कल महेन्द्र नेह की कविता "प्रजातंत्र की जय हो!" पर अच्छी टिप्पणियाँ हुईं। टिप्पणीकारों ने जहाँ नेपाल में प्रजातंत्र के आगमन पर प्रसन्नता व्यक्त की वहीं इस प्रजातंत्र के प्रसव में मुख्य भूमिका निभाने वाले नेतृत्व पर संदेह व्यक्त किया गया कि कहीं वह प्रजातंत्र को अधिनायकवाद में परिवर्तित न कर दे। महेन्द्र 'नेह' किसी काम से आए थे और उन्हों ने टिप्पणियाँ पढ़ने पर अपनी प्रति टिप्पणी भी अंकित की। उन की टिप्पणी यहाँ पुनः उदृत कर रहा हूँ......
यद्यपि सृजन के उपरांत कोई भी कृति उस के सर्जक से स्वतंत्र हो कर जनता की थाती बन जाती है। फिर भी मुझे लगा कि विनम्रता पूर्वक आप की टिप्पणियों पर अपना अभिमत व्यक्त करूँ।
वर्तमान समय की त्रासदी है कि दुनियाँ के कथित बड़े जनतंत्र फौज, पुलिस और हथियारों की भाषा में जनगण से बात करते हैं। वहाँ केवल 'तंत्र' कायम है, और जन हाशिए पर भी नहीं। इन तंत्रों ने नेपाली राजशाही की हर संभव मदद की, और गणतंत्र को आने से रोकते रहे। प्रचंड एक जनप्रिय दल के विवेकवान सारथी हैं। नवजात गणतंत्र के एक भी कदम आगे बढ़ाए बिना ही पूर्वाग्रह रखते हुए संदेह करना क्या पदच्युत राजशाही की अपरोक्ष मदद नहीं है? जनतंत्र प्रचंड व उन के जनता द्वारा परखे हुए नेतृत्व के हाथों में ही सुरक्षित रह सकता है। विश्वपटल पर उदित हो रही नयी जनतांत्रिक शक्तियों के प्रति हमें आशावान रहते हुए प्रफुल्लता से उन का हार्दिक स्वागत करना चाहिए।
.........' महेन्द्र नेह'
कृति सृजनोपरांत कृतिकार से स्वतंत्र हो जाती है, और कृतिकार तब क्या कर सकता है? इस सम्बन्ध में मुझे एक घटना का संदर्भ स्मरण आ रहा है। आप के सामने प्रस्तुत करने का लालच नहीं छोड़ पा रहा हूँ।
पिता का हृदयाघात से देहान्त हो गया। बारह दिनों तक घर में पिता के साथियों, मित्रों, सहकर्मियों, रिश्तेदारों, पड़ौसियों,मिलने वालों का आना लगा रहा। पहले पाँच-छह दिनों में ही पता लग गया कि बड़ी पुत्री का पड़ौसी के लड़के से विशेष अनुराग है। पुत्री पर मां और परिजनों ने शिकंजा कसा तो पुत्री ने जिद पकड़ ली कि वह उस लड़के से ही विवाह करेगी। लड़का विजातीय था, लड़की से शैक्षणिक योग्यता में कम और एक कारखाने में मजदूर। माँ और भाई इस विवाह के लिए बिलकुल तैयार नहीं। लगने लगा कि लड़की किसी दिन भाग कर शादी कर लेगी।
पिता थे सामाजिक संगठन के बहुत कुछ। संगठन के साथियों ने परिस्थिति पर विचार किया। बैठक हुई और तय हुआ कि दिवंगत साथी की पुत्री भाग कर विवाह करे यह ठीक नहीं। इस कारण पहले उस की माँ व भाई को तैयार किया जाए, और यह संभव न हो तो संगठन के प्रमुख साथी इस जिम्मेदारी को निभाएँ। साथियों ने लड़के को सब तरह से परखा कि कहीं वह केवल लड़की को फँसा तो नहीं रहा था। लड़के-लड़की दोनों इस परीक्षा में खरे उतरे।
लड़की की माँ-भाई से बात की उन्हें बहुत समझाया गया। बात के दौरान माँ ने संदेह व्यक्त किया कि अगर बाद में उस लड़के ने उन की बेटी को परेशान किया तो आप क्या कर लेंगे? जिन साथी के घर से विवाह होना था, उन का उत्तर था कि अगर लड़के ने परेशान किया, या उस से उन की बेटी का कोई वास्तविक विवाद पति से हुआ तो वे और उन के साथी बेटी का जम कर साथ देंगे। हर तरह के प्रयत्न के उपरांत भी माँ व भाई किसी प्रकार भी तैयार न हुए। प्रमुख साथी के घर से विवाह होना तय हो गया। साथी के घर ही बारात आई, विवाह हुआ। नगर में चर्चा का विषय भी रहा। साथी और उन की पत्नी ने माता-पिता के फर्ज पूरे किए और बाद में भी करते रहे
माँ और भाई विवाह में नहीं आए। विवाह सफल रहा और आज माँ और भाई से लड़की और उस के पति के गहरे आत्मीय संबंध हैं। विवाह कराने वाले पिता के साथियों से भी अधिक गहरे। मां के सन्देह निरापद सिद्ध हुए।
यहाँ यह भी हो सकता था कि लड़की और उस के पति में विवाद हो जाता। लड़की परेशानी में आ जाती। ऐसे में वे साथी लड़की का साथ देते।
इस घटना से हम समझ सकते हैं कि एक परिस्थिति में लड़की का उस की इच्छानुसार विवाह कराना एक प्रगतिशील कदम था।
विवाह होने के बाद वह उस के कराने वालों से स्वतंत्र हो गया था। बाद में वे केवल उचित का साथ दे सकते थे। विवाह के पूर्व विवाह की सफलता पर संदेह करना पूरी तरह गलत था।
यहाँ महेन्द्र 'नेह' ने नेपाल में प्रजातंत्र के आगमन का उत्साह के साथ स्वागत किया है। वे उस की सफलता के प्रति आशावान हैं। उस की सफलता में किसी प्रकार का संदेह उन के मन में नहीं है। उन का यह कहना कि प्रजातंत्र की सफलता पर इस समय संदेह करना उस के शत्रुओं की सहायता करना है। मैं भी उन से सहमत हूँ।
हमारी राय है कि अगर भविष्य में प्रचंड और उन का दल जनता के हितों के विरुद्ध जाता है तो हम सभी को उस समय परिस्थितियों का मूल्यांकन करने और अपना पक्ष चुनने का पूरा अधिकार रहेगा।
और अन्त में कल के आलेख पर मिली सब से सुंदर, सटीक और संतुलित टिप्पणी रक्षन्दा जी की ......
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