शिवराम केवल सखा न थे। वे मेरे जैसे बहुत से लोगों के पथ प्रदर्शक, दिग्दर्शक भी थे। जब भी कोई ऐसा लमहा आता है, जब मन उद्विग्न होता है, कहीं असमंजस होता है। तब मैं उन की रचनाएँ पढ़ता हूँ। मुझे वहाँ राह दिखाई देती है। असमंजस का अंधेरा छँट जाता है। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। मैं ने उन की एक किताब उठाई और कविताएँ पढ़ने लगा। देखिए कैसे उन्हों ने अहम् के मरने को अभिव्यक्त किया है -
'कविता'
जब 'मैं' मरता है*
- शिवराम
हमें मारेंगी
हमारी अनियंत्रित महत्वाकांक्षाएँ
पहले वे छीनेंगी
हमसे हमारे सब
फिर हम से
हमें ही छीन लेंगी
बचेंगे सिर्फ मैं, मैं और मैं
'मैं' चाहे कितना ही अनोखा हो
कुल मिला कर होता है एक गुब्बारा
जैसे-जैसे फूलता जाता है
तनता जाता है
एक अवस्था में पहुँच कर
फूट जाता है
रबर की चिंदियों की तरह
बिखर जाएंगे एक दिन
मिट्टी में मिल जाती हैं
धीरे-धीरे
बच्चे रोते हैं
जब फूटता है उन का गुब्बारा
जब 'मैं' मरता है, कोई नहीं रोता
हँसते हैं लोग, हँसता है जमाना
*शिवराम के कविता संग्रह 'माटी मुळकेगी एक दिन' से
10 टिप्पणियां:
kitni sahi baat likha gaye shiv ji.
गहरे अर्थों वाली सच्चाई बयान करती कविता। पढ़वाने का आभार।
बहुत गहन रचना....
सारगर्भित रचना के लिए आभार।
उन का गुब्बाराजब 'मैं' मरता है, कोई नहीं रोताहँसते हैं लोग, हँसता है जमाना
यह मैं, हमसे हमको ही छीन ले जाता है, तब मैं भी नहीं रहता, सेवक बन जाता है।
कविताएं हर पाठक को कई-कई अर्थ दे जाती है । मनोभावों को कम शब्दों में व्यक्त करने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है कविता । कुछ लोग अपने अहम को इतना बड़ा बना लेते हैं कि वह मर-मरकर भी नहीं मरता है । अच्छी कविता है ।
मेरे ब्लॉग पर भी पधारें- संशयवादी विचारक
इस 'मैं' के एहसास मात्र से ही हमारे अन्दर बाहर अशांति फैलने लगती है..अच्छा है इसका मर जाना..प्रभावशाली रचना ..
जब 'मैं' मरता है, कोई नहीं रोता
हँसते हैं लोग, हँसता है जमाना.....
सारगर्भित रचना के लिए आभार।
'मैं' मरता है कब?
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