दंतेवाड़ा छत्तीसगढ़ में शहीद
सभी जवानों को
'अनवरत'
की
विनम्र श्रद्धाँजलि
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आज मन बहुत दुखी है। दंतेवाड़ा में 75 जवान नक्सल हमले के शिकार हो मारे गए। वे किसी न किसी माता-पिता के पुत्र, किसी पत्नी के पति और बच्चों के माता-पिता होंगे। क्या हुआ होगा जब यह खबर उन आश्रितों पर पहुँचेगी जिन का आश्रयदाता इस हमले में मारा गया। वे सभी शहीद कहलाएँगे। उन के कम से कम एक आश्रित को फिर से उसी सुरक्षा दल में नौकरी मिल जाएगी जो हो सकता है ट्रेनिंग के बाद फिर से उसी जंगल में नक्सलियों से मुकाबला करने के लिए भेज दिया जाए। पत्नियों और अवयस्क बच्चों को हो सकता है पेंशन मिलने लगे। हो सकता है कुछ ही दिनों में वे अपना दुख भुला कर जीवन जीने लगें। इस घटना की जानकारी मिलने के बाद मैं सोचने लगा कि आखिर उन की मौत का जिम्मेदार कौन है?
आज भी यही हुआ। जज अस्वस्थ थे, उन्होंने तारीख बदलने को कहा और भाटी जी आपे से बाहर हो गए। भाटी जी ने 1983 से ले कर 2010 तक के इस 27 साल के सफर में बहुत दिन देखे हैं। एक बेटा आत्महत्या कर चुका है। दूसरे को मकान गिरवी रख कर वित्तीय संस्था से ऋण लेकर एक छोटा व्यवसाय आरंभ कराया लेकिन बाजार की समझ न होने से उस में हानि उठानी पड़ी और अब वह कहीं नौकरी कर रहा है। मकान वित्तीय संस्था ने कुर्क कर रखा है। वे अदालत से कहते हैं कि वित्तीय संस्था को मुझ से तीन लाख ले ने हैं। मुझे कंपनी से बीस लाख लेने हैं। अदालत तीन लाख काट कर बाकी 17 लाख मुझे दिला दे। पर दोनों अदालतें अलग अलग हैं। एक उन से लेने को और न देने पर मकान बेचने को तैयार बैठी है। तो दूसरी दिला नहीं पा रही है।
अर्जी में इस तरमीम के बावजूद भी पत्नी के पिता को आपत्ति थी। वे जो कुछ कहना चाहते थे लेकिन कह नहीं पा रहे थे और जो कहना चाहते थे उस के आसपास की ही बातें करते रहे। वे कह रहे थे कि हम सब कुछ आप को बता ही चुके हैं। आखिर मेरे वरिष्ट वकील साहब को कुछ क्रोध सा आ गया और उन्हों ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि मैं इस अर्जी को इस तरह तैयार नहीं करवा सकता कि यह पति की नंपुसकता का प्रमाण-पत्र बन जाए। उन के यह कहते ही मामला ठंडा पड़ गया। अब पत्नी पक्ष द्वारा अर्जी के नए ड्राफ्ट को स्त्री के भाई को दिखा लेने की बात हुई जो अब अमरीका में है। उसे फैक्स भेज कर पूछ लिया जाए कि यह ठीक है या नहीं। अर्जी का ड्राफ्ट प्रिंट निकाल कर उन्हे दे दिया गया जिस से वे उसे फैक्स कर सकें।
तब पत्नी जो वहीं उपस्थित थी यह पूछने लगी कि कोई ऐसा रास्ता नहीं है क्या कि कल के कल तलाक मंजूर करवाया जा सके और दोनों स्वतंत्र हो जाएँ। हम ने उन्हें बताया कि अर्जी दाखिल होने और प्रारंभिक बयान दर्ज हो जाने के उपरांत छह माह का समय तो अदालत को देना ही होगा। क्यों कि कानून में यह लिखा है कि रजामंदी से तलाक की अर्जी यदि छह माह बाद भी दोनों पक्ष अपनी राय पर कायम रहें तो ही मंजूर की जा सकती है। इस का कोई दूसरा मार्ग नहीं है। उन्हों ने कहा कि कोई ऐसा रास्ता नहीं है कि दोनों पक्ष तलाक के कागजात पर दस्तखत कर दें और तहसील में जा कर रजिस्टर करवा दें, जिस से फौरन तलाक हो जाए। हम ने उस के लिए मना कर दिया। यह भी कहा कि ऐसा फिल्मों और टीवी सीरियलों में तो संभव है लेकिन वास्तव में नहीं। खैर सब लोग अर्जी दाखिल करने के लिए अगले सोमवार को मिलने की कह कर चले गए।
नाता प्रथा देश के लगभग सभी भागों में प्रचलित है। होता यह है कि कोई भी विवाहित स्त्री घोषणा कर देती है कि वह अपने पति से परेशान है और उस के साथ नहीं रहना चाहती। इस के लिए वह स्टाम्प पेपर पर शपथ पत्र निष्पादित कर देती है। इस शपथ पत्र के निष्पादन के उपरांत यह मान लिया जाता है कि वह स्त्री अब अपने पति के बंधन से आजाद हो गई है। कोटा की अदालत में प्रत्येक कार्य दिवस पर इस तरह आजाद होने वाली स्त्रियों की संख्या औसतन तीन होती है। जब कि कोटा के पारिवारिक न्यायालय में माह में मुश्किल से पाँच तलाक भी मंजूर नहीं होते।
रावण हत्था राजस्थान का एक लोक वाद्य है जो बांस के एक तने पर नारियल के खोल, चमड़े की मँढ़ाई और तारों की सहायता से निर्मित किया जाता है। पश्चिमी राजस्थान के पर्यटन स्थलों पर इस वाद्य को बजाने वाले आप को आम तौर पर मिल जाएंगे। लेकिन इस वाद्य की संगत में गाने वाला लोक गायक कभी अदालत में मुझ तक पहुँच जाएगा और हमें मंत्र मुग्ध कर देगा मैं ने ऐसा सोचा भी नहीं था।| Rawanhattha.amr |
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पिछले दिनों भारत के न्यायालयों ने जो निर्णय दिए हैं उस से एक बात स्पष्ट हो गई है कि हमारा कानून दो वयस्कों के बीच स्वेच्छा पूर्वक बनाए गए सहवासी रिश्ते को मान्यता नहीं देता, लेकिन उसे अपराधिक भी नहीं मानता, चाहे ये दो वयस्क पुरुष-पुरुष हों, स्त्री-स्त्री हों या फिर स्त्री-पुरुष हों। इस से यह बात भी स्पष्ट हो गई है कि इस तरह के रिश्तों के कारण एक दूसरे के प्रति जो दीवानी कानूनी दायित्व और अधिकार उत्पन्न नहीं हो सकते। कानून की मान्यता न होने पर भी इस तरह के रिश्ते सदैव से मौजूद रहे हैं। परेशानी का कारण यह है कि समाज में इस तरह के रिश्तों का अनुपातः बढ़ रहा है। अजय कुमार झा ने अपनी पोस्ट लिव इन रिलेशनशिप : फ़ैसले पर एक दृष्टिकोण में बहुत खूबसूरती से अपनी बात को रखा है। लिव-इन-रिलेशनशिप स्त्री-पुरुष के बीच ऐसा संबंध है जिस में दोनों एक दूसरे के प्रति किसी कानूनी दायित्व या अधिकार में नहीं बंधते। जब कि विवाह समाज विकास के एक स्तर पर विकसित हुआ है, जो पति-पत्नी को एक दूसरे के प्रति कानूनी दायित्वों और अधिकारों में बांधता है। जहाँ तक पितृत्व का प्रश्न है वह तो लिव-इन-रिलेशन में भी रहता है और संतान के प्रति दायित्व और अधिकार भी बने रहते हैं। इस युग में जब कि डीएनए तकनीक उपलब्ध है कोई भी पुरुष अपनी संतान को अपनी मानने से इंन्कार नहीं कर सकता।
लिव-इन-रिलेशन भी अपने अनेक रूपों के माध्यम से भारत में ही नहीं विश्व भर में मौजूद रहा है लेकिन आटे में नमक के बराबर। समाज व राज्य ने उस का कानूनी प्रसंज्ञान कभी नहीं लिया। नई परिस्थितियों में इन संबंधों का अनुपात कुछ बढ़ा है। इस का सीधा अर्थ यह है कि विवाह का वर्तमान कानूनी रूप समकालीन समाज की आवश्यकताओं के लिए अपर्याप्त सिद्ध हो रहा है। कहीं न कहीं वह किसी तरह मनुष्य के स्वाभाविक विकास में बाधक बना है। यही कारण है कि नए रूप सामने आ रहे हैं। जरूरत तो इस बात की है कि विवाह के वर्तमान कानूनों और वैवाहिक विवादों को हल करने वाली मशीनरी पर पुनर्विचार हो कि कहाँ वह स्वाभाविक जीवन जीने और उस के विकास में बाधक बन रहे हैं? इन कारणों का पता लगाया जा कर उन का समाधान किया जा सकता है। यदि एक निश्चित अवधि तक लिव-इन-रिलेशन में रहने वाले स्त्री-पुरुषों के दायित्वों और अधिकारों को नि्र्धारित करने वाला कानून भी बनाया जा सकता है। जो अभी नहीं तो कुछ समय बाद बनाना ही पड़ेगा। यदि इस संबंध में रहने वाले स्त्री-पुरुष आपसी दायित्वों और अधिकारों के बंधन में नहीं बंधना चाहते तो कोई बाद नहीं क्यों कि वे वयस्क हैं। लेकिन इन संबंधों से उत्पन्न होने वाले बच्चों के संबंध में तो कानून तुरंत ही लाना आवश्यक है। आखिर बच्चे केवल उन के माता-पिता की नहीं समाज और देश की निधि होते हैं।