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शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

समाजवाद और धर्म - व्लादिमीर इल्चीच लेनिन

व्लादिमीर इल्यीच लेनिन ने 2005 में कम्युनिस्ट पार्टी और धर्म के बारे में एक छोटा आलेख लिखा था जो नोवाया झिज्न के अंक 28 में 3 दिसंबर, 1905 को प्रकाशित हुआ था। यह धर्म के बारे में कम्युनिस्ट पार्टी की नीति क्या होनी चाहिए इसे स्पष्ट करता है और एक महत्वपूर्ण आलेख है। 

र्तमान समाज पूर्ण रूप से जनसंख्या की एक अत्यंत नगण्य अल्पसंख्यक द्वारा, भूस्वामियों और पूँजीपतियों द्वारा, मज़दूर वर्ग के व्यापक अवाम के शोषण पर आधारित है। यह एक ग़ुलाम समाज है, क्योंकि "स्वतंत्र" मज़दूर जो जीवन भर पूँजीपजियों के लिए काम करते हैं, जीवन-यापन के केवल ऐसे साधनों के "अधिकारी" हैं जो मुनाफ़ा पैदा करने वाले ग़ुलामों को जीवित रखने के लिए, पूँजीवादी ग़ुलामी को सुरक्षित और क़ायम रखने के लिए बहुत ज़रूरी हैं।

मज़दूरों का आर्थिक उत्पीड़न अनिवार्यतः हर प्रकार के राजनीतिक उत्पीड़न और सामाजिक अपमान को जन्म देता है तथा आम जनता के आत्मिक और नैतिक जीवन को निम्न श्रेणी का और अन्धकारपूर्ण बनाना आवश्यक बना देता है। मज़दूर अपनी आर्थिक मुक्ति के संघर्ष के लिए न्यूनाधिक राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन जब तक पूँजी की सत्ता का उन्मूलन नहीं कर दिया जाता तब तक स्वतंत्रता की कोई भी मात्रा उन्हें दैन्य, बेकारी और उत्पीड़न से मुक्त नहीं कर सकती। धर्म बौद्धिक शोषण का एक रूप है जो हर जगह अवाम पर, जो दूसरों के लिए निरन्तर काम करने, अभाव और एकांतिकता से पहले से ही संत्रस्त रहते हैं, और भी बड़ा बोझ डाल देता है। शोषकों के विरुद्ध संघर्ष में शोषित वर्गों की निष्क्रियता मृत्यु के बाद अधिक सुखद जीवन में उनके विश्वास को अनिवार्य रूप से उसी प्रकार बल पहुँचाती है जिस प्रकार प्रकृति से संघर्ष में असभ्य जातियों की लाचारी देव, दानव, चमत्कार और ऐसी ही अन्य चीजों में विश्वास को जन्म देती है। जो लोग जीवन भर मशक्कत करते और अभावों में जीवन व्यतीत करते हैं, उन्हें धर्म इहलौकिक जीवन में विनम्र होने और धैर्य रखने की तथा परलोक सुख की आशा से सान्त्चना प्राप्त करने की शिक्षा देता है। लेकिन जो लोग दूसरों के श्रम पर जीवित रहते हैं उन्हें धर्म इहजीवन में दयालुता का व्यवहार करने की शिक्षा देता है, इस प्रकार उन्हें शोषक के रूप में अपने संपूर्ण अस्तित्व का औचित्य सिद्ध करने का एक सस्ता नुस्ख़ा बता देता है और स्वर्ग में सुख का टिकट सस्ते दामों दे देता है। धर्म जनता के लिए अफीम है। धर्म एक प्रकार की आत्मिक शराब है जिसमें पूँजी के ग़ुलाम अपनी मानव प्रतिमा को, अपने थोड़े बहुत मानवोचित जीवन की माँग को, डुबा देते हैं।

लेकिन वह ग़ुलाम जो अपनी ग़ुलामी के प्रति सचेत हो चुका है और अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष में उठ खड़ा हुआ है, उसकी ग़ुलामी आधी उसी समय समाप्त हो चुकी होती है। आधुनिक वर्ग चेतन मजदूर, जो बड़े पैमाने के कारखाना-उद्योग द्वारा शिक्षित और शहरी जीवन के द्वारा प्रबुद्ध हो जाता है, नफरत के साथ धार्मिक पूर्वाग्रहों को त्याग देता है और स्वर्ग की चिन्ता पादरियों और पूँजीवादी धर्मांधों के लिए छोड़ कर अपने लिए इस धरती पर ही एक बेहतर जीवन प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। आज का सर्वहारा समाजवाद का पक्ष ग्रहण करता है जो धर्म के कोहरे के ख़िलाफ संघर्ष में विज्ञान का सहारा लेता है और मज़दूरों को इसी धरती पर बेहतर जीवन के लिए वर्तमान में संघर्ष के लिए एकजुट कर उन्हें मृत्यु के बाद के जीवन के विश्वास से मुक्ति दिलाता है।

धर्म को एक व्यक्तिगत मामला घोषित कर दिया जाना चाहिए। समाजवादी अक्सर धर्म के प्रति अपने दृष्टिकोण को इन्हीं शब्दों में व्यक्त करते हैं। लेकिन किसी भी प्रकार की ग़लतफहमी न हो, इसलिए इन शब्दों के अर्थ की बिल्कुल ठीक व्याख्या होनी चाहिए। हम माँग करते हैं कि जहाँ तक राज्य का सम्बन्ध है, धर्म को व्यक्तिगत मामला मानना चाहिए। लेकिन जहाँ तक हमारी पार्टी का सवाल है, हम किसी भी प्रकार धर्म को व्यक्तिगत मामला नहीं मानते। धर्म से राज्य का कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए और धार्मिक सोसायटियों का सरकार की सत्ता से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रहना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को यह पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि वह जिसे चाहे उस धर्म को माने, या चाहे तो कोई भी धर्म न माने, अर्थात नास्तिक हो, जो नियमतः हर समाजवादी समाज होता है। नागरिकों में धार्मिक विश्वास के आधार पर भेदभाव करना पूर्णतः असहनीय है। आधिकारिक काग़ज़ात में किसी नागरिक के धर्म का उल्लेख भी, निस्सन्देह, समाप्त कर दिया जाना चाहिए। स्थापित चर्च को न तो कोई सहायता मिलनी चाहिए और न पादरियों को अथवा धार्मिक सोसायटियों को राज्य की ओर से किसी प्रकार की रियायत देनी चाहिए। इन्हें सम-विचार वाले नागरिकों की पूर्ण स्वतन्त्र संस्थाएँ बन जाना चाहिए, ऐसी संस्थाएँ जो राज्य से पूरी तरह स्वतंत्र हों। इन माँगों को पूरा किये जाने से वह शर्मनाक और अभिशप्त अतीत समाप्त हो सकता है जब चर्च राज्य की सामन्ती निर्भरता पर, और रूसी नागरिक स्थापित चर्च की सामन्ती निर्भरता पर जीवित था, जब मध्यकालीन, धर्म-न्यायालयीय क़ानून (जो आज तक हमारी दंडविधि संहिताओं और क़ानूनी किताबों में बने हुए हैं) अस्तित्व में थे और लागू किये जाते थे, जो आस्था अथवा अनास्था के आधार पर मनुष्यों को दण्डित करते, मनुष्य की अन्तरात्मा का हनन किया करते थे, और आरामदेह सरकारी नौकरियों तथा सरकार द्वारा प्राप्त आमदनियों को स्थापित चर्च के इस या उस धर्म विधान से सम्बद्ध किया करते थे। समाजवादी सर्वहारा आधुनिक राज्य और आधुनिक चर्च से जिस चीज़ की माँग करता है, वह है-राज्य से चर्च का पूर्ण पृथक्करण।

रूसी क्रांति को यह माँग राजनीतिक स्वतन्त्रता के एक आवश्यक घटक के रूप में पूरी करनी चाहिए। इस मामले में रूसी क्रान्ति के समक्ष एक विशेष रूप से अनुकूल स्थिति है, क्योंकि पुलिस-शासित सामन्ती एकतन्त्र की घृणित नौकरशाही से पादरियों में भी असन्तोष, अशान्ति और घृणा उत्पन्न हो गयी है। रूसी ऑर्थोडाक्स चर्च के पादरी कितने भी अधम और अज्ञानी क्यों न हों, रूस में पुरानी, मध्यकालीन व्यवस्था के पतन के वज्रपात से वे भी जागृत हो गये हैं, वे भी स्वतन्त्रता की माँग में शामिल हो रहे हैं। नौकरशाही व्यवहार और अफ़सरवाद के, पुलिस के लिए जासूसी करने के ख़िलाफ़- जो "प्रभु के सेवकों" पर लाद दी गयी है - विरोध प्रकट कर रहे हैं। हम समाजवादियों को चाहिए कि इस आन्दोलन को अपना समर्थन दें। हमें पुरोहित वर्ग के ईमानदार सदस्यों की माँगों को उनकी परिपूर्णता तक पहुँचाना चाहिए और स्वतन्त्रता के बारे में उनकी प्रतिज्ञाओं के प्रति उन्हें दृढ़ निश्चयी बनाते हुए यह माँग करनी चाहिए कि वे धर्म और पुलिस के बीच विद्यमान सारे सम्बन्धों को दृढ़तापूर्वक समाप्त कर दें। या तो तुम सच्चे हो, और इस हालत में तुम्हें चर्च और राज्य तथा स्कूल और चर्च के पूर्ण पृथक्करण का, धर्म के पूर्ण रूप से और सर्वथा व्यक्तिगत मामला घोषित किये जाने का पक्ष ग्रहण करना चाहिए। या फिर तुम स्वतन्त्रता के लिए इन सुसंगत माँगों को स्वीकार नहीं करते, और इस हालत में तुम स्पष्टतः अभी तक आरामदेह सरकारी नौकरियों और सरकार से प्राप्त आमदनियों से चिपके हुए हो। इस हालत में तुम स्पष्टतः अपने शस्त्रों की आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास नहीं करते, और राज्य की घूस प्राप्त करते रहना चाहते हो। ऐसी हालत में समस्त रूस के वर्ग चेतन मज़दूर तुम्हारे ख़िलाफ़ निर्मम युद्ध की घोषणा करते हैं।

जहाँ तक समाजवादी सर्वहारा की पार्टी का प्रश्न है, धर्म एक व्यक्तिगत मामला नहीं है। हमारी पार्टी मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए संघर्ष करने वाले अग्रणी योद्धाओं की संस्था है। ऐसी संस्था धार्मिक विश्वासों के रूप में वर्ग चेतना के अभाव, अज्ञान अथवा रूढ़िवाद के प्रति न तो तटस्थ रह सकती है, न उसे रहना चाहिए। हम चर्च के पूर्ण विघटन की मांग करते हैं ताकि धार्मिक कोहरे के ख़िलाफ़ हम शुद्ध सैद्धान्तिक और वैचारिक अस्त्रों से, अपने समाचारपत्रों और भाषणों के साधनों से संघर्ष कर सकें। लेकिन हमने अपनी संस्था, रूसी सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी की स्थापना ठीक ऐसे ही संघर्ष के लिए, मज़दूरों के हर प्रकार के धार्मिक शोषण के विरुद्ध संघर्ष के लिए की है। और हमारे लिए वैचारिक संघर्ष केवल एक व्यक्तिगत मामला नहीं है, सारी पार्टी का, समस्त सर्वहारा का, मामला है। यदि बात ऐसी ही है, तो हम अपने कार्यक्रम में यह घोषणा क्यों नहीं करते कि हम अनीश्वरवादी हैं? हम अपनी पार्टी में ईसाइयों अथवा ईश्वर में आस्था रखने वाले अन्य धर्मावलम्बियों के शामिल होने पर क्यों नहीं रोक लगा देते?

इस प्रश्न का उत्तर ही उन अति महत्वपूर्ण अन्तरों को स्पष्ट करेगा जो बुर्जुआ डेमोक्रेटों और सोशल डेमोक्रेटों द्वारा धर्म का प्रश्न उठाने के तरीक़ों में विद्यमान हैं।

हमारा कार्यक्रम पूर्णतः वैज्ञानिक, और इसके अतिरिक्त भौतिकवादी विश्व दृष्टिकोण पर आधारित है। इसलिए हमारे कार्यक्रम की व्याख्या में धार्मिक कुहासे के सच्चे ऐतिहासिक और आर्थिक स्रोतों की व्याख्या भी आवश्यक रूप से शामिल है। हमारे प्रचार कार्य में आवश्यक रूप से अनीश्वरवाद का प्रचार भी शामिल होना चाहिए; उपयुक्त वैज्ञानिक साहित्य का प्रकाशन भी, जिस पर एकतन्त्रीय सामन्ती शासन ने अब तक कठोर प्रतिबन्ध लगा रखा था और जिसे प्रकाशित करने पर दण्ड दिया जाता था, अब हमारी पार्टी के कार्य का एक क्षेत्र बन जाना चाहिए। अब हमें सम्भवतः एंगेल्स की उस सलाह का अनुसरण करना होगा जो उन्होंने एक बार जर्मन समाजवादियों को दी थी-अर्थात हमें फ़्रांस के अठारहवीं शताब्दी के प्रबोधकों और अनीश्वरवादियों के साहित्य का अनुवाद करना और उसका व्यापक प्रचार करना चाहिए।

लेकिन हमें किसी भी हालत में धार्मिक प्रश्न को अरूप, आदर्शवादी ढंग से, वर्ग संघर्ष से असम्बद्ध एक "बौद्धिक" प्रश्न के रूप में उठाने की ग़लती का शिकार नहीं बनना चाहिए, जैसा कि बुर्जुआ वर्ग के बीच उग्रवादी जनवादी कभी-कभी किया करते हैं। यह सोचना मूर्खता होगी कि मज़दूर अवाम के सीमाहीन शोषण और संस्कारहीनता पर आधारित समाज में धार्मिक पूर्वाग्रहों को केवल प्रचारात्मक साधनों से ही समाप्त किया जा सकता है। इस बात को भुला देना कि मानव जाति पर लदा धर्म का जुवा समाज के अन्तर्गत आर्थिक जुवे का ही प्रतिबिम्ब और परिणाम है, बुर्जुआ संकीर्णता ही होगी। सर्वहारा यदि पूँजीवाद की काली शक्तियों के विरुद्ध स्वयं अपने संघर्ष से प्रबुद्ध नहीं होगा तो पुस्तिकाओं और शिक्षाओं की कोई भी मात्रा उन्हें प्रबुद्ध नहीं बना सकती। हमारी दृष्टि में, धरती पर स्वर्ग बनाने के लिए उत्पीड़ित वर्ग के इस वास्तविक क्रान्तिकारी संघर्ष में एकता परलोक के स्वर्ग के बारे में सर्वहारा दृष्टिकोण की एकता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।

यही कारण है कि हम अपने कार्यक्रम में अपनी नास्तिकता को न तो शामिल करते हैं और न हमें करना चाहिए। और यही कारण है कि हम ऐसे सर्वहाराओं को, जिनमें अभी तक पुराने पूर्वाग्रहों के अवशेष विद्यमान हैं, अपनी पार्टी में शामिल होने पर न तो रोक लगाते हैं, न हमें इस पर रोक लगानी चाहिए। हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शिक्षा सदा देंगे और हमारे लिए विभिन्न "ईसाइयों" की विसंगतियों से संघर्ष चलाना भी जरूरी है। लेकिन इसका जरा भी यह अर्थ नहीं है कि धार्मिक प्रश्न को प्रथम वरीयता दे देनी चाहिये। न ही इसका यह अर्थ है कि हमें उन घटिया मत-मतान्तरों और निरर्थक विचारों के कारण, जो तेजी से महत्वहीन होते जा रहे हैं और स्वयं आर्थिक विकास की धारा में तेजी से कूड़े के ढेर की तरह किनारे लगते जा रहे हैं, वास्तविक क्रान्तिकारी आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष की शक्तियों को बँट जाने देना चाहिए।

प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ वर्ग ने अपने आप को हर जगह धार्मिक झगड़ों को उभाड़ने के दुष्कृत्यों में संलग्न किया है, और वह रूस में भी ऐसा करने जा रहा है-इसमें उसका उद्देश्य आम जनता का ध्यान वास्तविक महत्व की और बुनियादी आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं से हटाना है जिन्हें अब समस्त रूस का सर्वहारा वर्ग क्रांतिकारी संघर्ष में एकजुट हो कर व्यावहारिक रूप से हल कर रहा है। सर्वहारा की शक्तियों को बाँटने की यह प्रतिक्रियावादी नीति, जो आज ब्लैक हंड्रेड (राजतंत्र समर्थक गिरोहों) द्वारा किये हत्याकाण्डों में मुख्य रूप से प्रकट हुई है, भविष्य में और परिष्कृत रूप ग्रहण कर सकती हैं। हम इसका विरोध हर हालत में शान्तिपूर्वक, अडिगता और धैर्य के साथ सर्वहारा एकजुटता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की शिक्षा द्वारा करेंगे - एक ऐसी शिक्षा द्वारा करेंगे जिसमें किसी भी प्रकार के महत्वहीन मतभेदों के लिए कोई स्थान नहीं है। क्रान्तिकारी सर्वहारा, जहाँ तक राज्य का संबंध है, धर्म को वास्तव में एक व्यक्तिगत मामला बनाने में सफल होगा। और इस राजनीतिक प्रणाली में, जिसमें मध्यकालीन सड़न साफ़ हो चुकी होगी, सर्वहारा आर्थिक ग़ुलामी के, जो कि मानव जाति के धार्मिक शोषण का वास्तविक स्रोत है, उन्मूलन के लिए सर्वहारा वर्ग व्यापक और खुला संघर्ष चलायेगा।


-नोवाया झिज्न, अंक 28, 3 दिसंबर, 1905

https://www.marxists.org/ से साभार 

रविवार, 26 अगस्त 2018

कम्युनिस्ट पार्टियों में टूटन और एकीकरण

म्युनिस्ट पार्टियों में अन्दरूनी विवाद होना और फिर पार्टी से किसी गुट का अलग हो जाना अब कोई असामान्य घटना नहीं रह गयी है। हम इस पर विचार करें कि ऐसा क्यों होता है? उस से पहले इस आलेख में मैं कुछ ताजा घटनाओं का जिक्र करना चाहता हूँ। यहाँ कोटा में भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) के राजस्थान के प्रान्तीय सम्मेलन के नाम से 18-19 अगस्त 2018 को एक दो दिन का आयोजन होने का समाचार कोटा के कुछ स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ है। उस के साथ ही पार्टी के पोलिट ब्यूरो के सदस्य और प्रान्तीय कमेटी के कार्यवाहक सचिव महेन्द्र नेह की ओर से बयान आया है कि जो लोग सम्मेलन कर रहे हैं वे पार्टी के संविधान के अनुसार अनुशासनिक कार्यवाही की जनतांत्रिक प्रक्रिया अपनाए जाने के बाद पार्टी के पदों से हटाए गए लोग हैं। सम्मेलन के समाचार से पता लगता है कि इस के मुख्य अतिथि कुलदीप सिंह थे, जिन्हें एमसीपीआई (यू) का महामंत्री बताया गया है। 


सीपीआईएम के संस्थापक सदस्यों में से एक कामरेड जगजीत सिंह लायलपुरी ने पार्टी के कांग्रेस पार्टी के साथ सम्बधों के विवाद पर 1992 में अपने कुछ साथियों के साथ सीपीआईएम छोड़ दी थी। तब वे अपने साथियों के साथ भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (एमसीपीआई) में शामिल हो गए। एमसीपीआई 1986 में सीपीआईएम से समय समय पर अलग हुए अनेक समूहों की दमदम में हुई एक कांग्रेस से अस्तित्व में आई थी। का. लायलपुरी के एमसीपीआई में शामिल होने के बाद कुछ और कम्युनिस्ट समूह पार्टी में शामिल हुए। 2006 में हुई एमसीपीआई की पार्टी कांग्रेस में पार्टी के नाम में परिवर्तन किया जाकर उसे एमसीपीआई (यू) कर दिया गया तथा जगजीत सिंह लायलपुरी इस के महासचिव चुने गए। वे अपने जीवनकाल में 27 मई 2013 तक एमसीपीआई (यू) के महासचिव बने रहे। 

कामरेड लायलपुरी की मृत्यु के उपरान्त तुरन्त किसी को पार्टी का महासचिव चुना जाना था, तब पार्टी की केन्द्रीय कमेटी की बैठक में कुलदीप सिंह ने किसी पत्र का हवाला देते हुए बताया कि का. लायलपुरी जी चाहते थे कि उन्हें महासचिव चुना जाए। इस पर केंद्रीय कमेंटी ने विचार करते हुए कुलदीप सिंह को पार्टी का कार्यकारी महासचिव चुन लिया। इस के बाद एमसीपीआई (यू) की अगली पार्टी कांग्रेस मार्च 2015 में हैदराबाद में हुई। इस पार्टी कांग्रेस में कुलदीप सिंह व राजस्थान के कुछ लोगों ने इतना विवाद खड़ा किया कि नई केंद्रीय कमेटी और महासचिव का चुनाव नहीं हो सका और पार्टी कांग्रेस ने निर्णय किया कि इन दोनों कामों को आगे प्लेनम में किया जाएगा। 2016 में विजयवाड़ा में पार्टी का प्लेनम हुआ और उस में नयी केन्द्रीय कमेटी के चुनाव के साथ एक नौजवान साथी का. मोहम्मद घौस को सर्वसस्मति से पार्टी का महासचिव चुन लिया गया, इस प्लेनम में वे सभी लोग उपस्थित थे जो इस से पहले पार्टी कांग्रेस में भी मौजूद थे। का. मोहम्मत घौस के पार्टी का महासचिव चुने जाने के साथ ही उन्हों ने पार्टी को जनता की जनवादी क्रान्ति के कार्यक्रम के आधार पर एक क्रान्तिकारी पार्टी के रूप में विकसित करने के काम को गति प्रदान की। पार्टी का दिल्ली में कोई कार्यालय नहीं था। दिल्ली में पार्टी का केन्द्रीय कार्यालय स्थापित किया गया। 

पार्टी के पंजाब, राजस्थान और केरल के कुछ अतिमहत्वाकांक्षी नेताओं को जो सामंती तरीके से पार्टी पर काबिज होना चाहते थे, का. मोहम्मद घौस के नेतृत्व में पार्टी का एक क्रान्तिकारी पार्टी में बदले जाने के प्रयत्नों से बड़ा धक्का लगा। वे सभी एक वर्गसहयोगवादी गुट के रूप में काम करने लगे, पार्टी की केन्द्रीय कमेटी की बैठकों में आना बन्द कर दिया और पार्टी के नेतृत्व को नकारना आरंभ कर दिया। जिस से पार्टी में अनुशासन बनाए रखने के लिए उन के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही करना जरूरी हो गया। दिल्ली में 5-6 मार्च 2018 को हुई पार्टी के पोलित ब्यूरो की बैठक में केन्द्रीय कमेटी द्वारा प्रदत्त अधिकार से पंजाब के कुलदीप सिंह व प्रेमसिंह भंगू, आंध्रप्रदेश के एम.जी. रेड्डी तथा राजस्थान के गोपीकिशन, ब्रजकिशोर और रामपाल सैनी को उन के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही करते हुए पार्टी की केन्द्रीय कमेटी से पार्टी के संविधान के अंतर्गत अनुशासनिक कार्यवाही करते हुए निष्कासित कर दिया गया। इन की पार्टी सदस्यता के बारे में अंतिम निर्णय एमसीपीआई (यू) की केन्द्रीय कमेटी की आगामी बैठक में लिया जाना शेष है। 

इस के उपरान्त 13 मई 2018 को का. मोहम्मद घौस ने जयपुर में मजदूर-किसान सम्मेलन के अवसर पर पार्टी की राजस्थान प्रान्तीय कमेटी की बैठक बुलाई। लेकिन उस में केन्द्रीय कमेटी से निष्कासित सदस्य और उन के कुछ समर्थक बैठक में नहीं आए। इस पर अगले मजदूर-किसान सम्मेलन के अवसर पर 8 व 9 जून 2018 को कोटा में राजस्थान की प्रान्तीय कमेटी की बैठक और पार्टी सदस्यों की प्रान्तीय जनरल बाडी की बैठकें बुलाई गयी। प्रान्तीय कमेटी की बैठक में गोपीकिशन गुट के लोग उपस्थित नहीं हुए न ही उन्हों ने अपने विरुद्ध अनुशासनहीनता के आरोपो का उत्तर दिया। ऐसे में अगले दिन पार्टी के महासचिव का. मोहम्मद घौस की उपस्थिति में आयोजित राजस्थान के पार्टी सदस्यों की जनरल बॉडी मीटिंग में राजस्थान की प्रान्तीय कमेटी को भंग कर दिया गया और दिसंबर 2018 में उदयपुर में होने वाले पार्टी के प्रान्तीय सम्मेलन तक कार्यकारी प्रान्तीय कमेटी का गठन कर पार्टी के पोलिट ब्यूरो के सदस्य महेन्द्र नेह को उस का कार्यकारी सचिव बनाया गया। 

सब से हास्यास्पद बात यह हुई है कि कुलदीप सिंह जिन्हें कोटा में 18-19 अगस्त 2018 को आयोजित कथित प्रान्तीय सम्मेलन में पार्टी का महासचिव बताया गया उन्हें पंजाब में एमसीपीआई (यू) के सचिव पार्टी सदस्य बताते हैं। इसी कथित सम्मेलन में गोपीकिशन को प्रान्तीय सचिव चुन लिया गया है। अब यह साफ है कि इन वर्ग-सहयोगवादी नेताओं ने खुल कर एक अलग गुट के रूप में काम करना आरंभ कर दिया है, लेकिन उन्हें अपने पार्टी से अलग किए जाने या होने का कारण बताने में इतनी लज्जा आती है कि वे अभी भी एमसीपीआई (यू) के नाम का ही उपयोग कर रहे हैं। 

उधर का. मोहम्मद घौस के नेतृत्व में एमसीपीआई (यू) ने मजदूर वर्ग की पार्टियों की एकता की ओर एक और कदम आगे बढ़ाया है। 18 अगस्त को नई दिल्ली में हुई पार्टी के पोलित ब्यूरो की रीवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (आरएमपीआई) के नेतृत्व के साथ हुई बैठक में दोनों पार्टियों की समामेलन प्रक्रिया पर विचार हुआ और दोनों पार्टियों की एक दस सदस्यीय संयुक्त कमेटी बनाई गयी है। यह कमेटी दोनों पार्टियों के समामेलन तथा संयुक्त जन संघर्षों के लिए काम करेगी जिस की बैठक अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में हैदराबाद में होने जा रही है। इस संयुक्त कमेटी में एमसीपीआई (यू) से कामरेड मोहम्मद घौस, अशोक औंकार, किरनजीत सिंह सैंखों, अनुभवदास शास्त्री व महेन्द्र नेह तथा आरएमपीआई से का. के. गंगाधरन, मंगतराम पासला, राजेन्द्र परांजपे, के.एस. हरिहरन तथा हरकँवल सिंह सम्मिलित हैं कामरेड मो. घौस तथा कामरेड मंगतराम पासला संयुक्त रूप से इस कमेटी के संयोजक का काम कर रहे हैं। 

किसी भी देश में एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण में वर्गसहयोगवादी तत्वों को पार्टी से बाहर करना और समान विचारधारा वाले मजदूरवर्गीय राजनैतिक समूहों का एकीकरण एक सतत प्रक्रिया है जो तब तक चलती रहेगी जब तक उस देश में सत्ता मजदूरवर्ग और सहयोगी वर्गों के हाथ में नहीं आ जाती है। कामरेड लेनिन ने “जर्मन कम्युनिस्टों की फूट” पर लिखी अपनी एक टिप्पणी में लिखा था- 

“ऐसे कारण मौजूद हैं, जिनसे भय लगता है कि जैसे “मध्यमार्गियों के साथ (या काउत्स्कीवादियों, लॉन्गेपंथियों, “स्वतंत्रों'', आदि के साथ) होनेवाली फूट अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने की घटना बन गयी है, वैसे ही वामपंथियों'' अथवा संसदीय पद्धति के विरोधियों के साथ (जो आंशिक रूप में राजनीति के, राजनैतिक पार्टी बनाने के और ट्रेड-यूनियनों में काम करने के भी विरोधी हैं) होने वाली यह फूट भी एक अन्तर्राष्ट्रीय घटना बन जायेगी। यही होना है, तो हो। हर हालत में फूट उस उलझाव से बेहतर होती है, जो पार्टी के सैद्धांतिक, वैचारिक एवं क्रान्तिकारी विकास को रोक देता है, पार्टी को परिपक्व नहीं होने देता और उसे वह वैसा सुसंगत, सच्चे मानी में संगठित, अमली काम करने से रोकता है, जो सही मानी में सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के लिए रास्ता तैयार करता है।”

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

खुद को कभी कम्युनिस्ट नहीं कहूँगा

ल एक गलती हो गई। भुवनेश शर्मा अपने गुरू श्री विद्याराम जी गुप्ता को बाबूजी कहते हैं। मैं समझता रहा कि वे अपने पिता जी के बारे में बात कर रहे हैं।  भुवनेश जी के पिता भी वकील हैं। कल की पोस्ट में मैं ने उन के पिता का उल्लेख कर दिया। आज शाम भुवनेश जी ने मुझे फोन कर गलती के बारे में बताया। अब गलती हटा दी गई है।
ज मैं उस घटना के बारे में बताना चाहता हूँ जो मेरे कॉलेज जीवन में घटित हुई। यह सन् 1971 का साल था। बांग्लादेश का युद्ध हुआ ही था और अटलबिहारी जी ने इंदिरागांधी को दुर्गा कहा था। कम्युनिस्टों के बारे में वही धारणाएँ मेरे मन में थीं जो भारत में उन के विरोधी प्रचारित करते रहे हैं। मैं समझता था। कम्युनिस्ट बहुत लड़ाके किस्म के लोग होते हैं। विरोधियों को बात-बात में चाकू छुरे से घायल कर देते हैं, जेब में बम लिए घूमते हैं। ईश्वर को नहीं मानते। लिहाजा वे अच्छे लोग नहीं होते और उन की परछाई से भी दूर रहना चाहिए। एक दिन मैं अपने कालेज से लौट रहा था। मार्ग में वैद्य मामा जी का घर पड़ता था। उसी में नीचे की मंजिल में उन का औषधालय और औषध-निर्माणशाला थी। मन में आया कि मामाजी से मिल चलूँ। औषधालय में अंदर घुसा तो वहाँ अपने पिताजी  और तेल मिल वाले गर्ग साहब को वहाँ पाया। मामा जी भी वहीं थे। गर्ग साहब किसी के लिए दवा लेने आए थे। आपस में बातें चल रही थीं। मैं भी सुनने लगा।

र्ग साहब कुछ बातें ऐसी कर रहे थे कि मुझे वे तर्कसंगत नहीं लगीं। मैं उन से बहस करने लगा। हालांकि मैं अपने पिताजी के सामने कम बोलता था। लेकिन उस दिन न जाने क्या हुआ कि गर्ग साहब से बहस करने लगा। गर्ग साहब बहस के बीच कहीं निरुत्तर हो गए। मेरी बात काटने के लिए  बोले तुम-कम्य़ुनिस्ट हो गए हो इस लिए ऐसी बातें कर रहे हो। मैं भी तब तक कुछ तैश में आ गया था। मैं ने कहा - आप यही समझ लें कि मैं कम्युनिस्ट हो गया हूँ। लेकिन उस से क्या मेरी किसी तर्कसंगत और सच्ची बात भी मिथ्या हो जाएगी क्या?
खैर! वहाँ बात खत्म हो गई। गर्ग साहब भी उन की दवाएँ ले कर चल दिए। कुछ देर बाद मैं और पिताजी भी वहाँ से एक साथ घर की ओर चल दिए। रास्ते में पिताजी ने पूछा -तुम कम्युनिस्ट हो? मैं ने कहा -नहीं। तो फिर जो तुम नहीं हो कहते क्यों हो?
मेरे मन में यह बात चुभ गई। मेरा प्रयत्न रहने लगा कि किसी तरह मैं जान सकूं कि  आखिर कम्युनिस्ट क्या होता है। कुछ समय बाद मेरे हाथ गोर्की का उपन्यास 'माँ' हाथ लगा। उसे मैं एक बैठक में पढ़ गया। उस ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मेरी गोर्की के बारे में अधिक जानने की जिज्ञासा हुई तो मैं दूसरे दिन उस की जीवनी के तीनों भाग खरीद लाया। इस तरह मैं ने जानने की कोशिश की कि कम्युनिस्ट क्या होता है? हालांकि यह सब कम्युनिस्टों के बारे में जानने के लिए बहुत मामूली अध्ययन था। बाद में जाना कि भगतसिंह कम्युनिस्ट थे।  यशपाल कम्युनिस्ट थे,  राहुल सांकृत्यायन कम्युनिस्ट थे, मुंशी प्रेमचंद कम्युनिज्म से प्रभावित थे। बहुत बाद में कम्युनिस्ट मेन्युफेस्टो मेरे हाथ लगा भी तो समझ नहीं आया। उसे समझने में बरस लग गए।  पहला कम्युनिस्ट अपने शहर में देखने में तो मुझे चार बरस लग गए। जब उसे देखा तो पता लगा कि कम्युनिस्ट भी एक इंसान ही होता है, कोई अजूबा नहीं। उस के शरीर में भी वही लाल रंग का लहू बहता है जो सब इंसानों के शरीर में बहता है। उस के सीने में भी दिल होता है जो धड़कता है। लेकिन यह भी समझ आया कि उस का दिल अपने लिए कम, बल्कि औरों के लिए अधिक धड़कता है। खुद को जाँचा तो पाया की मेरा दिल भी वैसे ही धड़कता है जैसे उस कम्युनिस्ट का धड़कता था।

र्क था तो इतना ही कि वह उन लोगों के लिए जिन के लिए उस का दिल धड़कता था, चुनौतियाँ लेने को तैयार रहता था। वह शायद बहुत मजबूत आदमी था, शायद फौलाद जैसा।  मैं उसी की तरह यह तो चाहता था कि दुनिया के चलन में कुछ सुधार हो लेकिन उस के लिए चुनौतियाँ स्वीकार करने में मुझे भय लगता था। मुझे लगता था कि मेरे पास अभी एक खूबसूरत दुनिया है और मैं उसे खो न बैठूँ। यह डर उस कम्युनिस्ट के नजदीक भी न फटकता था। कई बार तो मुझे उसे देख कर डर भी लगता था कि कैसा आदमी है? कभी भी अपनी जान दे बैठेगा। मुझे उसे देख कर लगा कि मैं शायद जीवन में कभी भी कम्युनिस्ट नहीं बन सकता, मुझ  में इतनी क्षमता और इतना साहस है ही नहीं। मैं ने तभी यह तय कर लिया कि खुद को कभी कम्युनिस्ट नहीं कहूँगा। हाँ, यह जरूर सोचने लगा कि कभी मेरा मूल्यांकन करने वाले लोग यह कह सके कि मुझे कम्युनिस्टों से प्रेम था, तो भी खुद को धन्य समझूंगा।

चित्र- भगतसिंह, राहुल सांकृत्यायन और यशपाल