@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

क्या सर्वोच्च न्य़ायालय गरीब विद्यार्थियों के पक्ष में निर्णय देगा?

शिक्षा के अधिकार कानून द्वारा निजी विद्यालयों पर 25 प्रतिशत आर्थिक रूप से कमजोर विद्यार्थियों को प्रवेश देने की बाध्यता के विरुद्ध प्रस्तुत की गई याचिकाओं पर आज सर्वोच्च निर्णय निर्णय देने वाला है। लंबी सुनवाई के उपरान्त दिनांक 3 अगस्त 2011 को निर्णय को मुख्य न्यायाधीश एचएस कापड़िया, न्यायाधीश केएसपी राधाकृष्णन् तथा न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार द्वारा सुरक्षित रख लिया गया था। इस मामले में  दो पृथक पृथक निर्णय दिए जाएंगे जिनमें से एक मुख्य न्यायाधीश एचएस कापड़िया का तथा दूसरा न्यायाधीश केएसपी राधाकृष्णन् का होगा। इस मामले में सोसायटी फॉर अनएडेड प्राइवेट स्कूल्स तथा इंडिपेंडेंट स्कूल्स फेडरेशन ऑफ इंडिया तथा कुछ अन्य ने चुनौती दी है कि इस कानून से राज्य के हस्तक्षेप के बिना विद्यालय संचालित करने के उन के अधिकार का उल्लंघन हुआ है। उन का यह भी कहना है कि 25 प्रतिशत विद्यार्थियों को निशुल्क प्रवेश देने से उन के संचालन के लिए आर्थिक स्रोत चुक जाएंगे। फिर भी ऐसा किया जाता है तो ऐसे विद्यालयों द्वारा जो व्यय इन 25 प्रतिशत विद्यार्थियों पर किया जाता है उस की सरकार द्वारा भरपाई की जानी चाहिए।  

देश की अधिकांश जनता का विश्वास है कि इस मामले में निर्णय गरीब विद्यार्थियों के पक्ष में होगा। निश्चय ही देश के बच्चों की शिक्षा की जिम्मेदारी वहन करना राज्य का कर्तव्य होना चाहिए। सभी विद्यालय राज्य के नियंत्रण में ही संचालित किए जाने चाहिए और विद्यालयों के स्तर में किसी तरह का कोई भेद नहीं होना चाहिए। लेकिन निजि विद्यालयों ने शिक्षा में समता को पूरी तरह नष्ट कर दिया है। जो लोग अपने बच्चों के लिए धन खर्च करने की क्षमता रखते हैं उन के लिए अच्छे और साधन संपन्न विद्यालय मुहैया कराने की छूट ने और सरकारी विद्यालयों के लगातार गिरते स्तर ने शिक्षा को एक उद्योग में बदल दिया है और इस उद्योग में निवेश कर के लोग अकूत धन संपदा एकत्र कर रहे हैं। एक निजि विद्यालय हर वर्ष अपनी संपदा में वृद्धि करते हैं। संरक्षकों की जेबें खाली कर नयी नयी इमारतें खड़ी की जाती हैं। सरकारी विद्यालयों से अधिक अच्छी शिक्षा प्रदान करने का दावा करने वाले इन विद्यालयों के कर्मचारियों को सरकारी विद्यालयों के कर्मचारियों की अपेक्षा बहुत कम वेतन दिया जाता है। उन्हें किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती। राज्य सरकारों ने कहीं कहीं इन कर्मचारियों की सामाजिक सुरक्षा के लिए कानून बनाए भी हैं तो उन की पालना कराने वाला कोई नहीं है। 

क स्थिति यह भी है कि सरकारों के पास अच्छे विद्यालय खोले जाने के लिए पर्याप्त आर्थिक साधन नहीं हैं। ऐसे में जनता की जेबें खाली करने वाले विद्यालयों पर 25 प्रतिशत निर्धन विद्यार्थियों को निशु्ल्क शिक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी राज्य द्वारा सौंपी जाती है तो वह किसी प्रकार संविधान के प्रावधानों के विपरीत नहीं हो सकता। अपेक्षा की जानी चाहिए कि आज सर्वोच्च न्यायालय निर्धन विद्यार्थियों के पक्ष में अपना निर्णय. देगा।

सोमवार, 2 अप्रैल 2012

'अभिव्यक्ति' सामाजिक यथार्थवादी साहित्य की पत्रिका


पिछले दिसंबर के पन्द्रहवें दिन फरीदाबाद में सड़क पर चलते हुए अचानक बाएँ पैर के घुटने के अंदर की तरफ का बंध चोटिल हुआ कि अभी तक चाल सुधर नहीं सकी है। चिकित्सको का कहना है कि मुझे कम से कम एक-डेढ़ माह का बेड रेस्ट (शैया विश्राम) करना चाहिेए। तभी यह ठीक हो सकेगा। मैं चलता फिरता रहा तो इस के ठीक होने की अवधि आगे बढती जाएगी। अब बेड काम तो मुझ से कभी हुए नहीं तो अब बेड रेस्ट कैसे होता? वैसे भी मेरा पेशा ऐसा है कि मैं दूसरों की जिम्मेदारी ढोता हूँ। उस में कोताही करने का अर्थ है उन्हें न्याय और राहत प्राप्त  करने में देरी। मेरी कोशिश रहती है कि मैं अपने मुवक्किलों के प्रति जिम्मेदारी को अवश्य पूरा करूँ। लेकिन यह भी कोशिश रहती है कि मुझे काम के दिनों में कम से कम चलना पड़े, घुटने पर जोर कम से कम देना पड़े। अवकाश  के दिन तो मैं घर से निकलना भी पसंद नहीं करता। लेकिन अपने कार्यालय में तो बैठना ही पड़ता है। पर इस में पैर पर कोई जोर नहीं पड़ता। घर से न निकल पाने के कारण पिछले ढ़ाई माह में उन लोगों से जिन से मेरी निरंतर मुलाकात होती रहती थी उन्हें भी मैं नहीं मिल सका हूँ। आज भी एक दुकान के उद्घाटन और कम से कम दो लोगों की सेवा निवृत्ति पर हो रहे कार्यक्रम में जाना था पर पैर को आराम देने के लिए वहाँ जाना निरस्त किया। दिन में चार पाँच लोग कार्यालय में आए, कुछ लोग मिलने भी आए। शाम को अचानक महेन्द्र नेह आ गए। उन का आना अच्छा लगा। वे सामाजिक यथार्थवादी साहित्य की पत्रिका 'अभिव्यक्ति' के 38वें अंक की पाँच प्रतियाँ साथ ले कर आए थे। 
शिवराम
भिव्यक्ति मेरा सपना है, जिसे मैं ने तब देखा था जब मैं स्नातक की पढ़ाई कर रहा था। मैं चाहता था कि मेरी अपनी पत्रिका हो जिस के माध्यम से मैं लोगों के साथ रूबरू हो सकूँ। लेकिन एक स्नातक विद्यार्थी के लिए इस सपने को साकार कर पाना संभव नहीं था। बाद में शिवराम मिले और बाराँ की संस्था दिनकर साहित्य समिति ने उन के संपादन में पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। तब से मैं इस का प्रकाशक रहा हूँ। पिछले बरस शिवराम ने अनायास ही हमेशा के लिए हमारा साथ छोड़ दिया। तब अभिव्यक्ति का 37वाँ अंक लगभग तैयार था। शेष काम महेन्द्र नेह ने पूरा किया। लेकिन मार्च 2012 का यह 38वाँ अंक पूरी तरह से महेंद्र नेह के संपादन में तैयार हुआ है। महेन्द्र नेह के जाने के बाद मैं ने पत्रिका का अंक देखना आरंभ किया। निश्चित रूप से एक पत्रिका संपादक का माध्यम होती है। अभिव्यक्ति के प्रकाशन का शिवराम, महेन्द्र नेह और इस से जुड़े तमाम लोगो का उद्देश्य एक ही है. लेकिन संपादन का असर उस के रूप पर पड़ना स्वाभाविक था। इस कोण से देखने पर मुझे अभिव्यक्ति का यह 38वाँ अंक एक अलग अनुभूति दे गय़ा। हालाँकि इस अंक का एक बड़ा भाग स्मृति भाग है। लेकिन इस में इस के अतिरिक्त अत्यन्त महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। कोटा के लोगों की भागीदारी इस बार बढ़ी है। 

दा की तरह इस अंक का मुखपृष्ठ भी रविकुमार के रेखाकंन से बोल रहा है। मुख पृष्ठ पर ही वीरेन डंगवाल की एक कविता है- 

बेईमान सजे बजे हैं,
तो क्या हम मान लें कि 
बेईमानी भी एक सजावट है? 
कातिल मजे में है 
तो क्या हम मान लें कि 
क़त्ल एक मजेदार काम है?
मसला मनुष्य का है 
इसलिए हम को हरगिज न मानेंगे
कि मसले जाने के लिए ही बचा है मनुष्य !!
-वीरेन डंगवाल
त्रिका के 38वें अंक का संपादकीय महत्वपूर्ण है, और अन्य रचनाएँ भी। आप को जिज्ञासा होगी कि आखिर इस पत्रिका में क्या है? हमारी कोशिश होगी कि अभिव्यक्ति के 38वें अंक और इस से आगे के अंको की सामग्री  हम शनैः शनैः इसी नामके ब्लाग (अभिव्यक्ति) के माध्यम से आप तक पहुँचाएँ। आशा है हिन्दी ब्लाग जगत इस का स्वागत करेगा।

शनिवार, 31 मार्च 2012

गलती करो तो भुगत लो, पर गाँठ जरूर बांध लो


यूँ तो मुझे सब लोग कहते हैं कि मैं बहुत सुस्त वकील हूँ। पर मैं जानता हूँ कि जल्दबाजी का नतीजा अच्छा नहीं होता। अभी कुछ दिन पहले एक मुकदमे में सफलता हासिल हुई। मुवक्किल बहुत प्रसन्न थे। मिठाइयों के डब्बे और कोटा की मशहूर कचौड़ियाँ ले कर अदालत पहुँचे। उन्हों ने मुझे ही नहीं, मेरे सभी सहयोगियों, क्लर्कों और अदालत के चाय क्लब के दोस्तों को नवाजा। वे इतना लाए थे कि सब का मन भरपूर हो गया। मिठाइयों और कचौड़ियों का स्वाद ले कर कॉफी की चुस्कियाँ ली गईं। फिर वे हमें पान की दुकान तक ले चले। रास्ते में मैं ने उन्हें कहा कि लोग मुझे बहुत सुस्त वकील कहते हैं। तो उन की प्रतिक्रिया थी कि वे सही कहते हैं। लेकिन मैं उस के साथ एक बात और जोड़ना चाहूंगा कि आप मनचाहा परिणाम भी लेते हैं जो अधिक महत्वपूर्ण है।  सही है कि जब हम कोई काम पूरा जाँच परख कर करेंगे तो उस का मनचाहा परिणाम भी मिलेगा और इस सब में समय लगना तो स्वाभाविक है। लेकिन कभी कभी मेरे जैसा व्यक्ति भी गलती कर ही बैठता है।

ह गलती तब होती है जब आप खुद पर जरूरत से अधिक विश्वास कर बैठते हैं। कई बार सुरक्षा को ताक पर रख देते हैं। पिछले शनिवार मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। रात के कोई सवा बारह बजे होंगे। घड़ियाँ और कलेंडर तारीख बदल चुके थे। मैं भी अपने काम का समापन कर सोने के लिए जा ही रहा था। कंप्यूटर बन्द करने के पहले आदतन मेल बॉक्स देखने लगा तो वहाँ एक मेल बेटे की आईडी से आई हुई थी। मैं ने सोचा जरूर कुछ महत्वपूर्ण संदेश होगा। मेल को खोला तो वहाँ केवल एक लिंक मिला। तुरंत उस पर चटका लगा दिया। एक जाल पृष्ठ खुला। वहाँ कोई सोफ्टवेयर डाउनलोड करने की सुविधा थी।  आनन फानन में मैने उसे डाउनलोड भी कर डाला और जैसा कि अक्सर होता है एक एक्जीक्यूटेबल फाइल हमारे कंप्यूटर में सुरक्षित हो गई। इतना करने के बीच में एक बार यह चेतावनी भी मिली कि यह कोई मेलवेयर भी हो सकता है। मैं ने उस की भी अनदेखी कर डाली।  इस बात का विश्वास था कि बेटे ने भेजा है तो कोई असुरक्षित वस्तु हो ही नहीं सकती। फिर इस तरह के मेलवेयर की चेतावनी पिछले दिनों मुझे मेरी ही वेबसाइट के बारे में इतनी बार मिली है कि मैं उस का आदी हो चुका था। खैर!

तना करने में केवल दस मिनट खर्च हुए। मैंने उसे तुरंत ही एक्जीक्यूट कर दिया और वह जो भी सोफ्टवेयर था वह इंस्टॉल हो गया। जैसे ही वह इंस्टाल हुआ उस ने कंप्यूटर को स्केन कर डाला और कुछ ही मिनटों में एक सौ से अधिक मेलवेयर फाइलें तलाश कर दीं। फिर कहने लगा इन फाइलों को हटाने और दुरुस्त करने के लिए मुझे उस के निर्माता से पूरा पैकेज खरीदना चाहिए जिस की कीमत थी 98 डालर। यह तो  मेरे बस में न था कि कंप्यूटर की सुरक्षा के लिए पाँच हजार रुपए खर्च किए जाएँ। । मुझे संदेह होने लगा कि यह सब बेटे की नहीं बल्कि बेटे के नाम से किसी और की करतूत है। मैं ने उस सोफ्टवेयर को अनइंस्टॉल करना चाहा। लेकिन यह संभव नहीं था। मैं ने सोचा सुबह यह सब बेटे से ही पूछा जाएगा। मैं ने कंप्यूटर बंद किया और जा कर सो गया। 
सुबह उठा कंप्यूटर संभाला। आदतन सब से पहले मेल जाँचने के लिए ब्राउजर खोला तो वह पहली मेल देखते देखते क्रेश हो गया। वह बार बार ऐसा ही करने लगा। एक मेल पढना भी संभव नहीं रहा। दूसरे दो ब्राउजर्स के साथ कोशिश की तो उन का भी वही हाल हुआ। हर बार वही रात को इंस्टॉल किया हुआ सोफ्टवेयर सर पर बंदूक तान कर कह रहा था निकाल पाँच हजार मैं तेरे कंप्यूटर को ठीक कर दूंगा। मैं सोच रहा था यह कौन आफत आ पड़ी? एक तो ठीक से चल रहा कंप्यूटर का इस ने कबाड़ा कर दिया और अब ब्लेक मेल कर रहा है। मेरा बस होता तो इसे घर में घुसने ही न देता। पर मैं बेटे के नाम से आए व्यक्ति को कम से कम ड्राइंगरूम तक तो आने से भी कैसे रोकता?

तने में बेटी सो कर उठी। मैं ने उसे अपना हाल बताया तो कहने लगी- यह मेल तो मुझे भी मिली थी, लेकिन मैं ने तो भैया को रात ही फोन कर के पूछ लिया था। उस की मेल आईडी हैक हो गई है और उस से यह मेल कई लोगों को भेजी गई है। मैं ने और बेटी ने दो घंटे तक प्रयत्न किया कि घर में इस तरह छद्म तरीके से घुस बैठे राक्षस को निकाल फैंका जाए। पर वह निकलने को तैयार न था और दूसरे काम भी न करने दे रहा था। मैं ने बेटे से संपर्क किया तो उस की सलाह थी कि यह ऐसे न निकलेगा। कंप्यूटर ही फॉर्मेट करना पड़ेगा। आखिर मैं ने मोर्चा संभाला। ऑपरेटिंग सिस्टम वाले ड्राइव से सभी जरूरी फाइलें हटा कर दूसरे ड्राइव मे डाली और ड्राइव को फॉरमेट कर फिर से आपरेटिंग सिस्टम डालना आरंभ किया। आपरेटिंग सिस्टम काम करने लगा तो दूसरे ए्प्लीकेशन चालू किए। इस बीच सिस्टम ने मॉनीटर निचले दाय़ें कोने पर झंडी टांग दी कि विंडो की यह प्रति असली नहीं है। मुझे तो यह झंडी दो मिनट के लिए भी बर्दाश्त न थी। बेटे से जानकारी ली गई। माइक्रोसोफ्ट से प्रति की जाँच कराई गई। जाँच के बाद उस ने प्रति को असली पाया। फिर अपडेटस् और सर्विस पैक्स आने लगे। माइक्रोसोफ्ट ने अपना वायरस प्रतिरोधक (माइक्रोसोफ्ट सीक्योरिटी असेंशियल) मुफ्त भेंट किया। हम निहाल हो गए। हमारा कंप्यूटर अब दौड़ रहा है।

मैं अपने बेटे पर कैसे अविश्वास कर सकता था? लेकिन मुझे बेटे के नाम से मिली वस्तु पर जरूर अविश्वास करना चाहिए था। क्यों कि विश्वासघात वहीं होता है जहाँ घोर विश्वास होता है। उस वस्तु के बारे में मिली चेतावनी को अनदेखा नहीं करना चाहिए था।  सब से बढ़ कर तो यह कि किसी भी काम को बहुत देख-परख कर सोच समझ कर काम करने की आदत किसी भी विश्वास के तहत कभी त्यागनी नहीं चाहिए।

गुरुवार, 29 मार्च 2012

ओलों से सर की बचत के लिए हम बालों के मोहताज नहीं

कोई सर मुड़ा कर नाई की दुकान से निकला ही हो और आसमान से ओले गिरने लगे हों ऐसा छप्पन साल की जिन्दगी में न  तो सुना और न ही अखबार में पढ़ा। इस से पहले किसी किताब में भी इस तरह की किसी घटना का उल्लेख नहीं देखा। लेकिन चूँकि मुहावरा है और चल निकला है तो चल निकला है। वैसे मेरे जैसे लोगों के लिए इस मुहावरे का कोई अर्थ नहीं है जिन के सर पर या तो बाल पूरी तरह भूतकाल की वस्तु हो कर रह गए हैं या फिर किनारों पर सिमट कर रह गए हैं। हमारे लिए तो ओले कभी भी पड़ें क्या फर्क पड़ता है? हम जानते हैं कि ओले पड़ने पर क्या करना है। शायद यही कारण है कि अब तक अनेक बार ओले पड़ते देखे हैं पर सिर को कभी नुकसान नहीं पहुँचा। लेकिन इस बार ओले काम कर गए हम तो हम, उस्ताद भी देखते रह गए।

हुआ यूँ कि तीन-चार बरस पहले हम ने वेब साइटस् चलाने वाले मित्र से वैसे ही शौकिया तौर पर पूछा था कि क्या तीसरा खंबा डाट कॉम डोमेन मिल सकता है? उन्हों ने मात्र बीस मिनट बाद ही बताया कि हमारे नाम से यह डोमेन ले लिया गया है। अब आगे की कोई गणित तो हमें आती नहीं थी। सो वह डोमेन पड़ा ही रहा। हम ब्लागस्पाट की सेवाओं का आनन्द लेते रहे। इस साल हमने ठान ही लिया कि अपने ब्लाग तीसरा खंबा को अपने डोमेन पर ले जा कर वेबसाइट बना डालेंगे। फिर मित्र की और हमारी कवायद चली आखिर तीसरा खंबा को अपने डोमेन पर स्थानान्तरित करने में कामयाबी मिल गई। हम ने भी जोर शोर से अपने ब्लागस्पॉट के ब्लाग तीसरा खंबा पर अपने ब्लाग की अंतिम पोस्ट की घोषणा कर दी और नए वर्ष की पहली तारीख 1 जनवरी 2012 को तीसरा खंबा अपने डोमेन की वेबसाइट में परिवर्तित हो गया। 


म अपना सिर मुंड़वा कर प्रसन्न थे। खूब जोर शोर से साइट आरंभ हो गई। पाठकों में भी निरंतर वृद्धि होती रही। बहुत सारी सुविधाएँ भी मिलीं। दो माह कैसे गुजरे, पता भी नहीं लगा। मार्च का आरंभ हुआ तो पता लगा रास्ते इतने आसान नहीं हैं। हम पर कभी रूमानियत सवार थी तो सोचते थे कहीं जाएँ न जाएँ एक बार सोवियत संघ के रूस जरूर हो कर आएंगे। वह मेरे अनेक प्रिय लेखकों टाल्सटॉय, चेखव, गोगोल, गोर्की, मायकोवस्की आदि का देश था। गंगा तो देखी थी पर वोल्गा और देखना चाहते थे। मास्को का वह विश्वविद्यालय देखना चाहते थे जहाँ महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अध्यापन किया, विवाह किया और एक संतान भी उन्हें हुई। लेकिन रूमानियत में या तो आदमी रांझा, मजनूँ, भगत सिंह हो कर शहीद हो सकता है या फिर उस की  रूमानियत यथार्थ की शक्ल अख्तियार कर लेती है। हम रूमानियत से निकल कर अपने वतन के यथार्थ में उलझे रह गए। सोवियत संघ अपनी गलतियों का शिकार हो कर टूट गया। इस से यह सिद्ध हुआ कि काबुल भले ही घोडों के लिए प्रसिद्ध रहा हो लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ गधे नहीं होते। 

तो, फरवरी निकलते ही पता लगा कि केश-विहीन सिर पर  कठोर-कठोर शीतल-शीतल कंकड़ पड़ने लगे हैं। आसमान पर देखा तो वहाँ कोई बादल तक न था, सूरज तेज चमक रहा था। आखिर यह ओले आए कहाँ से। तीसरा खंबा न पाठकों से खुल रहा था और न ही हम से उस का एडमिन खुल रहा था। जब भी खोलना चाहते ब्राउजर किसी रूसी वेबसाइट के पते पर पहुँचा देता, तो कभी ब्राउजर रिपोर्टेड अटैक साइट का बोर्ड चिपका जाता। हम ने अपने वेब एडमिनिस्ट्रेटर को बताया तो पता लगा हमला हम पर ही नहीं हुआ है नासा पर भी हो रहा है। बताया कि वे हमले को विफल करने की तैयारी कर रहे हैं, बस कुछ समय लग सकता है। हम ने संतोष की साँस ली। हम ने सोचा चलो एक दो दिन इस काम से फुरसत मिली। 
दूसरे दिन तीसरा खंबा खुलने लगा। हम फिर प्रसन्न हो गए कि हमला विफल हो गया है। लेकिन तीसरे दिन फिर तीसरा खंबा रूस जाने लगा। अब तो धूप छाहँ का सिलसिला आरंभ हो गया। एक दिन हमला विफल होता। हम चैन की साँस लेते। तीसरा खंबा पर कोई न कोई माल अपलोड कर देते। लेकिन दूसरे दिन ही फिर वही हाल वेब साइट अपहृत पाई जाती। बताया गया कि जिस सर्वर से हमारी वेबसाइट संचालित हो रही है उस के सभी किराएदारों को यही परेशानी है। छत का एक छेद बंद किया जाता है। दूसरे दिन छत दूसरी जगह से टपकनी शुरू हो जाती है। वह मार्च का आरंभ था अब मार्च का अंत भी आ रहा है लेकिन छत है कि टपकना बंद ही नहीं हो रही है। हम ने शिकायत की तो पता लगा, घर बदलने की व्यवस्था की जा रही है। सप्ताह भर में घऱ बदल दिया जाएगा। हम ने भी सप्ताह भर चैन से बैठने की ठान ली है। देखते हैं, सप्ताह भर में क्या होता है? तीसरा खंबा की रूस यात्रा बंद होती है या नहीं?  होती है तो ठीक वर्ना, वर्ना क्या? जो हम से बन पड़ेगी करेंगे। पर तीसरा खंबा को रूस न जाने देंगे। मजबूत सी टोपी लाएंगे, सर पर पहनेंगे, पर ओलों को सर पर तबला न बजाने देंगे।

शनिवार, 24 मार्च 2012

भैस की अक्ल

ल जब दूध लेने गए, तो दूध निकलने में देर थी। मैं अपनी कार में बैठे इन्तजार करने लगा। पास में एक भैंस खूंटे से बंधी थी। वह खड़ी होना चाहती थी लेकिन उस के मुहँ से बंधी रस्सी इस तरह उस के सींग में फँस गई थी कि वह खड़ी होती तो जरा भी इधर उधर न खिसक सकती थी, जो उस के लिए बहुत कष्ट दायक स्थिति होती। वह लगातार प्रयास कर रही थी कि सींग में फँसी रस्सी निकल जाए। वह निकाल भी लेती लेकिन फिर से सींग में फँस जाती। आखिर वह खड़ी हुई और सिर झुकाए झुकाए रस्सी को निकालने का प्रयत्न किया। एक दो बार असफल हुई। मैं ने सोचा उस का वीडियो लिया जाए। मैं तैयार हुआ, भैंस ने कोशिश की और इस बार वह असफल नहीं हुई। उस ने सींग में से रस्सी को निकाल ही दिया। शायद वह वीडियो उतारने का ही इंतजार कर रही थी। शॉट पहली बार में ही ओ.के. हो गया।    




सही कहा है ... 

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, 
रसरी आवत जात हि सिल पर होत निसान

बुधवार, 21 मार्च 2012

धूल भरे दिन का सूर्यास्त

ल सुबह से ही आसमान में धूल के कण दिखाई देने लगे थे। सूरज की चमक कम थी। लेकिन जैसे जैसे दिन चढ़ता गया धूल बढ़ती गई। सांझ तक सारा आकाश धूल से ढका था। सूर्यास्त का यह दृश्य मैं ने एक ही स्थान से देखा। आप के लिए भी कुछ चित्र हैं -
सूर्यास्त से पहले

सूर्य एक बिंदु


पंछी लौट चले घर को

संध्या के माथे की बन्दी

विदाई की बेला

अलविदा!


अब रोशनी थोड़ी देर और

रात्रि विश्राम की तैयारी

रात हुई, बत्तियाँ जल उठीं
चित्रों को बड़ा कर के देखा जा सकता है

गुरुवार, 15 मार्च 2012

बंदर की रोटी बनाम होलोप्टीलिया इंटेग्रिफोलिया -एक औषधीय वृक्ष

पिछली पोस्ट में मैं ने एक वृक्ष और उस के कुछ भागों के चित्र पोस्ट किए थे। स्थानीय लोग इसे बन्दर की रोटी का पेड़ कहते हैं। टिप्पणियों से पता लगा कि कुछ क्षेत्रों में इसे बंदर पापड़ी या बंदर बाटी भी कहा जाता है। हरे रंग की जो संरचनाएँ जो चित्रों में  थीं वे वास्तव में इस वृक्ष के फल हैं। यह फल ऐसा है लगता है कि दो पत्तियों के बीच एक बीज को फँसा दिया गया हो। पिछली पोस्ट प्रकाशित करने तक मुझे इस वृक्ष के बारे में बस इतनी ही जानकारी थी। बाद में मैं ने भी इस के बारे में अंतर्जाल पर खोज की और पता लगा कि यह बहुत से औषधीय गुणों से संपन्न वृक्ष है और संपूर्ण भारत में पाया जाता है। 

   

मादा बन्दर (लंगूर) इस के फलों के इन पत्तियों जैसे छिलकों को हटा कर इस के बीच की मींगी को निकाल कर खाती हैं। .कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि मादा बंदर इस का सेवन गर्भ धारण के उपरान्त प्रसव के कुछ दिन बाद तक करती हैं। यह मींगी शरीर के इम्यून सिस्टम को बेहतर बनाता है। हालांकि यह फल फरवरी मार्च अप्रेल में ही वृक्ष पर उपलब्ध रहता है। मैं ने भी इस के बीज की मींगी को खा कर देखा वह स्वादिष्ट लगती है। 

 विभिन्न प्रान्तों में इस के विभिन्न नाम हैं। गुजरात, मध्यप्रदेश और राजस्थान में इसे चरेल कहा जाता है। इस के अलावा इसे कान्जो, वाओला, कांजू, बन चिल्ला, चिलबिल, सिलबिल, धाम्ना, बेगाना, थावासी, रसबीज, कालाद्रि, निलावही (कन्नड़), आवल (मलायलम), वावली पापड़ा (मराठी), दौरंजा, टुरुंडा ( उड़िया), राजैन, खुलैन, अर्जन (पंजाबी),चिरबिल्व (संस्कृत) अया, अविल, काँची, वेलैया (तमिल), तथा थापासी, नेमाली, पेडानेविली (तेलगू) नामों से जाना जाता है।   इस का वानस्पतिक नाम होलोप्टीलिया इंटेग्रिफोलिया Holoptelea integrifolia है और अंग्रेजी में इसे इंडियन एल्म  Indian Elm नाम से जाना जाता है। यह वृक्ष अर्टीकेसी परिवार का सदस्य है। इस में जनवरी फरवरी माह में पुष्प खिलते हैं।  


स वृक्ष में औषधीय गुणों की कमी नहीं है।  इस पेड़ की छाल का उपयोग गठिया की चिकित्सा के लिए प्रभावी स्थान पर लेप कर के किया जाता है। इस की छाल का अन्दरूनी उपयोग आंतों के छालों की चिकित्सा के लिए किया जाता है। सूखी छाल गर्भवती महिलाओं के लिए ऑक्सीटॉकिक के रूप में गर्भाशय के संकुचन को प्रभावित करने के लिए किया जाता है जिस से प्रसव आसानी से हो सके। इस की पत्तियों के काढ़े का उपयोग वसा के चयापचय को विनियमित करने के लिए किया जाता है। पत्तियों को लहसुन के साथ पीस कर दाद, एक्जीमा आदि त्वचा रोगों में रोग स्थल पर लेप के लिए प्रयोग किया जाता है। पत्तियों को लहसुन और काली मिर्च के पीस कर गोलियाँ बनाई जाती हैं और एक गोली प्रतिदिन पीलिया के रोगी को चिकित्सा के लिए दी जाती है। लसिका ग्रन्थियों की सूजन में इस की छाल का लेप प्रयोग में लिया जाता है। छाल के लेप का उपयोग सामान्य बुखार में रोगी के माथे पर किया जाता है।  इस की छाल आँखों के लिए एण्टीइन्फ्लेमेटरी एजेंट के रूप में काम आती है। सफेद दाग के रोग में इस का लेप दागों पर किया जाता है।

पिछली पोस्ट के बाद तक मैं इस वृक्ष के बारे में कुछ नहीं जानता था। लेकिन खोज करने पर इतनी जानकारी प्राप्त हुई। यदि हम अपने आसपास की वनस्पतियों के बारे में इस तरह जानकारी करें तो हिन्दी अंतर्जाल पर बहुत जानकारी एकत्र कर सकते हैं।