@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

एक गीत, तीन रंग ....

म तौर पर संगीत सुनने का कम ही समय मिलता है। आते जाते कार में जब प्लेयर बजता है तो सुनाई देता है, या फिर देर रात को काम करते हुए कंप्यूटर पर। मुझे सभी तरह का संगीत पसंद है। भारतीय शास्त्रीय संगीत से ले कर हिन्दी फिल्मी गानों और दुनिया के किसी भी कोने से आए संगीत तक। आज गणतंत्र दिवस पर सुबह स्नानादि से निवृत्त हो दफ्तर में आ कर बैठा तो यूँ ही कंप्यूटर पर गीत सुनने का मन हुआ और एक फोल्डर जिस में पुराने हिन्दी फिल्मी गीत हैं, प्लेयर में पूरा लोड कर चालू कर दिया। एक दो गीत सुने। लेकिन एक गीत ने मन को पकड़ लिया। इस गीत के तीन रंग हैं, दो को गाया है तलत महमूद ने और एक को लता मंगेशकर ने। गीत के बोल से लगता है इस में पलायनवाद है। लेकिन इस में एक नई दुनिया के निर्माण का संदेश भी छुपा है जहाँ गायक अपने साथी के साथ जाना चाहता है। लीजिए आप भी आनंद लीजिए ....

तलत महमूद ...


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लता मंगेशकर......


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फिर .. तलत महमूद


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वो राहतों के ख़्वाब दोस्तो सलीब हो गये


णतंत्र दिवस की पूर्व संध्या है। हमारे गणतंत्र ने जहाँ से अपना सफर आरंभ किया था वहाँ से अब वह बहुत दूर निकल आया है। क्या थे हालात और क्या हैं हालात। देखिए पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ की इस नज़्म के आईने में ........

नज़्म
                    - पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

वो राहतों के ख़्वाब दोस्तो सलीब हो गये
यहाँ तो अब हवाओं के ही रुख़ अजीब हो गये


हुई सहर तो कैसा सुर्ख़-सुर्ख़ आफ़्ताब था
कि पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा शादमाँ गुलाब था
चहक उठीं थीं बुलबुलें, महक उठी थी नस्तरन
कि शबनमी फ़ज़ाओं में लहक उठा चमन-चमन
खुली जो आँख धूप में तो सब ग़रीब हो गये
यहाँ तो अब .......................।

सितारे तोड़ लाऐंगे घरों से सब निकल पड़े
तरक्क़ियों के दश्त में सफ़र पे हम भी चल पड़े
मुहब्बतों के काफ़िले मगर बिखर-बिखर गये
रिफ़ाक़तों की मंज़िलों की राह तक बिसर गये
जो हमसफ़र थे कूच पर वही रक़ीब हो गये
यहाँ तो अब .......................।

लो काली-पीली आँधियों में आस्माँ ही खो गया
उजाला हर दिशा में तीरगी के बीज बो गया
ज़मीने-दिल से ख़्वाहिशों की रुत नज़र चुरा गई
लो वक्फ़े-फ़स्ले-ज़ुल्म वो शबे-सियह भी आ गई
‘यक़ीन’ अज़ाबों, लानतों के दिन क़रीब हो गये
यहाँ तो अब .......................।


--- भारत के जन-गण को गणतंत्र दिवस पर शुभकामनाएँ --- 






रविवार, 24 जनवरी 2010

बीज ही वृक्ष है।

मेरे एक मित्र हैं, अरविंद भारद्वाज, आज कल राजस्थान हाईकोर्ट की जयपुर बैंच में वकालत करते हैं। वे कोटा से हैं और कोई पन्द्रह वर्ष पहले तक कोटा में ही वकालत करते थे। कुछ वर्ष पूर्व तक वे अपने पिता जी की स्मृति में एक आयोजन प्रतिवर्ष करते थे। एक बार उन्हों ने ऐसे ही अवसर पर एक आयोजन किया और एक संगोष्ठी रखी। इस संगोष्ठी का विषय कुछ अजीब सा था। शायद "भारतीय दर्शनों में ईश्वर" या कुछ इस से मिलता जुलता। कोटा के एक धार्मिक विद्वान पं. बद्रीनारायण शास्त्री को उस पर अपना पर्चा पढ़ना था और उस के उपरांत वक्तव्य देना था। उस के बाद कुछ विद्वानों को उस पर अपने वक्तव्य देने थे।

मैं संगोष्ठी में सही समय पर पहुँच गया। पंडित बद्रीनारायण शास्त्री ने अपना पर्चा पढ़ा और उस के उपरांत वक्तव्य आरंभ कर किया। जब बात भारतीय दर्शनों की थी तो षडदर्शनों को उल्लेख स्वाभाविक था। दुनिया भर के ही नहीं भारतीय विद्वानों का बहुमत सांख्य दर्शन को अनीश्वरवादी और नास्तिक दर्शन  मानते हैं। स्वयं बादरायण और शंकराचार्य ने सांख्य की आलोचना उसे नास्तिक दर्शन कहते हुए की है। पं. बद्रीनारायण शास्त्री जी को षडदर्शनों में सब से पहले सांख्य का उल्लेख करना पड़ा, क्यों कि वह भारत का सब से प्राचीन दर्शन है। शास्त्री जी कर्मकांडी ब्राह्मण और श्रीमद्भगवद्गीता में परम श्रद्धा रखने वाले। गीताकार ने कपिल को मुनि कहते हुए कृष्ण के मुख से यह कहलवाया कि मुनियों में कपिल मैं हूँ। भागवत पुराण ने कपिल को ईश्वर का अवतार कह दिया। कपिल सांख्य के प्रवर्तक भी हैं और गीता का मुख्य आधार भी सांख्य दर्शन है।  संभवतः इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुए उन्हों ने धारणा बनाई कि सांख्य दर्शन एक अनीश्वरवादी दर्शन नहीं हो सकता, स्वयं ब्रह्म का अवतार कपिल ऐसे दर्शन का प्रतिपादन बिलकुल नहीं सकते? इस धारणा के बनने के उपरांत वे संकट में पड़ गए।
खैर, शास्त्री जी का व्याख्यान केवल इस बात पर केंद्रित हो कर रह गया कि सांख्य एक ईश्वरवादी दर्शन है। अब यह तो रेत में से तेल निचोड़ने जैसा काम था।  शास्त्री जी तर्क पर तर्क देते चले गए कि ईश्वर का अस्तित्व है। उन्हों ने भरी सभा में इतने तर्क दिए कि सभा में बैठे लोगों में से अधिकांश में जो कि  लगभग सभी ईश्वर विश्वासी थे, यह संदेह पैदा हो गया कि ईश्वर का कोई अस्तित्व है भी या नहीं? सभा की समाप्ति पर श्रोताओं में यह चर्चा का विषय रहा कि आखिर पं. बद्रीनारायण शास्त्री को यह क्या हुआ जो वे ईश्वर को साबित करने पर तुल पड़े और उन के हर तर्क के बाद लग रहा था कि उन का तर्क खोखला है। ऐसा लगता था जैसे ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं और लोग जबरन उसे साबित करने पर तुले हुए हैं।

मैं ने यह संस्मरण अनायास ही नहीं आप के सामने सामने रख दिया है। इन दिनों एक लहर सी आई हुई है। जिस में तर्कों के टीले परोस कर यह समझाने की कोशिश की जाती है कि अभी तक विज्ञान भी यह साबित नहीं कर पाया है कि ईश्वर नहीं है, इस लिए मानलेना चाहिए कि ईश्वर है। कल मुझे एक मेल मिला जिस में एक लिंक था। मैं उस लिंक पर गया तो वहाँ बहुत सी सामग्री थी जो ईश्वर के होने के तर्क उपलब्ध करवा रही थी। इधर हिन्दी ब्लाग जगत में भी कुछ ब्लाग यही प्रयत्न कर रहे हैं और रोज एकाधिक पोस्टें देखने को मिल जाती है जिस में ईश्वर या अल्लाह को साबित करने का प्रयत्न किया जाता है। इस सारी सामग्री का अर्थ एक ही निकलता है कि दुनिया में कोई भी चीज किसी के बनाए नहीं बन सकती। फिर यह जगत बिना किसी के बनाए कैसे बन सकता है, उसे बनाने वाली अवश्य ही कोई शक्ति है। वही शक्ति ईश्वर है। इसलिए सब को मान लेना चाहिए कि ईश्वर है।

मैं अक्सर एक प्रश्न से जूझता हूँ कि जब बिना बनाए कोई चीज हो ही नहीं सकती तो फिर ईश्वर को भी किसी ने बनाया होगा? तब यह उत्तर मिलता है कि ईश्वर या खुदा तो स्वयंभू है, खुद-ब-खुद है। वह अजन्मा है, इस लिए मर भी नहीं सकता। वह अनंत है। लेकिन इस तर्क ने मेरे सामने यह समस्या खड़ी कर दी कि यदि हम को अंतिम सिरे पर पहुँच कर यह मानना ही है कि कोई ईश्वर या खुदा या कोई चीज है जिस का खुद-ब-खुद अस्तित्व है तो फिर हमें उस की कल्पना करने की आवश्यकता क्यों है? हम इंद्रियों से और अब उपकरणों के माध्यम से परीक्षित और अनुभव किए जाने वाले इस अनंत जगत को जो कि उर्जा, पदार्थ, आकाश और समय व्यवस्था है उसे ही स्वयंभू और खुद-ब-खुद क्यों न मान लें? अद्वैत वेदांत भी यही कहता है कि असत् का तो कोई अस्तित्व विद्यमान नहीं और सत के अस्तित्व का कहीं अभाव नहीं। (नासतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सत् -श्रीमद्भगवद्गीता) विशिष्ठाद्वैत भी यही कहता है कि बीज ही वृक्ष है। अर्थात् जो भी जगत का कारण था वही जगत है। संभवतः इस उक्ति में यह बात भी छुपी है कि बीज ही वृक्ष में परिवर्तित हो चुका है। इसी तरह जगत का कारण, कर्ता ही इस जगत में परिवर्तित हो चुका है। इस जगत का कण-कण उस से व्याप्त है। जगत ही अपनी समष्टि में कारण तथा कर्ता है, और  खंडित होने पर उस का अंश।

शनिवार, 23 जनवरी 2010

झाड़ू ऊँचा रहे हमारा

नाटक शिवराम की प्रमुख विधा है। नाटकों की आवश्यकता पर उन्हों ने अनेक गीत रचे हैं। ऐसा ही उन का एक गीत ...... आनंद लीजिए, गुनिए और समझिए....


झाड़ू ऊँचा रहे हमारा
  • शिवराम
झाड़ू ऊँचा रहे हमारा
सब से प्यारा सब से न्यारा

इस झाड़ू को लेकर कर में
हो स्वतंत्र विचरें घर घर में
आजादी का ये रखवाला ।।1।।
झाड़ू ऊँचा रहे हमारा ...



गड़बड़ करे पति परमेश्वर

पूजा करे तुरत ये निःस्वर
नारी मान बढ़ाने वाला ।।2।।
झाड़ू ऊँचा रहे हमारा ...

 

झाड़ेगा ये मन का कचरा
फिर झाड़ेगा जग का कचरा
कचरा सभी हटाने वाला ।।3।।
झाड़ू ऊँचा रहे हमारा ...


राज जमेगा जिस दिन अपना
झंडा होगा झाड़ू अपना
अपना राज जमाने वाला ।।4।।
झाड़ू ऊँचा रहे हमारा ...


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गुरुवार, 21 जनवरी 2010

आज किसी ने बताया नहीं, कि बसंत पंचमी है

मुझे पता था आज बसंत-पंचमी है। पर न जाने क्यों लग रहा था कि आज बसंत पंचमी नहीं है। शायद मैं सोच रहा था कि कोई आए और मुझ से कहे कि आज बसंत पंचमी है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अक्सर इन त्योहारों का महिलाओं को खूब ध्यान रहता है। पत्नी शोभा मेरे बिस्तर से उठने के पहले ही स्नान कर चुकी थी, बाल भी धोए थे और सूखने के लिए खुले छोड़े हुए थे। मैं ने सोचा वह जरूर कह देगी कि आज बसंत पंचमी है। पर उस ने भी कुछ नहीं कहा।  सुबह नेट पर ब्लाग पढ़ता हूँ। वहाँ इस विषय पर कुछ नजर नहीं आया। मेरे यहाँ दो अखबार नियमित रूप से आते हैं। उन में बसंत-पंचमी तलाशता रहा। लेकिन दोनों अखबारों में बसंत पंचमी का उल्लेख नहीं था। मैं ने ऊब कर अखबार छोड़ दिए।  मैं दस बजे तक स्नानघर में नहीं घुसा। सोचा अब तो पत्नी जरूर कह ही देगी कि त्योहार कर के स्नान में देरी कर रहे हो। लेकिन फिर भी उस ने नहीं कहा और चुपचाप अपने भगवान जी की पूजा में लग गई। मैं नहा कर निकला तो वह मेरे लिए भोजन तैयार कर रही थी। मैं तैयार होता उस के पहले उस ने भोजन परोस दिया। मैं अदालत के लिए निकल लिया।  

ज शहर में चेंपा की भरमार थी। शायद सरसों की फसल कटने लगी थी और वे करोड़ों-अरबों की संख्या में बेघर हो शहरों की तरफ उड़ आए थे। यह उन की यह अंतिम यात्रा थी और शायद वे जीवनलीला समाप्त होने के पहले जी भर कर स्वतंत्रता से उड़ लेना चाहते थे। मैं शहर में पैदा हुआ और तब से अधिकतर शहरों में ही रहा हूँ। लेकिन मैं ने कभी शहर की तरफ आते सियार को नहीं देखा। हाँ कभी यात्रा में रात के समय वाहन की रोशनी में जंगल के बीच से निकल रही सड़क पर अवश्य दिखे। शायद इंसानों की मुहावरेबाजी से वे बहुत पहले ही यह सीख चुके हैं कि शहर की और जाना मौत बुलाना है और उन्हों ने शहर की ओर भागना बंद कर दिया है। मुझे लगता है मुहावरा बदल डालना चाहिए और कहना चाहिए "जब मौत आती है तो चेंपा शहर की और उड़ता है।" अदालत में आज कुछ काम नही हुआ। अधिकतर अदालतों में जज नहीं थे। शायद वसंतपंचमी का ऐच्छिक अवकाश था जिसे उन्होने काम में लिया था। दोपहर तक सब काम निपट गया। दो बार मित्रों के साथ बैठ कर कॉफी भी पी ली। लेकिन किसी ने उल्लेख नहीं किया कि आज बसंत पंचमी है।

दालत से आते समय एक दफ्तर भी गया, जहाँ एक कवि-मित्र नौकरी में हैं। उन्हों ने भी कुछ नहीं कहा। मैं घर पहुँचा तो वहाँ ताला पड़ा था। शोभा कहीं निकल गई थी। मैं अपनी चाबी से ताला खोल अंदर आया। नैट खोला तो वहाँ कुछ पोस्टें बसंत पर दिखाई पड़ी। मन को कुछ संतोष हुआ, चलो कुछ लोगों को तो पता है कि आज बसंत पंचमी है। वर्ना मुझे तो लगने लगा था कि इस बार  बसंत पंचमी जल्दी पड़ रही है इस कारण सभी उसे भूल गए हैं। इस बीच दफ्तर में कोई आ गया। उस का काम निपटा कर बाहर निकला तो देखता हूँ। बाहर कचनार पर आठ-दस सफेद फूल खिले हैं और वह कह रहा है, बसंत आ चुका है। कुछ देर बाद शोभा लौट आई। हमने साथ कॉफी पी। मैं फिर अपने काम में लग गया। निपटा तो रात हो चुकी थी। अंदर गया तो शोभा भगवान जी की आरती उतार रही थी। उस ने भगवान जी का घर फूलों से सजा रखा था। मैं मन ही मन मुसकाया, चलो मुझे नहीं कहा कि आज बसंत पंचमी है लेकिन उसे पता तो है। कुछ देर बाद भोजन के लिए तैयार हो मेज पर पहुँचा तो शोभा भोजन लगा चुकी थी। वह भगवान जी के यहां से एक पात्र उठा कर लाई। उस में पीले रंग के चीनी की चाशनी में पके बासमती चावल थे, जिन से महक उठ रही थी। मैं ने उसे कहा -तो तुम्हें पता था, आज बसंत पंचमी है? मुझे क्यों नहीं बताया? कहने लगी -आप को खुद पता होना चाहिए, यह बात भी मुझे बतानी होगी क्या?

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

खुद को कभी कम्युनिस्ट नहीं कहूँगा

ल एक गलती हो गई। भुवनेश शर्मा अपने गुरू श्री विद्याराम जी गुप्ता को बाबूजी कहते हैं। मैं समझता रहा कि वे अपने पिता जी के बारे में बात कर रहे हैं।  भुवनेश जी के पिता भी वकील हैं। कल की पोस्ट में मैं ने उन के पिता का उल्लेख कर दिया। आज शाम भुवनेश जी ने मुझे फोन कर गलती के बारे में बताया। अब गलती हटा दी गई है।
ज मैं उस घटना के बारे में बताना चाहता हूँ जो मेरे कॉलेज जीवन में घटित हुई। यह सन् 1971 का साल था। बांग्लादेश का युद्ध हुआ ही था और अटलबिहारी जी ने इंदिरागांधी को दुर्गा कहा था। कम्युनिस्टों के बारे में वही धारणाएँ मेरे मन में थीं जो भारत में उन के विरोधी प्रचारित करते रहे हैं। मैं समझता था। कम्युनिस्ट बहुत लड़ाके किस्म के लोग होते हैं। विरोधियों को बात-बात में चाकू छुरे से घायल कर देते हैं, जेब में बम लिए घूमते हैं। ईश्वर को नहीं मानते। लिहाजा वे अच्छे लोग नहीं होते और उन की परछाई से भी दूर रहना चाहिए। एक दिन मैं अपने कालेज से लौट रहा था। मार्ग में वैद्य मामा जी का घर पड़ता था। उसी में नीचे की मंजिल में उन का औषधालय और औषध-निर्माणशाला थी। मन में आया कि मामाजी से मिल चलूँ। औषधालय में अंदर घुसा तो वहाँ अपने पिताजी  और तेल मिल वाले गर्ग साहब को वहाँ पाया। मामा जी भी वहीं थे। गर्ग साहब किसी के लिए दवा लेने आए थे। आपस में बातें चल रही थीं। मैं भी सुनने लगा।

र्ग साहब कुछ बातें ऐसी कर रहे थे कि मुझे वे तर्कसंगत नहीं लगीं। मैं उन से बहस करने लगा। हालांकि मैं अपने पिताजी के सामने कम बोलता था। लेकिन उस दिन न जाने क्या हुआ कि गर्ग साहब से बहस करने लगा। गर्ग साहब बहस के बीच कहीं निरुत्तर हो गए। मेरी बात काटने के लिए  बोले तुम-कम्य़ुनिस्ट हो गए हो इस लिए ऐसी बातें कर रहे हो। मैं भी तब तक कुछ तैश में आ गया था। मैं ने कहा - आप यही समझ लें कि मैं कम्युनिस्ट हो गया हूँ। लेकिन उस से क्या मेरी किसी तर्कसंगत और सच्ची बात भी मिथ्या हो जाएगी क्या?
खैर! वहाँ बात खत्म हो गई। गर्ग साहब भी उन की दवाएँ ले कर चल दिए। कुछ देर बाद मैं और पिताजी भी वहाँ से एक साथ घर की ओर चल दिए। रास्ते में पिताजी ने पूछा -तुम कम्युनिस्ट हो? मैं ने कहा -नहीं। तो फिर जो तुम नहीं हो कहते क्यों हो?
मेरे मन में यह बात चुभ गई। मेरा प्रयत्न रहने लगा कि किसी तरह मैं जान सकूं कि  आखिर कम्युनिस्ट क्या होता है। कुछ समय बाद मेरे हाथ गोर्की का उपन्यास 'माँ' हाथ लगा। उसे मैं एक बैठक में पढ़ गया। उस ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मेरी गोर्की के बारे में अधिक जानने की जिज्ञासा हुई तो मैं दूसरे दिन उस की जीवनी के तीनों भाग खरीद लाया। इस तरह मैं ने जानने की कोशिश की कि कम्युनिस्ट क्या होता है? हालांकि यह सब कम्युनिस्टों के बारे में जानने के लिए बहुत मामूली अध्ययन था। बाद में जाना कि भगतसिंह कम्युनिस्ट थे।  यशपाल कम्युनिस्ट थे,  राहुल सांकृत्यायन कम्युनिस्ट थे, मुंशी प्रेमचंद कम्युनिज्म से प्रभावित थे। बहुत बाद में कम्युनिस्ट मेन्युफेस्टो मेरे हाथ लगा भी तो समझ नहीं आया। उसे समझने में बरस लग गए।  पहला कम्युनिस्ट अपने शहर में देखने में तो मुझे चार बरस लग गए। जब उसे देखा तो पता लगा कि कम्युनिस्ट भी एक इंसान ही होता है, कोई अजूबा नहीं। उस के शरीर में भी वही लाल रंग का लहू बहता है जो सब इंसानों के शरीर में बहता है। उस के सीने में भी दिल होता है जो धड़कता है। लेकिन यह भी समझ आया कि उस का दिल अपने लिए कम, बल्कि औरों के लिए अधिक धड़कता है। खुद को जाँचा तो पाया की मेरा दिल भी वैसे ही धड़कता है जैसे उस कम्युनिस्ट का धड़कता था।

र्क था तो इतना ही कि वह उन लोगों के लिए जिन के लिए उस का दिल धड़कता था, चुनौतियाँ लेने को तैयार रहता था। वह शायद बहुत मजबूत आदमी था, शायद फौलाद जैसा।  मैं उसी की तरह यह तो चाहता था कि दुनिया के चलन में कुछ सुधार हो लेकिन उस के लिए चुनौतियाँ स्वीकार करने में मुझे भय लगता था। मुझे लगता था कि मेरे पास अभी एक खूबसूरत दुनिया है और मैं उसे खो न बैठूँ। यह डर उस कम्युनिस्ट के नजदीक भी न फटकता था। कई बार तो मुझे उसे देख कर डर भी लगता था कि कैसा आदमी है? कभी भी अपनी जान दे बैठेगा। मुझे उसे देख कर लगा कि मैं शायद जीवन में कभी भी कम्युनिस्ट नहीं बन सकता, मुझ  में इतनी क्षमता और इतना साहस है ही नहीं। मैं ने तभी यह तय कर लिया कि खुद को कभी कम्युनिस्ट नहीं कहूँगा। हाँ, यह जरूर सोचने लगा कि कभी मेरा मूल्यांकन करने वाले लोग यह कह सके कि मुझे कम्युनिस्टों से प्रेम था, तो भी खुद को धन्य समझूंगा।

चित्र- भगतसिंह, राहुल सांकृत्यायन और यशपाल

सोमवार, 18 जनवरी 2010

भविष्य के लिए मार्ग तलाशें

नवरत पर कल की पोस्ट जब इतिहास जीवित हो उठा का उद्देश्य अपने एक संस्मरण के माध्यम से आदरणीय डॉ. रांगेव राघव जैसे मसिजीवी  को उन के जन्मदिवस पर स्मरण करना और उन के साहित्यिक योगदान के महत्व को प्रदर्शित करना था। एक प्रभावी लेखक का लेखन पाठक को गहरे बहुत गहरे जा कर प्रभावित करता है। डॉ. राघव का साहित्य तो न जाने कितने दशकों या सदियों तक लोगों को प्रभावित करता रहेगा। आज उस पोस्ट को पढ़ने के उपरांत मुझे मुरैना के युवा ब्लागर और वकील साथी भुवनेश शर्मा से  फोन पर चर्चा हुई। वे बता रहे थे कि वे वरिष्ठ वकील श्री विद्याराम जी गुप्ता  के साथ काम करते हैं जिन की आयु वर्तमान में 86 वर्ष है, उन्हें वे ही नहीं, सारा मुरैना बाबूजी के नाम से संबोधित करता है। वे इस उम्र में भी वकालत के व्यवसाय में सक्रिय हैं।  आगरा में अपने अध्ययन के दौरान डॉ. रांगेय राघव के साथी रहे हैं। बाबूजी विद्याराम जी गुप्ता ने कुछ पुस्तकें लिखी हैं और प्रकाशित भी हुई हैं। लेकिन उन की स्वयं उन के पास भी एक एक प्रतियाँ ही रह गई हैं। उन्हों ने यह भी बताया कि वे उन पुस्तकों के पुनर्प्रकाशन का मानस भी रखते हैं। मैं ने उन से आग्रह किया कि किसी भी साहित्य को लंबी आयु प्रदान करने का अब हमारे पास एक साधन यह अंतर्जाल है। पुनर्प्रकाशन के लिए उन की पुस्तकों की एक बार सोफ्ट कॉपी बनानी पड़ेगी। वह किसी भी फोंट में बने लेकिन अब हमारे पास वे साधन हैं कि उन्हें यूनिकोड फोंट में परिवर्तित किया जा सके। यदि ऐसा हो सके तो हम उस साहित्य को अंतर्जाल पर उपलब्ध करा सकें तो वह एक लंबी आयु प्राप्त कर सकेगा। मुझे आशा है कि भुवनेश शर्मा मेरे इस आग्रह पर शीघ्र ही अमल करेंगे।


ल की पोस्ट पर एक टिप्पणी भाई अनुराग शर्मा ( स्मार्ट इंडियन) की भी थी। मेरे यह कहने पर कि विष्णु इंद्र के छोटे भाई थे और इंद्र इतने बदनाम हो गए थे कि उन के स्थान पर विष्णु को स्थापित करना पड़ा, उन्हें इतना तीव्र क्रोध उपजा कि वे अनायास ही बीच में कम्युनिस्टों और मार्क्स को ले आए। मेरा उन से निवेदन है कि किसी के भी तर्क का जवाब यह नहीं हो सकता कि 'तुम कम्युनिस्ट हो इस लिए ऐसा कहते हो'। उस का उत्तर तो तथ्य या तर्क ही हो सकते हैं। अपितु इस तरह हम एक सही व्यक्ति यदि कम्युनिस्ट न भी हो तो उसे कम्युनिज्म की ओर ढकेलते हैं। इस बात पर अपना अनुभव मैं पूर्व में कहीं लिख चुका हूँ। लेकिन वह मुझे अपनी पुरानी पोस्टों में नहीं मिल रहा है। कभी अपने अनुभव को अलग से पोस्ट में लिखूंगा। 

ल की पोस्ट पर ही आई टिप्पणियों में फिर से एक विवाद उठ खड़ा हुआ कि आर्य आक्रमण कर्ता थे या नहीं। वे बाहर से आए थे या भारत के ही मूल निवासी थे। इस विवाद पर अभी बरसों खिचड़ी पकाई जा सकती है। लेकिन क्या यह हमारे आगे बढ़ने के लिए आवश्यक शर्त है कि हम इस प्रश्न का हल होने तक जहाँ के तहाँ खड़े रहें। मेरे विचार में यह बिलकुल भी महत्वपूर्ण नहीं है कि हम आर्यों की उत्पत्ति का स्थान खोज निकालें और वह हमारे आगे बढने की अनिवार्य शर्त भी नहीं है। लेकिन मैं समझता हूँ, और शायद आप में से अनेक लोग अपने अपने जीवन अनुभवों को टटोलें तो इस का समर्थन भी करेंगे कि वर्तमान भारतीय जीवन पर मूलतः सिंधु सभ्यता का अधिक प्रभाव है। बल्कि यूँ कहें तो अधिक सच होगा कि सिंधु सभ्यता के मूल जीवन तत्वों को हमने आज तक सुरक्षित रखा है। जब कि आर्य जीवन के तत्व हम से अलग होते चले गए। मेरी यह धारणा जो मुझे बचपन से समझाई गई थी कि हम मूलतः आर्य हैं धीरे-धीरे खंडित होती चली गई। मुझे तो लगता है कि हम मूलत सैंधव या द्राविड़ ही हैं और आज भी उसी जीवन को प्रमुखता से जी रहे हैं। आर्यों का असर अवश्य हम पर है। लेकिन वह ऊपर से ओढ़ा हुआ लगता है। यह बात हो सकता है लोगों को समझ नहीं आए या उन्हें लगे कि मैं यह किसी खास विचारधारा के अधीन हो कर यह बात कह रहा हूँ। लेकिन यह मेरी अपनी मौलिक समझ है। इस बात पर जब भी समय होगा मैं विस्तार से लिखना चाहूँगा। अभी परिस्थितियाँ ऐसी नहीं कि उस में समय दे सकूँ। अभी तो न्याय व्यवस्था की अपर्याप्तता से अधिकांश वकीलों के व्यवसाय पर जो विपरीत प्रभाव हुआ है। उस से उत्पन्न संकट से मुझे भी जूझना पड़ रहा है। पिछले चार माह से कोटा में वकीलों के हड़ताल पर रहने ने इसे और गहराया है।
कोई भी मुद्दे की गंभीर बहस होती है तो उसे अधिक तथ्य परक बनाएँ और समझने-समझाने का दृष्टिकोण अपनाएँ। यह कहने से क्या होगा कि आप कम्युनिस्ट, दक्षिणपंथी, वामपंथी, राष्ट्रवादी , पोंगापंथी, नारीवादी, पुरुषवादी या और कोई वादी हैं इसलिए ऐसा कह रहे हैं, इस से सही दिशा में जा रही बहस बंद हो सकती है और लोग अपने अपने रास्ते चल पड़ सकते हैं या फिर वह गलत दिशा की ओर जा सकती है। जरूरत तो इस बात की है कि हम भविष्य के लिए मार्ग तलाशें। यदि भविष्य के रास्ते के परंपरागत नाम से एतराज हो तो उस का कोई नया नाम रख लें। यदि हम भविष्य के लिए मार्ग तलाशने के स्थान पर अपने अपने पूर्वाग्रहों (इस शब्द पर आपत्ति है कि यह पूर्वग्रह होना चाहिए, हालांकि मुझे पूर्वाग्रह ठीक जँचता है") डटे रहे और फिजूल की बहसों में समय जाया करते रहे तो भावी पीढ़ियाँ हमारा कोई अच्छा मूल्यांकन नहीं करेंगी।