हम ने पिछले आलेख में मूल साँख्य के 24 तत्वों के बारे में चर्चा की थी जो 1. प्रधान या प्रकृति 2. महत् या बुद्धि 3.अहंकार 4. मनस या मन 5. से 9. पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ 10. से 14. पाँच कर्मेन्द्रियाँ 15 से 19 पाँच तन्मात्राएँ या सूक्ष्म भूत तथा 20 से 24 पाँच महाभूत, कुल 24 तत्व हैं।
बुद्धि और मन
यहाँ साँख्य में एक जैसे दो तत्व दिखाई पड़ते हैं। एक बुद्धि या महत् और दूसरा मन या मस्तिष्क। यह मन बुद्धि से पृथक तत्व है। यह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच सामंजस्य रखते हुए बाह्य जगत से संकेत और सूचनाएं प्राप्त करता है, उन्हें निश्चित धारणाओं में परिवर्तित करता है और अनुभवकर्ता अहंकार को सूचित करता है। साँख्य का यह मन अहंकार का उत्पाद है और खुद भी उत्पादित करने की क्षमता रखता है। लेकिन बुद्धि के बारे में यह कथन उचित नहीं होगा। साँख्य तत्व बुद्धि स्वयं तो प्रकृति का उत्पाद है, लेकिन वह उत्पादन की क्षमता से हीन है।
ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, तन्मात्राएँ और महाभूत
सात्विक अहंकार से उत्पन्न पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ श्रोत्र, त्वक, चक्षु, रसन और प्राण हैं तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ वाक, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ हैं। तामस अहंकार से उत्पन्न पाँच तन्मात्र अथवा सूक्ष्म भूत शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध हैं। पाँच तन्मात्राओं अथवा सूक्ष्मभूत से उत्पन्न पाँच स्थूलभूत या महाभूत आकाश वायु अग्नि जल और पृथ्वी हैं।
हम ने देखा कि अहंकार से सूक्ष्म और स्थूल भूतों की उत्पत्ति होती है। स्थूल-भूत सूक्ष्म-भूतों के विभिन्न योगों से उत्पन्न होते हैं। जैसे शब्द से आकाश का जन्म होता है, शब्द और स्पर्श के योग से वायु या मरूत, रूप से तेज या अग्नि और शब्द, स्पर्श, रूप और रस से जल की उत्पत्ति होती है। सभी पाँच सूक्ष्म भूतों से महाभूत क्षिति या पृथ्वी की उत्पत्ति होती है।
पुरुष
अब तक हम ने मूल साँख्य के बारे में जाना जो बुद्ध के काल तक जाना जाता था। इस में पुरुष तत्व पूरी तरह से अनुपस्थित था। तब तक हम इसे एक भौतिकवादी दर्शन कह सकते हैं, जिस की आलोचना बादरायण ने ब्रह्मसूत्र में की। शंकर और रामानुज ने ब्रह्मसूत्र के अपने भाष्यों में भौतिकवादी दर्शन के रूप में ही साँख्य को अपनी आलोचना का केन्द्र बनाया। लेकिन इस काल में भारत और लगभग संपूर्ण पूर्व एशिया के मानव समाजों और उन के राजनैतिक ढाँचे में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे थे, जो दर्शन पद्धतियों पर अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रह सकते थे। इन पूर्व एशियाई समाजों में अब तक गणपद्धति की राजनैतिक व्यवस्था हुआ करती थी, जो परिवारों, कुलों और गोत्रों के प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन चलाती थी। अक्सर गणों की संपत्तियाँ सामूहिक होती थीं। उन का उपभोग गण के सदस्य आवश्यकतानुसार किया करते थे। यह एक तरह का बड़ा संयुक्त परिवार था। इस पद्धति में राजा नहीं हुआ करता था। गणाध्यक्ष या गणपति गण का प्रमुख होता था। लेकिन यह पद्धति कृषि के विकास को अवरुद्ध किए हुए थी। विकास के लिए इस अवरोध का टूटना अवश्यंभावी था। वह टूटी, और गणों का स्थान राज्य लेने लगे। इस से समाज में अनेक विकृतियाँ और उन के कारण क्षोभ उत्पन्न हुआ। सामूहिकता नष्ट हो रही थी जिस के प्रति आदर और मोह मौजूद था। इस सामुहिकता के प्रति आदर और मोह का संरक्षण बोद्धों ने एक अभिनव संगठन संघ के माध्यम से किया। यही कारण था कि उस वातावरण में बौद्ध संघ एक अल्पकाल में ही पूरे एशिया में फैल गए।
गण-संघों के स्थान पर राज्यों की स्थापना दर्शनशास्त्र में एक ब्रह्म, एक ईश्वर और एक परम पुरुष की अवधारणा की आवश्यकता पर जोर दे रही थी इस का मूल वैदिक उपनिषदों में मौजूद था। साँख्य में इस के लिए कोई स्थान नहीं था। लेकिन इस तरह की किसी अवधारणा के अभाव में साँख्य का नए सामाजिक -राजनैतिक वातावरण में जीवित रहना ही दूभर था। यही वह बिन्दु था जहाँ मूल साँख्य में पुरुष का प्रवेश हुआ जिस ने परवर्ती साँख्य में 25वें तत्व के रुप में अपना स्थान बनाया। लेकिन मूल साँख्य की पद्धति इतनी मजबूत और अभेद्य थी कि पुरुष ने उस में प्रवेश तो कर लिया, लेकिन उस के लिए वहाँ कोई भूमिका थी ही नहीं। वह साँख्य में प्रवेश के बाद भी परिवार में बाहरी अतिथि की तरह दर्शक मात्र ही बना रहा। हम आगे परवर्ती साँख्य में पुरुष के बारे में चर्चा करेंगे।