@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: पूर्वजों के गाँव में ...

रविवार, 17 अप्रैल 2011

पूर्वजों के गाँव में ...

मेरा जन्म बाराँ (अब राजस्थान का स्वतंत्र जिला मुख्यालय) में हुआ, लेकिन यहाँ जन्म लेने वाला मैं परिवार का पहला सद्स्य था। शेष सभी की यादें गैंता से जुड़ी हुई थीं। पिता जी, दाहजी, छोटे दाहजी, बुआ और दोनों चाचा वहीं जन्मे थे। दाहजी के पिता जी, मेरे परदादा अवश्य गैंता में खेड़ली से आए थे। दो-ढाई वर्ष की उम्र में मुझे शायद एक बार गैंता ले जाया गया था। तब की केवल इतनी स्मृति थी कि वहाँ मकान में कुछ कमरे बनाने के लिए नींवे खोदी जा रही थीं, और सब बड़ों को कान में जनेऊ चढ़ा कर मूत्रत्याग करते देख मुझे ऐसा ही करने की धुन सवार हुई थी और मैं ने घर में कहीं से जनेऊ तलाश कर पहन ली थी और उसे कान पर चढ़ा कर मूत्रत्याग कर के देखा था कि इस से क्या फर्क पड़ता है। उस के बाद कोई पैंतीस वर्ष पहले किसी काम से वहाँ जाना पड़ा था और मैं इटावा से 9 किलोमीटर पैदल गया था। चलते-चलते अंधेरा हो चुका था और कुछ सूझ नहीं रहा था। तब पीछे से एक ट्रेक्टर ने मुझे लिफ्ट दी थी जो इतनी कारगर सिद्ध हुई थी कि केवल सौ मीटर में ही गैंता का प्रवेशद्वार आ गया था। तभी की कुछ स्मृतियाँ मन में थीं। इस बार वैसे ही इटावा से डूंगरली जाते समय बच्चों से पूछा था कि गैंता देखोगे? बच्चों के मौन को स्वीकृति समझ अपने मन की पूरी करने वापसी में इटावा से कार का रुख गैंता की ओर मोड़ लिया था। कार चली जा रही थी। नौ किलोमीटर में बीच में कोई गाँव नहीं पड़ा था, सब सड़क से दूर थे। मैं सोचता जा रहा था कि वहाँ जाते ही कहाँ जाया जाए? 

गैंता ग्राम पश्चिम में बहती चंबल नदी 
मुझे अचानक गणपत काका के बड़े भाई काका लक्ष्मीचंद का स्मरण हुआ, वही तो गैंता में हमारा निकटतम पड़ौसी था। मैं  ने गैंता के प्रवेशद्वार के बाहर पूछा कि क्या कार को काका लक्ष्मीचंद के घर तक ले जाया जा सकता है? जवाब हाँ में मिलने पर मैं आगे बढ़ गया। बाजार में जहाँ से घर की ओर रास्ता जाता है उस से कुछ पहले एक दुकान पर रास्ता पूछा तो वहाँ से एक बुजुर्ग काका लक्ष्मीचंद के घर के लिए कार में बैठ गए। ठीक घर की बगल में कार रुकी तो काका का घर पहचान में आ गया। लेकिन वहाँ मैदान मिट्टी का था जहाँ हमारा घर हुआ करता था। काका घर पर नहीं सोसायटी के गोदाम पर थे, काका की लड़की बाहर आई, पीछे पीछे घूंघट निकाले काकी थी। दोनों ने हमें न पहचाना। मैं ने काका से फोन पर बात करने के लिए मोबाइल का नंबर पूछा तो काका की बेटी ने कहा उन को तो मैं बुला दूंगी, पर पहले यह तो पता लगे कि आप कौन हैं। मैं तब तक अपने पूर्वजों के घर की मिट्टी ही देख रहा था। मैं ने कहा यहाँ किस का मकान था? इतना कहते ही साथ आए बुजुर्ग ने मुझे पहचान लिया -तो आप वकील साहब हैं, नन्द किशोर जी के लड़के? ... जी, हाँ! मैं ने कहा। 



काकी हमें अंदर ले गई। कमरे में बिठाया। बिजली गई हुई थी, पंखा नहीं चल रहा था। पर कमरा ठंड़ा था। फिर बातें होने लगी। घर को किसी ने नहीं संभाला और गिर गया। लकड़ी का सामान आप का हाली अपने घर ले गया। जमीन बँटाई से होती है। बँटाई पर लेने वाला खुद ही बाराँ चला जाता है और छोटे चाचा से बँटाई तय कर पैसा उन्हें ही दे आता है। छोटे चाचा या उन के लड़कों को गाँव आए कई वर्ष हो चुके हैं। बाजार में दो दुकानें हैं, वे भी लावारिस पड़ी हैं। अभी तो उन्हें खरीदने वाले हैं। गिर जाएंगी तो जितने पैसे अभी आ रहे हैं उतने फिर नहीं आएंगे। मैं उदास सा सब सुनता रहा। पिताजी की बाराँ नौकरी लग जाने के बाद दाहजी सारे परिवार सहित बाराँ चले आए थे। गाँव की सारी सम्पत्ति छोटे दाहजी संभालते रहे। दाहजी, पिताजी, चाचाजी वगैरह ने उस संपत्ति के बारे में सोचना बिलकुल छोड़ दिया। आज उस संपत्ति की दुर्दशा सुन कर मुझे अजीब सा लग रहा था। इतने में काका लक्ष्मीचंद आ गए, साथ आए बुजुर्ग उन के ताऊ थे वे कोटा ही रहते थे और किसी काम से गाँव आए थे। वे वापस दुकान की ओर चले गए। हम ने वहाँ चाय पी। चाचा और चाची अपने अपनी आप बीती सुनाने लगे।

फिर मुझे गाँव देखने की इच्छा हुई तो काका हमें बाजार तक लाए। बाजार लगा था। सभी तरह की दुकानें थीं और सड़क पर सब्जीमंडी लगी हुई थी। ताजा सब्जियाँ देख पत्नी का मन मचल गया, उस ने ढेर सी सब्जी खरीद ली। हर कोई हमें देख जानना चाहता था कि हम कौन हैं, गाँव में चार नए चेहरे एक साथ दिखने पर यह तो होना ही था। एक को काका लक्ष्मीचंद ने दाहजी का हवाला दे कर बताया तो वे समझ गए। कुछ ही देर में कानों कान सब को पता लग गया कि हम कौन हैं। बाजार की सभी दुकानें सौ से दो सौ वर्ष पुरानी थीं। उन्हें देख लगता था कि किसी जमाने में इस बाजार में रौनक रहा करती होगी। बाजार में तीन-चार मंदिर भी थे, आगे चौपड़ थी। जहाँ से चारों दिशाओं में रास्ते निकलते थे। एक रास्ता गढ़ की ओर जाता था, जहाँ गैंता के पूर्व महाराजा के वंशज रहते थे। यह बस्ती जो अब गाँव कहलाती है, कभी न केवल नगर था, अपितु कोटा रियासत का एक ठिकाना (जागीर) थी। इस जागीर का मुखिया वंश परम्परा से होता था जो महाराजा कहा जाता था। जागीर को रियासत को निश्चित मात्रा में वार्षिक शुल्क (नजराना) देना होता था। जागीर अपने यहाँ शासन चलाने में स्वतंत्र थी, जिस की अपनी पुलिस और कचहरी थी। जागीर का महाराजा कचहरी के लिए कोर्ट फीस स्टाम्प और पाई पेपर जारी करता था। मेरी घूम कर गाँव देखने की इच्छा थी, लेकिन उस के लिए कम से कम एक रात तो गाँव में रुकना ही पड़ता। अभी इस का अवसर नहीं था। लेकिन मैं बगीची अवश्य जाना चाहता था। हम वापस काका के घर लौट आए, एक बार और शीतल जल पिया। काका को कार में बिठाया और बगीची तक ले चलने को कहा। .......

16 टिप्‍पणियां:

Smart Indian ने कहा…

यह यात्रा तो ऐतिहासिक रही। गैंता राज्य की जानकारी का शुक्रिया।

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर यात्रा का विवरण किया, ओर साथ मे अपने पुराने गांव की सेर भी,मेरा गांव भी पंजाब के कस्बे गढशंकर के पास हे, अब वहां हमारे परिवार का तो कोई नही रहता, लेकिन हमारी जमीन हे, जिस के बारे हमारे खान दान मे सिर्फ़ मुझे ही पता हे, अब पता नही किसी ने उस पर कब्जा ना कर लिया हो, इस बार भारत आया तो एक बार गांव जरुर जाऊंगा, मकान तो कब का ढ्ह गया था, जब कि किसी जमाने मे पुरे गांव मे हमारा मकान सब से ऊंचा, ओर पक्का था, कारण मेरे दादा ओर उन के बुजुर्ग शाह होते थे, यानि गांव के सेठ, मै तो बचपन मे कई बार गांव गया हुं. ओर उन जगहो को खुब पहचानता भी हुं( करीब) ४० साल पहले की बाते हे)
धन्यवाद आप के लेख ने मुझे भी बहुत कुछ याद दिला दिया

Udan Tashtari ने कहा…

अच्छा लग रहा है आपका वृतांत गैंता जाने का...आगे बगीची की सैर के बारे में जानने के इन्तजार कर रहे हैं.

Rahul Singh ने कहा…

सहज प्रस्‍तुति का रोमांच.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

जड़ों को देखना अच्छा लगता है..

Sunil Kumar ने कहा…

बहुत सुंदर यात्रा का विवरण किया,अपनी माटी अपना गाँव बहुत याद आती है| संस्मरण संवेदनशील हो गया आभार

Gyan Darpan ने कहा…

अपनी जड़ों को देखकर हर किसी को आप जैसी ही ख़ुशी मिलती है हम सौभाग्यशाली है कि अभी तक अपनी जड़ों से जुड़े है | अपने पूर्वजों के बनाये घरों में रह रहे है |

रश्मि प्रभा... ने कहा…

khoobsurat yaatra

Arvind Mishra ने कहा…

खुद के जड़ों तक पहुँचने का उपक्रम बहुत कुछ आह्लाद /भाव विभाव उत्पन्न करता ही है !

Sushil Bakliwal ने कहा…

सुहानी खुशनुमा यादें...
ये दाहजी संबोधन किस रिश्ते के लिये है कुछ समझ में नहीं आ पाया जबकि ताऊजी का रिश्ता भी अलग ही चल रहा है ?

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

@सुशील जी
हम दादाजी को दाSजी कहते हैं।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

‘ काका लक्ष्मीचंद का स्मरण हुआ, वही तो गैंता में हमारा निकटतम पड़ौसी था। ’

शहरीकरण के कारण हम इस प्रेम से वंचित होते जा रहे हैं :)

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

बहुत बढ़िया लिखा जी। यूं जैसे साथ साथ हम भी चल रहे हों!

मीनाक्षी ने कहा…

आपकी यादों ने हमारे बचपन की यादों को ताज़ा कर दिया...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जन्मस्थान जाने का रोमांच और अपनों से मिलने की प्रसन्नता, अद्वितीय है।

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

आपके साथ हम भी गैंता घुमाई कर रहे हैं।
आभार