शनिवार, 26 सितंबर 2009
बुरे फँसे, वकील साहब!
मंगलवार, 21 जुलाई 2009
वर्जनाएँ अब नहीं -गीत * महेन्द्र 'नेह'
- महेन्द्र 'नेह'
लकीरें हाथ की तय हो गईँ
शनिवार, 20 जून 2009
हम धरती के जाए "गीत" * महेन्द्र नेह
- महेन्द्र नेह
आज तुम्हारी बारी है
*******************
रविवार, 8 मार्च 2009
तुम्हारी जय !
अग्नि धर्मा
ओ धरा गतिमय
तुम्हारी जय !
सृजनरत पल पल
निरत अविराम नर्तन
सृष्टिमय कण-कण
अमित अनुराग वर्षण
विरल सृष्टा
उर्वरा मृणमय
तुम्हारी जय !
कठिन व्रत प्रण-प्रण
नवल नव तर अनुष्ठन
चुम्बकित तृण तृण
प्राकाशित तन विवर्तन
क्रान्ति दृष्टा
चेतना मय लय
तुम्हारी जय !
... महेन्द्र नेह
सोमवार, 23 फ़रवरी 2009
तुम्हारी जय !
तुम्हारी जय!
- महेन्द्र 'नेह'
ओ धरा गतिमय
तुम्हारी जय !
सृजनरत पल पल
निरत अविराम नर्तन
सृष्टिमय कण-कण
अमित अनुराग वर्षण
विरल सृष्टा
उर्वरा मृणमय
तुम्हारी जय !
कठिन व्रत प्रण-प्रण
नवल नव तर अनुष्ठन
चुम्बकित तृण तृण
प्रकाशित तन विवर्तन
क्रान्ति दृष्टा
चेतना मय लय
तुम्हारी जय !
- महेन्द्र नेह
शनिवार, 21 फ़रवरी 2009
सच कहा........
सच कहा
सच कहा
सच कहा
सच कहा
बस्तियाँ बस्तियाँ सच कहा
कारवाँ कारवाँ सच कहा
सच कहा जिंदगी के लिए
सच कहा आदमी के लिए
सच कहा आशिकी के लिए
सच कहा, सच कहा, सच कहा
सच कहा और जहर पिया
सच कहा और सूली चढ़ा
सच कहा और मरना पड़ा
पीढ़ियाँ पीढ़ियाँ सच कहा
सीढ़ियाँ सीढ़ियाँ सच कहा
सच कहा, सच कहा, सच कहा
सच कहा फूल खिलने लगे
सच कहा यार मिलने लगे
सच कहा होठ हिलने लगे
बारिशें बारिशें सच कहा
आँधियाँ आधियाँ सच कहा
सच कहा, सच कहा, सच कहा
-महेन्द्र नेह
सोमवार, 16 फ़रवरी 2009
माटी के बेटों की खामोशी टूटी
'गीत'
"माटी के बेटों की खामोशी टूटी"
- महेन्द्र नेह
बुधवार, 31 दिसंबर 2008
महेन्द्र 'नेह' की कविता के 'कल' के साथ, नए वर्ष की शुभ-कामनाएँ !
कल महेन्द्र 'नेह' आए थे। मैं ने उन से पूछा कुछ है नए साल के लिए तो उन्हों ने एक बहुत ही सुंदर कविता भेज दी है। इस कविता के रसास्वादन के साथ नए वर्ष का स्वागत कीजिए.....
- महेन्द्र 'नेह'
* * * * * * *
शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !
दौड़, भोर से
शुरू हो गई
हॉफ रहीं
बोझिल संध्याऐं !
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !
तंत्र मंत्रों से तिलिस्मों से
बिंधा वातावरण
प्रश्न कर्ता मौन हैं
हर ओर
अंधा अनुकरण
वेगवती है
भ्रम की आँधी
कांप रहीं
अभिशप्त दिशाऐं !
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !
सेठ, साधु, लम्पटों के
एक से परिधान
फर्क करना कठिन है
मिट गई है इस कदर पहचान
नग्न नृत्य
करती सच्चाई
नाच रहीं
अनुरक्त ऋचाऐं
मृग-तृष्णा ही मृग तृष्णाऐं !
शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008
अब और नहीं रहना होगा चुप
अब और नहीं रहना होगा चुप
चिकने तालू पर
खुरदुरी जुबान की रगड़
अब नहीं आती रास
कन्ठ में काँटे सा, यह जो खटकता है
देह को फाड़ कर निकल आने को व्यग्र
अब नहीं है अधिक सह्य
लगता है अब रहा नहीं जा सकेगा
नालियों, गलियों, सड़कों
परकोटो के भीतर-बाहर
सब जगह फूटती दुर्गन्ध, बेहूदी गालियों
और अश्लील माँस-पिन्डों से असम्प्रक्त
अब और नहीं देनी होंगी
कोखों में टँगी हुई पीढ़ी को
जन्म से पहले ही कत्ल कर देने
वाले ष़ड़यंत्र को स्वीकृतियाँ
अब और नहीं देनी होंगी
गीता पर हाथ रखकर
झूठी गवाहियाँ
मसीहाओं को देखते ही
अब और नहीं पीटनी होंगी बेवजह तालियाँ
अब और नहीं खींचने होंगे
बे मतलब 'क्रास'
अब नहीं बनना होगा
किसी भी पर्दो से ढँकी डोली का कहार
अब और नहीं ढोना होगा यह लिजलिजा सलीब
लगातार . . . . . . . . . . लगातार
अब और नहीं रहना होगा चुप
शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008
हो जाती जय सिया राम
कहते हैं जिसका सारथी यानी ड्राइवर अच्छा हो, आधा युद्ध तो वह पहले ही जीत जाता है। लेकिन अपने भाई साब जी की राय इस मामले में बिलकुल भिन्न है। ये डिराइवर नाम का जीव उन्हें बिलकुल पसंद नहीं। चूँकि इस मृत्युलोक में डिराइवर के बिना काम चल ही नहीं सकता, अत: यह उनकी मजबूरी है। दरअसल वे छाछ के जले हुए हैं, अत: दूध को भी फूँक-फूँक कर पीते हैं।
अपनी आधी सदी की जिंदगी में भाई साब जी को डिराइवरों को लेकर कई खट्टे- मीठे अनुभवों से गुजरना पड़ा है। डिराइवरों के बारे में अपने अनुभव सुनाते हुए वे कहते हैं- भर्ती होकर आयेंगे तो मानों साक्षात राम भक्त हनुमान धरती पर उतर आये हों। सारी जिम्मेदारियाँ और मुसीबतें अपने सर ले लेंगे। अरे भाई, तुम्हारा काम है- कार चलाना। स्टीरिंग को ढंग से सम्भालो और कार को झमाझम रखो। बाकी चीजों से तुम्हें क्या लेना देना। मगर नहीं। भाई साब जी जूता पहनने बढ़े तो जूते, मफलर पहनना हो तो मफलर, टोपी तो टोपी। गले से मालाएँ उतारनी हों तो उसमें भी सबसे आगे। कोई जरा जोर से बोले तो बाँहें चढ़ाने लग जायेंगे।
आप अपने भाई-बन्दों से, बाल-बच्चों से, धर्म पत्नी से, यहाँ तक कि पी.ए. से भी बहुत सी चीजें छुपा सकते हैं, मगर डिराइवर से तो कुछ भी छुपाना मुश्किल है। अपनी सीट पर बैठा-बैठा सब कुछ गुटकता रहेगा। अन्दर की, बाहर की, उपर की, नीचे की सारी बातें हजम कर जायेगा। कान और आंखें एकदम ऑडियो-वीडियो की तरह काम करती है। ढोल में कुछ पोल बचती ही नहीं है।
और ढोल की ये पोल, अगर पब्लिक को मालूम पड़ जाये तो समझ लो हो गया बेड़ा गरक। भाई साब जी ने कितने जतन से ये कार-बँगले-खेत-प्लाट-पेट्रोल पम्प-होटल और कारखाने खड़े किये हैं। साथ ही कितनी होशियारी से अपनी जन सेवक की इमेज भी कायम रखी है। यदि इसकी कलई खुल जाय, तो बंटाढार ही समझो। सारा शहर जानता है, भाई साब जी के घर की स्थिति शरणार्थियों से भी गई बीती थी। मगर चौदह साल में तो घूरे के दिन भी फिर जाते हैं। उनके दिन फिर गये तो न जाने क्यों लोग-बाग अन्दर ही अन्दर जलते-सुलगते रहते हैं?
अरे भाई, यदि धन-दौलत आयेगी तो उसका उपभोग भी होगा। जब आज के जमाने के सन्त-महात्मा ही पुराने जमाने के साधु-सन्तों जैसे नहीं रहे तो आखिर वे तो गृहस्थ ठहरे। इस आधुनिक युग में सब कुछ होते हुए भी, कोई माई का लाल चौबीसों घन्टे खद्दर के कपड़े पहन के तो दिखा दे। अरे, उस दिन साध्वी जी के अनुरोध पर उन्होंने स्वीमिंग सूट पहन लिया और उनके साथ स्वीमिंग-पूल के निर्मल जल में दो चार गोते लगा भी लिये तो कौन सा बड़ा भारी अनर्थ हो गया? बड़े मंत्री जी तो नित्य ही बिना नागा बोतल पर बोतल साफ कर देते हैं। उन्होंने उस दिन दो-चार पैग चढ़ा लिये तो कौन सी किसी की भैंस मार दी?
उस सुसरे छदम्मी लाल डिराइवर की हिम्मत तो देखो। पहले तो बिना पूछे स्वीमिंग-पूल के अन्दर घुसा क्यों? और फिर अगर घुस भी गया तो उसे दुधमुँहे बच्चे की तरह अपने दीदों को चौड़ाने की क्या जरूरत थी? पत्रकार जी आये थे हमारा इंटरव्यू लेने के लिए, महाराजाधिराज जी खुद ही उसे इंटरव्यू देने लग गये- ""भाई साब जी ये कर रहे थे, भाई साब जी वो कर रहे थे...'' बच्चू को यह नहीं मालूम कि पत्रकार जी तो रहे हमारे पुराने लंगोटिया और हमारी संस्कारवान पार्टी के खास कार्यकर्ता। हाँ, उनकी जगह उस दिन कोई और होता तो समझ लो उसी दिन हो जाती अपनी जय सिया राम...।
बुधवार, 19 नवंबर 2008
पहली वर्षगाँठ की पूर्व संध्या
यह अनवरत ही था जिसने हिन्दी ब्लागरी के पाठकों के साथ मेरी अंतरंगता को स्थापित किया। 28 अक्टूबर 2007 को तीसरा खंबा का प्रारंभ हुआ था। मन में बात थी कि जिस न्याय-व्यवस्था में एक अधिवक्ता के रुप में 29 साल जिए हैं, उस की तकलीफों को एक स्वर दूं, जो लोगों को जा कर बताए कि जिसे वे बहुत आशा के साथ देखते हैं उस की खुद की तकलीफें क्या हैं? लेकिन एक पखवाड़ा भी न गुजरा था कि एक बात तकलीफ देने लगी कि कानून और न्याय व्यवस्था एक नीरस राग है और इस के माध्यम से शायद मैं अपने पाठकों के साथ तादात्म्य स्थापित नहीं कर सकूँ। इस के लिए मुझे खुद को खोल कर अपने पाठकों के बीच रखना पडे़गा। तभी वे शायद यह समझ पाएँ कि तीसरा खंबा लिखने वाला कोई काला कोट पहने वकील नहीं बल्कि एक उन जैसा ही साधारण मध्यवर्गीय व्यक्ति है जो उन की जिन्दगी को समझ सकता है, उन की तकलीफें एक जैसी हैं। यही कारण अनवरत के पैदा होने का उत्स बना।
20 नवम्बर 2007 को अनवरत जन्मा तो उस का स्वागत हुआ। वह धीरे धीरे पाठकों में घुल मिल गया। जब निक्कर पहनता था, जब मैं काफी कुछ पढ़ने भी गया था तभी कभी यह इच्छा जनमी थी कि मैं लिखूँ और लोग पढ़ें। फिर कुछ कहानियां लिखीं कुछ लघु कथाएँ। उन दिनों शौकिया संवाददाता भी रहा, और कानून पढ़ते हुए दैनिक का संपादन भी किया। लेकिन जैसे ही वकालत में आया। सब कुछ भूल जाना पड़ा। यह व्यवसाय ऐसा था जिस का सब के साथ ताल्लुक था, लेकिन समय नहीं था। रोज कानून पढ़ना, रोज दावे और दरख्वास्तें लिखना रोज बहस करना और नतीजे लाना। एक वक्त था जब साल में दिन 365 थे और निर्णीत मुकदमों की संख्या 400 या उस से अधिक। इस बीच बहुत लोगों को सुना, पढ़ा। लेकिन कोशिश करते हुए भी खुद को अभिव्यक्त करने का अवसर ही नहीं था, सिवाय उन दस महिनों के जब एक दैनिक के लिए साप्ताहिक कॉलम लिखा।
नाम के अनुरूप तीसरा खंबा को न्याय-प्रणाली के इर्द गिर्द ही रखा जाना था। उस से विचलित होना नाम और उस की घोषणा का मखौल हो जाता। अपने को अभिव्यक्त करने का अवसर दिया अनवरत ने। यहाँ जो चाहा वह सब लिखा। कुछ साथियों 'यकीन', 'महेन्द्र', 'शिवराम' और आदरणीय भादानी जी की एकाधिक रचनाओं को भी रखा। लोगों ने उसे सराहा भी, आलोचना भी हुई। पर समालोचना कम हुई। लेखन की निष्पक्ष समालोचना का अभी ब्लागरी में अभाव है। लेकिन ऐसी समालोचना की जरूरत है जो लोगों के लेखन को आगे बढ़ा सके, उन्हें उन के अंतस में दबे पड़े उजास और कालिख को बाहर लाने में मदद करे। उन्हें हर आलेख के साथ एक सीढ़ी ऊपर उठने का अवसर दे।
संकेत रूप में कुन्नू सिंह का उल्लेख करना चाहूंगा। वे नैट के क्षेत्र में जो कुछ नया करते हैं, उसे पूरे उत्साह के साथ सब के सामने रखते हैं, बिलकुल निस्संकोच। उन का दोष यह है कि हिन्दी लिखने में उन से बहुत सी वर्तनी की अशुद्धियाँ होती हैं। हो सकता है लोगों को उन के इस वर्तनी दोष के कारण उन का लेखन कुरूप लगता हो। जैसा कि कुछ दिन पहले किसी ब्लागर साथी ने अपने आलेख में इसका उल्लेख भी किया। लेकिन रूप ही तो सब कुछ नहीं। किसी भी रूप में आत्मा कैसी है यह भी तो देखें। आज जब कुन्नू भाई ने तीसरा खंबा पर टिप्पणी की तो उस में हिज्जे की केवल दो त्रुटियाँ थीं। कुछ दिनों के पहले उन्होंने घोषणा की थी कि वे जल्दी ही हिन्दी लिखना भी सीख लेंगे। कुछ ही दिनों में उन की यह प्रगति अच्छे अच्छे लिक्खाडों से बेहतर है। लोग चाहें तो मेरे इस कथन पर आज हंस सकते हैं, लेकिन मैं कह रहा हूँ कि वे इसी तरह प्रगति करते रहे और नियमित रूप से लिखते रहे तो वे चिट्ठाजगत की रैंकिंग में किसी दिन पहले स्थान पर हो सकते हैं।
शास्त्री जी ने खेमेबंदी का उल्लेख किया। जहाँ बहुत लोग होते हैं उन्हें एक खेमे में तो नहीं रखा जा सकता। हम जब स्काउटिंग के केम्पों में जाते थे तो वहाँ बहुत से तम्बू लगाने पड़ते थे। अलग अलग तम्बुओं में रह रहे लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा तो होती थी, लेकिन प्रतिद्वंदिता नहीं। सब लोग एक दूसरे से सीखते हुए आगे बढ़ते थे। लक्ष्य होता था हर प्रकार के जीवन को बेहतर बनाना। वही हमारा भी लक्ष्य क्यों न हो? हो सकता है लोग अलग अलग राजनीतिक विचारधाराओं से प्रभावित हों। एक को अन्यों से बेहतर मानते हों। लेकिन राजनैतिक विचारों, दर्शनों और जीवन पद्धतियों का भी कुछ लक्ष्य तो होगा ही। यदि वह लक्ष्य मानव जीवन को ही नहीं सभी प्राणियों और वनस्पतियों के जीवन को बेहतर बनाना हो तो राजनैतिक विचारों, दर्शनों और जीवन पद्धतियों के ये भेद एक दिन समाप्त हो ही जाएँगे। अगर यह एक लक्ष्य सामने हो तो सारे रास्ते चाहे वे समानांतर ही क्यों न चल रहे हों एक दिन कहीं न कहीं मिल ही जाएँगे और गणित के नियमों को भी गलत सिद्ध कर देंगे।
शुक्रवार, 7 नवंबर 2008
होमोसेपियन बराक और तकिए पर पैर
डा. अमर कुमार said...अब तकिये पर से पैर हटा भी लो, पंडित जी ! अब कुछ आगे भी लिखो, अपनी मस्त लेखनी से.. ! 6 November, 2008 11:18 AMखैर पैर तो अब बराक हुसैन ओबामा के साथ तकिए पर जम चुके हैं, हटाए न हटेंगे। पाँच बरस की हमारी गारंटी, और अमरीकी वोटरों की जमानती गारंटी है। इस के बाद भी पाँच बरस की संभावना और है, कि जमे ही रहें। पर पैर तकिए पर जम ही जाएँ तो इस का मतलब यह तो नहीं कि बाकी शरीर भी काम करना बंद कर दे। इन्हें तो काम करना होगा और पहले से ज्यादा करना होगा। आखिर पैरों की तकिए पर मौजूदगी को सही साबित भी तो करना है।
पूरब, पश्चिम और दक्षिण में पहुँचे गोरे बहुत बरस तक यह समझते रहे कि वे अविजित हैं, और सदा रहेंगे। अमरीकियों ने यह तो साबित कर दिया कि उन का ख़याल गलत था। देरी हुई, मगर इस देरी में उन की खाम-ख़याली की भूमिका कम और काले और पद्दलितों की इस सोच की कि गोरे लोग बने ही राज करने को हैं, अधिक थी। अब सब को समझ लेना चाहिए कि ये जो होमोसेपियन, है वह किसी भेद को बर्दाश्त नहीं करेगा, एक दिन सब को बराबर कर छोड़ेगा।
अमरीका तो अमरीका, दुनिया भर के लोग ओबामा की जीत से खुश हैं। लेकिन यह खुशी वैसी ही सुहानी है, जैसे दूर के डोल। सारी दुनिया में जो लोग होमोसेपियन्स में किसी भी तरह का भेद करते हैं। उन्हें होशियार हो जाना चाहिए कि एक दिन उन के खुद के यहाँ कोई होमोसेपियन बराक हो जाएगा और अपने पैर तकिए पर जमा देगा।
याद आ रही है महेन्द्र 'नेह' की यह कविता .....
बुधवार, 6 अगस्त 2008
महेन्द्र 'नेह' का गीत .... मारे गए बबुआ
मित्र महेन्द्र 'नेह' श्रेष्ठ कवि-गीतकार तो हैं ही, पेशे से क्षति-निर्धारक, बोले तो 'सर्वेयर'। बीमा कंपनियों के लिए क्षतियों का निर्धारण करते हैं। बरसों तक मोटर दुर्घटनाओँ की क्षतियाँ आँकीं हैं। जब सड़क पर यातायात अधिक हो जाता है, तो सड़क को चौड़ा किया जाता है। यकायक सड़क पर वाहनों की रफ्तार बढ़ जाती है। इस घटना को उन्हों ने देश में आयातित वाहनों की बाढ़ के साथ गीत में बांधा। गीत प्रस्तुत है.......
- महेन्द्र 'नेह'
सड़क हुई चौड़ी
मारे गए बबुआ।
मारे गए बबुआ हो
मारे गए रमुआ......
लोहे के हाथी और लोहे के घोड़े
बेलगाम हो कर के सड़कों पे दौड़े
मची है होड़ा होडी़
मारे गए बबुआ।
नई-नई घोड़ी विलायत से आई
नए-नए रंगों की महफिल सजाई
बिदक गई घोड़ी
मारे गए बबुआ।
चंदा औ सूरज सी जोड़ी रुपहली
ज़ालिम जमाने के पहियों ने कुचली
बिगड़ गई जोड़ी
मारे गए बबुआ।
शुक्रवार, 27 जून 2008
महेन्द्र नेह के दो 'कवित्त'
(1)
धर्म पाखण्ड बन्यो........
ज्ञान को उजास नाहिं, चेतना प्रकास नाहिं
धर्म पाखण्ड बन्यो, देह हरि भजन है।
खेतन को पानी नाहिं, बैलन को सानी नाहिं
हाथन को मजूरी नाहिं, झूठौ आस्वासन है।
यार नाहिं, प्यार नाहिं, सार और संभार नाहिं
लूटमार-बटमारी-कतल कौ चलन है।
पूंजीपति-नेता इन दोउन की मौज यहाँ
बाकी सब जनता को मरन ही मरन है।।
(2)
पूंजी को हल्ला है.......
बुझवै ते पैले ज्यों भभकै लौ दिवरा की
वैसे ही दुनियाँ में पूंजी को हल्ला है।
पूंजी के न्यायालय, पूंजी कौ लोक-तंत्र
पूंजी के साधु-संत फिरत निठल्ला हैं।
पूंजी के मनमोहन, पूंजी के लालकृष्ण
पूंजी के लालू, मुलायम, अटल्ला हैं।
पूंजी की माया है, पूंजी के पासवान
हरकिशन पूंजी के दल्लन के दल्ला हैं।।
*** *** ***
रविवार, 1 जून 2008
प्रजातंत्र के भविष्य पर संदेह
कल महेन्द्र नेह की कविता "प्रजातंत्र की जय हो!" पर अच्छी टिप्पणियाँ हुईं। टिप्पणीकारों ने जहाँ नेपाल में प्रजातंत्र के आगमन पर प्रसन्नता व्यक्त की वहीं इस प्रजातंत्र के प्रसव में मुख्य भूमिका निभाने वाले नेतृत्व पर संदेह व्यक्त किया गया कि कहीं वह प्रजातंत्र को अधिनायकवाद में परिवर्तित न कर दे। महेन्द्र 'नेह' किसी काम से आए थे और उन्हों ने टिप्पणियाँ पढ़ने पर अपनी प्रति टिप्पणी भी अंकित की। उन की टिप्पणी यहाँ पुनः उदृत कर रहा हूँ......
यद्यपि सृजन के उपरांत कोई भी कृति उस के सर्जक से स्वतंत्र हो कर जनता की थाती बन जाती है। फिर भी मुझे लगा कि विनम्रता पूर्वक आप की टिप्पणियों पर अपना अभिमत व्यक्त करूँ।
वर्तमान समय की त्रासदी है कि दुनियाँ के कथित बड़े जनतंत्र फौज, पुलिस और हथियारों की भाषा में जनगण से बात करते हैं। वहाँ केवल 'तंत्र' कायम है, और जन हाशिए पर भी नहीं। इन तंत्रों ने नेपाली राजशाही की हर संभव मदद की, और गणतंत्र को आने से रोकते रहे। प्रचंड एक जनप्रिय दल के विवेकवान सारथी हैं। नवजात गणतंत्र के एक भी कदम आगे बढ़ाए बिना ही पूर्वाग्रह रखते हुए संदेह करना क्या पदच्युत राजशाही की अपरोक्ष मदद नहीं है? जनतंत्र प्रचंड व उन के जनता द्वारा परखे हुए नेतृत्व के हाथों में ही सुरक्षित रह सकता है। विश्वपटल पर उदित हो रही नयी जनतांत्रिक शक्तियों के प्रति हमें आशावान रहते हुए प्रफुल्लता से उन का हार्दिक स्वागत करना चाहिए।
.........' महेन्द्र नेह'
कृति सृजनोपरांत कृतिकार से स्वतंत्र हो जाती है, और कृतिकार तब क्या कर सकता है? इस सम्बन्ध में मुझे एक घटना का संदर्भ स्मरण आ रहा है। आप के सामने प्रस्तुत करने का लालच नहीं छोड़ पा रहा हूँ।
पिता का हृदयाघात से देहान्त हो गया। बारह दिनों तक घर में पिता के साथियों, मित्रों, सहकर्मियों, रिश्तेदारों, पड़ौसियों,मिलने वालों का आना लगा रहा। पहले पाँच-छह दिनों में ही पता लग गया कि बड़ी पुत्री का पड़ौसी के लड़के से विशेष अनुराग है। पुत्री पर मां और परिजनों ने शिकंजा कसा तो पुत्री ने जिद पकड़ ली कि वह उस लड़के से ही विवाह करेगी। लड़का विजातीय था, लड़की से शैक्षणिक योग्यता में कम और एक कारखाने में मजदूर। माँ और भाई इस विवाह के लिए बिलकुल तैयार नहीं। लगने लगा कि लड़की किसी दिन भाग कर शादी कर लेगी।
पिता थे सामाजिक संगठन के बहुत कुछ। संगठन के साथियों ने परिस्थिति पर विचार किया। बैठक हुई और तय हुआ कि दिवंगत साथी की पुत्री भाग कर विवाह करे यह ठीक नहीं। इस कारण पहले उस की माँ व भाई को तैयार किया जाए, और यह संभव न हो तो संगठन के प्रमुख साथी इस जिम्मेदारी को निभाएँ। साथियों ने लड़के को सब तरह से परखा कि कहीं वह केवल लड़की को फँसा तो नहीं रहा था। लड़के-लड़की दोनों इस परीक्षा में खरे उतरे।
लड़की की माँ-भाई से बात की उन्हें बहुत समझाया गया। बात के दौरान माँ ने संदेह व्यक्त किया कि अगर बाद में उस लड़के ने उन की बेटी को परेशान किया तो आप क्या कर लेंगे? जिन साथी के घर से विवाह होना था, उन का उत्तर था कि अगर लड़के ने परेशान किया, या उस से उन की बेटी का कोई वास्तविक विवाद पति से हुआ तो वे और उन के साथी बेटी का जम कर साथ देंगे। हर तरह के प्रयत्न के उपरांत भी माँ व भाई किसी प्रकार भी तैयार न हुए। प्रमुख साथी के घर से विवाह होना तय हो गया। साथी के घर ही बारात आई, विवाह हुआ। नगर में चर्चा का विषय भी रहा। साथी और उन की पत्नी ने माता-पिता के फर्ज पूरे किए और बाद में भी करते रहे
माँ और भाई विवाह में नहीं आए। विवाह सफल रहा और आज माँ और भाई से लड़की और उस के पति के गहरे आत्मीय संबंध हैं। विवाह कराने वाले पिता के साथियों से भी अधिक गहरे। मां के सन्देह निरापद सिद्ध हुए।
यहाँ यह भी हो सकता था कि लड़की और उस के पति में विवाद हो जाता। लड़की परेशानी में आ जाती। ऐसे में वे साथी लड़की का साथ देते।
इस घटना से हम समझ सकते हैं कि एक परिस्थिति में लड़की का उस की इच्छानुसार विवाह कराना एक प्रगतिशील कदम था।
विवाह होने के बाद वह उस के कराने वालों से स्वतंत्र हो गया था। बाद में वे केवल उचित का साथ दे सकते थे। विवाह के पूर्व विवाह की सफलता पर संदेह करना पूरी तरह गलत था।
यहाँ महेन्द्र 'नेह' ने नेपाल में प्रजातंत्र के आगमन का उत्साह के साथ स्वागत किया है। वे उस की सफलता के प्रति आशावान हैं। उस की सफलता में किसी प्रकार का संदेह उन के मन में नहीं है। उन का यह कहना कि प्रजातंत्र की सफलता पर इस समय संदेह करना उस के शत्रुओं की सहायता करना है। मैं भी उन से सहमत हूँ।
हमारी राय है कि अगर भविष्य में प्रचंड और उन का दल जनता के हितों के विरुद्ध जाता है तो हम सभी को उस समय परिस्थितियों का मूल्यांकन करने और अपना पक्ष चुनने का पूरा अधिकार रहेगा।
और अन्त में कल के आलेख पर मिली सब से सुंदर, सटीक और संतुलित टिप्पणी रक्षन्दा जी की ......
शनिवार, 31 मई 2008
प्रजातंत्र की जय हो!
प्रजातंत्र की जय हो!
* महेन्द्र 'नेह' *
उछली सौ-सौ हाथ मछलियाँ ताल की।
चौड़े में उड़ गईं धज्जियाँ जाल की।
गूँज उठी समवेत दहाड़ कहारों की।
नहीं ढोइंगे राजा 'जू' की पालकी।
आजादी के परचम फहरे शिखरों तक।
खुशबू फैली गहरे लाल गुलाल की।
उमड़ पड़े खलिहान, खेत, बस्तियाँ गाँव।
कुर्बानी दे पावन धरा निहाल की।
टूट गया आतंक फौज बन्दूकों का।
शेष कथा है विक्रम औ बैताल की।
सामराज के चाकर समझ नहीं पाए।
बदली जब रफ्तार समय की चाल की।
प्रजातंत्र की जय हो, जय हो जनता की।
जय हो जन गण उन्नायक नेपाल की।
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रविवार, 11 मई 2008
माँ
मातृ दिवस पर प्रस्तुत है कवि महेन्द्र 'नेह' की कविता "माँ"
माँ
*महेन्द्र नेह*
जब भी मैं सोचता हूँ कि
कैसे घूमती होगी पृथ्वी
अहर्निश अपनी धुरी पर, और
सूर्य के भी चारों ओर
परिक्रमा करती हुई
मेरी चेतना में तुम होती हो माँ।
सबह सुबह जब उषा
अंधेरे को बुहारी लगाती हुई
जगाती है सोते हुए प्राणियों को
दोपहर की तपन को चुनौती देती हुई
कोई बच्ची दौड़ रही होती है
सड़क पर नंगे पाँव
या फिर शाम के धुंधलके में
कोई नारी आकृति
अपने सिर पर लकड़ियों का गट्ठर लिए
उतर रही होती है जंगल की पहाड़ी से
मुझे तुम याद आती हो माँ।
यकीन ही नहीं होता कि
अभावों से जूझते हुए एक छोटे से कमरे में
किस तरह पले बढ़े
अपना वर्तमान और भविष्य संवारने
आते रहे ना जाने कितने छोर
तुम्हारी निश्छल किन्तु दृढ़ आस्थाओं की
छाँह में पनपे न जाने कितने बिरवे
और बने छतनार वृक्ष।
याचना के लिए कभी नहीं फैले
तुम्हारे हाथ और
नहीं झुका माथा कभी
कथित सामर्थ्यवानों के आगे।
फिर भी तुम्हारी रसोई
बनी रही द्रोपदी की हाँडी।
तुम थीं
प्रकृति का कोई वरदान
या फिर स्वयं थीं प्रकृति
अपनी ही धुरी पर घूमती
सूर्य का परिभ्रमण करती
तुम थीं, मेरी माँ।
***************************
अच्छी खबर यह है कि महेन्द्र 'नेह' का पैर प्लास्टर से बाहर आए महीना हो चुका है, और वे अब अपने दुपहिया से शहर में आने जाने लगे हैं। हाँ चलने में अभी तकलीफ है। लेकिन फीजियो से व्यायाम करवा रहे हैं। यह कसर भी शीघ्र ही दूर होगी।
रविवार, 9 मार्च 2008
“विश्व सुंदरी”
कल आलेख पोस्ट होने के तुरन्त बाद ही एक और कविता महेन्द्र नेह से प्राप्त हुई। मुझे लगा कि वे इसे कल अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर आप तक पहुँचाना चाहते थे। तब तक ब्लॉगर पर कुछ अवरोध आ गया। मैं ने उन्हें नहीं बताया। लेकिन आज इस कविता “विश्व सुंदरी” को आप के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ.............
“विश्व सुंदरी”
चलते चलते
राह में ठिठक गई
इस एक अदद औरत को क्या चाहिए?
इस के पावों को चाहिए
दो गतिमान पहिए
ले जाएँ इसे जो
धरती के ओर-छोर
इसे चाहिए
एक ऐसा अग्निकुण्ड
जिस में नहा कर
पिघल जाए
इस की पोर-पोर में जमी बर्फ
दुनियाँ के शातिर दिमाग
लगा रहे हैं हिसाब
कितने प्रतिशत आजादी
चाहिए इसे?
गुलामी से कितने प्रतिशत चाहिए निजात?
ये, कहीं बहने ना लग जाए
नदी की रफ्तार
कहीं उतर न आए सड़क पर
लिए दुधारी तलवार..........
इस से पहले कि
बाँच सके यह
किताब के बीच
फड़फड़ाते काले अधर
सजा दिए जाएँ
इस के जूड़े में रंगीन गजरे
गायब कर दी जाए
इस की असल पहचान
स्वयं के ही हाथों
उतरवा लिए जाएँ
बदन पर बचे खुचे परिधान
गहरे नीले अंधेरे के बीच
अलंकृत कर दिया जाए
इस के मस्तक पर
“विश्व सुंदरी” का खिताब
इस से पहले
कि हो सके यह
सचमुच आजाद.............
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शनिवार, 8 मार्च 2008
महिलाओं पर महेन्द्र “नेह” की कविता और गीत
महेन्द्र “नेह” से आप परिचित हैं। उन के गीत “हम सब नीग्रो हैं” और "धूप की पोथी" के माध्यम से करीब दस दिनों से वे घुटने के जोड़ की टोपी (knee joint cap) के फ्रेक्चर के कारण पूरे पैर पर बंधे प्लास्टर से घर पर कैद की सजा भुगत रहे हैं। आज शाम उन से मिलने गया तो अनायास ही पूछ बैठा महिलाओं पर कविता है कोई? फिर फोल्डरों में कविताऐं तलाशी गईं। सात गीत-कविताऐं उन के यहाँ से बरामद कर लाया। एक उन के पसन्द की कविता और एक मेरी पसंद का गीत आप के लिए प्रस्तुत हैं-
महेन्द्र “नेह” की पसंद की कविता.........
आओ, आओ नदी - महेन्द्र “नेह”
अनवरत चलते चलते
ठहर झाती है जैसे कोई नदी
इस मक़ाम पर आकर ठहर गई है
इस दुनियाँ की सिरजनहार
इसे रचाने-बसाने वाली
यह औरत।
इतिहास के इस नए मोड़ पर
तमन्ना है उसकी कि लग जाऐं
तेज रफ्तार पहिए उस के पाँवों में
ले जाएं उसे धरती के ओर-छोर।
चाहत है उसकी उग आएं उसके हाथों में
पंख, और वह ले सके थाह
आसमान के काले धूसर डरावने छिद्रों की।
इच्छा है उसकी, जन्मे उसकी चेतना में
एक सूरज, पिघला दे जो
उसकी पोर-पोर में जमी बर्फ।
सपना है उसका कि
समन्दर में आत्मसात होने से पहले
वह बादल बन उमड़े-घुमड़े बरसे
और बिजली बन रचाए महा-रास
लिखे उमंगों का एक नया इतिहास
ब्रह्माण्ड के फलक पर।
इधर धरती है, जो सुन कर उस के कदमों की आहट
बिछाए बैठी है, नए ताजे फूलों की महकती चादर
आसमान है जो उस की अगवानी में बैठा है,
पलक पांवड़े बिछाए
और समन्दर है जो
उद्वेलित है, पूरे आवेग में गरजता-तरजता
आओ-आओ नदी
तुम्हीं से बना, तुम्हारा ही विस्तार हूँ मैं
तुम्हारा ही परिवर्तित सौन्दर्य
तुम्हारे ही हृदय का हाहाकार...........
मेरी पसंद का गीत................
नाचना बन्द करो - महेन्द्र “नेह”
तुम ने ही हम को बहलाया
तुम ने ही हम को फुसलाया,
तुम ने ही हम को गली-गली
चकलों-कोठों पर नचवाया।
अब आज अचानक कहते हो
मत थिरको अपने पावों पर,
अपनी किस्मत की पोथी को
अब स्वयं बाँचना बन्द करो।
मत हिलो नाचना बन्द करो।।
तुम ने ही हम को दी हाला
तुम ने ही हमें दिया प्याला,
तुम ने औरत का हक छीना
हम को अप्सरा बना ड़ाला।
अब आज अचानक कहते हो
मत गाओ गीत जिन्दगी के,
मुस्कान अधर पर, हाथों में
अब हिना रचाना बन्द करो।
चुप रहो नाचना बन्द करो।।
तुम ने ही हम को वरण किया
तुम ने ही सीता हरण किया,
तुम ने ही अपमानित कर के
यह भटकन का निष्क्रमण किया।
अब आज अचानक कहते हो
मत निकलो घर से सड़कों पर,
अपनी साँसों की धड़कन को
बेचना-बाँटना बन्द करो।
मत जियो, नाचना बन्द करो।।
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अब आप बताएं, किस की पसन्द कैसी है?