@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: अपनी गरदन पे खंजर चला तो चला

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

अपनी गरदन पे खंजर चला तो चला

कूर 'अनवर' न केवल एक अज़ीम शायर हैं, बल्कि शहर में अदब और तहज़ीबी एकता के लिए काम करने में उन का कोई सानी नहीं। हर अदबी कार्यक्रम में उन्हें कुछ न कुछ करते देखा जा सकता है। अनेक कार्यक्रमों की सफलता में उन की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। हर साल मकर संक्रांति के दिन उन के घर अदबी जश्न होता है जिस में हिन्दी, उर्दू और हाड़ौती के लेखक, कवि, शायर ही नहीं हाजिर होते, मेरे जैसे तिल्ली के लड्डुओं और पतंग उड़ाने के शौकीन भी खिंचे चले आते हैं। उन का पहला ग़ज़ल संग्रह 'हम समन्दर समन्दर गए' 1996 में प्रकाशित हुआ था। उस के बाद 'विकल्प' जन सांस्कृतिक मंच ने उन के लघु काव्य संग्रह 'महवे सफर' प्रकाशित किया। हिन्दी-उर्दू की प्रमुख पत्रिकाओं हंस, कथन, काव्या, मधुमति, शेष, अभिव्यक्ति, समग्र दृष्टि, कथाबिंब, नई ग़ज़ल, सम्बोधन, अक्षर शिल्पी, गति, शबखून, शायर, नख़लिस्तान, तवाजुन, इन्तसाब जदीद फिक्रो-फन, परवाजे अदब, ऐवाने उर्दू, पेशरफ्त, असबाक़ आदि में उन की रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं और होती रहती हैं। वे उर्दू स्नातक हैं और उर्दू के अध्यापक भी। उन का मानना है  कि समाज का मिजाज गैर शायराना भी है, जिस से सामान्य व्यक्ति के बौद्धिक स्तर और कलाकृतियों के बीच एक  दूरी बनी रहती है। इस स्थिति से उबरने के लिए रचनाकारों को मनुष्य जीवन और समाज का गहराई से अध्ययन करते हुए समाज के साथ संवाद स्थापित करना चाहिए। उन की कोशिश रहती है कि उन की रचना आम लोगों के सिर पर गुजर जाने के स्थान पर उन के दिलों में उतर जाए। यहाँ पेश है उन की एक ग़ज़ल, कैसी है? यह तो बकौल खुद शकूर 'अनवर'  आप ही बेहतर बता सकेंगे।


इश्क में  अपना सब कुछ  लुटा तो  चला
दिल की ख़ातिर मैं सर को कटा तो चला

राह  की  मुश्किलें  हमसफ़र  बन   गयीं
साथ   मेरे    मेरा    क़ाफ़िला   तो   चला

देख   मरने   की   ख़ातिर   मैं   तैयार  हूँ
ओ   सितमगर   तू  तेग़े-जफ़ा  तो  चला

कितने  दिन  हुस्न  की  ये  हुकूमत चली
उम्र   ढलने  से   उन  को   पता  तो  चला

नफ़रतों   की   दिलों   से   घुटन  दूर  कर
कुछ   मुहब्बत  की  या  रब हवा तो चला

कैसे     ठहरेगा    खुर्शीद      के     सामने
रात  भर  जो   जला  वो   दिया  तो  चला

जान   'अनवर'   वफ़ा   में   गई   तो  गई
अपनी  गरदन  पे  खंजर  चला  तो  चला


शकूर अनवर के घर मकर संक्रांति पर सद्भावना समारोह का एक दृष्य


15 टिप्‍पणियां:

Satish Saxena ने कहा…

ऐसे लोग अब दुर्लभ हो गए हैं भाई जी ...

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

समन्दर समन्दर जाकर समन्दर में ही गोते लगा रहा हूँ। बहुत उम्दा गजले हैं शकूर अनवर साहब की।

आपका दिया हूआ दीवान अभी बांच रहा हूँ।

आभार

आपका अख्तर खान अकेला ने कहा…

bhut khub haijana aapne shkur bhayi ko anvrt ke laayq smjhaa iske liyen shukriyaa shkur bhaai likhte hen or bhut achchaa likhte hen isi andaaz men yeh apni gzlon ko bhi pdhte hen . akhtar khan akela kota rajsthan

एस एम् मासूम ने कहा…

शुक्रिया शकूर साहब के बारे मैं बताने का

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अनवर साहेब के विशाल हृदय को प्रणाम।

Arvind Mishra ने कहा…

कितने दिन हुस्न की ये हुकूमत चली
उम्र ढलने से उन को पता तो चला

अनवर साहब से मिल कर अच्छा लगा !

बेनामी ने कहा…

शकूर साहेब का नाम आते ही ज़ेहन में ये शेर मचलने लगता है...

वक़्त के हाथ में पत्थर है ये महसूस करो
ऐसे माहौल में शीशे का मकां ठीक नहीं....

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

रात भर जो जला वो दिया तो चला

.............................
अनवर साहेब को प्रणाम.

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत अच्छा लगा शकूर साहब के बारे जान कर, काश ऎसे इंसान हर जगह हो. धन्यवाद
आप भी जुडे ओर साथियो को भी जोडे...
http://blogparivaar.blogspot.com/

वाणी गीत ने कहा…

अनवर जी का परिचय देने के लिए आभार!

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

अनवर जी से परिचय पा कर अच्छा लगा .

Dorothy ने कहा…

अनवर जी से परिचय कराने के लिए आभार.
सादर,
डोरोथी.

सुरेन्द्र सिंह " झंझट " ने कहा…

bahut jandar umda gazal ..
har sher jandar..
prastuti ke liye dhanyvad !

अनुपमा पाठक ने कहा…

अनवर जी को प्रणाम!
बहुत सुन्दर गज़ल!

उम्मतें ने कहा…

गज़ल तो बेहतर है पर घर की सीढ़ियों पे रेलिंग ज़रुरी है !