बाबा नागार्जुन के संगी-साथी यादवचंद्र पाण्डेय विकट रंगकर्मी, साहित्यका, शिक्षक और संगठन कर्ता थे। जनआंदोलनों में उन की सक्रिय भागीदारी हुआ करती थी इसी कारण अनेक बार जेल यात्राएँ कीं। सम्मानों और पुरस्कारों से सदैव दूर सदैव श्रमजीवी जनगण के बीच उन्हीं के स्तर पर घुल-मिल रहने की सादगीपूर्ण जीवन शैली को उन्हों ने अपनाया। वे विकल्प अखिल भारतीय जन-सांस्कृतिक-सामाजिक मोर्चा के संस्थापक अध्यक्ष थे। उन का प्रबंध काव्य 'परंपरा और विद्रोह' आपातकाल में प्रकाशित हुआ। एक उपन्यास 'एक किस्त पराजय' 1975 में, नाट्य रूपांतर 'प्रेमचंद रंगमंच पर' 1980 में, काव्य पुस्तिका 'संघर्ष के लिए' 2002 में, एक कविता संग्रह 'खौल रही फल्गू' 2006 में प्रकाशित हुए। उन्हों ने भोजपुरी में नाटक, कविताएँ, विभिन्न विषयों पर लेख और व्यंग्य लिखे जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में मूल और छद्म नामों से प्रकाशित हुए। आज भी उनका बहुत सा साहित्य अप्रकाशित है। 15 फरवरी 2007 को उन का निधन हो गया।
मुझे उन से मिलने का सौभाग्य कोटा में दो बार मिला। एक बार वे अपना पूरा नाट्य-दल ले कर कोटा आए थे और 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं' तथा 'कफन' नाटक प्रस्तुत किए। कफन में वे स्वयं अभिनेता थे। जितना डूब कर उनका अभिनय देखा वैसा मैं ने कुछ ही अभिनेताओं का देखा है। यहाँ उन की एक कविता कन्या भ्रूण हत्या पर प्रस्तुत है। जो न केवल अपने कथन में श्रेष्ठ है, अपितु शिल्प की दृष्टि से नए कवियों को सीखने को बहुत कुछ देती है ......
मानसून जब भी आता है तो किसी मंत्री की तरह तशरीफ लाता है। पहले उस के अग्रदूत आते हैं और छिड़काव कर जाते हैं। उस से सारा मौसम ऐसे खदबदाने लगता है जैसे हलवा बनाने के लिए कढ़ाई में सूजी को घी के साथ सेंक लेने के बाद थोड़ा सा पानी डालते ही वह उछलने लगता है। कुछ देर में उस में से भाप निकलती है। सिसकियों की आवाज के साथ और पानी की मांग उठने लगती है। पानी न मिले तो सूजी जलने लगती है, ठीक ठीक मिल जाए तो हलुआ और अधिक हो जाए तो लपटी, जो प्लेट में रखते ही अपना तल तलाशने लगती है।
पिछले सप्ताह यहाँ ऐसा ही होता रहा। पहले अग्रदूतों ने बूंदाबांदी की। फिर दो रात आधा-आधा घंटे बादल बरसे। दिन में तेज धूप निकलती रही। हम बिना पानी के प्यासे हलवे की तरह खदबदाते रहे। फिर दो दिन रात तक अग्रदूतों का पता ही नहीं चला, वे कहाँ गए? साधारण वेशधारी सुरक्षा कर्मी जैसे जनता के बीच घुल-मिल जाते हैं ऐसे ही वे अग्रदूत भी आकाश में कहीं विलीन हो गए। हमें लगा कि मानसून धोखा दे गया। नगर और पूरा हाड़ौती अंचल तेज धूप में तपता रहा। यह हाड़ौती ही है जो इस तरह मानसून के रूखेपन को जुलाई माह आधा निकलने तक भी बर्दाश्त कर जाता है और घास-भैरू को स्मरण नहीं करता । कोई दूसरा अंचल होता तो अब तक मैंढकियाँ ब्याह दी गई होतीं। वैसे मानसून हाड़ौती अंचल पर शेष राजस्थान से कुछ अधिक ही मेहरबान रहता है। उस का कारण संभवतः इस का प्राकृतिक पारियात्र प्रदेश का उत्तरी हिस्सा होना है और पारियात्र पर्वत से आने वाली नदियों के कारण यह प्रदेश पानी की कमी कम ही महसूस करता है। यहाँ इसी कारण से वनस्पतियाँ अपेक्षाकृत अधिक हैं।
तभी खबर आई कि राजस्थान में मानसून डूंगरपुर के रास्ते प्रवेश कर गया है । उदयपुर मंडल में बरसात हो रही है, झमाझम! हम इंतजार करते रहे कि अगले दिन तो यहाँ आ ही लेगी। पर फिर पुलिसिये बादल ही आ कर रह गए और बूंदाबांदी करके चले गए। जैसे ट्रेफिक वाले भीड़भाड़ वाले इलाके में रेहड़ी वालों से अपनी हफ्ता वसूली कर वापस चले जाते हैं। पहले रात को हुई आधे-आधे घंटों की जो बरसात ने आसमान में उड़ने वाली धूल और धुँए को साफ कर ही दिया था। धूप निकलती तो ऐसे, जैसे जला डालेगी। आसोज की धूप को भी लजा रही थी। लोग बरसात के स्थान पर पसीने में भीगते रहे। आरंभिक बूंदा बांदी के पहले जो हवा चलती थी तो बिजली गायब हो जाती, जो फिर बूंदाबांदी के विदा हो जाने के बाद भी बहुत देर से आती। फिर कुछ दिन बाद बिजली वाले गली गली घूमने लगे और तारों पर आ रहे पेड़ों को छाँटने लगे। हमने एक से पूछा -भैया! ये काम पन्द्रह दिन पहले ही कर लेते, जनता को तकलीफ तो न होती। जवाब मिला -वाह साहब! कैसे कर लेते? पहले पता कैसे लगता? जब बिजली जाती है तभी तो पता लगता है कि फॉल्ट कहाँ कहाँ हो रहा है?
कल शाम सूरज डूबने के पहले ही बादल छा गए और चुपचाप पानी पड़ने लगा। न हवा चली और न बिजली गई। कुछ ही देर में परनाले चलने की आवाजें आने से पता लगा कि बरसात हो रही है। घंटे भर बाद बरसात कुछ कम हुई तो लोग घरों से बाहर निकले दूध और जरूरत की चीजें लेने। पर पानी था कि बंद नहीं हुआ कुछ कुछ तो भिगोता ही रहा। फिर तेज हो गया और सारी रात चलता रहा। सुबह लोगों के जागने तक चलता रहा। लोग जाग गए तब वह विश्राम करने गया। फिर वही चमकीली जलाने वाली धूप निकल पड़ी। अदालत जाते समय देखा रास्ते में साजी-देहड़ा का नाला जोरों से बह रहा था। सारी गंदगी धुल चुकी थी। सड़कों पर जहाँ भी पानी को निकलने को रास्ता न था, वहाँ डाबरे भरे थे। चौथाई से अधिक अदालत भूमि पर तालाब बन चुका था। पानी के निकलने को रास्ता न था। उस की किस्मत में या तो उड़ जाना बदा था या धीरे धीरे भूमि में बैठ जाना। पार्किंग सारी सड़कों पर आ गई थी। जैसे तैसे लोग अपना-अपना वाहन पार्क कर के अपने-अपने कामों में लगे। दिन की दो बड़ी खबरें धारा 377 का आंशिक रुप से अवैध घोषित होना और ममता दी का रेल बजट दोनों अदालत के पार्किंग में बने तालाब में डूब गए। यहाँ रात को हुई बरसात वीआईपी थी।
धूप अपना कहर बरपा रही थी। वीआईपी बरसात के जाने के बाद बादल फिर वैसे ही चौथ वसूली करने में लगे थे। अपरान्ह की चाय पीने बैठे तो बुरी तरह पसीने में तरबतर हो गए। मैं ने कहा -लगता है बरसात आज फिर अवकाश कर गई। एक साथी ने कहा -नहीं आएगी शाम तक। शाम को भी नहीं आई। अब रात के साढ़े ग्यारह बजे हैं। मेरे साथी घरों को लौटने के लिए दफ्तर से बाहर आ जाते हैं। मैं भी उन्हें छोड़ने बाहर गेट तक आता हूँ। (छोड़ने का तो बहाना है, हकीकत में तो गेट पर ताला जड़ना है और बाहर की बत्ती बंद करनी है) हवा बिलकुल बंद पड़ी है, तगड़ी उमस है। बादल आसामान में होले-होले चहल कदमी कर रहे हैं, जैसे वृद्ध सुबह पार्क में टहल रहे हों। वे बरसात करने वाले नहीं हैं। चांद रोशनी बिखेर रहा है। पर कभी बादल की ओट छुप भी जाता है। लगता है आज रात पानी नहीं बरसेगा। साथी कहते हैं - भाई साहब! उधर उत्तर की तरफ देखो बादल गहराने लगे हैं। पता नहीं कब बरसात होने लगे। हवा भी बंद है। मैं उन्हें जल्दी घर पहुँचने को कहता हूँ और वे अपनी बाइक स्टार्ट करें इस के पहले ही गेट पर ताला जड़ देता हूँ।
मैं अन्दर आ कर कहता हूँ -आखिर मौसम बदल ही गया। वकीलाइन जी कहती हैं -आज तो बदलना ही था। देव आज से सोने जो चले गए हैं। बाकायदे चातुर्मास आरंभ हो चुका है। चलो यह भी ठीक रहा, अब कम से कम रात को जीमने के ब्याह के न्यौते तो न आएँगे। पर उधर अदालत में तो आज का पानी देख गोठों की योजनाएँ बन रही थीं। उन में तो जाना ही पड़ेगा। लेकिन वह खाना तो संध्या के पहले ही होगा। मैं ने भी अपनी स्वास्थ्यचर्या में इतना परिवर्तन कर लिया है कि रात का भोजन जो रात नौ और दस के आसपास करता था, उसे शामं को सूरज डूबने के पहले करने लगा हूँ। सोचा है पूरे चातुर्मास यानी दिवाली बाद देवों के उठने तक संध्या के बाद से सुबह के सूर्योदय तक कुछ भी ठोस अन्नाहार न किया करूंगा। देखता हूँ, कर पाता हूँ या नहीं।
गीत हो या ग़ज़ल, कविता हो या नवगीत, नाटक लेखन हो या मंचन; हिन्दी, हाड़ौती, उर्दू और ब्रज भाषा का साहित्य कोटा की चंबल के पानी और उर्वर भूमि में बहुत फलता फूलता है। यहाँ साहित्य पर बहस-मुबाहिसे बहुत होते हैं। किताबें और पत्रिकाएँ छपती भी हैं और उन के विमोचन समारोह भी होते हैं। पिछले सप्ताह में दो बड़े आयोजन हुए जिन में दो पत्रिकाएँ और एक पुस्तक का विमोचन हुआ।
21 जून को साहित्य, कला एवं सांस्कृतिक संस्थान के 45 वें स्थापना समारोह पर प्रेस क्लब में हुए एक समारोह में वरिष्ठ कवि ब्रजेन्द्र कौशिक के गीत संग्रह 'साक्षी है सदी' का लोकार्पण हुआ। इस संग्रह में 54 गीत संग्रहीत हैं।
इस संग्रह को मैं अभी नहीं पढ़ सका पर एक गीत की बानगी देखिए ....
हम ने जिस को पंच चुना
उस ने अब तक नहीं सुना
हम ने हा-हाकार किया
उस ने चाँटा मार दिया
हम-तुम से
ऐसा क्यों सलूक किया
सोच
और उत्तर दे दो टूक भैया
27 और 28 जून को 'विकल्प' जन सांस्कृतिक मंच ने 'समय की लय' नाम से एक नवगीत-जनगीत पर सृजन चिंतन समारोह आयोजित किया। 27 जून की शाम को एक काव्य-गीत संध्या का आयोजन किया गया जिस में नवगीत केन्द्र में रहे। इस में बड़ी संख्या में कवियों, गीतकारों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। दूसरे दिन कला दीर्घा कोटा में आयोजित समारोह में हिन्दी पत्रिका 'सम्यक' के 28वें अंक का जो कि नवगीत-जनगीत विशेषांक था तथा 'अभिव्यक्ति' के ताजा अंक का लोकार्पण किया गया। इस अवसर पर डॉ. विष्णु विराट और अतुल कनक ने पत्रवाचन किया और उस पर बहस हुई। लोकार्पण के बाद के दूसरे सत्र में जनगीत सामर्थ्य और संभावनाएं विषय पर एक संगोष्ठी संपन्न हुई जिसमें बशीर अहमद 'मयूख, बृजेन्द्र कौशिक, दुर्गादान सिंह गौड़, रामकुमार कृषक, शैलेन्द्र चौहान, मुनीश मदिर, डॉ. देवीचरण वर्मा, महेन्द्र 'नेह' किशनलाल वर्मा, मुकुट मणिराज, जितेन्द्र निर्मोही, अम्बिका दत्त व अन्य साहित्यकारों ने भाग लिया।
सम्यक के इस नवगीत-जनगीत विशेषांक का संपादन महेन्द्र 'नेह' ने किया है। इस में दो संपादकीय, छह आलेख, तीन साक्षात्कार और 71 कवि-गीतकारों के नवगीत प्रकाशित हुए हैं जिन में निराला, नागर्जुन, शील से ले कर नए से नए सशक्त हस्ताक्षर सम्मिलित हैं। इस से इस अंक ने नवगीत के इतिहास को अनायास ही सुरक्षित कर दिया है। इस अंक की एक-एक रचना महत्वपूर्ण है। इस अंक में सजाए गए नवगीतों में से कुछ का रसास्वादन तो आप अनवरत पर यदा कदा करते रह सकते हैं। अभी तो आप इस विशेषांक की अन्तिम आवरण पृष्ठ पर छपा गजानन माधव मुक्तिबोधके नवगीत का रसास्वादन कीजिए। पढ़ने के बाद यह दर्ज कराना न भूलिए कि यह रस कौन सा था? और कैसा लगा?
'नवगीत'
गजानन माधव मुक्तिबोध
भूखों ओ
प्यासों ओ
इन्द्रिय-जित सन्त बनो!
बिरला को टाटा को
अस्थि-मांस दान दो
केवल स्वतंत्र बनो!
धूल फाँक श्रम करो
साम्य-स्वप्न भ्रम हरो
परम पूर्ण अन्त बनो!
अमरीकी सेठवाद
भारतीय मान लो
हमारे मत प्राण लो
मानवीय जन्तु बनो!
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अभिव्यक्तिके ताजा अंक के बारे में फिर कभी..........
कल के आलेख बेरोजगारी से लड़ने का उद्यम कौन करेगा? में मैं ने बताने की कोशिश की थी कि एक ओर लोग सेवाओं के लिए परेशान हैं और दूसरी ओर बेरोजगारों के झुंड हैं तो बच्चे और महिलाएँ भिखारियों में तब्दील हो रहे हैं। कुल मिला कर बात इतनी थी कि इन सब के बीच की खाई कैसे पूरी होगी? उद्यमी ( Entrepreneur) तो रातों रात कमाने के लालच वाले धंधों की ओर भाग रहे हैं। सरकार की इस ओर नजर है नहीं। होगी भी तो वह पहले आयोग बनाएगी, फिर उस की रिपोर्ट आएगी। उस के बाद वित्त प्रबंधन और परियोजनाएँ बनेंगी। फिर अफसर उस में अपने लाभ के छेद तलाशेंगे या बनाएंगे। गैरसरकारी संस्थाएँ, कल्याणकारी समाज व समाजवाद का निर्माण करने का दंभ भरने वाले राजनैतिक दलों का इस ओर ध्यान नहीं है।
आलेख पर बाल सुब्रह्मण्यम जी ने अपने अनुभव व्यक्त करते हुए एक हल सुझाया - "जब हम दोनों पति-पत्नी नौकरी करते थे, हमें घर का चौका बर्तन करने, खाना पकाने, बच्चों की देखभाल करने आदि के लिए सहायकों की खूब आवश्यकता रहती थी, पर इन सबके लिए कोई स्थायी व्यवस्था हम नहीं करा पाए। सहायक एक दो साल काम करते फिर किसी न किसी कारण से छोड़ देते, या हम ही उन्हें निकाल देते। मेरे अन्य पड़ोसियों और सहकर्मियों की भी यही समस्या थी। बड़े शहरों के लाखों, करोड़ों मध्यम-वर्गीय परिवारों की भी यही समस्या है। यदि कोई उद्यमी घर का काम करनेवाले लोगों की कंपनी बनाए, जैसे विदेशी कंपनियों के काम के लिए यहां कोल सेंटर बने हुए हैं और बीपीओ केंद्र बने हुए हैं, तो लाखों सामान्य शिक्षा प्राप्त भारतीयों को अच्छी नौकरी मिल सकती है, और मध्यम वर्गीय परिवारों को भी राहत मिल सकती है। इतना ही नहीं, घरेलू कामों के लिए गरीब परिवारों के बच्चों का जो शोषण होता है, वह भी रुक जाएगा। घरेलू नौकरों का शोषण भी रुक जाएगा, क्योंकि इनके पीछे एक बड़ी कंपनी होगी।"
लेकिन बड़ी कंपनी क्यों अपनी पूंजी इस छोटे और अधिक जटिल प्रबंधन वाले धन्धे में लगाए? इतनी पूँजी से वह कोई अधिक मुनाफा कमाने वाला धन्धा क्यों न तलाश करे? बड़ी कंपनियाँ यही कर रही हैं। मेरे नगर में ही नहीं सारे बड़े नगरों में सार्वजनिक परिवहन दुर्दशा का शिकार है। वहाँ सार्वजनिक परिवहन में बड़ी कंपनियाँ आ सकती हैं और परिवहन को नियोजित कर प्रदूषण से भी किसी हद तक मुक्ति दिला सकती हैं। लेकिन वे इस क्षेत्र में क्यों अपनी पूँजी लगाएँगी? इस से भी आगे नगरों व नगरों व नगरों के बीच, नगरों व गाँवों के बीच और राज्यों के बीच परिवहन में बड़ी निजि कंपनियाँ नहीं आ रही हैं। क्यों वे उस में पूँजी लगाएँ? उन्हें चाहिए कम से कम मेनपॉवर नियोजन, न्यूनतम प्रबंधन खर्च और अधिक मुनाफे के धन्धे।
ज्ञानदत्त जी पाण्डेय ने कहा कि एम्पलॉएबिलिटी सब की नहीं है। एक आईआईटीयन बनाने के लिए सरकार कितना खर्च कर रही है? क्या उस से कम खर्चों में साधारण श्रमिकों की एम्पलॉएबिलिटी बढ़ाने को कोई परियोजनाएँ नहीं चलाई जा सकती? पर क्यों चलाएँ? तब तो उन्हें काम देने की भी परियोजना साथ बनानी पड़ेगी। फिर इस से बड़े उद्योगों को सस्ते श्रमिक कैसे मिलेंगे? वे तो तभी तक मिल सकते हैं जब बेरोजगारों की फौज नौकरी पाने के लिए आपस में ही मार-काट मचा रही हो। इस प्रश्न पर कल के आलेख पर बहुत देर से आई समयकी टिप्पणी महत्वपूर्ण है। सच तो यह कि आज का यह आलेख उसी टिप्पणी को शेष पाठकों के सामने रखने के लिए लिखा गया। समयकी टिप्पणी इस तरह है-
"जब तक समाज के सभी अंगों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु श्रमशक्ति का समुचित नियोजन समाज का साझा उद्देश्य नहीं बनता तब तक यही नियति है।
अधिकतर श्रमशक्ति यूं ही फुटकर रूप से अपनी उपादेयता ढूंढ़ती रहेगी और बदले में न्यूनतम भी नहीं पाने को अभिशप्त रहेगी। दूसरी ओर मुनाफ़ों के उत्पादनों में उद्यमी उनकी एम्प्लॉयेबिलिटी को तौलकर बारगेनिंग के तहत विशेष उपयोगी श्रमशक्ति का व्यक्तिगत हितार्थ सदुपयोग करते रहेंगे।
बहुसंख्या के लिए जरूरी उत्पादन, और मूलभूत सेवाक्षेत्र राम-भरोसे और विशिष्टों हेतु विलासिता के उद्यम, मुनाफ़ा हेतु पूर्ण नियोजित।
अधिकतर पूंजी इन्हीं में, फिर बढता उत्पादन, फिर उपभोक्ताओं की दुनिया भर में तलाश, फिर बाज़ार के लिए उपनिवेशीकरण, फिर युद्ध, फिर भी अतिउत्पादन, फिर मंदी, फिर पूंजी और श्रमशक्ति की छीजत, बेकारी...........उफ़ !
और टेलर (दर्जी) बारह घंटे के बाद भी और श्रम करके ही अपनी आवश्यकताएं पूरी कर पाएगा। लाखों सामान्य शिक्षा प्राप्त श्रमशक्ति के नियोजन की, मध्यम-वर्गीय परिवारों के घरेलू कार्यों के लिए कितनी संभावनाएं हैं। सभी नियमित कार्यों के लिए भी अब तो निम्नतम मजदूरी पर दैनिक वेतन भोगी सप्लाई हो ही रही है, जिनमें आई टी आई, डिप्लोमा भी हैं इंजीनियर भी। नौकरी के लिए ज्यादा लोग एम्प्लॉयेबिलिटी रखेंगे, लालायित रहेंगे तभी ना सस्ता मिल पाएंगे। अभी साला विकसित देशों से काफ़ी कम देने के बाबजूद लाखों के पैकेज देने पडते हैं, ढेर लगा दो एम्प्लॉयेबिलिटी का, फिर देखों हजारों के लिए भी कैसे नाक रगडते हैं। ...............उफ़ !
मार्केट चलेगा, लॉटरियां होंगी, एक संयोग में करोडपति बनाने के नुस्खें होंगे। बिना कुछ किए-दिए, सब-कुछ पाने के सपने होंगे। पैसा कमाना मूल ध्येय होगा और इसलिए कि श्रम नहीं करना पडे, आराम से ज़िंदगी निकले योगा करते हुए। उंची शिक्षा का ध्येय ताकि खूब पैसा मिले और शारीरिक श्रम के छोटे कार्यों में नहीं खपना पडे। और दूसरों में हम मेहनत कर पैसा कमाने की प्रवृत्ति ढूंढेंगे, अब बेचारी कहां मिलेगी। .................उफ़ !
पिछले आलेख में मैं ने चार-चार बच्चों वाली औरतों और लाल बत्ती पर कपड़ा मारने का नाटक कर के भीख मांगने वाले बच्चों का उल्लेख किया था। अनेक बार इन से व्यवहार करने पर लगा कि यदि इन्हें प्रेरित किया जाए और इन्हें अवसर मिले तो ये लोग काम पर लग सकते है। यह भी नहीं है कि समाज में इन के लिए काम उपलब्ध न हो। लेकिन यह तभी हो सकता है जब कोई इस काम उपलब्ध कराने की परियोजना पर काम करे।
वकालत में आने के पहले जब मुझ पर पत्रकारिता के उच्च स्तर में प्रवेश का भूत सवार हुआ तो मुम्बई जाना हुआ था। वहाँ मैं जिन मित्र के घर रुका वे प्रतिदिन कोई 9 बजे अंधेरी के घर से अपने एयरकंडीशन मार्केट ताड़देव स्थित अपने कार्यालय निकलते थे और कोई दो किलोमीटर की दूरी पर एक पार्किंग स्थान पर रुकते थे। वहाँ एक पान की थड़ी से अपने लिए दिन भर के लिए पान लिया करते थे। जब तक उन का पान बनता तब तक एक लड़का आ कर उन की कार को पहले गीले और फिर सूखे कपड़े से पोंछ देता था। उस के लिए 1978 में एक या दो रुपया प्रतिदिन उस लड़के को मिल जाता था। इसी तरह अभी फरवरी में जब मुझे फरीदाबाद में पाँच-छह दिन रुकना पड़ा था तो वहाँ सुबह सुबह कोई आता था और घरों के बाहर खड़े वाहनों को इसी तरीके से नित्य साफ कर जाता था। प्रत्येक वाहन स्वामी से उसे दो सौ रुपये प्राप्त होते थे। यदि यह व्यक्ति नित्य बीस वाहन भी साफ करता हो तो उसे चार हजार रुपए प्रतिमाह मिल जाते हैं जो राजस्थान में लागू न्यूनतम वेतन से तकरीबन दुगना है।
बाएँ जो चित्र है वह बाबूलाल की पान की दुकान का है जो मेरे अदालत के रास्ते में पड़ती है। बाबूलाल इसे सुबह पौने नौ बजे आरंभ करते हैं। दिन में एक बजे इसे अपने छोटे भाई को संभला कर चले जाते हैं। शाम को सात बजे आ कर फिर से दुकान संभाल लेते हैं। दुकान इतनी आमदनी दे देती है कि दो परिवारों का सामान्य खर्च निकाल लेती है। लेकिन बाबूलाल के दो बेटियाँ हैं, जिन की उन्हें शादी करनी है एक बेटा है जो अजमेर में इंजिनियरिंग पढ़ रहा है। उस ने अपनी सारी बचत इन्हें पढ़ाने में लगा दी है। नतीजा भी है कि बेटियाँ नौकरी कर रही हैं। लेकिन शादी बाबूलाल की जिम्मेदारी है और उस के लिए उस के पास धन नहीं है। उसे कर्जा ही लेना पड़ेगा। मैं ने बाबूलाल से अनेक बार कहा कि उस की दुकान पर कार वाले ग्राहक कम से कम दिन में बीस-तीस तो आते ही होंगे। यदि उन्हें वह अपना वाहन साफ कराने के लिए तैयार कर ले और एक लड़का इस काम के लिए रख ले तो पाँच छह हजार की कमाई हो सकती है। लड़का आराम से 25-26 सौ रुपए में रखा जा सकता है जो बाबूलाल के उद्यम का छोटा-मोटा काम भी कर सकता है। लेकिन बाबूलाल को यह काम करने के लिए मैं छह माह में तैयार नहीं कर सका हूँ।
मुझे ज्ञानदत्त जी का उद्यम और श्रम आलेख स्मरण होता है जिस में उन्हों ने कहा था कि उद्यमी की आवश्यकता है। उन का कथन सही था। श्रम तो इस देश में बिखरा पड़ा है उसे नियोजित करने की आवश्यकता है। इस से रोजगार भी बढ़ेगा और मजदूरी मिलने से बाजार का भी विस्तार होगा। लेकिन इस काम को कौन करे। जो भी व्यक्ति उद्यम करना चाहता है वह अधिक लाभ उठाना चाहता है और इस तरह के मामूली कामों की ओर उस का ध्यान नहीं है। सरकारों पर देश में रोजगार बढ़ाने का दायित्व है वह पूरी तरह से नौकरशाही पर निर्भर है जो कोई भी परियोजना आरंभ होते ही पहले उस में अपने लिए काला धन बनाने की जुगत तलाश करने लगते हैं। यह काम सामाजिक संस्थाएँ कर सकती हैं। लेकिन शायद इन कामों से नाम श्रेय नहीं मिलता। संस्था के पदाधिकारियों को यह और सुनने को मिलता है कि इस धंधे में उस ने अपना कितना रुपया बनाया। इसी कारण वे भी इस ओर प्रेरित नहीं होते। न जाने क्यों समाजवाद लाने को उद्यत संस्थाएँ और राजनैतिक दल भी इसे नहीं अपनाते। जब कि इस तरह वे अपनी संस्थाओं और राजनैतिक दलों के लिए अच्छे पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी कर सकते हैं।