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रविवार, 14 जून 2009

ज़िन्दगी यूँ ही गुज़र जाए ज़रूरी है क्या : पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की ग़ज़ल

रविवार के अवकाश में आनंद लीजिए पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की  एक ग़ज़ल का 
 

ज़िन्दगी यूँ ही गुज़र जाए ज़रूरी है क्या
  • पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
बात होठों पे चली आए ज़रूरी है क्या
दिल में तूफान ठहर जाए ज़रूरी है क्या

कितने अंदाज़ से जज़्बात बयाँ होते हैं
वो इशारों मे समझ जाए ज़रूरी है क्या

क्या वो करते हैं? कहाँ जाते? कहाँ से आते
तुम से हर बात कही जाए ज़रूरी है क्या

नाव टूटी है तो क्या खेना नहीं छोड़ूंगा
नाव लहरों में ही खो जाए ज़रूरी है क्या

मुश्किलें देख के तू परेशाँ क्यूँ है
ज़िन्दगी यूँ ही गुज़र जाए ज़रूरी है क्या

कह दिया उस को जो कहना था समझ जाओ 'य़कीन'
बार-बार आप को समझाएँ ज़रूरी है क्या


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शुक्रवार, 12 जून 2009

रोशनी जो चराग़ रखता है

 पुरुषोत्तम 'यक़ीन' मेरे एक दोस्त ही नहीं, दिल के करीबी भी हैं।  उन की बहुत ग़ज़लें अनवरत पर मैं ने पेश की हैं। कभी उन का चित्र और परिचय आप के सामने नहीं रखा।  आज उन से मिलिए -

'यक़ीन' वैयक्तिक जीवन में पुरुषोत्तम स्वर्णकार नाम से जाने जाते हैं पिता श्री शंकरलाल स्वर्णकार और श्रीमती कलावती देवी के घर  21 जून, 1957 ईस्वी को ग्राम गढ़ीबाँदवा जिला क़रौली (राज.), में जन्मे और बी. एससी. करने के बाद आयुर्वेद ‘रत्न’, साहित्य ‘रत्न’, बी. जे. एम. सी. (जनसंचार एवं पत्रकारिता में स्नातक). की उपाधियाँ हासिल कीं। कोटा के एक उद्योग में करीब तीन वर्ष तक ऑपरेटर की नौकरी की और छंटनी के शिकार हुए।  इस के बाद चंबल स्टूडियो के नाम से अपना फोटो स्टूडियो स्थापित किया। इसी स्टूडियो में पहली बार उर्दू सीखना आरंभ हुआ तो उस में सिद्धहस्तता प्राप्त की। 
उन के अंदर के कलाकार ने उर्दू के माध्यम से आकार प्राप्त करना आरंभ किया तो ऐसा कि पाँच ग़ज़ल संग्रह  “हम चले, कुछ और चलने” ( 1994 ई.). “झूठ बोलूँगा नहीं” (1997 ई.),  “रात अभी बाक़ी है” ( 2000 ई.),  “सूरज से ठनी है मेरी” ( 2001 ई.), “चहरे सब तमतमाये हुए हैं” ( 2004 ई.), और एक राजस्थानी काव्य संग्रह  “पीर परायी नें कुण जाणैं” (2004 ई.) देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुए हैं। एक काव्य संग्रह “सोज़े-पिन्हाँ”  उन के  उर्दू ख़ुदख़त में प्रकाशित हुआ है। उर्दू, हिन्दी, राजस्थानी, ब्रज व अंग्रेज़ी भाषा की सरकारी, ग़ैर-सरकारी संस्थाओं एवं भाषा अकादमियों द्वारा प्रकाशित राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, संकलनों, ग़ज़ल-विशेषांकों, कहानी-संकलनों आदि में उन की लघुकथाऐं, गीत, ग़ज़लें, नज़्में, दोहे, तज़्मीनें, माहिया, आलेख, पुस्तक-समीक्षाऐं, रिपोर्ताज आदि गद्य व पद्य रचनाऐं प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्हें अनेक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।  
उन्हों ने ‘अभिव्यक्ति’, ‘विकल्प’, ‘कदम्बगंध’, कोटा के प्रकाशनों के अलावा कुछ अन्य लेखकों की पुस्तकों का मित्रवत सम्पादन किया है।  ग़ज़ल, अभिनय, संगीत(वाद्य), चित्रकारिता, फोटोग्राफी उन की रुचियाँ हैं।  वे कोटा नगर की विभिन्न क्रियाशील सामाजिक, साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं के एक सक्रिय व्यक्ति हैं।
 उन की एक ग़ज़ल का आनंद लीजिए...

'ग़ज़ल'

रोशनी जो चराग़ रखता है

  •  पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’


दिल में वो दुख का राग़ रखता है
आत्मा पर न दाग़ रखता है

ये न समझो कि वो न समझेगा
वो भी कुछ तो दिमाग़ रखता है

देता है रोशनी भी तेज़ उतनी
आग जितनी चराग़ रखता है

यूँ तो काँटों से भर गया है मगर
गुंचा-ओ-गुल भी बाग़ रखता है

उस से कुछ तो धुआँ भी उट्ठेगा
रोशनी जो चराग़ रखता है

उस को समझा के कौन आफ़त ले
वो ज़ियादा दिमाग़ रखता है

बेख़बर ख़ुद से हो मगर वो ‘यक़ीन’
दुनिया भर का सुराग़ रखता है


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रविवार, 22 फ़रवरी 2009

 पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ 
की ये ग़ज़ल अपनी अनभिज्ञताओं के बारे में ......

      क्या पता ?
  •  पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

मेरी ग़ज़लें आप बाँचें, क्या पता
ये ही कुछ दुखदर्द बाँटें, क्या पता

ज़ुल्मतें हम दिल की छाँटें, क्या पता
या यूँ ही जग-धूलि फाँकें, क्या पता

नित नई फ़र्माइशें दरपेश हों
या कभी वो कुछ न माँगें, क्या पता

ज़िन्दगी जैसे कोई दुःस्वप्न है
किस घड़ी खुल जाऐं आँखें, क्या पता

ले गये तो हैं मेरी तस्वीर वो
फैंक दें, कमरे में टाँकें, क्या पता

टेक दें घुटने कि फिर वो सामने
ठोक कर आ जाऐं जाँघें, क्या पता

इक कबूतर की तरह ये जान कब
खोल कर उड़ जाए पाँखें, क्या पता

वो मुझे पहचान तो लेंगे ‘यक़ीन’
पर इधर झाँकें न झाँकें, क्या पता


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मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009

मेरे सीने में आग पलती है

और  आज पढिए पुरुषोत्तम 'यकीन' की ग़ज़ल "मेरे सीने में आग पलती है"


ग़ज़ल
मेरे सीने में आग पलती है
  •  पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

अपने उद्गम से जब निकलती है
हर नदी तेज़-तेज़ चलती है

टकरा-टकरा के सिर चटानों से
धार क्या जोश में उछलती है

गोद पर्वत की छोड़ कर नदिया
आ के मैदान में सँभलती है

जाने क्या प्यास है कि मस्त नदी
मिलने सागर से क्या मचलती है

ख़ुद को कर के हवाले सागर के
कोई नदिया न हाथ मलती है

शैर मेरे कहाँ क़याम करें
अब ग़ज़ल की ज़मीन जलती है

नाम सूरत लिबास सब बदला
फिर भी सीरत कहाँ बदलती है

कैसे तुझ को बसा लूँ दिल में ‘यक़ीन’
मेरे सीने में आग पलती है

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सोमवार, 12 जनवरी 2009

दुनिया भर की लड़कियों के नाम, ‘यक़ीन’साहब की एक ग़ज़ल,

दुनिया भर की लड़कियों के नाम  
'यक़ीन' साहब की एक 'ग़ज़ल' 
  • पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ 
   
सोज़े-पिन्हाँ को बना ले साज़ लड़की!
    बोल ! कुछ तो बोल बेआवाज़ लड़की!

 
                       लब सिले हैं और आँखें चीख़ती हैं
                       कैसी चुप्पी है ये कैसा राज़ लड़की!

 
    क्यूँ बया बन कर रही, बुलबुल बनी तू
    काश अपने को बना ले बाज़ लड़की!

 
                        फ़ित्रतन ज़ालिम है ये मक्कार दुनिया
                        क्यूँ है तू मासूम मिस्ले-क़ाज़ लड़की!

 
    इक कबूतर-सी फ़क़त पलकें न झपका
    लोग दुनिया के हैं तीरन्दाज़ लड़की!    

 
                         तू कोई अबला नहीं, पहचान ख़ुद को
                         और बदल तेवर तेरा अन्दाज़ लड़की!

 
    गूँज कोयल की कुहुक-सी वादियों में

    बन्द कर ये सिसकियों का साज़ लड़की!
 
                           सोच इस दुनिया को तुझ से बैर क्यूँ है
                           क्यूँ है इक मोनालिसा पर नाज़ लड़की!

 
    क़त्ल क्यूँ होती है तेरी कोख में तू
    क्या हुआ जननी का वो ऐज़ाज़ लड़की!

 
                            तू तो माँ है, क्यूँ तुझे समझा खिलौना
                            पूछ इन मर्दों से ओ ग़मबाज़ लड़की!

 
    तू नहीं दुनिया से, इस दुनिया से मत डर
    तुझ से है ये दुनिया-ए-नासाज़ लड़की!

 
                            अब स्वयं नेज़ा उठा, लिख भाग्य अपना
                            कर नए अध्याय का आग़ाज़ लड़की!

 
    कौन तन्हा जीत पाया जंग कोई
    मिल के हल्ला बोल यक्काताज़ लड़की!

 
                              तेरे स्वागत को है ये आकाश आतुर
                              खोल कर पर तू भी भर परवाज़ लड़की!

 
    अपने आशिक़ पर नहीं लाज़िम तग़ाफ़ुल
    बेसबब मुझ से न हो नाराज़ लड़की!

 
                               अपनी कू़व्वत का नहीं अहसास तुझ को
                               कर ‘यक़ीन’ इस बात पर जाँबाज़ लड़की!




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शनिवार, 10 जनवरी 2009

अजित वडनेरकर का जन्म दिन और पुरुषोत्तम 'यकीन' की नए साल की बधाई




अजित वडनेरकर !!! 
मुबारक हो सालगिरह !!!

हिन्दी चिट्ठाजगत या ब्लागदुनिया में हमें रोज शब्दों का सफर कराने वाले, चिट्ठाकारों से ना, ना करते हुए भी बक़लम खुद लिखवा डालने वाले हर दिल अजीज़ चिट्ठाकार अजीत वडनेरकर आज अपना जन्म दिन मना रहे हैं। 

उन्हें ढेर सारी बधाइयाँ! 
जरा आप भी दीजिएगा!
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इस मौके पर किसी काव्य रचना की तलाश करते करते पुरुषोत्तम यकीन की गज़ल़ पर नज़र पड़ी। नए साल के आगमन पर रची गई इस ग़ज़ल का आनंद लीजिए .....

                    'ग़ज़ल'
 !!! मुबारक हो तुम को नया साल यारो !!!
पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’


मुबारक हो तुम को नया साल यारो
यहाँ तो बड़ा है बुरा हाल यारो

मुहब्बत पे बरसे मुसीबत के शोले
ज़मीने-जिगर पर है भूचाल यारो

अमीरी में खेले है हर बदमुआशी
है महनतकशी हर सू पामाल यारो

बुरे लोग सारे नज़र शाद आऐं
भले आदमी का है बदहाल यारो

बहुत साल गुज़रे यही कहते-कहते
मुबारक-मुबारक नया साल यारो

फ़रेबों का हड़कम्प है इस जहाँ में
‘यक़ीन’ इस लिए बस हैं पामाल यारो
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सोमवार, 1 दिसंबर 2008

चलो कुछ काम किया जाए

वक्त जैसा है, सब को पता है 
उस के लिए क्या कहा जाए।
न होगा कुछ सिर्फ सोचने से 
चलो कुछ काम किया जाए।।

इस वक्त में पढ़िए पुरुषोत्तम 'यकीन' की एक ग़ज़ल ...



'ग़ज़ल'
क्या हुए आज वो अहसासात यारो     

  • पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

क्या कहें आप से दिल की बात यारो
अपने ही करते हैं अक्सर घात यारो

पस्तहिम्मत न हो कर बैठो अभी से
और भी सख़्त है आगे रात यारो

साथ बरसातियाँ भी ले लो, ख़बर है
हो रही है वहाँ तो बरसात यारो

चोट मुझ को लगे, होता था तुम्हें दुख
क्या हुए आज वो अहसासात यारो

चाल है हर ‘यक़ीन’ उन की शातिराना
फिर हमीं पर न हो जाये मात यारो


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बुधवार, 26 नवंबर 2008

सब से छोटी बहर की ग़ज़ल

कुछ दिन पहले मैं ने अपने दोस्त पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की छोटी बहर की दो ग़ज़लें पेश की थीं। तब मुझे कतई ये गुमान न था कि उन में से एक दुनिया भर में इकलौती सबसे छोटी बहर की ग़ज़ल भी है। पिछले दिनों जब वे अपने भतीजे की शादी में मिले तो उन से अनवरत पर प्रकाशित इस ग़ज़ल का जिक्र किया तो उन्हों ने बताया कि किसी शायर की एक सात मात्राओं की ग़ज़ल दुनिया की सब से छोटी ग़ज़ल के रूप में लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्डस् में दर्ज है। उन की यह ग़ज़ल सिर्फ पाँच मात्राओं की है।

आइए उन की इस ग़ज़ल को उन्हीं की एक और छोटी बहर की ग़ज़ल के साथ फिर से पढ़ने का आनंद प्राप्त करें .....


आ गए किस मुक़ाम पर  
........................पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’



सुब्ह काम पर
शाम जाम पर

इश्क़ में जला
हुस्न बाम पर

दिल फिसल गया
‘मीम’ ‘लाम’ पर

रिन्द पिल पड़े
एक जाम पर

ग़ारतें मचीं
राम-नाम पर

आ गए ‘यक़ीन’
किस मुक़ाम पर


और ... 
दुनिया की सब से छोटी बहर की ग़ज़ल
हम चले

 ..........................पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

हम चले
कम चले

आए तुम
ग़म चले

तुम रहो
दम चले

तुम में हम
रम चले

हर तरफ़
बम चले

अब हवा
नम चले

लो ‘यक़ीन’
हम चले 
*******************************

शनिवार, 22 नवंबर 2008

कला की क्यारी में एक ब्याह

पिछले दो दिन से सुबह और रात के समय चौड़ी पट्टी (ब्रॉडबैंड) लिप लिप कर रही है, आज सुबह भी यही हाल रहा। नतीजा है कि चिट्ठे पढ़ने में कमी हो गई। दो दिन काम  भी बहुत रहा, समय नहीं रहा। कल सर्दी की लपट और रात्रि जागरण से आज का दिन सिर जकड़ा रहा।शनिवार के कारण जल्दी घर आ कर कुछ देर सोया तो हलका और स्वस्थ हो गया। ऐसा करना जरूरी भी था। शिवराम जी के तीसरे पुत्र पवन की शादी थी। कल सगाई में नहीं जा सका था। पता था आज उलाहना मिलेगा, जैसे ही शिवराम जी मिले वह भी मिला। कहने लगे आप मेरे परिवार में अपनी स्थिति नहीं जानते। सब लोग आप को पूछते रहे यहां तक कि शशि (उन का मँझला पुत्र) के ससुर आप को पूछ रहे थे। मैं ने क्षमा मांगी। उन सभी से जो कल मुझे पूछ रहे थे। अभी 11 बजे वहाँ से लौटा हूँ।
शिवराम जी का परिवार कला की क्यारी है। वे खुद कवि, नाटककार, नाट्यनिर्देशक, समालोचक संपादक हैं, छोटा भाई पुरुषोत्तम यकीन जो दुनिया में सबसे छोटी बहर की ग़जल लिख चुका है और शायद राजस्थान में सब से अधिक ग़जलें लिखने वाला शायर है। ज्येष्ठ पुत्र रवि पेशे से इंजिनियर लेकिन श्रेष्ठ चित्रकार है और सैंकड़ों कविता पोस्टरों का रचना कर चुका है साथ ही नायाब कवि भी। शशि और पवन नाटकों के कलाकार रहे हैं। मँझला बेटा शशि मुंबई में है तो मेरी बेटी पूर्वा का कम से कम एक दिन उस के परिवार में बीतता है।
इस कला की क्यारी की एक पौध का विवाह हो तो उस में कला की छाप होना अवश्यंभावी था। उस की बानगी इस विवाह के आमंत्रण से मिल सकती है। जिसे मैं यहाँ आप के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।

नोट : आमंत्रण का पूरा आनंद लेने के लिए दोनों चित्रों को क्लिक करें 

 *  *  *  *  *  *  *  *  *  * *  *  *  *  *  *  *  *  *  *
  
यह कविता किस ने लिखी यह मैं शिवराम जी से पूछना भूल गया। पर मुझे लगता है यह रवि की है। 

पहली टिप्पणी आने के बाद नहीं रहा गया, शिवराम जी से पूछा तो अनुमान सही था। कविता रवि की ही है।  



  
अन्दर बाएँ छपा चित्र पवन के एक छाया चित्र का रवि द्वारा निर्मित रेखांकन है। पूरा आमंत्रण रवि ने खुद अपनी हस्तलिपि में लिखा है। 

 *  *  *  *  *  *  *  *  *  * *  *  *  *  *  *  *  *  *    
विवाह के आमंत्रण पत्र पर छपी कविता .......


विवाह बंधन
                                  * रविकुमार

यह बंधन नहीं

शायद बंधनों से मुक्त होना है


प्रेम और जज़्बात की

नवीन सृष्टि में खोना है


यह मुक्ति रचती है

अपने ख़ुद के नये बंधन


अपने अस्तित्व के

अहसास की

रोमांचक शुरुआत है यह


दो  धड़कनों की

एक आवाज़ है यह

एक नए जहाँ का आग़ाज है

.
 *  *  *  *  *  *  *  *  *  * *  *  *  *  *  *  *  *  *  



रविवार, 9 नवंबर 2008

पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की छोटी बहर की दो गज़लें

मैं कल से ही बाहर हूँ।  कल आप ने शिवराम की दो कविताएँ पढ़ीं। आज की इस पूर्व सूचीबद्ध कड़ी में पढिए मेरे अजीज दोस्त शायर पुरुषोत्तम 'यकीन' की छोटी बहर की दो गज़लें ...
 हम चले

  • पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’


हम चले
कम चले

आए तुम
ग़म चले

तुम रहो
दम चले

तुम में हम
रम चले

हर तरफ़
बम चले

अब हवा
नम चले

लो ‘यक़ीन’
हम चले
*****



चुप मत रह                                                                 
  •  पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’

चुप मत रह
कुछ तो कह।


ज़ुल्मो-सितम
यूँ मत सह।

कर न कभी
व्यर्थ कलह।

नद-सा तू
निर्मल बह।

कह दे ग़ज़ल
मेरी तरह।

ज़ुल्म का गढ़
जाता ढह।

मिल बैठो
एक जगह।

नज़्द मेरे
आए वह।

प्यार ‘यक़ीन’
करता रह।
 

*****                                                                         

शुक्रवार, 29 अगस्त 2008

पुरुषोत्तम 'यकीन' की ग़ज़ल ... खो रही है ज़िन्दगी

आज फिर से आप को ले आया हूँ, 
मेरे दोस्त और आप के लिए अब अजनबी नहीं  पुरुषोत्तम 'यकीन' की ग़ज़लों की महफिल में।

पढ़िए हालात पर मौजूँ उन की  ये बेहतरीन ग़ज़ल...

खो रही है ज़िन्दगी
पुरुषोत्तम 'यकीन'

भूख से बिलख-बिलख के रो रही है ज़िन्दगी
अपने आँसुओं को पी के सो रही है ज़िन्दगी

चल पड़ी थी गाँव से तो रोटियों की खोज में
अब महा नगर में प्लेट धो रही है ज़िन्दगी

या सड़क की कोर पर ठिठुर रही है ठंड में
या क़दम-क़दम पसीना बो रही है ज़िन्दगी

नौचते हैं वासना के भूखे भेड़िए कभी
जब्र की कभी शिकार हो रही है ज़िन्दगी

हड्डियों के ढाँचे-सी खड़ी महल की नींव में 
पत्थरों को नंगे सर पे ढो रही है ज़िन्दगी
अजनबी-से लग रहे हैं अपने आप को भी हम
सोचिए कि ग़ैर क्यूँ ये हो रही है ज़िन्दगी

बस रही है झौंपड़ी में घुट रही है अँधेरों में 
कब से रोशनी की आस पी रही है ज़िन्दगी

कीजिए 'यक़ीन' मैं ने देखी .ये हर जगह
 लीजिए संभाल वरना खो रही है ज़िन्दगी
*************************

सोमवार, 25 अगस्त 2008

मंजिलों से तो मुलाक़ात अभी बाकी है.... शतकीय नमन ....

अनवरत का यह सौवाँ आलेख है। 20 नवम्बर 2007 को प्रारंभ हुई यह यात्रा सौवेँ पड़ाव तक कैसे पहुँचा? कुछ भी पता न लगा। स्वयँ को अभिव्यक्त करते हुए, दूसरे ब्लागरों को पढ़ते हुए, विचारों को आपस में टकराते हुए, नए मित्रों को अपने जीवन में शामिल करते हुए, कुछ सीखते हुए, कुछ बताते हुए और कुछ बतियाते हुए....

यह यात्रा अनंत है, चलती रहेगी, अक्षुण्ण जीवन की तरह ... अनवरत...
इस आलेख पर कुछ कहने को विशेष नहीं इस के सिवा कि सभी ब्लागर साथियों का खूब सहयोग मिला। उन का भी जिन्हों ने कभी आ कर मुझ से असहमति जाहिर की। सहमति से भले ही उत्साह बढ़ता हो, मगर असहमति उस से अधिक महत्वपूर्ण है, वह विचारों को उद्वेलित कर नया सोचने को बाध्य करती है, विचार प्रवाह को तीव्र करती है।
सहयोगी और मित्र साथियों के नामों का उल्लेख इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि किसी न किसी के छूट जाने का खतरा अवश्यंभावी है। सभी साथियों को शतकीय नमन!

इस अवसर पर कुछ और न कहते हुए पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की ग़जल के माध्यम से अपनी बात रख रहा हूँ.....
मंजिलों से तो मुलाक़ात अभी बाकी है
पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

*
सो न जाना कि मेरी बात अभी बाक़ी है
अस्ल बातों की शुरुआत अभी बाक़ी है
**
तुम समझते हो इसे दिन ये तुम्हारी मर्ज़ी
होश कहता है मेरा रात अभी बाक़ी है 

***
ख़ुश्बू फैली है हवाओं में कहाँ सोंधी-सी
वो जो होने को थी बरसात अभी बाक़ी है 

****
घिर के छाई जो घटा शाम का धोका तो हुआ
फिर लगा शाम की सौग़ात अभी बाक़ी है 

*****
खेलते ख़ूब हो, चालों से तुम्हारी हम ने
धोके खाये हैं मगर मात अभी बाक़ी है 

******
जो नुमायाँ है यही उन का तअर्रुफ़ तो नहीं
बूझना उन की सही ज़ात अभी बाक़ी है 

*******
रुक नहीं जाना 'यकीन' आप की मंजिल ये नहीं
मंजिलों से तो मुलाक़ात
अभी बाकी है
**************

गुरुवार, 7 अगस्त 2008

लड़ाते हैं हमें और अपने अपने घर बनाते हैं ...... पुरुषोत्तम 'यकीन की ग़ज़ल

पुरुषोत्तम 'य़कीन' से आप पूर्व परिचित हैं। उन की एक ग़ज़ल का पहले भी आप अनवरत पर रसास्वादन कर चुके हैं। जब जम्मू-कश्मीर में वोट के लिए छिड़ा दावानल मंद होने का नाम नहीं ले रहा है। वहाँ उन की यह ग़ज़ल प्रासंगिक हो आती है......


लड़ाते हैं हमें और अपने अपने घर बनाते हैं

 पुरुषोत्तम 'यकीन'


न वो गिरजा, न वो मस्जिद, न वो मंदर बनाते हैं
लड़ाते हैं हमें और अपने-अपने घर बनाते हैं
हम अपने दम से अपने रास्ते बहतर बनाते हैं
मगर फिर राहबर रोड़े यहाँ अक्सर बनाते हैं
कहीं गड्ढे, कहीं खाई, कहीं ठोकर बनाते हैं
यूँ कुछ आसानियाँ राहों में अब रहबर बनाते हैं
बनाते क्या हैं, बहतर ये तो उन का खुदा ही जाने
कभी खुद को खुदा कहते कभी शंकर बनाते हैं
अभयदानों के हैं किस्से न जाने किस ज़माने के
हमारे वास्ते लीड़र हमारे डर बनाते हैं
न कुछ भी करते-धरते हों मगर इक बत है इन में
ये शातिर रहनुमा बातें बहुत अक्सर बनाते हैं
न जाने क्यूँ उन्हीं पर हैं गड़ी नज़रें कुल्हाड़ों की
कि जिन शाखों पे बेचारे परिन्दे बनाते हैं
इसी इक बात पर अहले-ज़माना हैं ख़फ़ा हम से
लकीरें हम ज़माने से ज़रा हट कर बनाते हैं
दिलों में प्यार रखते हैं कोई शीशा नहीं रखते
बनाने दो वो नफ़रत के अगर पत्थर बनाते हैं
'य़कीन' अब ये ज़रूरी है य़कीन अपने हों फ़ौलादी
कि अफ्व़ाहों के वो बेख़ता नश्तर चलाते हैं
****************************
muslim.outrage.over.pope.benedict.2

मंगलवार, 1 जुलाई 2008

थोड़ा नजदीक आ अंधेरा है "गज़ल"

आप ने अनवरत पर महेन्द्र 'नेह' की कुछ रचनाएँ पढ़ी हैं। आज आप के हुजूर में पेश कर रहा हूँ, ऐसे शायर की गज़ल जो बहुमुखी प्रतिभा का धनी है। जिस ने बहुत देर से उर्दू सीखी और जल्द ही एक उस्ताद शायर हो गए। ये पुरुषोत्तम 'यकीन' हैं। अब तक इन के पाँच गज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। हो सकता है विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में इन की रचनाएँ आप पढ़ भी चुके हों। यकीन साहब मेरे मित्र भी हैं और छोटे भाई भी। उन के बारे में विस्तार से किसी अगली पोस्ट पर। अभी आप उन की ये गज़ल पढ़िए..........
थोड़ा नजदीक आ अंधेरा है
पुरुषोत्तम 'यकीन'
रोशनी कर ज़रा अंधेरा है
कोई दीपक जला, अंधेरा है

यूँ तो अकेले मारे जाएंगे
हाथ मुझ तक बढ़ा, अंधेरा है

खोल दरवाजे खिड़कियाँ सारी
मन के परदे हटा, अंधेरा है

लम्स* से काम चश्म* का लेकर
पाँव आगे बढ़ा, अंधेरा है

राह सूझे न हम सफर कोई
आज सचमुच बड़ा अंधेरा है

औट कैसी है छुप गया सूरज
दिन है लेकिन घना अंधेरा है

दूर रहना 'यकीन' ठीक नहीं
थोड़ा नजदीक आ, अंधेरा है
*लम्स= स्पर्श
*चश्म= आँख
****************************************************************