकने का प्रतिबंध था। फिर भी मैं 17 अक्तूबर को अदालत चला गया। चैम्बर में बैठा, कैन्टीन चाय पीने के लिए भी गया। लेकिन किसी अदालत में पैरवी के लिए नहीं गया। शाम को घर लौटा तो थकान से लगा कि अभी मुझे कम से कम एक सप्ताह और अदालत जाने से बचना चाहिए। मैंने तय किया कि अब दीवाली के बाद ही अदालत जाउंगा। अपने घर वाले ऑफिस में बैठ कर ही केस स्टडी करता रहा। लेकिन बुधवार 19 अक्तूबर को ही अदालत जाने की नौबत आ गयी।

हुआ ये कि उस दिन मेरे दो केस लगे हुए थे, मुझे इसबात की पूरी आशंका थी कि मौजूदा जज साहब ये मुकदमे हमें सुने बिना ही खारिज कर देंगे। जब कि यह कानून के मुताबिक गलत था। मैंने उस दिन अदालत जाने का निश्चय किया और अपने सहायक यादव को कहा कि वह 12 बजे तक मेरे मुकदमों की स्थिति बताए। तो यादव ने मुझे बताया कि रीडर से पूछने पर उसने कहा है कि उन केसेज को तो खारिज करने का आदेश कर दिया गया है। जब यादव ने उससे कहा कि हमें बिना सुने ऐसा कैसे हो सकता है। तो उसने कहा कि सब मुकदमों में यही तो हो रहा है। उसने जज साहब से बात करने को कहा। जब यादव ने जज साहब से बात की तो उन्होंने रीडर को निर्देश दिया कि इनके इस तरह के सारे मुकदमे दिसंबर के अंत में एक साथ लगा दो। इस पर रीडर ने हमारे मुकदमों में दिसम्बर अन्त की तारीख दे दी। यादव ने कहा भी कि वे इस बिन्दु पर बहस के लिए अदालत आने को तैयार हैं तो जज साहब ने कहा कि उनका आपरेशन हुआ है यहाँ आना उनके स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। उन्हें यहाँ क्यों बुला रहे हैं।

मुकदमों में अगली तारीख मिल जाने पर मेरा अदालत जाना जरूरी नहीं रह गया था। लेकिन मुझे एक बात कचोट रही थी कि मेरे मुकदमे खारिज होने से बच जाएंगे लेकिन बहुत सारे मजदूरों के केस खारिज कर दिए जाएंगे। उन्हें उच्च न्यायालय से निर्णय बदलवाकर लाना होगा। एक मजदूर के लिए श्रम न्यायालय में मुकदमा लड़ना बेहद खर्चीला और श्रम साध्य होने के कारण दूभर होता है। उसके लिए उच्च न्यायालय जाने की सोचना ही प्राणलेवा होता है। मैंने अदालत जाना और जज से उसी दिन बहस करना उचित समझा। मैं सूचना मिल जाने के बावजूद अदालत पहुँच गया। मैंने यादव को फाइल लेकर अदालत में तैयार रहने को कहा था। जैसे ही मैं अदालत में जा कर बैठा, जज की मुझ पर निगाह पड़ी। तत्काल वह हड़बड़ाया हुआ दिखाई दिया।

असल में मामला यह था कि केन्द्र सरकार ने 2016 में पाँच कानून पास करके हजार से भी अधिक कानूनों, संशोधन कानूनों को निरस्त (निरसन) और संशोधित कर दिया था। उसमें एक कानून औद्योगिक विवाद (संशोधन) अधिनियम (2010) भी था। इस संशोधन के माध्यम से एक मजदूर को उसकी सेवा समाप्ति के विरुद्ध समझौता अधिकारी के यहाँ शिकायत प्रस्तुत करने और 45 दिनों की अवधि में श्रम विभाग के समझौता कराने में असफल रहने पर सीधे श्रम न्यायालय को अपना दावा प्रस्तुत करने का अधिकार मिला था। इस अधिकार के 2016 में समाप्त हो जाने पर 2016 से अब तक पिछले 6 सालों में अदालत में इस कानून के तहत पेश किए गए सभी मुकदमे खारिज हो जाने थे। इन मुकदमों की संख्या सैंकड़ों में है। जज का कहना था कि त्रिपुरा और बंगाल उच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि संशोधन कानून का निरसन हो जाने से मूल कानून औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 जिस में संशोधन करके प्रावधान जोड़े गए उसमें से वे संशोधन भी खारिज हो गए हैं और इसी कारण से उक्त निरसन अधिनियम प्रभावी होने के बाद अदालत में सीधे पेश किए गए मजदूरों के विवाद पूरी तरह से अवैध अकृत हो गए हैं इस कारण उन्हें निरस्त कर दिया जाए।

संशोधन कानूनों के निरसन पर जिस कानून में उस संशोधन कानून के द्वारा संशोधन किया गया था उससे वह संशोधन खारिज हो जाने के बिन्दु पर “जेठानन्द बेताब बनाम दिल्ली राज्य {1960 AIR 89, 1960 SCR (1) 755}” में सुप्रीम कोर्ट ने 15.09.1959 को ही निर्णय दे दिया गया था। इस निर्णय में कहा गया था कि किसी संशोधन कानून का काम पहले से मौजूद किसी पुराने कानून में संशोधन करना होता है। इस संशोधन कानून के प्रभावी होने के बाद वह संशोधन पुराने कानून का हिस्सा बन जाता है। यहीं संशोधन कानून का काम पूरा हो जाता है। वह कानूनों की सूची में अवशेष के रूप में बचा रहता है, उसका कोई उपयोग नहीं रह जाता। उस संशोधन कानून का निरसन कर दिए जाने पर उसका कोई प्रभाव उस पुराने कानून पर नहीं पड़ता जिसे संशोधित किया गया था। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने जनरल क्लॉजेज एक्ट की धारा 6-ए का उल्लेख करते हुए कहा कि इसमें ऐसा ही प्रावधान किया गया है। इसी पूर्व निर्णय का उल्लेख करते हुए दिनांक 29.08.2022 को सुप्रीम कोर्ट ने इंडिपेंडेंट स्कूल फेडरेशन ऑफ इंडिया बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया एवं अन्य के मामले में पारित निर्णय में फिर से इसी बात को दोहराया है।

जज को पहली फुरसत मिलते देख मैं सामने जा कर खड़ा हुआ तो जज साहब बोले -आप क्यों आए? आपको अभी आराम करना चाहिए। हमने तो आपके मुकदमों में तारीख दे दी है।

-सर¡ उससे क्या होगा? आपने दिसम्बर में तारीख दी है। तब तक तो आप इसी बिन्दु पर दूसरे सैंकड़ों मुकदमे खारिज कर चुके होंगे। जो कानून के हिसाब से गलत फैसला होगा। मेरी ड्यूटी है कि मैं अदालत को गलत निर्णय पारित करने से रोकूँ।

-दूसरे मुकदमों से आपका क्या लेना देना? हम खारिज कर देंगे और उच्च न्यायालय ने इसे गलत बताया तो हम वापस रेस्टोर कर देंगे।

-सर¡ रेस्टोर तो तब कर पाएंगे जब आपको ऐसा करने का क्षेत्राधिकार होगा। इस अदालत को अपने निर्णय रिव्यू करने की पावर नहीं है।

-नहीं है तो क्या? हम फिर भी कर देंगे। आप ही तो कहते रहे हैं कि इस अदालत को इन्हेरेंट पावर है।

-सर¡ रिव्यू की पावर कभी भी इन्हेरेंट नहीं हो सकती।

-तो क्या हुआ, हम फिर भी कर देंगे। जज साहब ने कहा तो मैं दंग रह गया कि कैसे जज अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर भी जा कर आदेश पारित करने को तैयार है।

-ठीक है मेरा तो आपसे आग्रह है कि इस बिन्दु पर आप बहस सुन लें। जहाँ तक मेरा मुकदमा आज नहीं होने की बात है तो मैं ऐसे तमाम मुकदमों में मजदूरों से पावर हासिल कर लूंगा और कल आपके सामने दुबारा इसी बहस के लिए हाजिर होउंगा। तब आप इससे बच नहीं सकते। इससे बेहतर है आप इस बहस को आज ही सुन लें।

-ठीक है सुन लेता हूँ। आखिर जज साहब बहस सुनने को तैयार हो गए।

बहस वही थी, जो मैं ऊपर लिख चुका हूँ। मैंने बहस शुरु की। मैंने उन्हें निरसन कानून की धारा-4 पढ़ाई जिसमें स्पष्ट रूप से लिखा था। “The repeal by this Act of any enactment shall not effect any other enactment in which the enactment has been applied, incorporated or referred to;”

इस धारा के पढ़ते ही जज साहब बीच में ही बोल पड़े। कि इस कानून को पढ़ कर तो कलकत्ता और त्रिपुरा उच्च न्यायालयों ने निर्णय पारित किए हैं। जिसमें बहुत सारे वकीलों ने बहस की है तो वे गलत कैसे हो सकते हैं?

मैंने उन्हें कहा कि उन दो फैसलों को कुछ देर के लिए भूल जाइए और मेरी बहस सुन लीजिए। मैंने उन्हें सुप्रीम कोर्ट के 1959 में पारित “जेठानन्द बेताब के केस और 29.08.2022 को पारित इंडिपेंडेंट स्कूल फेडरेशन के मुकदमों का हवाला दिया।

जज साहब ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर बिलकुल ध्यान न देते हुए तर्क दिया जेठानन्द बेताब किसी और कानून के मामले में था और इंडिपेंडेंट स्कूल फेडरेशन का मुकदमा ग्रेच्युटी एक्ट के मामले में है इन दोनों में औद्योगिक विवाद अधिनियम के बारे में कुछ नहीं कहा है।

मैं ने उन्हें कहा कि ग्रेच्युटी संशोधन अधिनियम को निरस्त किया गया है उसी कानून की उसी सूची में औद्योगिक विवाद संशोधन अधिनियम भी शामिल है और यहाँ प्रश्न किसी खास कानून के निरसन का नहीं है बल्कि संशोधन अधिनियम के निरसन का है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि संशोधन अधिनियम निरसित कर दिए जाने पर जिस एक्ट में उसके द्वारा संशोधन किया गया है उस एक्ट के उस संशोधन पर कोई प्रभाव नहीं होता, वह जीवित रहता है।

जज साहब फिर से कहने लगे त्रिपुरा और कलकत्ता उच्च न्यायालय के जज और वहाँ बहस करने वाले वकील कैसे गलती कर सकते हैं?

मैं ने उन्हें कहा कि गलती तो कोई भी कर सकता है। “अरब के घोड़े प्रसिद्ध होने का मतलब ये नहीं होता कि वहाँ गधे नहीं होते।“

जज साहब ने मुझे घूर कर देखा। फिर रीडर को आदेश दिया कि मैं इस मामले को देखूंगा अभी कुछ दिन इस तरह के मुकदमों में कोई आदेश पारित न किया जाए।

बहस पूरी हुई। मैं अदालत से घर आ गया। उस दिन बहुत थकान हो गयी। अगले दो दिन मैं अदालत नहीं जा सका। अब दीवाली के बाद अदालत जाना हो सकेगा।

पर कल मैंने फिर सुना है कि जज साहब ने सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय को नकार दिया है और कुछ मुकदमे खारिज कर दिए गए हैं।

सवाल यह है कि जज साहब इस तरह की जिन्दा मक्खी क्यों निगल रहे हैं? बात सिर्फ इतनी सी है कि रोज दो मुकदमे खारिज होने से उनका निर्णय का कोटा आसानी से पूरा हो रहा है। वे आसानी से कह भी रहे हैं कि उच्च न्यायालय का निर्णय आने पर मैं उन्हें फिर से रेस्टोर कर दूंगा। पर सैंकड़ों मजदूरों को उच्च न्यायालय जा कर हजारों रुपए खर्च करने होंगे। बहुत से तो अर्थाभाव में जा भी नहीं सकेंगे। लेकिन जज साहब को अपने कोटे की पड़ी है। उन्हें न्याय करने से और मजदूर वर्ग की दुर्दशा से क्या लेना देना?