@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: बसंत
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रविवार, 28 फ़रवरी 2010

होली के पहले की एक रंगभरी शाम

ज मिलादुन्नबी का त्यौहार था। बहुतों के साथ ही मेरे लिए भी होली के पहले एक दिन और अवकाश का। इस्लाम के अनुयायियों के लिए उतना ही बड़ा दिन जितना शायद कृष्ण जन्माष्टमी या क्रिसमस है। बिटिया दीपावली के बाद अब घर आई है तो घर ही रहा। कुछ साल पहले तक मुहल्ले में होली मुहल्ले की सोसायटी मनाती थी। तो हफ्ते भर पहले से मेरा दफ्तर सोसायटी का दफ्तर हो जाता था। पहले होली मनाने के तरीके पर मीटिंग होती। फिर चंदा इकट्ठा किया जाता। फिर होली की तैयारी शुरू हो जाती। कुछ सालों से सोसायटी ने यह काम बंद कर दिया। यह जिम्मा नौजवानों ने संभाल लिया। मैं ने कल ही विकास को पूछा था -भाई होली की तैयारी नहीं है क्या। वह अपने कामों में उलझा था। वह बोला था -अंकल कल का दिन बहुत है, सब कर लेंगे। मैं ने उसे बताया था कि मेरे पास विजया का अच्छा स्टॉक पड़ा है उसे टेस्ट कर लो। होली के दिन काम में लेने लायक है या नहीं। उस ने शाम को आने को बोला। लेकिन शाम को गच्चा मार गया। मैं भी पूर्वा को स्टेशन से लाने में व्यस्त हो गया।
ज सुबह से ही जी-मेल के बज़ पर दिल्ली से अजय झा विज्ञापन लगाए बैठे थे....
  • होलिका दहन के लिए लकडी के दरवाजे खिडकियां खटिया के दाता लोग नाम लिखाएं ..जल्दी ...पावती रसीद के साथ भांग का पाऊच फ़्री मिलेगा :) :) :) :) :) :)
जोधपुर से हरि शर्मा बोले-
  • इस तरह मांगने से काम न चलेगा, चोरी करनी पड़ेगी।
हम ने विज्ञापन देखा तो बोल दिया.....
  • कुछ टूटे स्टूल टेबल का कबाड़ छत पर पड़ा है। आप खुशी से मंगा सकते हैं। मेरे ऑफिस (जो घर पर ही है) की टेबुल की दराज में दो सौ चालीस ग्राम भांग रखी है (दस ग्राम प्रयोग में ली जा चुकी है) कबाड़ उठाने आप खुद आ जाएँ तो छत पर ही सिल-बट्टा बजा लिया जाएगा। आप का इंतजार है।
म शाम तक इंतजार में रहे झा जी आएँगे! पर उन्हें न आना था, न आए! शाम को विकास अपनी टीम ले कर पहुँचा। एक छोटे से कागज के पुर्जे में लिस्ट बनाई हुई थी। मैं ने पुर्जा देखा तो वे लोग 2250 रुपए एकत्र कर चुके थे, मेरे सौ मिला कर 2350 पचास हो गए। होली का अच्छा खासा इंतजाम हो चुका था। वे भी ये काम कर के थक चुके थे। तुरंत सिल-बट्टा ले आए। विजया पहले घुटी, फिर छन गई। भोले का प्रसाद सबने लिया। अंत में महेन्द्र 'नेह' आए, वे भी चख गए। हमने आधे घंटे बाद काव्य-मधुबन के सालाना कार्यक्रम फुहार में जाना तय किया जहाँ इस बार सूर्यकुमार पाण्डेय का सम्मान होना था। यह संस्था प्रतिवर्ष होली की पूर्व संध्या पर एक व्यंगकार को सम्मानित करती है।

हेन्द्र नेह के साथ कार्यक्रम में पहुँचे तो वहाँ गायन चल रहा था। भावना काले और भूपेन्द्र शर्मा होरियाँ गा रहे थे। हम भी सुनने बैठ गए। होरी गायन विशुद्ध रूप से प्रेम में पगा होता है। चाहे वह प्रेम भौतिक हो या आध्यात्मिक। प्रेम का गायन बहुत ऊर्जा चाहता है। वह गायन बिलकुल मन से हो तो उस के आनंद का जवाब नहीं। भावना काले बहुत अच्छा गाती हैं। लेकिन आज ऐसा लगा जैसे उन का मन कहीं और भटका हुआ है, व्यथित है, उन के गायन में मन का रंग नहीं था। गायन में कहीं कोई कमी नजर आ रही थी। मैं उन से पूछना भी चाहता था कि ऐसा क्यों है? लेकिन  कार्यक्रम के बाद उन से भेंट ही नहीं हो सके। लेकिन जब भूपेन्द्र शर्मा गाने लगे तो मन का वह रंग खिलने लगा। वह गायन कला के नियमों से ऊपर था। जैसे प्रेम अठखेलियाँ कर रहा हो।
गायन समाप्त हुआ तो सूर्यकुमार जी पांडेय जी का सम्मान हुआ। कोटा की साहित्यिक बिरादरी के सभी मंजे हुए हस्ताक्षर वहाँ उपस्थित थे। उन में व्यंगकार औंकारनाथ चतुर्वेदी, नाटक कार शिवराम, ब्लागरों में नरेन्द्रनाथ चतुर्वेदी और शरद तैलंग वहाँ थे। समारोह के अंत में पाण्डेय जी ने एक संक्षिप्त भाषण दिया और बहुत सी व्यंग्य रचनाएं सुनाई। आलोचक उषा झा ने उन का परिचय दिया तो पता लगा उन्हें 1970 से सम्मान मिलने आरंभ हो गए थे। हर साल दो-चार सम्मान उन्हों ने प्राप्त किए और अब तक प्राप्त किए जा रहे हैं। मैं उन का सम्मान प्राप्त करने का माद्दा देख कर दंग रह गया। वह उन की काबिलियत को प्रदर्शित कर रहा था। वैसे भी पाण्डेय जी ने 1970 से आज तक सब तरह का साहित्य लिखा है। जब जब जिस की मांग रही वही उन्हों ने लिखा और मांग को पूरा किया और पूरी शुचिता के साथ। वे वास्तविक मसिजीवी रहे हैं। अंत में उन्हों ने अपना एक गद्य व्यंग्य सुनाया। उन के व्यंगकार का महत्व यह रहा कि उन्हों ने आम मध्यवर्ग के मन को ठीक से अपने साहित्य में उड़ेला। उन्हों ने व्यवस्था की कुरूपता को उजागर किया और उस के छद्म को जग जाहिर कर लोगों को हंसाया भी।  
विगत आठ सालों से कोटा की संस्था काव्य-मधुबन होली के अवसर पर निरंतर इस सम्मान समारोह को आयोजित करती रही है, यह बड़ी बात है। इस निरंतर आयोजन के पीछे संस्था के अध्यक्ष अतुल चतुर्वेदी का श्रम और लगन रही है। आज के आयोजन का सफल संचालन भी उन्हों ने ही किया। वे स्वयं एक समर्थ कवि और व्यंगकार हैं। उन का अपना हिन्दी ब्लाग भी है। बस उसे वे अपना अधिक समय नहीं दे पाते। लेकिन उन से हिन्दी ब्लाग जगत में सक्रिय होने की अपेक्षा तो की ही जा सकती है जिस से उन के रचना कौशल का जलवा वे यहाँ भी बिखेर सकें।
चित्र
1. कैप्शन की जरूरत नहीं, 2. गायक भूपेन्द्र शर्मा, 3.सम्मान के बाद अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करते सूर्यकुमार पाण्डेय, 4. समारोह के बाद पांडेय जी और व्यंगकार शरद तैलंग।

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

आज किसी ने बताया नहीं, कि बसंत पंचमी है

मुझे पता था आज बसंत-पंचमी है। पर न जाने क्यों लग रहा था कि आज बसंत पंचमी नहीं है। शायद मैं सोच रहा था कि कोई आए और मुझ से कहे कि आज बसंत पंचमी है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अक्सर इन त्योहारों का महिलाओं को खूब ध्यान रहता है। पत्नी शोभा मेरे बिस्तर से उठने के पहले ही स्नान कर चुकी थी, बाल भी धोए थे और सूखने के लिए खुले छोड़े हुए थे। मैं ने सोचा वह जरूर कह देगी कि आज बसंत पंचमी है। पर उस ने भी कुछ नहीं कहा।  सुबह नेट पर ब्लाग पढ़ता हूँ। वहाँ इस विषय पर कुछ नजर नहीं आया। मेरे यहाँ दो अखबार नियमित रूप से आते हैं। उन में बसंत-पंचमी तलाशता रहा। लेकिन दोनों अखबारों में बसंत पंचमी का उल्लेख नहीं था। मैं ने ऊब कर अखबार छोड़ दिए।  मैं दस बजे तक स्नानघर में नहीं घुसा। सोचा अब तो पत्नी जरूर कह ही देगी कि त्योहार कर के स्नान में देरी कर रहे हो। लेकिन फिर भी उस ने नहीं कहा और चुपचाप अपने भगवान जी की पूजा में लग गई। मैं नहा कर निकला तो वह मेरे लिए भोजन तैयार कर रही थी। मैं तैयार होता उस के पहले उस ने भोजन परोस दिया। मैं अदालत के लिए निकल लिया।  

ज शहर में चेंपा की भरमार थी। शायद सरसों की फसल कटने लगी थी और वे करोड़ों-अरबों की संख्या में बेघर हो शहरों की तरफ उड़ आए थे। यह उन की यह अंतिम यात्रा थी और शायद वे जीवनलीला समाप्त होने के पहले जी भर कर स्वतंत्रता से उड़ लेना चाहते थे। मैं शहर में पैदा हुआ और तब से अधिकतर शहरों में ही रहा हूँ। लेकिन मैं ने कभी शहर की तरफ आते सियार को नहीं देखा। हाँ कभी यात्रा में रात के समय वाहन की रोशनी में जंगल के बीच से निकल रही सड़क पर अवश्य दिखे। शायद इंसानों की मुहावरेबाजी से वे बहुत पहले ही यह सीख चुके हैं कि शहर की और जाना मौत बुलाना है और उन्हों ने शहर की ओर भागना बंद कर दिया है। मुझे लगता है मुहावरा बदल डालना चाहिए और कहना चाहिए "जब मौत आती है तो चेंपा शहर की और उड़ता है।" अदालत में आज कुछ काम नही हुआ। अधिकतर अदालतों में जज नहीं थे। शायद वसंतपंचमी का ऐच्छिक अवकाश था जिसे उन्होने काम में लिया था। दोपहर तक सब काम निपट गया। दो बार मित्रों के साथ बैठ कर कॉफी भी पी ली। लेकिन किसी ने उल्लेख नहीं किया कि आज बसंत पंचमी है।

दालत से आते समय एक दफ्तर भी गया, जहाँ एक कवि-मित्र नौकरी में हैं। उन्हों ने भी कुछ नहीं कहा। मैं घर पहुँचा तो वहाँ ताला पड़ा था। शोभा कहीं निकल गई थी। मैं अपनी चाबी से ताला खोल अंदर आया। नैट खोला तो वहाँ कुछ पोस्टें बसंत पर दिखाई पड़ी। मन को कुछ संतोष हुआ, चलो कुछ लोगों को तो पता है कि आज बसंत पंचमी है। वर्ना मुझे तो लगने लगा था कि इस बार  बसंत पंचमी जल्दी पड़ रही है इस कारण सभी उसे भूल गए हैं। इस बीच दफ्तर में कोई आ गया। उस का काम निपटा कर बाहर निकला तो देखता हूँ। बाहर कचनार पर आठ-दस सफेद फूल खिले हैं और वह कह रहा है, बसंत आ चुका है। कुछ देर बाद शोभा लौट आई। हमने साथ कॉफी पी। मैं फिर अपने काम में लग गया। निपटा तो रात हो चुकी थी। अंदर गया तो शोभा भगवान जी की आरती उतार रही थी। उस ने भगवान जी का घर फूलों से सजा रखा था। मैं मन ही मन मुसकाया, चलो मुझे नहीं कहा कि आज बसंत पंचमी है लेकिन उसे पता तो है। कुछ देर बाद भोजन के लिए तैयार हो मेज पर पहुँचा तो शोभा भोजन लगा चुकी थी। वह भगवान जी के यहां से एक पात्र उठा कर लाई। उस में पीले रंग के चीनी की चाशनी में पके बासमती चावल थे, जिन से महक उठ रही थी। मैं ने उसे कहा -तो तुम्हें पता था, आज बसंत पंचमी है? मुझे क्यों नहीं बताया? कहने लगी -आप को खुद पता होना चाहिए, यह बात भी मुझे बतानी होगी क्या?