@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

पाबला जी के घर और बीएसपी के मानव संसाधन भवन के पु्स्तकालय में

पाबला जी बताते जा रहे थे, यहाँ दुर्ग समाप्त हुआ और भिलाई प्रारंभ हो गया। यहाँ यह है, वहाँ वह है।  मेरे लिए सब कुछ पहली बार था, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था।  मेरी आँखे तलाश रही थीं, उस मकान को जिस की बाउण्ड्रीवाल पर केसरिया फूलों की लताएँ झूल रही हों।  और एक मोड़ पर मुड़ते ही वैसा घर नजर आया।  बेसाख्ता मेरे मुहँ से निकला पहुँच गए।  पाबला जी पूछने लगे कैसे पता लगा पहुँच गए? मैं ने बताया केसरिया फूलों से। वैन खड़ी हुई, हम उतरे और अपना सामान उठाने को लपके।  इस के पहले मोनू (गुरूप्रीत सिंह) और वैभव ने उठा लिया। हमने भी एक एक बैग उठाए।  पाबला जी ने हमें दरवाजे पर ही रोक दिया।  अन्दर जा कर अपनी ड़ॉगी को काबू किया। उन का इशारा पा कर वह शांत हो कर हमें देखने लगी।  उस का मन तो कर रहा था कि सब से पहले वही हम से पहचान कर ले।  उस ने एक बार मुड़ कर पाबला  की और शिकायत भरे लहजे में कुछ कहा भी। जैसे कह रही हो कि मुझे नहीं ले गए ना, स्टेशन मेहमान को लिवाने।  डॉगी बहुत ही प्यारी थी।

लॉन में पाबला जी के पिताजी से और बैठक में माता जी से भेंट हुई।  बहुत ही आत्मीयता से मिले।  मुझे लगा मेरे माताजी पिताजी बैठे हैं।  उन के चरण-स्पर्श में जो आनंद प्राप्त हुआ कहा नहीं जा सकता।  जैसे मैं खुद अपने आप के पैर छू रहा हूँ।  पाबला जी ने बैठक में बैठने नहीं दिया।  बैठक के दायें दरवाजे से एक छोटे कमरे में प्रवेश किया जहाँ डायनिंग टेबल थी और उस के पीछे एक छोटा सा कमरा।  जिस में एक टेबल पर पीसी था।  पीसी पर काम करने की कुर्सी, और एक तखत। एक अलमारी जिस में किताबें सजी थीं। पाबला जी बोले, बस यही हमारी सोने और काम करने की जगह है।  अब भिलाई प्रवास तक आप के हवाले। फिर पूछा, क्या? चाय या कॉफी? मैं ने तुरंत कॉफी कहा, चाय मैं ने पिछले सोलह साल से नहीं पी।

कॉफी के बाद हमें टायलट दिखा दी गई। हमने उन का उपयोग किया और प्रातःकालीन सत्कार्यों से निवृत्त हो लिए।  तब तक टेबल पर नाश्ता तैयार था।  दो पराठे हमने मर्जी से लिए, तीसरा पाबला जी के स्नेह के डंडे से। उस के तुरंत बाद पाबला जी हमें ले कर स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लि. के भिलाई स्टील प्लांट के मानव संसाधन भवन पहुँचे।  हमें वहाँ अपने कुछ सह कर्मियों और अधिकारियों से मिलाया।  फिर पुस्तकालय दिखाया। पुस्तकालय में बहुत किताबें थीं।  तकनीकी तो थी हीं,  कानून की महत्वपूर्ण और नई पुस्तकें भी वहाँ मौजूद थीं।  रीडिंग रूम में दुनिया भर की महत्वपूर्ण पत्रिकाएं और जर्नल मौजूद थे।  बहुत कम सार्वजनिक उपक्रमों में ऐसे पुस्तकालय होंगे।  पुस्तकालय घूमते हुए किसी बात पर जरा जोर से हँसी आ गई। पाबला जी ने मुझे तुरंत टोका।  मुझे अच्छा लगा कि वहाँ लोग अनुशासन बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं।  उस दिन वैभव के पंजीकरण का काम नहीं होना था, यह पाबला जी पहले ही बता चुके थे।  कुछ आवश्यक कारणों से यह काम कुछ दिनों से केवल सोमवार को होने लगा था।  इस समाचार को जानते ही मैं बिलकुल स्वतंत्र हो गया था।  वैभव का जो भी होना था मेरे वहाँ से लौटने के बाद होना था।  हम घूम फिर कर वापस घर आ गए।

घर पहुँचे तब तक माता जी दोपहर के भोजन की तैयारी कर चुकी थीं।  मेरे जैसे केवल दो बेर खाने वाले प्राणी को यह ज्यादती लगी।  अभी तो सुबह के पराठों ने पेट के नीचे सरकना शुरू ही किया था।  माता जी ने बनाया है तो भोजन तो करना पड़ेगा, पाबला जी की इस सीख का कोई जवाब हमारे पास नहीं था। फिर याद आयी दादा जी की सीख, कि बने भोजन और मेजबान का अनादर नहीं करते।  हम चुपचाप टेबल पर बैठ गए। सोचा केवल दो चपाती खाएंगे।  इस बार माता जी के आग्रह पर फिर तीन हो गईं।  भोजन के बाद कुछ देर अपनी मेल देखी और पाबला जी के तख्त पर ढेर हो गए।  वैभव बैठक के दूसरी ओर बने मोनू के कमरे में चला गया।  यहाँ तो बाकायदे गर्मी थी। सर्दी का नामोनिशान नहीं।  पंखा चल रहा था। नींद आ गई।

आँख खुली तो डॉगी चुपचाप मेरी गंध ले रही थी।  मन तो कर रहा था उसे सहला दूँ।  पर सोच कर कि यह चढ़ बैठेगी, चुप रहा। तभी पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया।  उन्हें देख कर वह तुरंत कमरे से निकल गई।  पाबला जी ने पूछा, परेशान तो नहीं किया?  -नहीं केवल पहचान कर रही थी।  बाहर देखा तो शाम होने को थी।   मैं ने पूछा- अवनींद्र के यहाँ कब चलेंगे?  बोले छह बजे के बाद चलेंगे, तब तक वे ऑफिस से भी आ लेंगे।  अवनींद्र, मेरा भाई, मेरी बुआ का पुत्र, भिलाई में ही बीएसएनएल में अधिकारी है।  मैं उस को कोटा से रवाना होने के पहले सूचित करना चाहता था।  पर पाबला जी ने मना कर दिया था, कि उस के घर सीधे जा कर बेल बजाएँगे।  सरप्राइज देंगे तो आनंद कुछ और ही होगा।  मैं उन से सहमत हो गया।  समय था, इस लिए कॉफी पी गई और मैं तैयार हो गया।  मैं, वैभव और पाबला जी तीनों पैदल ही अवनींद्र के घर की ओर चले।
चित्र
1. पाबला जी के घर की बाउंड्रीवाल,   2. पाबला जी के पिता जी और माता जी,   3. भिलाई स्टील प्लाण्ट,    4. पाबला जी का घर बाहर से और   5. पाबला जी का पुत्र गुरूप्रीत सिंह (मोनू)
 

और यहाँ नीचे देख सकते हैं मोनू और डॉगी का शानदार वीडियो।

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

हबीबगंज से भिलाई तक

यह भोपाल का हबीबगंज स्टेशन था।  उपयुक्त प्लेटफार्म पर पहुंचने के कुछ ही देर बाद छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस आ गई और हम उस में लद लिए।  यह ट्रेन रोज अमृतसर से शाम साढ़े चार बजे चलती है और तीसरे दिन दोपहर 11.50 बजे बिलासपुर जंक्शन पहुंचती है।  इस नाम की एक डाउन और एक अप ट्रेन हमेशा ट्रेक पर रहती है।  गाड़ी चली तो आधे घंटे से कुछ अधिक ही लेट थी।  एकाध घंटे हम बैठे रहे। पर जैसे जैसे रात गहराती गई मिडल बर्थ खुलने लगी और दस बजते बजते मैं भी मिडल बर्थ पर पहुंच लिया। चाय की आवाजों से नींद खुली तो ट्रेन नागपुर स्टेशन पर खड़ी थी। कोई चार से साढ़े चार का समय था।  मैं ने वैभव से पूछा चाय पियोगे तो उस ने मना किया। लेकिन मैं उतर कर नागपुर प्लेटफार्म देखने का लोभ संवरण नहीं कर सका।  प्लेटफॉर्म पर आया तो कोई सर्दी नहीं थी।  प्लेटफॉर्म नगर अपनी प्राचीनता की कहानी स्वयं कह रहा था।  ट्रेन बहुत देर वहाँ रुकी रही।  मैं वापस अपनी बर्थ में आ कर कंबल में दुबक लिया।

अगली बार नीन्द दो स्त्रैण ध्वनियों ने भंग की कूपा लगभग खाली था,  सुबह की रोशनी खिड़कियों से प्रवेश कर रही थी।  सामने वाली मिडल बर्थ को गिराया जा चुका था ट्रेन किसी प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी। शायद वे दोनों वहीं से बैठी थीं और उन्हें छोड़ने वाले प्लेटफॉर्म पर खड़े उन्हें हिदायतें दे रहे थे।  उन में एक अधेड़ होने का आतुर विवाहिता और दूसरी किशोरावस्था की अंतिम दहलीज पर खड़ी कोई छात्रा थी। मैं ने स्टेशन का नाम पूछा तो गोंदिया बताया गया।  मुझे बीड़ियों का स्मरण हो आया, ब्रांड शायद तीस छाप रहा होगा।  कोई कह रहा था,  ट्रेन कोई एक घंटा लेट हो गई है, या हो जाएगी।  तभी मोबाइल ने पाबला जी की धुन गुन गुनाई।  पूछ रहे थे ट्रेन कहाँ पहुंची।  मैं ने बताया, गोंदिया में खड़ी है।  नागपुर में आधे घंटे से कुछ अधिक लेट थी। यहाँ लोग एक घंटे के करीब बता रहे हैं।  बाकी का अनुमान आप खुद लगाएँ।  उन्हों ने बताया कि वे दुर्ग प्लेटफॉर्म पर हमें खड़े मिलेंगे।  अभी ढाई घंटों का मार्ग शेष था। मुझे नींद की खुमारी थी।  मैं फिर से कंबलशरणम् गच्छामि हो गया।

इस बार आँखें खुली तो तुरंत मोबाइल में समय देखा गया। अभी आठ बीस हो रहे थे। डब्बे में विद्यार्थियों, विशेष रुप से छात्राओं की भारी संख्या थी।  जैसे वह शयनयान न हो कर जनरल डब्बा हो।  गाड़ी की देरी के स्वभाव को देखते हुए दुर्ग पहुँचने में अभी पौन घंटा शेष था।  कुछ ही देर में किसी गाड़ी नगरीय सीमा में प्रवेश करती दिखाई दी।  मैं ने ऐतिहातन पूछ लिया कौन नगर आया?  जवाब दुर्ग था।  मैं एक दम चैतन्य हो उठ बैठा। कंबल आदि समेट कर बैग के हवाले किए और उतरने को तैयार।

प्लेटफॉर्म पर उतरे तो इधर उधर निगाहें दौड़ाई कि कही कोई पगड़ीधारी सिख किसी का इंतजार करता दिखा तो जरूर पाबला जी होंगे।  कुछ सिख दिखे तो, लेकिन उन में से किसी के पाबला होने की गुंजाइश एक फीसदी भी नहीं थी।  उतरी हुई सवारियाँ सब चल दीं, फिर ट्रेन भी। आखिर मोबाइल का सहारा लिया।  पाबला जी पूछ रहे थे ट्रेन कहाँ पहुंची? मैं ने बताया हमें दुर्ग स्टेशन पर उतार कर आगे चल दी।  वे बोले- हम तो अभी घर से निकले ही नहीं।  देरी के हिसाब से तो अभी पहुँचने में पौन घंटा होना चाहिए।  मैं ने कहा कम्बख्त ने गोंदिया के बाद सारी देरी कवर कर ली।  आप चलिए हम प्लेटफॉर्म  छोड़ कर स्टेशन के बाहर निकलते हैं।  वे बोले मैं बीस मिनट में पहुँचता हूँ।

हम दोनों स्टेशन के बाहर निकल कर वहाँ आ गए जहाँ कारों की पार्किंग थी।  कुछ दूर ही स्टेशन का क्षेत्र समाप्त हो रहा था और बाहर की दुकानें दिखाई दे रही थीं।  वहाँ जरूर कोई चाय-कॉफी की दुकान होगी।  सुबह की कॉफी नहीं मिली थी।  पर मुझे यह गवारा न था कि पाबला जी को हमें तलाशने में परेशानी हो।  हम वहीं उन का इंतजार करते रहे।  मैं हर आने वाली वैन में पगड़ी धारी सिख को देखने लगा।  आखिर वह वैन आ ही गई।  हमने अपने बैग उठाए और उसकी और बढ़े।  हमारी बढ़त देख पाबला जी ने भी हमें पहचान लिया।  पाबला जी के साथ उन का पुत्र मोनू (घरेलू नाम) था। दोनों ने हमारे हाथों से बैग लगभग छीने और वैन के हवाले किए।  वैभव को चालक सीट पर बैठे मोनू के साथ बिठाया और पाबला जी मेरे साथ पीछे बैठे।  हम चल दिए भिलाई स्टील प्लांट की टाउनशिप में स्थित पाबला जी के घऱ की ओर।
चित्र -
1.  हबीबगंज (भोपाल)  रेलवे स्टेशन 
2. दुर्ग रेलवे स्टेशन है  
3. पाबला जी।

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

अजित वडनेरकर के साथ चार घंटे

शब्दों के सफर वाले अजित वडनेरकर जी कोटा रह चुके हैं, और कोटा की कचौड़ियों के स्वाद से भली तरह परिचित हैं।  मैं ने जब उन से भिलाई जाने का उल्लेख किया तो उन्हें तुरंत ही कचौड़ियाँ याद आ गईं। हमारी योजना सुबह बस से चल कर शाम को भोपाल से छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पकड़ने की थी।  लेकिन अजित जी ने कहा कि बस के भोपाल पहुँचने और छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पकड़ने में दो ही घंटों का अंतराल है जो बहुत कम है।  हमने योजना बदली और 27 जनवरी को सुबह निकलने के बजाय 26 की रात को ट्रेन से निकलने का मन बनाया और आरक्षण करवा लिया।  अब हमारे पास भोपाल में आठ घंटे थे।  अजित जी को बताया गया कि कचौड़ियाँ भोपाल पहुंचने की व्यवस्था हो गयी है,  पर वहाँ आप तक कैसे पहुंचेगी? बोले,  ट्रेन से उतर कर मेरे घर आ जाइए।

भोपाल में इतने कम अंतराल में अजित जी के घर जाने का अर्थ था किसी अन्य से न मिल पाना।  वैसे भी हमारे पास चार बैग होने से कहीं आना जाना दूभर था।  पर पल्लवी त्रिवेदी से मिलने की इच्छा थी, भोपाल जंक्शन के आस पास ही उन का ऑफिस होने से उन से मिल पाना संभव प्रतीत हो रहा था।  पर पता लगा कि वे राजस्थान यात्रा पर हैं और उसी दिन भोपाल पहुंचेंगी।  रवि रतलामी जी से मिल सकता था।  पर वे भी दूर थे।  अन्य के बारे में तो इस अल्प अंतराल में मिल पाने की सोचना भी संभव नहीं था।  मैं ने किसी को बताया भी नहीं।  मेरे साढ़ू भाई हॉकी रिकार्डों के संग्रहण के लिए विश्व प्रसिद्ध हॉकी स्क्राइब बी.जी. जोशी इस अंतराल में सीहोर उन के घर आने का निमंत्रण दे रहे थे।  पर उन से माफी मांग ली गई, अजित जी के यहाँ जाना तय हो गया।

26 को यात्रा से निकलने के पहले अजित जी की कचौड़ियों के साथ साथ भिलाई तक ले जाने के लिए दौ पैकेट लोंग के सेव भी लाए गए।  पता किया तो ट्रेन 22.30 के बजाय 23.30 पर आने वाली थी।  हम 23.10 पर ही स्टेशन पहुँच गए।  ट्रेन लेट होती गई और 27 जनवरी को 00.30 बजे उस ने प्लेटफार्म प्रवेश किया और एक बजे ही रवाना हो सकी।  ट्रेन चलते ही हम सो लिए।  आँख खुली तो सुबह हो चुकी थी और ट्रेन अशोक नगर स्टेशन पर खड़ी थी।  कॉफी की याद आई, लेकिन पैसेन्जर ट्रेन में कहाँ कॉफी?  बीना पहुँची तो सामने ही स्टाल पर कॉफी थी।  उतर कर स्टॉल वाले से कॉफी देने को कहा तो बोला 10 मिनट बाद बिजली आने पर।  मैं ने पूछा यहाँ पावर कट है?  बताया गया कि बिजली 10 बजे आएगी।  यानी भोपाल पहुंचने का समय हो चुका था।  ट्रेन भोपाल पहुंचने तक वडनेरकर जी का दो बार फोन आ गया।  स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही पल्लवी जी का खयाल आया।  लेकिन घड़ी ने सब खयाल निकाल दिए।  ऑटोरिक्षा की मदद से वडनेरकर जी के घर पहुंचे तो दो बज चुके थे।  वापसी में मात्र चार घंटों का समय था।

सैकण्ड फ्लोर पर दो छोटे फ्लेट्स को मिला कर बनाया हुआ घर।  एक दम साफ सुथरा और सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया हुआ।  बरबस ही  आत्मीयता प्रदर्शित करते छोटे-छोटे कमरे।  कमरों में फर्श से केवल छह इंच ऊंचा फर्नीचर।  मैं ने फोन पर ही उन्हें बता दिया था कि हम दोनों बाप-बेटे मंगलवारिया हैं सो नाश्ते वगैरह की औपचारिकता न हो।  जवाब मिला था, कैसा नाश्ता? भोजन तैयार है।  जाते ही अजित और मैं बातों में मशगूल। भाभी हमारे लिए कॉफी ले आईं।  हमें प्रातःकालीन कर्मों से भी निवृत्त होना था।  कॉफी सुड़क कर जैसे ही मैं स्नानघर में घुसने लगा अजित जी को कचौड़ियाँ याद आ गई। बोले, मेरी कचौड़ियाँ? भाई एक तो निकाल कर दे ही दो। वैभव कचौड़ियों के पैकेट के लिए बैग संभालने लगा।  मैं ने पूछा- आप को तो पांच बजे नौकरी पर जाना होगा? तो बताया कि उन्हों ने सिर्फ मेरी खातिर आज अवकाश ले लिया है।

दोनों पिता पुत्र प्रातःकालीय कर्मों से निवृत्त हुए तो भोजन तैयार था।  हम दोनों और अजित बैठ गए।  दाल, सब्जियाँ, चपाती और देश में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ बासमती चावल, साथ में नमकीन और अचार। भूख चरम पर पहुंच गई।  हम भोजन के साथ बातें करते रहे।  अजित बता रहे थे कुछ दिनों पहले यात्रा के बीच ही अफलातून जी उन के मेहमान रह चुके हैं। उन के साथ बिताए समय के बारे में बताते रहे।  ब्लागरी और ब्लागरों के बारे में, कुछ भोपाल, कोटा और राजगढ़ जहाँ अजित का बचपन गुजरा के बारे में बातें हुई।  इस बीच हम जरूरत से अधिक ही भोजन कर गए।  तभी भाभी जी ने ध्यान दिलाया कि उन का पुत्र किस तरह पढ़ते पढ़ते सो गया है।  अजित देखने गए तो उसका चित्र कैमरे में कैद कर लाए।  भोजन के उपरांत भी हम बातें ही करते रहे। पता लगा भाभीजी अध्यापिका हैं और रोज 40 किलोमीटर दूर एक कस्बे में अध्यापन के लिए जाती हैं।  पूरी तरह एक श्रमजीवी परिवार।  इस बीच अजित जी ने हमारे अनेक चित्र ले डाले। बातों में कब पाँच बज गए पता न चला। भाभी जी ने फिर गरम गरम कॉफी परोस दी।

अब चलने का समय हो चला था।  अजित के माता पिता सैकण्ड फ्लोर पर चढ़ने उतरने की परेशानी के चलते निकट ही ग्राउंड फ्लोर पर अपने घर पर निवास करते हैं। हम अपने सामानों की पैकिंग करने लगे, कोई जरूरी वस्तु छूट न जाए।  अजित वैभव को साथ ले कर पिता जी के घर खड़ी कार निकालने चल दिए। वे कार ले कर लौटे तो मैं ने अपने बैग उठाए। शेष सामान अजित का पुत्र उठाने लगा तो लगा वह घायल है। भाभी ने बताया कि वह दो दिन पहले ही वह बाइक पर टक्कर खा चुका है।  उस के पूरे शरीर पर चोटें थीं।  चोटें टीस रही थीं, जिस तरह वह चल रहा था लगा बहुत तकलीफ में है।  फिर भी वह सामान उठाने को तत्पर था।  मेरे पूछने पर भाभी ने बताया कि क्या क्या चिकित्सा कराई गई है।

जब भी मैं किसी को बीमार या चोटग्रस्त देखता हूँ और चिकित्सा के बारे में पता करता हूँ तो खुद बहुत तकलीफ में आ जाता हूँ।  मैं ने अपने घर आयुर्वेदिक चिकित्सा देखी और सीखी, बाद में होमियोपैथी सीखी, और उसे अपनाया तो घर में ही दवाखाना बन गया।  धीरे धीरे यह काम कब पत्नी शोभा ने हथिया लिया पता ही नहीं लगा। होमियोपैथी की बदौलत दोनों बच्चे बड़े हो गए कभी बिरले ही किसी डाक्टर या अस्पताल जाने का काम पड़ा। 

मैं ने भाभी को होमियोपैथिक दवा लिख कर दे दी।   कार आ चुकी थी, हम सामान सहित कार में लद लिए अजित, भाभी और उन का पुत्र साथ थे।  हम स्टेशन पहुंचे तो ट्रेन आने में मात्र दस मिनट थे।  अजित के पुत्र को चलने में तकलीफ थी।  मैं ने अजित जी को प्लेटफार्म  तक पहुँचाने की औपचारिकता करने से मना किया।  वे राजी हो गए। जाते जाते उन्हें यह जरूर कहा कि वे होमियोपैथी दवा आज ले कर बेटे को जरूर दें। उन्हों ने आश्वस्त किया कि वे जरूर देंगे।  अजित जी को विदा कर हम अपना सामान उठाए अपने प्लेटफार्म की ओर चले।  ऐसा लग रहा था जैसे हम अभी अभी अपना घर और परिजन छोड़ कर आ रहे हैं।

पुणे के स्थान पर बल्लभगढ़ और पाबला जी का गुस्सा

विनोद जी और अनिता जी

अभिषेक ओझा बता रहे थे कि मैं पूर्वा से बात कर लूंगा कि वह किस बस से कहाँ उतरेगी।  हम ने दोनों ही स्थितियाँ पूर्वा की माताजी को बता दीं।  वे तनिक आश्वस्त हो गयीं।  अगले दिन सुबह आठ बजे मैं ने पूर्वा को फोन लगाया तो वह बस में थी।  उस ने बताया कि विनोद अंकल उस के इंस्टीट्यूट पर आकर उसे बस में बिठा गए थे।  उस का अभिषेक से भी संपर्क हो चुका था।  शाम को जब दुबारा फोन पर बात हुई तो  पता लगा कि वह साक्षात्कार दे कर मुम्बई वापस भी पहुँच चुकी थी।  जब उस की बस पूना पहुँची तो अभिषेक बस स्टॉप पर उस का इंतजार करते मिले।  उसे केईएम अस्पताल छोड़ा।  साक्षात्कार आधे घंटे में ही पूरा हो लिया।  वह बाहर आई तो अभिषेक अभी गए नहीं थे।   दोनों ने किसी रेस्तराँ में नाश्ता किया और पूर्वा को मुम्बई की बस में बिठा कर ही अभिषेक अपने काम पर लौटे।  इस खबर को जान कर शोभा प्रसन्न हो गईं।  उन की बेटी पहली बार पूना गई थी और उसे अकेला नहीं रहना पड़ा था।

कुछ दिन बाद पता लगा कि पूना केईएम अस्पताल में जिस स्थान के लिए पूर्वा ने साक्षात्कार दिया था वैसा ही एक स्थान बल्लभगढ़ (फरीदाबाद) के सिविल अस्पताल में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) हरियाणा सरकार और एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था इण्डेप्थ नेटवर्क के संयुक्त प्रयासों से चल रहे व्यापक जन स्वास्थ्य सेवाओं के प्रोजेक्ट में भी स्टेटीशियन/ डेमोग्राफर का स्थान रिक्त है।  उस ने वहाँ के लिए आवेदन किया और एक टेलीफोनी साक्षात्कार के उपरांत यह तय हो गया कि पूर्वा को पूना के स्थान पर बल्लभगढ़ में ही यह पद मिल जाएगा।  वह अपने नियुक्ति पत्र की प्रतीक्षा करने लगी।  उस का नियुक्ति पत्र किन्हीं कारणों से विलंबित हो गया जिस का लाभ यह हुआ कि उस ने आश्रा प्रोजेक्ट के उस के जिम्मे के सभी कामों को पूरा कर दिया जिस से उस की अनुपस्थिति से आश्रा प्रोजेक्ट को कोई हानि न हो। बाद में यह तय हुआ कि वह 2 फरवरी को बल्लभगढ़ में अपनी नयी नियुक्ति पर उपस्थिति देगी।  इधर वैभव को भी जनवरी के अंत तक अपना प्रोजेक्ट और ट्रेनिंग शुरू करनी थी।
बलविंदर सिंह पाबला
 
वैभव की स्थिति यह थी कि वह खुद भिलाई जा कर अपना प्रोजेक्ट और ट्रेनिंग प्रारंभ कर सकता था।   लेकिन पाबला जी का आग्रह यह था कि उस के साथ मैं  भी भिलाई पहुँचूँ और कम से कम तीन-चार दिनों के लिए वहाँ रुकूँ।  उस में मेरा स्वार्थ भी था कि मैं वहाँ पाबला जी के पुत्र से तीसरा खंबा की अपनी वेबसाइट डिजाइन करवा लेता।  लेकिन पूर्वा के साथ मुझे और शोभा को वल्लभगढ़ जाना आवश्यक था।  उस के लिए वहाँ मकान तलाशना जो उस के निवास के लिए उपयुक्त हो।  मैं ने इस परिस्थिति का उल्लेख पाबला जी से किया और कहा कि मैं एक दिन से अधिक नहीं रुक सकूंगा।  तो वे गुस्सा हो गए, कहने लगे आप के आने की भी क्या आवश्यकता है।  वैभव को भेज दीजिए काम हो जाएगा।  उन के गुस्से ने यह तय किया कि मैं भिलाई तीन दिन और दो रात रुकूंगा।   कोटा से भोपाल और भोपाल से दुर्ग तक का व वापसी का दुर्ग से भोपाल तक के आरक्षण करवा लिए गए।  अब हमें 26 जनवरी की रात को कोटा से चल कर 28 जनवरी सुबह दुर्ग पहुंचना था।  दुर्ग से मुझे 30 की शाम चल कर 31 को सुबह भोपाल और फिर बस या किसी अन्य साधन से कोटा पहुंचना था।  आखिर 2 फरवरी को मुझे, शोभा और पूर्वा को बल्लभगढ़ के लिए भी रवाना होना था।  जारी

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

आम के पहले बौरों की नैसर्गिक गंध और सौंदर्य का अहसास

गणतंत्र दिवस की रात को कोटा से बाहर जाना हुआ और 31 जनवरी की रात को वापसी हुई। पहली फरवरी को रविवार था और सोमवार को सुबह 6 बजे फिर ट्रेन पकड़नी थी।  कल रात ही वापस लौटा हूँ।  मैं चाहता था कि इस बीच कुछ आलेख सूचीबद्ध कर जाऊँ।  लेकिन यह संभव नहीं हो सका।  पहली यात्रा के दौरान मुझे अंतर्जाल उपलब्ध भी हुआ।  लेकिन वहाँ से कोई आलेख लिख पाना संभव  नहीं हो सका। हाँ कुछ चिट्ठों पर टिप्पणियाँ अवश्य कीं।  
दोनों यात्राएँ बिलकुल निजि थीं।  लेकिन चिट्ठाकारी, जैसा कि इस का नाम है, निजत्व का सार्वजनीकरण ही तो है।  निजत्व का यही सार्वजनीकरण चिट्ठाकारों और पाठकों के बीच वे रिश्ते कायम करता है जो यदि बन जाएँ तो शायद बहुत ही मजबूत होते हैं। ऐसे रिश्ते जो शायद वर्गहीन साम्यवादी, समतावादी समाज में विश्वास करने वाले लोगों के सपनों में होते हैं।  जिन के बीच किसी तरह का बाहरी कारक नहीं होता और जो केवल मानवीय आधार पर टिके होते हैं।   जिन्हें प्रेम, प्यार, मुहब्बत के रिश्ते कहा जा सकता है।  ये रिश्ते किसी आम को चूस कर कूड़े के ढेर पर फेंकी हुई गुठली के बरसात में अनायास ही बिना किसी की इच्छा, आकांक्षा और प्रयत्न के ही अंकुरा कर पौधे में तब्दील हो जाने की तरह अंकुराते हैं।  बस जरूरत है तो इतनी कि इस अंकुराए पौधे को पूरी ममता और स्नेह से कूड़े के ढेर से उठा कर किसी बगिया की क्यारी  में रोप कर खाद पानी देते हुए वहाँ तक सहेजा जाए जहाँ वह रसीले, सुस्वादु और मीठे फल देने लगे।

मैं ने इन दोनों यात्राओं में इन गुठलियों का अंकुराना, अंकुराए पौधों का ममता और स्नेह के साथ कूड़े के ढेऱ से हटाया जाना और किसी बगिया की क्यारी में रोपना, सहेजना महसूस किया है।  उन के फलों की मृदुलता तो अभी चखी जानी शेष है, लेकिन किशोर पौधों पर पहली पहली बार आए आम के बौरों की नैसर्गिक गंध और सौंदर्य का अहसास भी हुआ है।  

बेटा वैभव चार माह से उल्लेख कर रहा था कि उसे एमसीए के आखिरी पड़ाव में किसी उद्योग में कोई प्रोजेक्ट करते हुए प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा।  वह प्रयासशील भी था कि इस के लिए कोई अच्छी जगह उसे मिले।  मैं ने जिन्दगी के मेले ब्लॉग के ब्लागर बी एस पाबला जी से इस का उल्लेख किया तो उन्हों ने दो दिन बाद ही  कहा कि वैभव को तुरंत भेज दें, उस की ट्रेनिंग यहाँ भिलाई में हो जाएगी। उन्हें तो यह भी पता न था कि वैभव की सेमेस्टर परीक्षा ही जनवरी में समाप्त होगी और उस के बाद ही उसे ट्रेनिंग करनी है।  मगर यह तय हो गया कि वैभव को भिलाई में ही ट्रेनिंग करनी है।

इस बीच बेटी पूर्वा जो अपने अंतिम शिक्षण संस्थान अंतर्राष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान (आईआईपीएस) के आश्रा प्रोजेक्ट में वरिष्ठ शोध अधिकारी थी अपने प्रोजेक्ट के पूरा होने तक किसी नए काम की तलाश में थी। उसे पूना के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल (केईएम) द्वारा एक अंतर्राष्ट्रीय संस्थान की सहायता से किए जा रहे व्यापक जन स्वास्थ्य सेवाओं के पायलट प्रोजेक्ट में स्टेटीशियन कम डेमोग्राफर के पद के लिए साक्षात्कार के लिए आमंत्रण मिला और उस का पूना जाना तय हो गया।

साक्षात्कार के लिए मुंबई से पूना जाना वैसा ही था जैसे मैं सुबह कोटा से जयपुर जा कर उच्चन्यायालय में किसी मुकदमे की बहस कर शाम को कोटा वापस लौट आऊँ। लेकिन पूर्वा कभी पूना गई नहीं थी, उस के लिए वह अनजाना नगर था।  उसने बताया कि वह पूना जा कर उसी दिन वापस आ जाएगी।  लेकिन इस बताने ने ही घर में प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिए।  एक माँ सवाल करने लगी,  कैसे जाएगी? कौन साथ जाएगा? अकेली गई तो बस से जाएगी या ट्रेन से? वहाँ कैसे पहुंचेगी? एक पिता के पास इन सवालों का कोई उत्तर नहीं था। केवल एक विश्वास था कि उस की बेटी यह सब सहजता से कर लेगी।  पर माँ कैसे इन सब का विश्वास कर पाती।  उस ने प्रस्ताव दिया कि आप को जाना चाहिए बेटी का साक्षात्कार कराने के लिए।  बेटी कहने लगी, रिजर्वेशन नहीं मिलेगा और इस काम के लिए आप के मुंबई आने की जरूरत नहीं है।  बेटी की योग्यताओं से विश्वस्त माँ की चिन्ताएँ इस से कैसे समंझ पातीं?  उस के सवालों का कोई उत्तर मेरे पास नहीं था।  उत्तर तलाशते हुए मुझे दो ही नाम याद आए।  मुम्बई में कुछ हम कहें की चिट्ठाकार अनीता कुमार जी और उन के जीवन साथी विनोद जी।  पूर्वा अनिता जी से पूर्व परिचित थी और उन से बहुत दूर नहीं रहती थी।  पूना में याद आए ओझा-उवाच और कुछ लोग ... कुछ बातें... के ब्लॉगर अभिषेक ओझा

पूर्वा ने चैम्बूर बस स्टॉप जा कर पूना जाने वाली बसों का पता किया तो वहाँ वह असमंजस में आ गई कि उसे किस बस से जाना चाहिए जिस से वह सुबह दस बजे तक पूना पहुंच सके।  उस ने मुझे बताया तो मैं ने अनिता जी से संपर्क किया।  उन्हों ने सवाल विनोद जी के पाले में डाल दिया, विनोद जी बोले हम सुबह खुद जाएँगे और पूर्वा बिटिया को सही बस में बिठा आएँगे।  पूर्वा की तो बस की खोज समाप्त होने के साथ बस तक का सफर स्कीम में मिल गया।  उधर अभिषेक ओझा बता रहे थे कि मैं पूर्वा से बात कर लूंगा कि वह किस बस से कहाँ उतरेगी।  हम ने दोनों ही स्थितियाँ पूर्वा की माताजी को बता दीं।  वे तनिक आश्वस्त हो गयीं। (जारी)

(चित्रों में अनिता कुमार जी और अभिषेक ओझा)

सोमवार, 26 जनवरी 2009

अधूरा है गणतंत्र हमारा

 
 
भारत को गणतंत्र बनाने का संकल्प लिए साठ वर्ष पूरे होने को हैं।  संविधान को लागू होने का साठवाँ साल चल रहा है।  इस अवसर को स्मरण करने के लिए हम यहाँ प्रस्तुत संविधान की उद्देशिका के पाठ को दुबारा पढ़ सकते हैं।

हम ने तय किया था कि हम भारत को एक ऐसा संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाएंगे जिस में सभी को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्राप्त होगा, जिस में विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता होगी, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त होगी।

हमें विचार करना है कि क्या हम अपने इस संकल्प को पूरा कर पाए हैं?  कोई भी सुधि व्यक्ति नहीं कह सकता है कि हम अपने उस संकल्प को पूरा कर पाए हैं।   हम सोच सकते हैं कि उनसठ वर्षों  की इस लम्बी अवधि के बाद भी हम ऐसा क्यों नहीं कर सके।  हम यह भी विचार कर सकते हैं कि क्या हमारा देश आज उस संकल्प की दिशा में आगे बढ़ रहा है।  यदि बढ़ रहा है तो उस की गति तीव्र है या मंद?  गति मंद है तो उस के कारक क्या हैं।  हम संकल्प को पूरा करने में जो कारक हैं उन को चीन्ह सकते हैं।  उन को हटा सकते हैं।  ऐसा कर के हम अपने संकल्प को पूरा करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ सकते हैं।

हम विचार करें, और अपने आस पास यथाशक्ति इस संकल्प को पूरा करने के लिए काम करें।  जितना अधिक हम कर सकते हैं।
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सभी को गणतंत्र दिवस की शुभ कामनाएँ
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मैं आज शाम से अपने कुछ निजि कार्यों के संबंध में कोटा से बाहर जा रहा हूँ, और शायद अगले दस दिनों तक कोटा से बाहर रहूँगा।  इस बीच अनवरत और तीसरा खंबा के पाठकों से दूर रहने का अभाव खलता रहेगा।  इस बीच संभव हुआ तो आप से रूबरू होने का प्रयत्न करूंगा।  कुछ आलेख सूचीबद्ध करने का प्रयत्न है।  यदि हो सका तो वे आप को पढ़ने को मिलते रहेंगे।

रविवार, 25 जनवरी 2009

वह, पति कब था

  • दिनेशराय द्विवेदी
वह,
पति कब था?

उस ने सिर्फ
हथिया लिया था
कब्जा/स्वामित्व
मेरे शरीर पर

मैं समझी थी
कम से कम
मकान और जमीन की
तरह ही शायद करे
मेरी देखभाल

लेकिन, औरत?
होती है
जीती जागती,
वह तो वस्तु भी नहीं

क्यों करे?
कोई और
उस की चिंता  

और मैं
नहीं समझ पायी
यही एक बात,

मुझे ही करना है
सब कुछ
मेरे लिए

जीने के लिए भी, और
मुक्ति के लिए भी। 


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