संध्या हो गई थी। पंडित को मरे आज
बारहवाँ दिन था। कल तेरहीं हैं। ब्रह्मभोज होगा। बिरादरी के लोग निमंत्रित होंगे।
उसी की तैयारियॉँ हो रही थीं। फूलमती अपनी कोठरी में बैठी देख रही थी, पल्लेदार बोरे में आटा लाकर रख रहे हैं।
घी के टिन आ रहें हैं। शाक-भाजी के टोकरे, शक्कर की बोरियॉँ, दही
के मटके चले आ रहें हैं। महापात्र के लिए दान की चीजें लाई गईं-बर्तन, कपड़े, पलंग, बिछावन, छाते, जूते, छड़ियॉँ, लालटेनें आदि; किन्तु फूलमती को कोई चीज नहीं दिखाई गई। नियमानुसार ये सब
सामान उसके पास आने चाहिए थे। वह प्रत्येक वस्तु को देखती उसे पसंद करती, उसकी मात्रा में कमी-बेशी का फैसला करती; तब इन चीजों को भंडारे में रखा जाता।
क्यों उसे दिखाने और उसकी राय लेने की जरूरत नहीं समझी गई? अच्छा वह आटा तीन ही बोरा क्यों आया? उसने तो पॉँच बोरों के लिए कहा था। घी भी पॉँच ही कनस्तर है।
उसने तो दस कनस्तर मंगवाए थे। इसी तरह शाक-भाजी, शक्कर, दही आदि में भी कमी
की गई होगी। किसने उसके हुक्म में हस्तक्षेप किया? जब उसने एक बात तय कर दी, तब किसे उसको घटाने-बढ़ाने का अधिकार है?
आज
चालीस वर्षों से घर के प्रत्येक मामले में फूलमती की बात सर्वमान्य थी। उसने सौ
कहा तो सौ खर्च किए गए, एक कहा तो एक। किसी
ने मीन-मेख न की। यहॉँ तक कि पं. अयोध्यानाथ भी उसकी इच्छा के विरूद्ध कुछ न करते
थे; पर आज उसकी ऑंखों के सामने प्रत्यक्ष
रूप से उसके हुक्म की उपेक्षा की जा रही है! इसे वह क्योंकर स्वीकार कर सकती?
कुछ
देर तक तो वह जब्त किए बैठी रही;
पर
अंत में न रहा गया। स्वायत्त शासन उसका स्वभाव हो गया था। वह क्रोध में भरी हुई
आयी और कामतानाथ से बोली-क्या आटा तीन ही बोरे लाये? मैंने तो पॉँच बोरों के लिए कहा था। और घी भी पॉँच ही टिन
मँगवाया! तुम्हें याद है, मैंने दस कनस्तर कहा
था? किफायत को मैं बुरा नहीं समझती; लेकिन जिसने यह कुऑं खोदा, उसी की आत्मा पानी को तरसे, यह कितनी लज्जा की बात है!
कामतानाथ
ने क्षमा-याचना न की, अपनी भूल भी स्वीकार
न की, लज्जित भी नहीं हुआ। एक मिनट तो
विद्रोही भाव से खड़ा रहा, फिर बोला-हम लोगों की
सलाह तीन ही बोरों की हुई और तीन बोरे के लिए पॉँच टिन घी काफी था। इसी हिसाब से
और चीजें भी कम कर दी गई हैं।
फूलमती
उग्र होकर बोली-किसकी राय से आटा कम किया गया?
‘हम लोगों की राय से।‘
‘तो मेरी राय कोई चीज नहीं है?’
‘है क्यों नहीं; लेकिन अपना हानि-लाभ तो हम समझते हैं?’
फूलमती
हक्की-बक्की होकर उसका मुँह ताकने लगी। इस वाक्य का आशय उसकी समझ में न आया। अपना
हानि-लाभ! अपने घर में हानि-लाभ की जिम्मेदार वह आप है। दूसरों को, चाहे वे उसके पेट के जन्मे पुत्र ही
क्यों न हों, उसके कामों में
हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार? यह लौंडा तो इस
ढिठाई से जवाब दे रहा है, मानो घर उसी का है, उसी ने मर-मरकर गृहस्थी जोड़ी है, मैं तो गैर हूँ! जरा इसकी हेकड़ी तो
देखो।
उसने तमतमाए हुए मुख से कहा मेरे
हानि-लाभ के जिम्मेदार तुम नहीं हो। मुझे अख्तियार है, जो उचित समझूँ,
वह
करूँ। अभी जाकर दो बोरे आटा और पॉँच टिन घी और लाओ और आगे के लिए खबरदार, जो किसी ने मेरी बात काटी।
अपने
विचार में उसने काफी तम्बीह कर दी थी। शायद इतनी कठोरता अनावश्यक थी। उसे अपनी
उग्रता पर खेद हुआ। लड़के ही तो हैं, समझे
होंगे कुछ किफायत करनी चाहिए। मुझसे इसलिए न पूछा होगा कि अम्मा तो खुद हरेक काम
में किफायत करती हैं। अगर इन्हें मालूम होता कि इस काम में मैं किफायत पसंद न
करूँगी, तो कभी इन्हें मेरी उपेक्षा करने का
साहस न होता। यद्यपि कामतानाथ अब भी उसी जगह खड़ा था और उसकी भावभंगी से ऐसा ज्ञात
होता था कि इस आज्ञा का पालन करने के लिए वह बहुत उत्सुक नहीं, पर फूलमती निश्चिंत होकर अपनी कोठरी में
चली गयी। इतनी तम्बीह पर भी किसी को अवज्ञा करने की सामर्थ्य हो सकती है, इसकी संभावना का ध्यान भी उसे न आया।
पर
ज्यों-ज्यों समय बीतने लगा, उस पर यह हकीकत खुलने
लगी कि इस घर में अब उसकी वह हैसियत नहीं रही, जो दस-बारह दिन पहले थी। सम्बंधियों के यहॉँ के नेवते में
शक्कर, मिठाई, दही, अचार आदि आ रहे थे।
बड़ी बहू इन वस्तुओं को स्वामिनी-भाव से सँभाल-सँभालकर रख रही थी। कोई भी उससे
पूछने नहीं आता। बिरादरी के लोग जो कुछ पूछते हैं, कामतानाथ से या बड़ी बहू से। कामतानाथ कहॉँ का बड़ा इंतजामकार
है, रात-दिन भंग पिये पड़ा रहता हैं किसी
तरह रो-धोकर दफ्तर चला जाता है। उसमें भी महीने में पंद्रह नागों से कम नहीं होते।
वह तो कहो, साहब पंडितजी का
लिहाज करता है, नहीं अब तक कभी का
निकाल देता। और बड़ी बहू जैसी फूहड़ औरत भला इन सब बातों को क्या समझेगी! अपने
कपड़े-लत्ते तक तो जतन से रख नहीं सकती, चली
है गृहस्थी चलाने! भद होगी और क्या। सब मिलकर कुल की नाक कटवाऍंगे। वक्त पर
कोई-न-कोई चीज कम हो जायेगी। इन कामों के लिए बड़ा अनुभव चाहिए। कोई चीज तो इतनी
बन जाएगी कि मारी-मारी फिरेगा। कोई चीज इतनी कम बनेगी कि किसी पत्तल पर पहूँचेगी, किसी पर नहीं। आखिर इन सबों को हो क्या
गया है! अच्छा, बहू तिजोरी क्यों खोल
रही है? वह मेरी आज्ञा के बिना तिजोरी खोलनेवाली
कौन होती है? कुंजी उसके पास है
अवश्य; लेकिन जब तक मैं रूपये न निकलवाऊँ, तिजोरी नहीं खुलती। आज तो इस तरह खोल
रही है, मानो मैं कुछ हूँ ही नहीं। यह मुझसे न
बर्दाश्त होगा!
वह
झमककर उठी और बहू के पास जाकर कठोर स्वर में बोली-तिजोरी क्यों खोलती हो बहू, मैंने तो खोलने को नहीं कहा?
बड़ी
बहू ने निस्संकोच भाव से उत्तर दिया-बाजार से सामान आया है, तो दाम न दिया जाएगा।
‘कौन चीज किस भाव में आई है और कितनी आई
है, यह मुझे कुछ नहीं मालूम! जब तक
हिसाब-किताब न हो जाए, रूपये कैसे दिये जाऍं?’
‘हिसाब-किताब सब हो गया है।‘
‘किसने किया?’
‘अब मैं क्या जानूँ किसने किया? जाकर मरदों से पूछो! मुझे हुक्म मिला, रूपये लाकर दे दो, रूपये लिये जाती हूँ!’
फूलमती
खून का घूँट पीकर रह गई। इस वक्त बिगड़ने का अवसर न था। घर में मेहमान
स्त्री-पुरूष भरे हुए थे। अगर इस वक्त उसने लड़कों को डॉँटा, तो लोग यही कहेंगे कि इनके घर में
पंडितजी के मरते ही फूट पड़ गई। दिल पर पत्थर रखकर फिर अपनी कोठरी में चली गयी। जब
मेहमान विदा हो जायेंगे, तब वह एक-एक की खबर
लेगी। तब देखेगी, कौन उसके सामने आता
है और क्या कहता है। इनकी सारी चौकड़ी भुला देगी।
किन्तु
कोठरी के एकांत में भी वह निश्चिन्त न बैठी थी। सारी परिस्थिति को गिद्घ दृष्टि से
देख रही थी, कहॉँ सत्कार का
कौन-सा नियम भंग होता है, कहॉँ मर्यादाओं की
उपेक्षा की जाती है। भोज आरम्भ हो गया। सारी बिरादरी एक साथ पंगत में बैठा दी गई।
ऑंगन में मुश्किल से दो सौ आदमी बैठ सकते हैं। ये पॉँच सौ आदमी इतनी-सी जगह में
कैसे बैठ जायेंगे? क्या आदमी के ऊपर
आदमी बिठाए जायेंगे? दो पंगतों में लोग
बिठाए जाते तो क्या बुराई हो जाती?
यही
तो होता है कि बारह बजे की जगह भोज दो बजे समाप्त होता; मगर यहॉँ तो सबको सोने की जल्दी पड़ी हुई है। किसी तरह यह बला
सिर से टले और चैन से सोएं! लोग कितने सटकर बैठे हुए हैं कि किसी को हिलने की भी
जगह नहीं। पत्तल एक-पर-एक रखे हुए हैं। पूरियां ठंडी हो गईं। लोग गरम-गरम मॉँग
रहें हैं। मैदे की पूरियाँ ठंडी होकर चिमड़ी हो जाती हैं। इन्हें कौन खाएगा? रसोइए को कढ़ाव पर से न जाने क्यों उठा
दिया गया? यही सब बातें नाक
काटने की हैं।
सहसा
शोर मचा, तरकारियों में नमक नहीं। बड़ी बहू
जल्दी-जल्दी नमक पीसने लगी। फूलमती क्रोध के मारे ओ चबा रही थी, पर इस अवसर पर मुँह न खोल सकती थी।
बोरे-भर नमक पिसा और पत्तलों पर डाला गया। इतने में फिर शोर मचा-पानी गरम है, ठंडा पानी लाओ! ठंडे पानी का कोई
प्रबन्ध न था, बर्फ भी न मँगाई गई।
आदमी बाजार दौड़ाया गया, मगर बाजार में इतनी
रात गए बर्फ कहॉँ? आदमी खाली हाथ लौट
आया। मेहमानों को वही नल का गरम पानी पीना पड़ा। फूलमती का बस चलता, तो लड़कों का मुँह नोच लेती। ऐसी
छीछालेदर उसके घर में कभी न हुई थी। उस पर सब मालिक बनने के लिए मरते हैं। बर्फ
जैसी जरूरी चीज मँगवाने की भी किसी को सुधि न थी! सुधि कहॉँ से रहे-जब किसी को गप
लड़ाने से फुर्सत न मिले। मेहमान अपने दिल में क्या कहेंगे कि चले हैं बिरादरी को
भोज देने और घर में बर्फ तक नहीं!
अच्छा, फिर यह हलचल क्यों मच गई? अरे, लोग पंगत से उठे जा रहे हैं। क्या मामला है?
फूलमती
उदासीन न रह सकी। कोठरी से निकलकर बरामदे में आयी और कामतानाथ से पूछा-क्या बात हो
गई लल्ला? लोग उठे क्यों जा रहे
हैं? कामता ने कोई जवाब न दिया। वहॉँ से खिसक
गया। फूलमती झुँझलाकर रह गई। सहसा कहारिन मिल गई। फूलमती ने उससे भी यह प्रश्न
किया। मालूम हुआ, किसी के शोरबे में
मरी हुई चुहिया निकल आई। फूलमती चित्रलिखित-सी वहीं खड़ी रह गई। भीतर ऐसा उबाल उठा
कि दीवार से सिर टकरा ले! अभागे भोज का प्रबन्ध करने चले थे। इस फूहड़पन की कोई हद
है, कितने आदमियों का धर्म सत्यानाश हो गया!
फिर पंगत क्यों न उठ जाए? ऑंखों से देखकर अपना
धर्म कौन गॅवाएगा? हा! सारा किया-धरा
मिट्टी में मिल गया। सैकड़ों रूपये पर पानी फिर गया! बदनामी हुई वह अलग।
मेहमान
उठ चुके थे। पत्तलों पर खाना ज्यों-का-त्यों पड़ा हुआ था। चारों लड़के ऑंगन में
लज्जित खड़े थे। एक दूसरे को इलजाम दे रहा था। बड़ी बहू अपनी देवरानियों पर बिगड़
रही थी। देवरानियॉँ सारा दोष कुमुद के सिर डालती थी। कुमुद खड़ी रो रही थी। उसी
वक्त फूलमती झल्लाई हुई आकर बोली-मुँह में कालिख लगी कि नहीं या अभी कुछ कसर बाकी
हैं? डूब मरो, सब-के-सब जाकर चिल्लू-भर पानी में! शहर में कहीं मुँह दिखाने
लायक भी नहीं रहे।
किसी
लड़के ने जवाब न दिया।
फूलमती
और भी प्रचंड होकर बोली-तुम लोगों को क्या? किसी को शर्म-हया तो है नहीं। आत्मा तो उनकी रो रही है, जिन्होंने अपनी जिन्दगी घर की मरजाद
बनाने में खराब कर दी। उनकी पवित्र आत्मा को तुमने यों कलंकित किया? शहर में थुड़ी-थुड़ी हो रही है। अब कोई
तुम्हारे द्वार पर पेशाब करने तो आएगा नहीं!
कामतानाथ
कुछ देर तक तो चुपचाप खड़ा सुनता रहा। आखिर झुंझला कर बोला-अच्छा, अब चुप रहो अम्मॉँ। भूल हुई, हम सब मानते हैं, बड़ी भंयकर भूल हुई, लेकिन अब क्या उसके लिए घर के प्राणियों
को हलाल-कर डालोगी? सभी से भूलें होती
हैं। आदमी पछताकर रह जाता है। किसी की जान तो नहीं मारी जाती?
बड़ी
बहू ने अपनी सफाई दी-हम क्या जानते थे कि बीबी (कुमुद) से इतना-सा काम भी न होगा।
इन्हें चाहिए था कि देखकर तरकारी कढ़ाव में डालतीं। टोकरी उठाकर कढ़ाव मे डाल दी!
हमारा क्या दोष!
कामतानाथ
ने पत्नी को डॉँटा-इसमें न कुमुद का कसूर है, न तुम्हारा,
न
मेरा। संयोग की बात है। बदनामी भाग में लिखी थी, वह हुई। इतने बड़े भोज में एक-एक मुट्ठी तरकारी कढ़ाव में नहीं
डाली जाती! टोकरे-के-टोकरे उड़ेल दिए जाते हैं। कभी-कभी ऐसी दुर्घटना होती है। पर
इसमें कैसी जग-हँसाई और कैसी नक-कटाई। तुम खामखाह जले पर नमक छिड़कती हो!
फूलमती
ने दांत पीसकर कहा-शरमाते तो नहीं,
उलटे
और बेहयाई की बातें करते हो।
कामतानाथ
ने नि:संकोच होकर कहा-शरमाऊँ क्यों,
किसी
की चोरी की हैं? चीनी में चींटे और
आटे में घुन, यह नहीं देखे जाते।
पहले हमारी निगाह न पड़ी, बस, यहीं बात बिगड़ गई। नहीं, चुपके से चुहिया निकालकर फेंक देते।
किसी को खबर भी न होती।
फूलमती
ने चकित होकर कहा-क्या कहता है,
मरी
चुहिया खिलाकर सबका धर्म बिगाड़ देता?
कामता
हँसकर बोला-क्या पुराने जमाने की बातें करती हो अम्मॉँ। इन बातों से धर्म नहीं
जाता? यह धर्मात्मा लोग जो पत्तल पर से उठ गए
हैं, इनमें से कौन है, जो भेड़-बकरी का मांस न खाता हो? तालाब के कछुए और घोंघे तक तो किसी से
बचते नहीं। जरा-सी चुहिया में क्या रखा था!
फूलमती
को ऐसा प्रतीत हुआ कि अब प्रलय आने में बहुत देर नहीं है। जब पढे-लिखे आदमियों के
मन मे ऐसे अधार्मिक भाव आने लगे,
तो
फिर धर्म की भगवान ही रक्षा करें। अपना-सा मुंह लेकर चली गयी।
2
दो |
महीने गुजर गए हैं। रात का समय है। चारों भाई
दिन के काम से छुट्टी पाकर कमरे में बैठे गप-शप कर रहे हैं। बड़ी बहू भी षड्यंत्र
में शरीक है। कुमुद के विवाह का प्रश्न छिड़ा हुआ है।
कामतानाथ
ने मसनद पर टेक लगाते हुए कहा-दादा की बात दादा के साथ गई। पंडित विद्वान् भी हैं
और कुलीन भी होंगे। लेकिन जो आदमी अपनी विद्या और कुलीनता को रूपयों पर बेचे, वह नीच है। ऐसे नीच आदमी के लड़के से हम
कुमुद का विवाह सेंत में भी न करेंगे, पॉँच
हजार तो दूर की बात है। उसे बताओ धता और किसी दूसरे वर की तलाश करो। हमारे पास कुल
बीस हजार ही तो हैं। एक-एक के हिस्से में पॉँच-पॉँच हजार आते हैं। पॉँच हजार दहेज
में दे दें, और पॉँच हजार नेग-न्योछावर, बाजे-गाजे में उड़ा दें, तो फिर हमारी बधिया ही बैठ जाएगी।
उमानाथ
बोले-मुझे अपना औषधालय खोलने के लिए कम-से-कम पाँच हजार की जरूरत है। मैं अपने
हिस्से में से एक पाई भी नहीं दे सकता। फिर खुलते ही आमदनी तो होगी नहीं। कम-से-कम
साल-भर घर से खाना पड़ेगा।
दयानाथ
एक समाचार-पत्र देख रहे थे। ऑंखों से ऐनक उतारते हुए बोले-मेरा विचार भी एक पत्र
निकालने का है। प्रेस और पत्र में कम-से-कम दस हजार का कैपिटल चाहिए। पॉँच हजार
मेरे रहेंगे तो कोई-न-कोई साझेदार भी मिल जाएगा। पत्रों में लेख लिखकर मेरा
निर्वाह नहीं हो सकता।
कामतानाथ
ने सिर हिलाते हुए कहा—अजी, राम भजो, सेंत में कोई लेख छपता नहीं, रूपये कौन देता है।
दयानाथ
ने प्रतिवाद किया—नहीं, यह बात तो नहीं है। मैं तो कहीं भी बिना
पेशगी पुरस्कार लिये नहीं लिखता।
कामता
ने जैसे अपने शब्द वापस लिये—तुम्हारी बात मैं
नहीं कहता भाई। तुम तो थोड़ा-बहुत मार लेते हो, लेकिन सबको तो नहीं मिलता।
बड़ी
बहू ने श्रद्घा भाव ने कहा—कन्या भग्यवान् हो तो
दरिद्र घर में भी सुखी रह सकती है। अभागी हो, तो राजा के घर में भी रोएगी। यह सब नसीबों का खेल है।
कामतानाथ
ने स्त्री की ओर प्रशंसा-भाव से देखा-फिर इसी साल हमें सीता का विवाह भी तो करना
है।
सीतानाथ
सबसे छोटा था। सिर झुकाए भाइयों की स्वार्थ-भरी बातें सुन-सुनकर कुछ कहने के लिए
उतावला हो रहा था। अपना नाम सुनते ही बोला—मेरे विवाह की आप लोग चिन्ता न करें। मैं जब तक किसी धंधे में
न लग जाऊँगा, विवाह का नाम भी न
लूँगा; और सच पूछिए तो मैं विवाह करना ही नहीं
चाहता। देश को इस समय बालकों की जरूरत नहीं, काम करने वालों की जरूरत है। मेरे हिस्से के रूपये आप कुमुद के
विवाह में खर्च कर दें। सारी बातें तय हो जाने के बाद यह उचित नहीं है कि पंडित
मुरारीलाल से सम्बंध तोड़ लिया जाए।
उमा
ने तीव्र स्वर में कहा—दस हजार कहॉँ से
आऍंगे?
सीता ने डरते हुए कहा—मैं तो अपने हिस्से के रूपये देने को
कहता हूँ।
‘और शेष?’
‘मुरारीलाल से कहा जाए कि दहेज में कुछ
कमी कर दें। वे इतने स्वार्थान्ध नहीं हैं कि इस अवसर पर कुछ बल खाने को तैयार न
हो जाऍं, अगर वह तीन हजार में संतुष्ट हो जाएं तो
पॉँच हजार में विवाह हो सकता है।
उमा
ने कामतानाथ से कहा—सुनते हैं भाई साहब, इसकी बातें।
दयानाथ
बोल उठे-तो इसमें आप लोगों का क्या नुकसान है? मुझे तो इस बात से खुशी हो रही है कि भला, हममे कोई तो त्याग करने योग्य है।
इन्हें तत्काल रूपये की जरूरत नहीं है। सरकार से वजीफा पाते ही हैं। पास होने पर
कहीं-न-कहीं जगह मिल जाएगी। हम लोगों की हालत तो ऐसी नहीं है।
कामतानाथ
ने दूरदर्शिता का परिचय दिया—नुकसान की एक ही कही।
हममें से एक को कष्ट हो तो क्या और लोग बैठे देखेंगे? यह अभी लड़के हैं, इन्हें
क्या मालूम, समय पर एक रूपया एक
लाख का काम करता है। कौन जानता है,
कल
इन्हें विलायत जाकर पढ़ने के लिए सरकारी वजीफा मिल जाए या सिविल सर्विस में आ
जाऍं। उस वक्त सफर की तैयारियों में चार-पॉँच हजार लग जाएँगे। तब किसके सामने हाथ
फैलाते फिरेंगे? मैं यह नहीं चाहता कि
दहेज के पीछे इनकी जिन्दगी नष्ट हो जाए।
इस
तर्क ने सीतानाथ को भी तोड़ लिया। सकुचाता हुआ बोला—हॉँ, यदि ऐसा हुआ तो बेशक
मुझे रूपये की जरूरत होगी।
‘क्या ऐसा होना असंभव है?’
‘असभंव तो मैं नहीं समझता; लेकिन कठिन अवश्य है। वजीफे उन्हें
मिलते हैं, जिनके पास सिफारिशें होती हैं, मुझे कौन पूछता है।‘
‘कभी-कभी सिफारिशें धरी रह जाती हैं और
बिना सिफारिश वाले बाजी मार ले जाते हैं।’
‘तो आप जैसा उचित समझें। मुझे यहॉँ तक
मंजूर है कि चाहे मैं विलायत न जाऊँ; पर
कुमुद अच्छे घर जाए।‘
कामतानाथ
ने निष्ठा—भाव से कहा—अच्छा घर दहेज देने ही से नहीं मिलता
भैया! जैसा तुम्हारी भाभी ने कहा,
यह
नसीबों का खेल है। मैं तो चाहता हूँ कि मुरारीलाल को जवाब दे दिया जाए और कोई ऐसा
घर खोजा जाए, जो थोड़े में राजी हो
जाए। इस विवाह में मैं एक हजार से ज्यादा नहीं खर्च कर सकता। पंडित दीनदयाल कैसे
हैं?
उमा
ने प्रसन्न होकर कहा—बहुत अच्छे। एम.ए., बी.ए. न सही, यजमानों से अच्छी आमदनी है।
दयानाथ
ने आपत्ति की—अम्मॉँ से भी पूछ तो
लेना चाहिए।
कामतानाथ को इसकी कोई जरूरत न मालूम
हुई। बोले-उनकी तो जैसे बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई। वही पुराने युग की बातें!
मुरारीलाल के नाम पर उधार खाए बैठी हैं। यह नहीं समझतीं कि वह जमाना नहीं रहा।
उनको तो बस, कुमुद मुरारी पंडित
के घर जाए, चाहे हम लोग तबाह हो
जाऍं।
उमा
ने एक शंका उपस्थित की—अम्मॉँ अपने सब गहने
कुमुद को दे देंगी, देख लीजिएगा।
कामतानाथ
का स्वार्थ नीति से विद्रोह न कर सका। बोले-गहनों पर उनका पूरा अधिकार है। यह उनका
स्त्रीधन है। जिसे चाहें, दे सकती हैं।
उमा ने कहा—स्त्रीधन है तो क्या वह उसे लुटा देंगी। आखिर वह भी तो दादा ही
की कमाई है।
‘किसी की कमाई हो। स्त्रीधन पर उनका पूरा
अधिकार है!’
‘यह कानूनी गोरखधंधे हैं। बीस हजार में
तो चार हिस्सेदार हों और दस हजार के गहने अम्मॉँ के पास रह जाऍं। देख लेना, इन्हीं के बल पर वह कुमुद का विवाह
मुरारी पंडित के घर करेंगी।‘
उमानाथ इतनी बड़ी रकम को इतनी आसानी से
नहीं छोड़ सकता। वह कपट-नीति में कुशल है। कोई कौशल रचकर माता से सारे गहने ले
लेगा। उस वक्त तक कुमुद के विवाह की चर्चा करके फूलमती को भड़काना उचित नहीं।
कामतानाथ ने सिर हिलाकर कहा—भाई, मैं इन चालों को पसंद नहीं करता।
उमानाथ ने खिसियाकर कहा—गहने दस हजार से कम के न होंगे।
कामता अविचलित स्वर में बोले—कितने ही के हों; मैं अनीति में हाथ नहीं डालना चाहता।
‘तो आप अलग बैठिए। हां, बीच में भांजी न मारिएगा।‘
‘मैं अलग रहूंगा।‘
‘और तुम सीता?’
‘अलग रहूंगा।‘
लेकिन जब दयानाथ से यही प्रश्न किया गया, तो वह उमानाथ से सहयोग करने को तैयार हो
गया। दस हजार में ढ़ाई हजार तो उसके होंगे ही। इतनी बड़ी रकम के लिए यदि कुछ कौशल
भी करना पड़े तो क्षम्य है।
3
फू |
लमती रात को भोजन करके लेटी थी कि उमा
और दया उसके पास जा कर बैठ गए। दोनों ऐसा मुँह बनाए हुए थे, मानो कोई भरी विपत्ति आ पड़ी है। फूलमती
ने सशंक होकर पूछा—तुम दोनों घबड़ाए हुए
मालूम होते हो?
उमा
ने सिर खुजलाते हुए कहा—समाचार-पत्रों में
लेख लिखना बड़े जोखिम का काम है अम्मा! कितना ही बचकर लिखो, लेकिन कहीं-न-कहीं पकड़ हो ही जाती है।
दयानाथ ने एक लेख लिखा था। उस पर पॉँच हजार की जमानत मॉँगी गई है। अगर कल तक जमा न
कर दी गई, तो गिरफ्तार हो
जाऍंगे और दस साल की सजा ठुक जाएगी।
फूलमती
ने सिर पीटकर कहा—ऐसी बातें क्यों
लिखते हो बेटा? जानते नहीं हो, आजकल हमारे अदिन आए हुए हैं। जमानत किसी
तरह टल नहीं सकती?
दयानाथ
ने अपराधी—भाव से उत्तर दिया—मैंने तो अम्मा, ऐसी कोई बात नहीं लिखी थी; लेकिन किस्मत को क्या करूँ। हाकिम जिला इतना कड़ा है कि जरा भी
रियायत नहीं करता। मैंने जितनी दौंड़-धूप हो सकती थी, वह सब कर ली।
‘तो तुमने कामता से रूपये का प्रबन्ध
करने को नहीं कहा?’
उमा
ने मुँह बनाया—उनका स्वभाव तो तुम
जानती हो अम्मा, उन्हें रूपये प्राणों
से प्यारे हैं। इन्हें चाहे कालापानी ही हो जाए, वह एक पाई न देंगे।
दयानाथ
ने समर्थन किया—मैंने तो उनसे इसका
जिक्र ही नहीं किया।
फूलमती
ने चारपाई से उठते हुए कहा—चलो, मैं कहती हूँ, देगा कैसे नहीं?
रूपये
इसी दिन के लिए होते हैं कि गाड़कर रखने के लिए?
उमानाथ
ने माता को रोककर कहा-नहीं अम्मा,
उनसे
कुछ न कहो। रूपये तो न देंगे, उल्टे और हाय-हाय
मचाऍंगे। उनको अपनी नौकरी की खैरियत मनानी है, इन्हें घर में रहने भी न देंगे। अफ़सरों में जाकर खबर दे दें
तो आश्चर्य नहीं।
फूलमती
ने लाचार होकर कहा—तो फिर जमानत का क्या
प्रबन्ध करोगे? मेरे पास तो कुछ नहीं
है। हॉँ, मेरे गहने हैं, इन्हें ले जाओ,
कहीं
गिरों रखकर जमानत दे दो। और आज से कान पकड़ो कि किसी पत्र में एक शब्द भी न
लिखोगे।
दयानाथ
कानों पर हाथ रखकर बोला—यह तो नहीं हो सकता
अम्मा, कि तुम्हारे जेवर लेकर मैं अपनी जान
बचाऊँ। दस-पॉँच साल की कैद ही तो होगी, झेल
लूँगा। यहीं बैठा-बैठा क्या कर रहा हूँ!
फूलमती
छाती पीटते हुए बोली—कैसी बातें मुँह से
निकालते हो बेटा, मेरे जीते-जी तम्हें
कौन गिरफ्तार कर सकता है! उसका मुँह झुलस दूंगी। गहने इसी दिन के लिए हैं या और
किसी दिन के लिए! जब तुम्हीं न रहोगे, तो
गहने लेकर क्या आग में झोकूँगीं!
उसने
पिटारी लाकर उसके सामने रख दी।
दया
ने उमा की ओर जैसे फरियाद की ऑंखों से देखा और बोला—आपकी क्या राय है भाई साहब? इसी मारे मैं कहता था, अम्मा को बताने की जरूरत नहीं। जेल ही तो हो जाती या और कुछ?
उमा
ने जैसे सिफारिश करते हुए कहा—यह कैसे हो सकता था
कि इतनी बड़ी वारदात हो जाती और अम्मा को खबर न होती। मुझसे यह नहीं हो सकता था कि
सुनकर पेट में डाल लेता; मगर अब करना क्या
चाहिए, यह मैं खुद निर्णय नहीं कर सकता। न तो
यही अच्छा लगता है कि तुम जेल जाओ और न यही अच्छा लगता है कि अम्मॉँ के गहने गिरों
रखे जाऍं।
फूलमती
ने व्यथित कंठ से पूछा—क्या तुम समझते हो, मुझे गहने तुमसे ज्यादा प्यारे हैं? मैं तो प्राण तक तुम्हारे ऊपर न्योछावर
कर दूँ, गहनों की बिसात ही क्या है।
दया
ने दृढ़ता से कहा—अम्मा, तुम्हारे गहने तो न लूँगा, चाहे मुझ पर कुछ ही क्यों न आ पड़े। जब
आज तक तुम्हारी कुछ सेवा न कर सका,
तो
किस मुँह से तुम्हारे गहने उठा ले जाऊँ? मुझ
जैसे कपूत को तो तुम्हारी कोख से जन्म ही न लेना चाहिए था। सदा तुम्हें कष्ट ही
देता रहा।
फूलमती
ने भी उतनी ही दृढ़ता से कहा-अगर यों न लोगे, तो मैं खुद जाकर इन्हें गिरों रख दूँगी और खुद हाकिम जिला के
पास जाकर जमानत जमा कर आऊँगी; अगर इच्छा हो तो यह
परीक्षा भी ले लो। ऑंखें बंद हो जाने के बाद क्या होगा, भगवान् जानें,
लेकिन
जब तक जीती हूँ तुम्हारी ओर कोई तिरछी आंखों से देख नहीं सकता।
उमानाथ
ने मानो माता पर एहसान रखकर कहा—अब तो तुम्हारे लिए
कोई रास्ता नहीं रहा दयानाथ। क्या हरज है, ले लो; मगर याद रखो, ज्यों ही हाथ में रूपये आ जाऍं, गहने छुड़ाने पड़ेंगे। सच कहते हैं, मातृत्व दीर्घ तपस्या है। माता के सिवाय
इतना स्नेह और कौन कर सकता है? हम बड़े अभागे हैं कि
माता के प्रति जितनी श्रद्घा रखनी चाहिए, उसका
शतांश भी नहीं रखते।
दोनों
ने जैसे बड़े धर्मसंकट में पड़कर गहनों की पिटारी सँभाली और चलते बने। माता
वात्सल्य-भरी ऑंखों से उनकी ओर देख रही थी और उसकी संपूर्ण आत्मा का आशीर्वाद जैसे
उन्हें अपनी गोद में समेट लेने के लिए व्याकुल हो रहा था। आज कई महीने के बाद उसके
भग्न मातृ-हृदय को अपना सर्वस्व अर्पण करके जैसे आनन्द की विभूति मिली। उसकी
स्वामिनी कल्पना इसी त्याग के लिए,
इसी
आत्मसमर्पण के लिए जैसे कोई मार्ग ढूँढ़ती रहती थी। अधिकार या लोभ या ममता की वहॉँ
गँध तक न थी। त्याग ही उसका आनन्द और त्याग ही उसका अधिकार है। आज अपना खोया हुआ
अधिकार पाकर अपनी सिरजी हुई प्रतिमा पर अपने
प्राणों की भेंट करके वह निहाल हो गई।
4
ती |
न महीने और गुजर गये। मॉँ के गहनों पर
हाथ साफ करके चारों भाई उसकी दिलजोई करने लगे थे। अपनी स्त्रियों को भी समझाते थे
कि उसका दिल न दुखाऍं। अगर थोड़े-से शिष्टाचार से उसकी आत्मा को शांति मिलती है, तो इसमें क्या हानि है। चारों करते अपने
मन की, पर माता से सलाह ले लेते या ऐसा जाल
फैलाते कि वह सरला उनकी बातों में आ जाती और हरेक काम में सहमत हो जाती। बाग को
बेचना उसे बहुत बुरा लगता था; लेकिन चारों ने ऐसी
माया रची कि वह उसे बेचते पर राजी हो गई,
किन्तु कुमुद के विवाह के विषय में मतैक्य न हो सका। मॉँ पं. पुरारीलाल पर जमी हुई
थी, लड़के दीनदयाल पर अड़े हुए थे। एक दिन
आपस में कलह हो गई।
फूलमती
ने कहा—मॉँ-बाप की कमाई में बेटी का हिस्सा भी
है। तुम्हें सोलह हजार का एक बाग मिला, पच्चीस
हजार का एक मकान। बीस हजार नकद में क्या पॉँच हजार भी कुमुद का हिस्सा नहीं है?
कामता
ने नम्रता से कहा—अम्मॉँ, कुमुद आपकी लड़की है, तो हमारी बहन है। आप दो-चार साल में
प्रस्थान कर जाऍंगी; पर हमार और उसका बहुत
दिनों तक सम्बन्ध रहेगा। तब हम यथाशक्ति कोई ऐसी बात न करेंगे, जिससे उसका अमंगल हो; लेकिन हिस्से की बात कहती हो, तो कुमुद का हिस्सा कुछ नहीं। दादा
जीवित थे, तब और बात थी। वह
उसके विवाह में जितना चाहते, खर्च करते। कोई उनका
हाथ न पकड़ सकता था; लेकिन अब तो हमें
एक-एक पैसे की किफायत करनी पड़ेगी। जो काम हजार में हो जाए, उसके लिए पॉँच हजार खर्च करना कहॉँ की
बुद्धिमानी है?
उमानाथ
से सुधारा—पॉँच हजार क्यों, दस हजार कहिए।
कामता
ने भवें सिकोड़कर कहा—नहीं, मैं पाँच हजार ही कहूँगा; एक विवाह में पॉँच हजार खर्च करने की
हमारी हैसियत नहीं है।
फूलमती
ने जिद पकड़कर कहा—विवाह तो मुरारीलाल
के पुत्र से ही होगा, पॉँच हजार खर्च हो, चाहे दस हजार। मेरे पति की कमाई है।
मैंने मर-मरकर जोड़ा है। अपनी इच्छा से खर्च करूँगी। तुम्हीं ने मेरी कोख से नहीं
जन्म लिया है। कुमुद भी उसी कोख से आयी है। मेरी ऑंखों में तुम सब बराबर हो। मैं
किसी से कुछ मॉँगती नहीं। तुम बैठे तमाशा देखो, मैं सब—कुछ कर लूँगी। बीस
हजार में पॉँच हजार कुमुद का है।
कामतानाथ को अब कड़वे सत्य की शरण लेने
के सिवा और मार्ग न रहा। बोला-अम्मा, तुम
बरबस बात बढ़ाती हो। जिन रूपयों को तुम अपना समझती हो, वह तुम्हारे नहीं हैं; तुम हमारी अनुमति के बिना उनमें से कुछ नहीं खर्च कर सकती।
फूलमती
को जैसे सर्प ने डस लिया—क्या कहा! फिर तो
कहना! मैं अपने ही संचे रूपये अपनी इच्छा से नहीं खर्च कर सकती?
‘वह रूपये तुम्हारे नहीं रहे, हमारे हो गए।‘
‘तुम्हारे होंगे; लेकिन मेरे मरने के पीछे।‘
‘नहीं, दादा के मरते ही हमारे हो गए!’
उमानाथ
ने बेहयाई से कहा—अम्मा, कानून—कायदा तो जानतीं नहीं, नाहक उछलती हैं।
फूलमती
क्रोध—विहृल रोकर बोली—भाड़ में जाए तुम्हारा कानून। मैं ऐसे
कानून को नहीं जानती। तुम्हारे दादा ऐसे कोई धन्नासेठ नहीं थे। मैंने ही पेट और तन
काटकर यह गृहस्थी जोड़ी है, नहीं आज बैठने की
छॉँह न मिलती! मेरे जीते-जी तुम मेरे रूपये नहीं छू सकते। मैंने तीन भाइयों के
विवाह में दस-दस हजार खर्च किए हैं। वही मैं कुमुद के विवाह में भी खर्च करूँगी।
कामतानाथ
भी गर्म पड़ा—आपको कुछ भी खर्च
करने का अधिकार नहीं है।
उमानाथ
ने बड़े भाई को डॉँटा—आप खामख्वाह अम्मॉँ
के मुँह लगते हैं भाई साहब! मुरारीलाल को पत्र लिख दीजिए कि तुम्हारे यहॉँ कुमुद
का विवाह न होगा। बस, छुट्टी हुई।
कायदा-कानून तो जानतीं नहीं, व्यर्थ की बहस करती
हैं।
फूलमती
ने संयमित स्वर में कही—अच्छा, क्या कानून है, जरा मैं भी सुनूँ।
उमा
ने निरीह भाव से कहा—कानून यही है कि बाप
के मरने के बाद जायदाद बेटों की हो जाती है। मॉँ का हक केवल रोटी-कपड़े का है।
फूलमती
ने तड़पकर पूछा— किसने यह कानून बनाया
है?
उमा
शांत स्थिर स्वर में बोला—हमारे ऋषियों ने, महाराज मनु ने, और किसने?
फूलमती
एक क्षण अवाक् रहकर आहत कंठ से बोली—तो
इस घर में मैं तुम्हारे टुकड़ों पर पड़ी हुई हूँ?
उमानाथ
ने न्यायाधीश की निर्ममता से कहा—तुम जैसा समझो।
फूलमती
की संपूर्ण आत्मा मानो इस वज्रपात से चीत्कार करने लगी। उसके मुख से जलती हुई
चिगांरियों की भॉँति यह शब्द निकल पड़े—मैंने
घर बनवाया, मैंने संपत्ति जोड़ी, मैंने तुम्हें जन्म दिया, पाला और आज मैं इस घर में गैर हूँ? मनु का यही कानून है? और तुम उसी कानून पर चलना चाहते हो? अच्छी बात है। अपना घर-द्वार लो। मुझे
तुम्हारी आश्रिता बनकर रहता स्वीकार नहीं। इससे कहीं अच्छा है कि मर जाऊँ। वाह रे
अंधेर! मैंने पेड़ लगाया और मैं ही उसकी छॉँह में खड़ी हो सकती; अगर यही कानून है, तो इसमें आग लग जाए।
चारों
युवक पर माता के इस क्रोध और आंतक का कोई असर न हुआ। कानून का फौलादी कवच उनकी
रक्षा कर रहा था। इन कॉँटों का उन पर क्या असर हो सकता था?
जरा
देर में फूलमती उठकर चली गयी। आज जीवन में पहली बार उसका वात्सल्य मग्न मातृत्व
अभिशाप बनकर उसे धिक्कारने लगा। जिस मातृत्व को उसने जीवन की विभूति समझा था, जिसके चरणों पर वह सदैव अपनी समस्त
अभिलाषाओं और कामनाओं को अर्पित करके अपने को धन्य मानती थी, वही मातृत्व आज उसे अग्निकुंड-सा जान
पड़ा, जिसमें उसका जीवन जलकर भस्म हो गया।
संध्या
हो गई थी। द्वार पर नीम का वृक्ष सिर झुकाए, निस्तब्ध खड़ा था, मानो
संसार की गति पर क्षुब्ध हो रहा हो। अस्ताचल की ओर प्रकाश और जीवन का देवता फूलवती
के मातृत्व ही की भॉँति अपनी चिता में जल रहा था।
5
फू |
लमती अपने कमरे में जाकर लेटी, तो उसे मालूम हुआ, उसकी कमर टूट गई है। पति के मरते ही
अपने पेट के लड़के उसके शत्रु हो जायेंगे, उसको स्वप्न में भी अनुमान न था। जिन लड़कों को उसने अपना
हृदय-रक्त पिला-पिलाकर पाला, वही आज उसके हृदय पर
यों आघात कर रहे हैं! अब वह घर उसे कॉँटों की सेज हो रहा था। जहॉँ उसकी कुछ कद्र
नहीं, कुछ गिनती नहीं, वहॉँ अनाथों की भांति पड़ी रोटियॉँ खाए, यह उसकी अभिमानी प्रकृति के लिए असह्य था।
पर
उपाय ही क्या था? वह लड़कों से अलग
होकर रहे भी तो नाक किसकी कटेगी! संसार उसे थूके तो क्या, और लड़कों को थूके तो क्या; बदमानी तो उसी की है। दुनिया यही तो कहेगी कि चार जवान बेटों
के होते बुढ़िया अलग पड़ी हुई मजूरी करके पेट पाल रही है! जिन्हें उसने हमेशा नीच
समझा, वही उस पर हँसेंगे। नहीं, वह अपमान इस अनादर से कहीं ज्यादा
हृदयविदारक था। अब अपना और घर का परदा ढका रखने में ही कुशल है। हाँ, अब उसे अपने को नई परिस्थितियों के
अनुकूल बनाना पड़ेगा। समय बदल गया है। अब तक स्वामिनी बनकर रही, अब लौंडी बनकर रहना पड़ेगा। ईश्वर की
यही इच्छा है। अपने बेटों की बातें और लातें गैरों ककी बातों और लातों की अपेक्षा
फिर भी गनीमत हैं।
वह बड़ी देर तक मुँह ढॉँपे अपनी दशा पर
रोती रही। सारी रात इसी आत्म-वेदना में कट गई। शरद् का प्रभाव डरता-डरता उषा की
गोद से निकला, जैसे कोई कैदी छिपकर
जेल से भाग आया हो। फूलमती अपने नियम के विरूद्ध आज लड़के ही उठी, रात-भर मे उसका मानसिक परिवर्तन हो चुका
था। सारा घर सो रहा था और वह आंगन में झाडू लगा रही थी। रात-भर ओस में भीगी हुई
उसकी पक्की जमीन उसके नंगे पैरों में कॉँटों की तरह चुभ रही थी। पंडितजी उसे कभी
इतने सवेरे उठने न देते थे। शीत उसके लिए बहुत हानिकारक था। पर अब वह दिन नहीं
रहे। प्रकृति उस को भी समय के साथ बदल देने का प्रयत्न कर रही थी। झाडू से फुरसत
पाकर उसने आग जलायी और चावल-दाल की कंकड़ियॉँ चुनने लगी। कुछ देर में लड़के जागे।
बहुऍं उठीं। सभों ने बुढ़िया को सर्दी से सिकुड़े हुए काम करते देखा; पर किसी ने यह न कहा कि अम्मॉँ, क्यों हलकान होती हो? शायद सब-के-सब बुढ़िया के इस मान-मर्दन
पर प्रसन्न थे।
आज
से फूलमती का यही नियम हो गया कि जी तोड़कर घर का काम करना और अंतरंग नीति से अलग
रहना। उसके मुख पर जो एक आत्मगौरव झलकता रहता था, उसकी जगह अब गहरी वेदना छायी हुई नजर आती थी। जहां बिजली जलती
थी, वहां अब तेल का दिया टिमटिमा रहा था, जिसे बुझा देने के लिए हवा का एक
हलका-सा झोंका काफी है।
मुरारीलाल
को इनकारी-पत्र लिखने की बात पक्की हो चुकी थी। दूसरे दिन पत्र लिख दिया गया।
दीनदयाल से कुमुद का विवाह निश्चित हो गया। दीनदयाल की उम्र चालीस से कुछ अधिक थी, मर्यादा में भी कुछ हेठे थे, पर रोटी-दाल से खुश थे। बिना किसी ठहराव
के विवाह करने पर राजी हो गए। तिथि नियत हुई, बारात आयी, विवाह हुआ और कुमुद
बिदा कर दी गई फूलमती के दिल पर क्या गुजर रही थी, इसे कौन जान सकता है; पर
चारों भाई बहुत प्रसन्न थे, मानो उनके हृदय का
कॉँटा निकल गया हो। ऊँचे कुल की कन्या, मुँह
कैसे खोलती? भाग्य में सुख भोगना
लिखा होगा, सुख भोगेगी; दुख भोगना लिखा होगा, दुख झेलेगी। हरि-इच्छा बेकसों का अंतिम
अवलम्ब है। घरवालों ने जिससे विवाह कर दिया, उसमें हजार ऐब हों, तो
भी वह उसका उपास्य, उसका स्वामी है।
प्रतिरोध उसकी कल्पना से परे था।
फूलमती
ने किसी काम मे दखल न दिया। कुमुद को क्या दिया गया, मेहमानों का कैसा सत्कार किया गया, किसके यहॉँ से नेवते में क्या आया, किसी बात से भी उसे सरोकार न था। उससे कोई सलाह भी ली गई तो
यही-बेटा, तुम लोग जो करते हो, अच्छा ही करते हो। मुझसे क्या पूछते हो!
जब
कुमुद के लिए द्वार पर डोली आ गई और कुमुद मॉँ के गले लिपटकर रोने लगी, तो वह बेटी को अपनी कोठरी में ले गयी और
जो कुछ सौ पचास रूपये और दो-चार मामूली गहने उसके पास बच रहे थे, बेटी की अंचल में डालकर बोली—बेटी, मेरी तो मन की मन में रह गई, नहीं तो क्या आज तुम्हारा विवाह इस तरह होता और तुम इस तरह
विदा की जातीं!
आज
तक फूलमती ने अपने गहनों की बात किसी से न कही थी। लड़कों ने उसके साथ जो
कपट-व्यवहार किया था, इसे चाहे अब तक न
समझी हो, लेकिन इतना जानती थी कि गहने फिर न
मिलेंगे और मनोमालिन्य बढ़ने के सिवा कुछ हाथ न लगेगा; लेकिन इस अवसर पर उसे अपनी सफाई देने की जरूरत मालूम हुई।
कुमुद यह भाव मन मे लेकर जाए कि अम्मां ने अपने गहने बहुओं के लिए रख छोड़े, इसे वह किसी तरह न सह सकती थी, इसलिए वह उसे अपनी कोठरी में ले गयी
थी। लेकिन कुमुद को पहले ही इस कौशल की टोह मिल चुकी थी; उसने गहने और रूपये ऑंचल से निकालकर माता के चरणों में रख दिए
और बोली-अम्मा, मेरे लिए तुम्हारा
आशीर्वाद लाखों रूपयों के बराबर है। तुम इन चीजों को अपने पास रखो। न जाने अभी
तुम्हें किन विपत्तियों को सामना करना पड़े।
फूलमती
कुछ कहना ही चाहती थी कि उमानाथ ने आकर कहा—क्या कर रही है कुमुद? चल, जल्दी कर। साइत टली
जाती है। वह लोग हाय-हाय कर रहे हैं, फिर
तो दो-चार महीने में आएगी ही, जो कुछ लेना-देना हो, ले लेना।
फूलमती
के घाव पर जैसे मानो नमक पड़ गया। बोली-मेरे पास अब क्या है भैया, जो इसे मैं दूगी? जाओ बेटी, भगवान् तुम्हारा सोहाग अमर करें।
कुमुद विदा हो गई। फूलमती पछाड़ गिर
पड़ी। जीवन की लालसा नष्ट हो गई।
6
ए |
क साल बीत गया।
फूलमती का कमरा घर में सब कमरों से बड़ा
और हवादार था। कई महीनों से उसने बड़ी बहू के लिए खाली कर दिया था और खुद एक
छोटी-सी कोठरी में रहने लगी, जैसे कोई भिखारिन हो।
बेटों और बहुओं से अब उसे जरा भी स्नेह न था, वह अब घर की लौंडी थी। घर के किसी प्राणी, किसी वस्तु, किसी प्रसंग से उसे प्रयोजन न था। वह केवल इसलिए जीती थी कि
मौत न आती थी। सुख या दु:ख का अब उसे लेशमात्र भी ज्ञान न था।
उमानाथ का औषधालय खुला, मित्रों की दावत हुई, नाच-तमाशा हुआ। दयानाथ का प्रेस खुला, फिर जलसा हुआ। सीतानाथ को वजीफा मिला और
विलायत गया, फिर उत्सव हुआ। कामतानाथ
के बड़े लड़के का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ,
फिर धूम-धाम हुई; लेकिन फूलमती के मुख
पर आनंद की छाया तक न आई! कामताप्रसाद टाइफाइड में महीने-भर बीमार रहा और मरकर
उठा। दयानाथ ने अबकी अपने पत्र का प्रचार बढ़ाने के लिए वास्तव में एक आपत्तिजनक
लेख लिखा और छ: महीने की सजा पायी। उमानाथ ने एक फौजदारी के मामले में रिश्वत लेकर
गलत रिपोर्ट लिखी और उसकी सनद छीन ली गई; पर
फूलमती के चेहरे पर रंज की परछाईं तक न पड़ी। उसके जीवन में अब कोई आशा, कोई दिलचस्पी, कोई चिन्ता न थी। बस, पशुओं
की तरह काम करना और खाना, यही उसकी जिन्दगी के
दो काम थे। जानवर मारने से काम करता है; पर
खाता है मन से। फूलमती बेकहे काम करती थी; पर खाती थी विष के कौर की तरह। महीनों सिर में तेल न पड़ता, महीनों कपड़े न धुलते, कुछ परवाह नहीं। चेतनाशून्य हो गई थी।
सावन
की झड़ी लगी हुई थी। मलेरिया फैल रहा था। आकाश में मटियाले बादल थे, जमीन पर मटियाला पानी। आर्द्र वायु
शीत-ज्वर और श्वास का वितरणा करती फिरती थी। घर की महरी बीमार पड़ गई। फूलमती ने
घर के सारे बरतन मॉँजे, पानी में भीग-भीगकर
सारा काम किया। फिर आग जलायी और चूल्हे पर पतीलियॉँ चढ़ा दीं। लड़कों को समय पर
भोजन मिलना चाहिए। सहसा उसे याद आया, कामतानाथ
नल का पानी नहीं पीते। उसी वर्षा में गंगाजल लाने चली।
कामतानाथ
ने पलंग पर लेटे-लेटे कहा-रहने दो अम्मा, मैं
पानी भर लाऊँगा, आज महरी खूब बैठ रही।
फूलमती
ने मटियाले आकाश की ओर देखकर कहा—तुम भीग जाओगे बेटा, सर्दी हो जायगी।
कामतानाथ
बोले—तुम भी तो भीग रही हो। कहीं बीमार न पड़
जाओ।
फूलमती
निर्मम भाव से बोली—मैं बीमार न पडूँगी।
मुझे भगवान् ने अमर कर दिया है।
उमानाथ
भी वहीं बैठा हुआ था। उसके औषधालय में कुछ आमदनी न होती थी, इसलिए बहुत चिन्तित था। भाई-भवाज की
मुँहदेखी करता रहता था। बोला—जाने भी दो भैया!
बहुत दिनों बहुओं पर राज कर चुकी है, उसका
प्रायश्चित्त तो करने दो।
गंगा
बढ़ी हुई थी, जैसे समुद्र हो।
क्षितिज के सामने के कूल से मिला हुआ था। किनारों के वृक्षों की केवल
फुनगियॉँ पानी के ऊपर रह गई थीं। घाट ऊपर
तक पानी में डूब गए थे। फूलमती कलसा लिये नीचे उतरी, पानी भरा और ऊपर जा रही थी कि पॉँव फिसला। सँभल न सकी। पानी
में गिर पड़ी। पल-भर हाथ-पाँव चलाये, फिर
लहरें उसे नीचे खींच ले गईं। किनारे पर दो-चार पंडे चिल्लाए-‘अरे दौड़ो, बुढ़िया डूबी जाती है।’ दो-चार आदमी दौड़े भी लेकिन फूलमती लहरों में समा गई थी, उन बल खाती हुई लहरों में, जिन्हें देखकर ही हृदय कॉँप उठता था।
एक
ने पूछा—यह कौन बुढ़िया थी?
‘अरे, वही पंडित अयोध्यानाथ की विधवा है।‘
‘अयोध्यानाथ तो बड़े आदमी थे?’
‘हॉँ थे तो, पर इसके भाग्य में ठोकर खाना लिखा था।‘
‘उनके तो कई लड़के बड़े-बड़े हैं और सब
कमाते हैं?’
‘हॉँ, सब हैं भाई;
मगर
भाग्य भी तो कोई वस्तु है!’
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