पिछले पाँच आलेखों में साँख्य के बारे में जो कुछ लिखा गया उस में पुरुष कहीं नहीं था। वस्तुतः अब तक साँख्य को कहीं भी पुरुष की आवश्यकता नहीं हुई। वह साँख्य के चौबीस तत्वों में कहीं भी सम्मिलित नहीं है। यदि अब उसे सांख्य में लाया जाए तो अब तक जो विकास का जो मॉडल सामने आया वह गड़बड़ा जाएगा। 'प्रधान' या 'मूल प्रकृति' से जगत के विकास क्रम में पुरुष की उपस्थिति पूरी तरह असंगत है। परवर्ती साँख्य में पुरुष ने उपस्थित हो कर ठीक यही किया। इस संबंध में देवीप्रसाद चटोपाध्याय लिखते हैं .....
शंकर ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में लिखा......'प्रकृति' के ठीक प्रतिकूल, साँख्य में 'पुरुष' की स्थिति गौण थी, यह 'अ-प्रधान' था। इसे आम तौर पर उदासीन भी कहा जाता था। पुरुष का यह उपनाम हमें 'ब्रह्मसूत्र' पर लिखे भाष्यों (शंकर) में मिलता है। याहँ तक कि 'कारिका' में भी इस उपनाम का प्रयोग हुआ है। इस से हमारे मन में यह संदेह उठ सकता है कि यदि ये पुरुष इस विश्व की सृष्टि की वास्तविक प्रक्रिया के प्रति पूर्ण रूप से उदासीन थे और यदि पदार्थ मूल अविकसित पदार्थ से विकसित हो कर गोचर जगत बनने तक के विकासानुक्रम में इनकी कोई भूमिका नहीं थी तो फिर साँख्य के प्रतिपादकों को इस आत्मनिर्भर सत्य से अलग उन पुरुषों को मान्यता देने की आवश्यकता क्यों पड़ी। वास्तविक परिस्थितियों में इन के लिए स्थान क्यों होना चाहिए? जैसा कि हम देखेंगे, इस का कारण केवल इतना था कि कुछेक दार्शनिक, इस 'प्रधानवाद' में विसंगतिपूर्ण स्थिति होने के बावजूद पुरुष के सिद्धांत को मान्यता देना चाहते थे। इस के पीछे कुछ और कारण भी थे।
"हम इन दोनों प्रणालियों (साँख्य और योग) के उन अंशों को सहर्ष स्वीकार करते हैं जो वेद विरुद्ध नहीं हैं। उदाहरण के लिए उन्हों ने आत्मा (पुरुष) को सभी प्रकार के गुणों से मुक्त बता कर वेदों के अनुरूप विचार प्रस्तुत किए हैं। वेदों में जीव (पुरुष) को मूलतः शुद्ध बताया गया है। उदाहरण के लिए 'वृहदोपनिषद' ' क्यों कि इस जीव का किसी के साथ कोई संबंध नहीं है।'
शंकर की यह टिप्पणी जितनी दिखाई देती है उस से अधिक महत्वपूर्ण है। शंकर ने साँख्य की निंदा केवल इसलिए नहीं की थी कि वह वेदांत के विरुद्ध था बल्कि इसलिए भी की थी कि वह वेदांत के सच्चे अनुयायियों के उपदेशों के भी विरुद्ध था। तब फिर ऐसी प्रणाली में वेदांत के अनुरूप पुरुष के विवरण के लिए स्थान होना विचित्र बात थी। हाँ यह विचित्रता उस परिस्थिति में नहीं रहेगी जब कि यह मान लिया जाए कि वेदांत के अनुरूप आत्मा (पुरुष) के विवरण वाली बात साँख्य के बाद के प्रणेताओं ने ऐसे दार्शनिकों से ग्रहण की हो जो वास्तव में वेदांत के अनुयायी थे। साँख्य कारिका के लेखक ईश्वरकृष्ण ने यही किया। वेदांत से उधार लिया गया पुरुष सिद्धांत साँख्य में ले आए जो साँख्य के मूल सिद्धांतों से मेल नहीं खा सका।
अब हम देखें कि कारिका में पुरुष की स्थिति क्या है। साँख्य में 'पुरुष बहुत्वम' कहा गया है अर्थात पुरुष अनेक हैं।साँख्य कारिका के सूत्र-18 में कहा है.....
जन्ममरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत्प्रवृत्तेश्च।
पुरुषबहुत्वं सिद्धं त्रेगुण्यविपर्ययाच्चैव ।। 18 ।।
"चूँकि सब के लिए जनम, मरण और जीवन के साधन (ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेंद्रियाँ) अलग हैं क्योंकि सब के कार्य सर्वव्याप्त और एक ही समय नहीं होते और चूँकि सब के अलग-अलग गुण हैं, इस से प्रत्यक्ष है कि पुरुष अनेक हैं।"साँख्य कारिका के पुरुष न केवल अनेक हैं अपितु प्रत्येक जीवधारी को एक पुरुष की संज्ञा दे दी गई है। यह आत्मा की विशिष्टता नहीं हो सकती। वह जन्मता है और मरता है जिस के शरीर में ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ हैं। यह आत्मा का तत्वमीमाँसीय दृष्टिकोण नहीं हो सकता, और आत्मा के वेदांतिक दृष्टिकोण से पूरी तरह भिन्न है। सांख्य कारिका का पुरुष साधारण भौतिक शरीर वाले व्यक्ति में परिवर्तित हो कर रह गया है। प्रत्येक पुरुष का कोई शरीर नहीं है। वे शरीर से संबद्ध नहीं। उन का शरीरों की किसी भी गतिविधि में कोई योगदान नहीं है। व्यक्तियों के जीवन में जो कुछ हो रहा है, उन से वे पूरी तरह उदासीन हैं। उन की कोई भूमिका नहीं। वे व्यक्ति के जीवन के केवल साक्षी मात्र हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे या तो साँख्य में बिन बुलाए अतिथि हैं या फिर किसी खास उद्देश्य से उन का प्रवेश इस प्रणाली में कराया गया है। (जारी)