सोमवार, 11 फ़रवरी 2008
सावधान! हमले से बचें। परागकण आ रहे हैं।
शनिवार को भी ऐसा ही हुआ। दोपहर के भोजन के तुरन्त बाद की सुस्ती और सरदी लगने के भाव ने धूप सेंकने का मन बनाया और अपने राम चटाई ले छत पर जा लेटे। तेज धूप थी तो चुभती ठंडी हवा भी। रास्ता ये निकला कि पास में धुलाई के बाद सूख चुका पत्नी शोभा का शॉल औढ़ा और उस से छनती हुई धूप सेंकी एक घंटे और नीचे अपने कार्यालय में आकर काम पर लगे।
शाम होते होते नाक में जलन होने लगी। हम समझ गए कम से कम तीन दिन का कष्ट मोल ले चुके हैं। हम ने तुरंत शोभा को सूचना दी। उस ने भी तुरंत हमारी (जिस पर अब उस का एकाधिकार है) होमियोपैथी डिस्पेंसरी से जो अलमारी के दो खानों में अवस्थित है और जिसने हमें पिछले पच्चीस सालों से किसी अन्य चिकित्सक की शरण में जाने से बचाए रखा है, लाकर दवा दी। हम उसी को लेकर दो दिनों से अपने धर्मों को निबाह रहे हैं।
मैं सोच रहा था कि इस जुकाम के आगमन का कारण क्या रहा होगा। घर के सामने पार्क में बहुत से पेड़ हैं जिन में यूकेलिप्टस की बहुतायत है। उन से इन दिनों परागकण झर रहे हैं। वास्तव में वे ही इस अनचाहे मेहमान के कारण बने। खैर जुकाम तो काबू में है और एक दो दिन में विदा भी हो लेगा। पर इस मौसम में जो अभी मध्य अप्रेल तक चलेगा सभी को इन पराग कणों से बचने के प्रयत्न करते रहना चाहिए जो केवल जुकाम ही नहीं, नाक से लेकर फेपड़ों तक को असर कर सकते हैं। इन से हे-फीवर तक हो सकता है और कुछ अन्य प्रकार की ऐलर्जियाँ भी। बीमारी अनचाहे मेहमान बन कर आ जाए तो आप के कामों और आनंद सभी में खलल तो पैदा करेगी ही जेब पर हमला भी करेगी।
रविवार, 10 फ़रवरी 2008
“कुत्ते से सावधान” या “कुत्तों से सावधान”
किसी नए व्यक्ति से मिलने जाते हैं तो पहले उस का पता हासिल करना होता है। फिर किसी साधन से वहाँ तक पहुँचना पड़ता है। स्थान नया हो तो दस जगहों पर पूछते हुए जब गन्तव्य पर पहुंचते हैं तो बड़ी तसल्ली होती है, कि पहुँच गए। पर वहां घर के मुख्य द्वार पर लगी तख्ती फिर होश उड़ा देती है। जिस पर लिखा होता है “कुत्ते से सावधान" या “कुत्तों से सावधान”। अब आप बुलाने वाली घंटी को ढूंढते हैं, मिल जाने पर उसे दबाते हैं, कि कुत्ता या कुत्ते स्वागत गान कर देते हैं। फिर कुछ या कई मिनटों के बाद कोई आकर गेट खोलता है, आप का इंटरव्यू करता है कि आप घर में घुसाने लायक व्यक्ति हैं, कि नहीं ?
जब तक कोई बहुत बड़ी गरज न हो या फिर कोई अपने वाला ही न हो, तो ऐसे वक्त में खुद पर बड़ी कोफ्त होती है, कि पहले ही क्यों न पता कर लिया कि जहाँ जा रहे हो वह जगह कुत्ते वाली तो नहीं है ? और पता लग जाता तो शायद वहाँ तक पहुँचते ही नहीं।
आज हर व्यक्ति के पास बहुत कम समय है। दाल-रोटी का जुगाड़ ही सारा समय नष्ट कर देता है। ऐसे समय में हमें दूसरे लोगों के समय की कीमत पहचानना चाहिए। खास कर हिन्दी चिट्ठाकारों को जरूर पहचानना चाहिए।
मैं हिन्दी चिट्ठाकारी में नया जरूर हूँ। मगर अपने इस काम के प्रति संजीदा भी रहना चाहता हूँ। जैसे कहा जाता है कि जो रोज नहीं पढ़ता उसे पढ़ाने का अधिकार नहीं। इसी तरह मेरा सोचना है कि जो रोज कम से कम बीस चिट्ठे नहीं पढ़ता उसे चिट्ठा लिखने का भी कोई अधिकार नहीं।
अब आप चिट्ठे पढ़ेंगे तो टिप्पणी जरुर करेंगे। करना भी चाहिए। चिट्ठा लिखने का कोई तो आप का उद्देश्य रहा होगा। अनेक बार चिट्ठा लिखने का उद्देश्य केवल किसी चिट्ठे पर लिखे आलेख पर टिप्पणी करने से भी पूरा हो जाता है। इस तरह आप किसी विषय पर दोहराने वाला आलेख लिखने से बच जाते हैं और आप को एक नए बिन्दु पर चिट्ठा लिखने का अवसर मिल जाता है। जो चिट्ठाकार और पाठक दोनों के लिए ही उत्तम और समय को बचाने वाला है। इस कारण से सभी संजीदा चिट्ठाकारों को समय बचाने के मामले में सजग रहना चाहिए।
यह सारी बात यहाँ से उठी है कि अनेक नए-पुराने चिट्ठों पर जरुरी समझते हुए टिप्पणी करने पहुँचे, टिप्पणी टाइप भी कर दी, आगे बढ़े तो वर्ड वेरीफिकेशन ने रास्ता रोक दिया। वैसा ही लगा जैसे किसी से मिलने पहुँचे हों और दरवाजे पर तख्ती दिख गई हो “कुत्ते से सावधान” या “कुत्तों से सावधान”
अब मेरी समझ में यह नहीं आया कि हिन्दी चिट्ठाकारों को इस वर्ड वेरीफिकेशन की जरूरत क्या है ? कोई मशीन तो आप के चिट्ठे पर टिप्पणी करने आने वाली नहीं है, आयेंगे सिर्फ इंसान ही। और अगर मशीन भी आ कर कोई टिप्पणी कर रही हो तो उस से आप को नुकसान क्या है ? अधिक टिप्पणियाँ आप की रेटिंग को ही बढ़ाएगी।
टिप्पणीकर्ता कितना असहज महसूस करता है जब उस के सामने टिप्पणी टाइप करने के बाद यह वर्ड वेरीफिकेशन टपकता है। वह हिन्दी में टाइप कर रहा है। इस वर्ड वेरीफिकेशन के कारण उसे वापस अंग्रेजी में टोगल करना पड़ता है। कभी कभी शीघ्रता में कोई अक्षर समझ में न आए य़ा हिन्दी लिखते लिखते यकाय़क अंग्रेजी पर जाने के कारण अभ्यास से गलत अक्षर टाइप कर दे तो उसे दुबारा यह परीक्षा देनी पड़ती है। एक दुष्प्रभाव यह भी छूटता है कि चिट्ठाकार के बारे में यह समझ बनती है कि वह कभी दूसरों को पढ़ता और टिप्पणी नहीं करता है।
सभी हिन्दी चिट्ठाकारों से मेरा विनम्र निवेदन है कि आप अपने अपने चिट्ठों से वर्ड वेरीफिकेशन की तख्ती हटा ही दें। मैं आप को बता दूँ कि कुछ महत्वपूर्ण चिट्ठों पर टिप्पणियाँ नहीं आती थीं। मेरे व्यक्तिगत निवेदन के बाद से उन्हों ने वर्ड वेरीफिकेशन को हटाया और उन चिट्ठों को टिप्पणियां मिलने लगीं।
शनिवार, 9 फ़रवरी 2008
बीस इंची साईकिल
बीस इंची साईकिल
बारहवें जन्म दिन पर
मिली है उसे
पूरे बीस इंच की साईकिल।
पानी के छींटे दे
अभिषेक किया है,
कच्चा रंगा सूत बांध
पहनाए हैं वस्त्र और
रोली का टीका लगा
श्रंगार किया है,
साईकिल का।
पहले ही दिन
घुटने छिले हैं,
एक पतलून
तैयार हो गयी है
रफूगर के लिए,
दूसरे दिन लगाए हैं
तीन फेरे, अपने दोस्त के घर और
दोनों जा कर देख आए हैं
अपनी टीचर का मकान।
तीसरे दिन
अपनी माँ को
खरीद कर ला दिया है
नया झाड़ू।
और आज
चक्की से
पिसा कर लाया है गेहूँ।
कर सकता है कई काम
जो किया करता था
कल तक उस का पिता।
वह बताता है-
लोग नहीं चलते बाएं,
टकरा जाने पर
देते हैं नसीहत उसे ही
बाएं चलने पर।
चौड़ा गयी है दुनियाँ
उस के लिए,
लगे हों जैसे पंख
नयी चिड़िया के।
नीम पर कोंपलें
हरिया रही हैं,
वसन्त अभी दूर है
पर आएगा, वह भी।
बेटा हुआ है किशोर
तो, होगा जवान भी
खुश हैं मां और बहिन
और पिता भी।
कि उसका कद
बढ़ने लगा है। - दिनेशराय द्विवेदी
शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008
धूप की पोथी
बड़ी बहस छिड़ी है। नतीजा सभी को पता है।
भारत सभी भारतीयों का है।
इस बीच मराठियों, बिहारियों, उत्तर भारतीयों - सभी की बातें होंगी, हो रही हैं
इस बीच आदमी गौण हो रहेगा और राजनीति प्रमुख
राजनीति वह जो जनता को बेवकूफ बनाने और अपना उल्लू सीधा करने की है।
मुझे इस वक्त महेन्द्र 'नेह' की कविता 'धूप की पोथी' का स्मरण हो रहा है।
आप भी पढ़िए .......
धूप की पोथी
-महेन्द्र 'नेह'
रो रहे हैं
खून के आँसू
जिन्हों ने
इस चमन में गन्ध रोपी है !
फड़फड़ाई सुबह जब
अखबार बन कर
पांव उन के पैडलों पर थे
झिलमिलाई रात जब
अभिसारिका बन
हाथ उन के सांकलों में थे
सी रहे हैं
फट गई चादर
जिन्हों ने
इस धरा को चांदनी दी है !
डगमगाई नाव जब
पतवार बन कर
देह उन की हर लहर पर थी
गुनगुनाए शब्द जब
पुरवाइयाँ बन
दृष्टि उन की हर पहर पर थी
पढ़ रहे हैं
धूप की पोथी
जिन्हों ने बरगदों को छाँह सोंपी है !
छलछलाई आँख जब
त्यौहार बन कर
प्राण उन के युद्ध रथ पर थे
खिलखिलाई शाम जब
मदहोश हो कर
कदम उन के अग्नि-पथ पर थे
सह रहे हैं
मार सत्ता की
जिन्होंने
इस वतन को जिन्दगी दी है !
शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2008
पुस्तक मेला लगाने पर रोक
कोलकाता पुस्तक मेला के उद्धाटन के एक दिन पहले कोलकाता उच्च न्यायालय की एक खंड पीठ ने उस पर यह कहते हुए रोक लगा दी कि इस से पर्यावरण को खतरा उत्पन्न हो सकता है तथा आसपास रहने वाले नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन होगा। साथ ही प्रदूषण एक्ट, पर्यावरण सुरक्षा एक्ट तथा ध्वनि प्रदूषण एक्ट का भी उल्लंघन हो सकता है। यह निर्णय दरगाह रोड सिटीजंस कमेटी समेत कुछ संस्थाओं द्वारा दायर की गई एक याचिका पर दिया गया है।
29 जनवरी को मेले का उद्घाटन होना था। जोरशोर से स्टालों का निर्माण कार्य चल रहा था। हाईकोर्ट के इस फैसले से मेले के आयोजन पर प्रश्न चिह्न लग गया। निर्देश आने के तुरंत बाद बांस-बल्लियों को खोलने का काम शुरू कर दिया गया। पिछले दो साल से कोलकाता पुस्तक मेला आयोजन स्थल को लेकर विवादों से घिरा रहा है। पिछले वर्ष साल्टलेक स्टेडियम में मेला लगा था लेकिन पहले की तरह भीड़ नहीं जुटी। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भंट्टाचार्य ने इस फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया है।
इस पोस्ट के उक्त दोनों चरण ‘जागरण’ की खबर के आधार पर हैं। हालांकि मुझे यह सूचना भाई शिवकुमार मिश्र के ब्लॉग से लगी थी। यह एक गंभीर बात है। एक ऐसे पुस्तक मेले पर ठीक एक दिन पूर्व रोक लगा दिये जाने से मेला आयोजकों एवं उसमें भाग लेने वाली संस्थाओं को बड़ी आर्थिक हानि होगी जो कि किसी भी प्रकार से इस उद्योग कि कठिनाइयों को देखते हुए बड़ा झटका है। कोई भी पुस्तक मेला मानव समाज के ज्ञान में वृद्धि ही करता है। उस से प्रदूषण फैलने पर रोक को प्रोत्साहन ही प्राप्त होता न कि उसे बढ़ाने को। इस से वे लाखों लोग ज्ञान को विस्तार देने से वंचित हो जाऐंगे जो इस पुस्तक मेले में शिरकत करते। इस से इन के सूचना के अधिकार का हनन होता।
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इस मामले में उच्च न्यायालय से कोई गंभीर गलती हुई है। इस तरह तो कोई भी जनता के भले के कार्यक्रम को रोका जा सकता है और मानव समाज की प्रगति के मार्ग को अवरुद्ध किया जा सकता है। इस मामले में यह भी अन्वेषण किया जाना चाहिए कि ‘दरगाह रोड सिटीजंस कमेटी’ कितने और किस किस्म के लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। इस प्रकार तो कोई थोड़े से लोग समाज के विकास में न्यायालयों का सहारा ले कर बाधा बन खड़े होंगे।
इस मसले पर कानूनी लड़ाई को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मजबूती से लड़ा जाना चाहिए ही। इस तरह के निर्णयों के विरुद्ध आवाज भी उठानी चाहिए। लेखकों, प्रकाशकों, पाठकों और सभी पुस्तक प्रेमियों को सामूहिक आवाज उठानी चाहिए। आखिर भारत जैसे जनतंत्र में पर्यावरण के बहाने से बुक फेयर को रोका जाना एक गंभीर घटना है। आगे जा कर इसी तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित किया जा सकता है। उंगली उठते ही रोक देनी चाहिए। अन्यथा कल से हाथ उठेगा।
गुरुवार, 31 जनवरी 2008
।।काँख मँ छोरो गाँव मँ हेरो।।
सोमवार, 28 जनवरी 2008
मुहब्बत बनी रहे, तो झगड़े में भी आनन्द है
मेरी पत्नी शोभा अच्छी कुक हैं। उस का बनाया भोजन जिस ने पाया है वह उस के रहते किसी दूसरे का बनाया खाना नहीं चाहता। मेरी माँ दस चाय और के हाथ की बनी पीने के बाद भी उस के हाथ की बनी चाय पीने की इच्छा को समाप्त नहीं कर पातीं। बच्चे उस के हाथ का बना भोजन करने को लालायित रहते हैं।
मैं साढ़े चार सुबह उठा हूँ। तेज सर्दी में उठते ही कॉफी की इच्छा हो रही है। रोज होती है। अपनी कॉफी बना कर पी सकता हूँ। पर इन्तजार कर रहा हूँ। कब शोभा उठे और कब कॉफी मिले। मैं जानता हूँ, वह छह के पहले नहीं उठेगी। सात भी बज सकते हैं। उसे पता है मैं उठ चुका हूँ। उस ने देख भी लिया है। पर वह वापस सो गयी है। उसे पता है कि उस ने उठ कर मुझे कॉफी बना कर दे दी, तो शायद मैं नाराज हो जाऊँ कि वह क्यों इतनी जल्दी उठ गई। हम एक दूसरे को जानते हैं, समझते हैं, हम में कोई बड़ा छोटा नहीं। हम ने काम बाँट लिए हैं। जो जिस काम को बेहतर कर सकता है, करता है। कभी कभी हम एक दूसरे के हिस्से का काम कर भी बैठते हैं, तो अपने नौसिखिएपन या काम को बेहतर तरीके से नहीं कर पाने के लिए एक दूसरे के मजाक के पात्र भी बनते हैं।
यह हमारा जीवन है। इस पर बहस की जा सकती है। करें तो हम उस का आनन्द ही लेंगे। मगर शोभा के हाथ की चाय या भोजन को पसंद करने वाला कोई आप की खबर लेने पर उतर आए तो मेरी कोई गारण्टी नहीं।
बात को इस अर्थ में लें कि हम में मुहब्बत है, मुहब्बत बनी रहे, तो झगड़े में भी आनन्द है।
मुहब्बत में कोई छोटा बड़ा नहीं होता, कोई असमान नहीं होता।
मेरे विचार में आगे कुछ भी कहने को नहीं बचा है।
इस के अलावा कि ज्ञानदत्त पाण्डेय की मानसिक हलचल के अलावा भी ज्ञान जी का एक अंग्रेजी ब्लॉग Gyandutt Pandey's Musings है।
इस पर मुझे उन का और रीता भाभी का एक चित्र और टिप्पणी मिली है।
इसे जरूर देख लें-
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We - Eternal
Co-travelers |
We have two children (Gyanendra and Vani).
Our relationship is forever getting new dimensions.