सूर्योदय के साथ ही श्रावण मास की पूर्णमासी का दिन आरंभ हो लेगा। यही वह माह है जिस में भारत के लगभग सभी प्रांतों में मानसून की वर्षा का जोर रहता है। इस मास में धरा जल से परिपूर्ण हो जाती है। सारे जलाशयों से जल छलक कर बहने लगता है, नदियाँ वेगवती हो जाती हैं, झरने पूरे यौवन पर होते हैं, संपूर्ण वन प्रान्तर हरियाली से ढक जाता है। यह मास भारतवर्ष के लोगों के मन इतनी प्रसन्नताओं से भर देता है कि वे भी जल से परिपूर्ण तालाबों की तरह छलकने लगते हैं। श्रावण मास के अंतिम दिन भारत रक्षा बंधन मना रहा होता है। बहनें अपने अपने भाइयों को रक्षासूत्र बांधने के लिए चल पड़ती हैं। वहीं गुरू-शिष्य एक दूसरे को रक्षासूत्र बांध कर परस्पर एक दूसरे की रक्षा का भार अपने ऊपर लेते हैं। पुरोहित अपने यजमानों को रक्षासूत्र बांधते हैं। मित्र आपस में रक्षा सूत्र बांधते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि इस त्यौहार की कोई सीमा नहीं है।
भारतीय जीवन पद्धति (कुछ लोग इसे हिन्दू जीवन पद्धति कहना चाहेंगे, लेकिन यह शब्द भारतवासियों के लिए परदेसियों ने ईजाद किया था, इसलिए, मैं भारतीय कहना अधिक उचित समझता हूँ) में बहुत सी ऐसी चीजें हैं जिन का वस्तुतः धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है, लेकिन हर धर्मावलम्बी अपनी आदत के अनुसार अपनी हर चीज को धर्म से जोड़ कर देखना चाहता है और इसी प्रवृत्ति के चलते बहुत सी चीजों को धर्म से जोड़ देता है। इसी संकीर्णता के चलते वे चीजों की सीमाएँ बन जाती हैं। ऐसा ही कुछ रक्षाबंधन के साथ भी हुआ है। मनुष्य जाति का यह अनुपम त्यौहार हिन्दुओँ का घोषित किया जा कर उस की सीमाएँ बांध दी गई हैं। और उन्हें सीमित कर देता है।
हम अपने मिथक और इतिहास में जाएँ तो रक्षाबंधन के बारे में हमें बहुत कथाएँ मिलती हैं। सब से प्राचीन कथा भविष्य पुराण में मिलती है जिस के अनुसार देवासुर संग्राम में जब असुरों का पक्ष भारी पड़ने लगा तो इंद्र बृहस्पति के पास गए। वहाँ बैठी इंद्र की पत्नी ने एक धागा इंद्र की कलाई पर बांधा। उस धागे ने इंद्र और देवों में वह आत्मविश्वास उत्पन्न किया कि वे असुरों पर विजय प्राप्त कर सके। इस कथा में एक पत्नी द्वारा अपने पति को रक्षा सूत्र बांधने का विवरण मिलता है। दूसरा विवरण अधिकांश पुराणों में वामनावतार के रूप में मिलता है जिस में बलि से तीन पग भूमि दान में प्राप्त कर वामन रूपी विष्णु तीनों लोक नाप डालते हैं और बलि को रसातल में भेज देते हैं। लेकिन बलि विष्णु से सदैव अपने सामने रहने का वचन ले लेता है। विष्णु जब देवलोक वापस नहीं लौटते तो विष्णु पत्नी लक्ष्मी बलि को रक्षा सूत्र बांधती है और बदले में विष्णु को मुक्त करवा कर वापस देवलोक ले आती है। इन दोनों ही कथा प्रसंगों का किसी विशिष्ठ धर्म से कोई संबंध नहीं है। अपितु दोनों ही प्रसंगों में रक्षा सूत्र बांधा जाना मनुष्यों के बीच एक दूसरे की रक्षा करने के संकल्प के रूप में सामने आता है।
आगे हम इतिहास में पाते हैं कि संकल्प के इस मानवीय रिश्ते को बहुत लोगों ने निभाया। राजपूत जब युद्ध में जाते थे तो महिलाएँ उन के माथे पर तिलक कर के हाथ में रक्षा सूत्र बांधती थीं जो उन्हें याद दिलाता था कि वे युद्ध भूमि से पीछे छूट गई स्त्री, बालक, वृद्धों की रक्षा के लिए युद्ध के मैदान में हैं। यह भाव ही राजपूत योद्धाओं में अद्भुत वीरता उत्पन्न कर देता था। बहादुरशाह द्वारा आक्रमण कर देने पर अपनी रक्षा करने में असमर्थ मेवाड़ की रानी कर्मावती ने रक्षा के लिए मुगल बादशाह हुमायूँ को रक्षासूत्र भेजा। इस रक्षा सूत्र का मान रखने के लिए हुमायूँ ने आ कर बहादुरशाह के साथ युद्ध कर के मेवाड़ की रक्षा की। सिकंदर महान की पत्नी ने राजा पुरुवास को रक्षा सूत्र बांध कर अपना भाई बनाया और युद्ध में अपने पति की जीवन रक्षा की मांग की। पुरुवास ने अवसर आने पर सिकंदर की जान बख्श दी। लेकिन बाद में युद्ध बंदी बना लिए जाने पर जब सिकंदर ने पुरुवास से पूछा कि उस के साथ अब कैसा व्यवहार किया जाए तो पुरुवास ने कहा कि वैसा ही जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है। सिकन्दर ने पुरुवास के साथ वैसा ही व्यवहार किया। इसी तरह महाभारत युद्ध के पूर्व कृष्ण द्वारा पाण्डवों को रक्षाबंधन का पर्व मनाने की सलाह देना, कृष्ण की उंगली घायल होने पर द्रोपदी द्वारा उन्हें अपनी ओढ़नी फाड़ कर उस से घाव को बांधना, बदले में कृष्ण द्वारा द्रोपदी की लज्जा बचाने के प्रसंग भी हैं। इन में से कोई भी प्रसंग किसी धार्मिक परंपरा को नहीं दर्शाता अपितु मानवीय संबंधों में संकल्प के महत्व को प्रदर्शित करता है। इसलिए हमें इस त्यौहार को धर्म की परिधि से बाहर निकाल कर परस्पर रक्षा-संकल्प के त्यौहार के रूप में ही मनाना चाहिए।
आज समीक्षा ब्लाग पर अनामिका जी ने यह प्रश्न उठाया था कि क्या ये त्यौहार केवल हिन्दू भाई बहन के लिए ही है? मेरा उन्हें उत्तर यह है कि यह संपूर्ण मानव जाति का त्यौहार है। हर कोई इस त्यौहार को मना सकता है, बशर्ते कि इसे मनाने वाले परस्पर रक्षा के संकल्प को आजीवन निभाने को तैयार हों। इस त्यौहार में कोई धार्मिक कर्मकांड भी नहीं है। बस एक धागा ही तो संकल्प के बतौर अपने प्रिय की कलाई पर बांधना है। इस संकल्प को यादगार बनाने के लिए कुछ करना चाहता है तो जो भी इसे मनाए अपनी रीति से यादगार बना सकता है। मेरी तो इच्छा है कि इस त्यौहार को विश्वव्यापी हो जाना चाहिए।
14 टिप्पणियां:
कुछ अलग पढ़ा। लेकिन इसके लिए दिन निश्चित तो हिन्दू ही करते हैं अब, पंचांग के अनुसार। वैसे आपने एकता की बात कही है, शायद इसे लोग समझें…
चंदन जी,
एक दिन तो निश्चित करना ही होगा। फिर जिस परिवार में इस दिन किसी की मृत्यु के कारण खोट हो जाती है वहाँ कोई दूसरा दिन इस त्यौहार के लिए नियत कर लिया जाता है। हिन्दू शब्द का भी आविर्भाव राष्ट्रीयता के संदर्भ में ही हुआ था। बाद में यह धर्म के आधार पर संकीर्ण हो चला। आज भी हज करने जाने वाले भारतीय और पाकिस्तानी मुसलमानों को अरब में हिन्दी मुसलमान ही कहा जाता है।
रक्षाबंधन के पुनीत पर्व पर बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं...
रक्षाबंधन के पुराणेतिहास पर रोचक जानकारी !
एक सुरक्षित समाज का निर्माण ही हम सब भाईयों की ज़िम्मेदारी है
सबसे पहले तो आपको मुबारकबाद कि आपने इतना अच्छा लेख लिखा है जिसमें पुराण और इतिहास से लेकर वर्तमान की अच्छी बुरी सभी बातें आपने एक साथ खोज कर रख दी हैं।
इसके बाद अनामिका जी के सवाल का ज़िक्र भी आपने यहां किया है और इस संबंध में एक जवाब तो हम उनके ब्लॉग पर ही दे चुके हैं और दूसरा यहां पेश है :-
हम यह कहना चाहेंगे कि भारत त्यौहारों का देश है और हरेक त्यौहार की बुनियाद में आपसी प्यार, सद्भावना और सामाजिक सहयोग की भावना ज़रूर मिलेगी। बाद में लोग अपने पैसे का प्रदर्शन शुरू कर देते हैं तो त्यौहार की असल तालीम और उसका असल जज़्बा दब जाता है और आडंबर प्रधान हो जाता है। इसके बावजूद भी ज्ञानियों की नज़र से हक़ीक़त कभी पोशीदा नहीं हो सकती।
ब्लॉगिंग के माध्यम से हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि मनोरंजन के साथ साथ हक़ीक़त आम लोगों के सामने भी आती रहे ताकि हरेक समुदाय के अच्छे लोग एक साथ और एक राय हो जाएं उन बातों पर जो सभी के दरम्यान साझा हैं।
इसी के बल पर हम एक बेहतर समाज बना सकते हैं और इसके लिए हमें किसी से कोई भी युद्ध नहीं करना है। आज भारत हो या विश्व, उसकी बेहतरी किसी युद्ध में नहीं है बल्कि बौद्धिक रूप से जागरूक होने में है।
हमारी शांति, हमारा विकास और हमारी सुरक्षा आपस में एक दूसरे पर शक करने में नहीं है बल्कि एक दूसरे पर विश्वास करने में है।
राखी का त्यौहार भाई के प्रति बहन के इसी विश्वास को दर्शाता है।
भाई को भी अपनी बहन पर विश्वास होता है कि वह भी अपने भाई के विश्वास को भंग करने वाला कोई काम नहीं करेगी।
यह विश्वास ही हमारी पूंजी है।
यही विश्वास इंसान को इंसान से और इंसान को ख़ुदा से, ईश्वर से जोड़ता है।
जो तोड़ता है वह शैतान है। यही उसकी पहचान है। त्यौहारों के रूप को विकृत करना भी इसी का काम है। शैतान दिमाग़ लोग त्यौहारों को आडंबर में इसीलिए बदल देते हैं ताकि सभी लोग आपस में ढंग से जुड़ न पाएं क्योंकि जिस दिन ऐसा हो जाएगा, उसी दिन ज़मीन से शैतानियत का राज ख़त्म हो जाएगा।
इसी शैतान से बहनों को ख़तरा होता है और ये राक्षस और शैतान अपने विचार और कर्म से होते हैं लेकिन शक्ल-सूरत से इंसान ही होते हैं।
राखी का त्यौहार हमें याद दिलाता है कि हमारे दरम्यान ऐसे शैतान भी मौजूद हैं जिनसे हमारी बहनों की मर्यादा को ख़तरा है।
बहनों के लिए एक सुरक्षित समाज का निर्माण ही हम सब भाईयों की असल ज़िम्मेदारी है, हम सभी भाईयों की, हम चाहे किसी भी वर्ग से क्यों न हों ?
हुमायूं और रानी कर्मावती का क़िस्सा हमें यही याद दिलाता है।
रक्षाबंधन के पर्व पर बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं...
देखिये
हुमायूं और रानी कर्मावती का क़िस्सा और राखी का मर्म
बशर्ते कि इसे मनाने वाले परस्पर रक्षा के संकल्प को आजीवन निभाने को तैयार हों
.
सहमत
kya humaun bharat ke liye "EK ADARSH" tha.. ????????
अत्यंत सारगर्भित आलेख, रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएं.
रामराम.
सारगर्भित आलेख्।
रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएं.
इस पर्व के पीछे परम्पराओं का सुदृढ़ आधार है। सुन्दर आलेख।
भारतवासी कह कर है हिंदुत्व को भुला रहें हैं। यद्यपि प्रवासियों ने यह नाम दिया पर वे इसकी सही व्याख्या कर गए जिसे हम बार-बार दोहराते भी हैं कि यह इस देश की जीवन पद्धति है जिसे हर मज़हब/ध्र्मावलम्बी/संप्रदाय के लोग अपनाते हैं॥
गुरुवर दिनेशराय द्विवेदी जी और DR. ANWER JAMAL जी द्वारा व्यक्त विचारों से पूर्णत: सहमत हूँ.आखिर क्यों कोई भी त्यौहार धर्मों में बांटकर बनाये जा रहे हैं? हम सभी भारतवासी हर त्यौहार को देश का त्यौहार मानकर क्यों नहीं मना सकते हैं? इसके लिए हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी.
आप सभी को बहन-भाई के त्यौहार रक्षा बंधन की हार्दिक बधाई
मानों तो मैं गंगा मां हूं, न मानो तो बहता पानी...
हमारा देश दुनिया में इसी लिए अलग स्थान रखता है क्योंकि यहां बचपन से ही हमें रिश्तों की कद्र करना सिखाया जाता है...लेकिन दुनिया सिमट रही है तो हमारे मेट्रो शहरों में भी लोग मैट्रीलिस्टिक होते जा रहे हैं...ऐसा भी देखा गया है कि बचपन में एक दूसरे पर जान छिड़कने वाले भाई-भाई या भाई-बहन या बहन-बहन बड़े हो जाने पर पुश्तैनी संपत्ति के विवाद के चलते एक दूसरे का मुंह तक देखना छोड़ देते हैं...
भावनाओं की ये बातें भावनाओं वाले ही जान सकते हैं...
जय हिंद...
रक्षाबंधन पर एक संपूर्ण पोस्ट,जोरदार प्रस्तुति,आभार.
एक टिप्पणी भेजें