हाडौती को राजस्थानी की एक शैली के रुप में जाना जाता है। राजस्थान के हाडौ़ती अंचल की यह सर्वसामान्य बोली है। इसे हिन्दी की 48 बोलियों में से एक के रूप में भी जाना जाता रहा है। लेकिन बोली के पास एक लिपि और लिपिबद्ध सामग्री हो तो वह एक स्वतंत्र भाषा का दर्जा प्राप्त करने में सक्षम हो जाती है। लेकिन हाड़ौती को तो देवनागरी में बहुत पहले से लिखा और बोला जाता रहा है। इसे भाषा का दर्जा बहुत पहले प्राप्त था। आजादी के पहले जब कोटा को एक स्वतंत्र राज्य का दर्जा प्राप्त था तो समस्त राजकाज इसी भाषा में होता रहा। इस भाषा में लिखे गए दस्तावेज अभिलेखागारों में उपलब्ध हैं। लेकिन क्या भाषा के लिए इतना ही पर्याप्त है? शायद नहीं। उस के लिए यह भी आवश्यक है कि उस भाषा में पर्याप्त मात्रा में लिखा गया साहित्य भी हो। हाडौती के पास लिखा हुआ और छपा हुआ साहित्य शायद उस वक्त तक इतनी मात्रा में नहीं था। यही कारण है कि उसे एक भाषा कह पाना संभव नहीं हो पा रहा होगा। वैसे समय में एक व्यक्ति ने इस काम का बीड़ा उठाया। उस ने हाड़ौती में काव्य सृजन की परंपरा को आगे बढ़ाया। उस के प्रकाशन की व्यवस्था की और हाडौती में सृजित साहित्य की उपलब्धता बढ़ने लगी। आज अनेक कवि और लेखक हैं जिन्हें हाडौ़ती के साहित्यकार के रूप में पहचाना जाता है। लेकिन इस पहचान को बनाने में जिस व्यक्ति ने अहम् और केन्द्रीय भूमिका अदा की उस का नाम शांति भारद्वाज राकेश था। जब तक हाड़ौती बोलने, लिखने और पढ़ने वाले रहेंगे, राकेश जी का नाम अमर रहेगा।
तीन दिन पहले राकेश जी नहीं रहे। एक लंबी बीमारी के उपरान्त उन का देहान्त हो गया। पहले भी वे ऐसे ही गंभीर रूप से बीमार हुए थे कि लोगों ने अस्पताल से लौट कर घर आने की संभावनाओं को अत्यंत क्षीण बताया। लेकिन हर बार उन की जिजिविषा उन्हें लौटा लाई और हर बार उन्हों ने लौट कर लेखन में नए कीर्तिमान स्थापित किए। कुछ दिन पहले अस्पताल में उन्हों ने ऐसा ही अभिव्यक्त किया था कि उन के दिमाग में पूरा एक उपन्यास मौजूद है, और ठीक हो कर घर लौटने पर वे उसे अगली बार बीमार हों उस के पहले पूरा कर देंगे। लेकिन प्रकृति ने उन्हें यह अवसर प्रदान नहीं किया। वे वापस नहीं लौटे। आज जब उन की शोक-सभा आयोजित हुई तो कोटा का शायद ही कोई अभागा साहित्य प्रेमी होगा जो वहाँ उपस्थित नहीं हो सका होगा।
राकेश जी की कुल 15 पुस्तकें उन के जीवन काल में प्रकाशित हो चुकी थीं। सूर्यास्त उपन्यास, परीक्षित कथा काव्य, समय की धार काव्य, इतने वर्ष काव्य, पोरस नाटक और हाडौ़ती का प्रथम उपन्यास उड़ जा रे सुआ प्रमुख हैं। मुझे साहित्य से आरंभ से प्रेम था, लेकिन लेखन के नाम पर मेरे पास अपनी दो-चार कविताओं और इतनी ही कहानियों के अतिरिक्त कुछ न था। तब एक पत्रिका के विमोचन समारोह में अचानक ही मुझे बोल देने को कहा गया। वह भी मुख्य अतिथि शांति भारद्वाज राकेश के तुरंत बाद। संकोच के साथ मैं खड़ा हुआ और बोलने लगा तो बहुत समय ले गया। बाद में राकेश जी ने मुझे कहा कि तुम लिखते क्यों नहीं हो। मैं ने उन से कहा मैं गृहत्यागी हूँ, और अदालती दावे और दरख्वास्तें लिखता हूँ, उन्हें न लिखूंगा तो घर कैसे बसा सकूंगा। वे मुझे हमेशा लिखने को प्रोत्साहित करते रहे और जब भी लिखा। उन्हों ने उसे सराहा और शिकायत की कि मैं नियमित क्यों नहीं हूँ। उन्हें मेरे ब्लाग लेखन का पता नहीं था, होता तो शायद वे संतुष्ट होते।
यहाँ मैं उन की एक छोटी सी हाडौती कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ, यही मेरी उन के प्रति श्रद्धांजली है-
आप मरियाँ ही सरक दीखैगो
- शांति भारद्वाज 'राकेश'
आज
अश्यो कुण छै-
सत्त को सरज्यो
ज्ये मेट द्ये
ईं गाँव की भूख?
कुण छै -
ज्ये धोळाँ दफैराँ
चतराम द्ये
ईं गाँव का सपना को उजास?
कुण छै-
ज्ये सणगार द्ये
ईं गाँव की मोट्याराँ की सळोटाँ
अर बाळकाँ की आस?
बात को तोल
अर धरम को मोल
म्हारों गाँव फेर सीखैगो
पण, बडा कह ग्या छै
कै
आप मरियाँ ही सरग दीखैगो.
उन की विदाई में 'अनवरत' की आँखें नम हैं और सिर श्रद्धावनत।
8 टिप्पणियां:
VINAMRA SHRADDHAANJALI..
श्रद्धान्जलि राकेश जी को, हाड़ौती के प्राणप्रसारक।
हाड़ौती और राकेश जी के प्रति सम्मान.
भाषा और बोली का अंतर आमतौर पर लिपि और व्याकरण के आधार पर किया जाता है, जो उचित नहीं. भाषा के लिए साहित्य भंडार का होना शायद इसलिए अधिक आवश्यक होता है, क्योंकि यह अभिव्यक्ति माध्यम के मानकीकरण, उसके काल और व्यवहार विस्तार में सहायक होता है. यह भी जोड़ना चाहूंगा कि अक्सर अनावश्यक ही भाषा को बोली से उच्चतर दरजा दिए जाने की मंशा दिखाई पड़ती है, जबकि कहा जा सकता है कि बोली का मानक में सीमित कर दिया गया और बहु-व्यवहृत रूप भाषा है. (मैं भाषाविज्ञानी नहीं, लेकिन इसे खड़ी बोली और हिन्दी भाषा, पृथक लिपि रहित ब्रज और अवधी, देवनागरी में लिखी जाने वाली मराठी और पूर्वी हिन्दी या अर्द्ध-मागधी का एक रूप मानी जाने वाली अपनी जबान छत्तीसगढ़ी का संदर्भ-उदाहरण ले कर लिख रहा हूं.)
सांचली बात तो ओ ही छै के " बिना मरयां सरग कोनी दिखैगो।"
राकेश जी ने विनम्र श्रद्धांजलि और शत शत नमन
अपनी बोली के प्रति चरम भावातिरेक के अधीन निरन्तर लगे रहने से ही ऐसा सम्भव हो सकता है। अन्यथा हाडौती (और राजस्थानी, मालवी भी) बोली ही है, भाषा नहीं।
कविता बहुत ही सुन्दर है। इसे हिन्दी में अनूदित कर प्रयुक्त करना चाहूँगा।
मेरी ओर से श्रद्धांजलि। कविता बहुत ही क्रांतिकारी लगती है, हालांकि पूरी तरह नहीं समझ सका।
विनम्र श्रृद्धांजलि...
हम सब श्रद्धावनत हैं ,ऐसी महान आत्मा को विनम्र श्रद्धांजलि. ।
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