अनवरत के पिछले अंकों में आप यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के आठ सर्ग पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है। इसे आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का नवम् सर्ग 'भगवान' प्रस्तुत है .........
'भगवान'
.................. भगवान भागा जा रहा
पहले पहाड़ी पर मिला
फिर गहन वन में जा छिपा
जब खोज हमने की वहाँ
तब जोर से कवि ने कहा
.................. भगवान भागा जा रहा
इन्सान ने पैरों तले
अटवी मसल कर फैंक दी
श्रम की धधकती आग में
धरती उलट कर सेंक दी,
रक्ताक्त अंकुर ध्वंस के
उगने लगे, बढ़ने लगे,
धरती दुबक कर गिर पड़ी
हिरणाक्ष्य के पैरों तले
तब, स्वार्थ का भगवान दौड़ा
कल्पना के धर पुछल्ले
एक मुट्ठी वर्ग का ले
रोकने मानव प्रगति क्या
ब्राह्मणों के नीच सूकर?
औ, तब गरज कवि ने कहा
.................. भगवान भागा जा रहा
विनिमय व, उत्पादन बढ़े
क्या भूमि पर अभिशाप बन?
जब ब्रह्मयोगी की उठी
तलवार निर्घृण पाप बन
तब उपनिषद ने कौन सा
'राजर्षि की पूजा करो' -
गीता जनित यह धर्म है
फूटा कलश यह फूट का
तोड़ा धनुष जब राम ने
फूटी कलह यह उत्तरा के
क्या न गर्भाधान में ?
फूटा कलश फिर वर्ण का
शिशुपाल के दरबार में
या डूबता जब कर्ण है
गुरू शाप बस मझधार में
तब चीख कर कवि ने कहा-
.................. भगवान भागा जा रहा
वह बुद्ध का आलोक लख
भागी निशा है जा रही
प्रत्यूह के इस राज पर
है आम्बपाली गा रही
पर, संघ संकुचित भावना
है बुद्ध ! तुम को खा रही
चाणक्य की वह दूर--
दर्शी दृष्टि दौड़ी आ रही
तब, बल मिला भगवान को
या वेद से गीता मिली
या यज्ञ-शित-शिख जी उठा
या स्मार्त से सीता मिली
फिर वही-पत्थर पर मनुज
है नाक रख खुजला रहा
घर छोर कुत्ता घाट पर
फिर देख दौड़ा जा रहा
तब खिन्न कवि ने कहा
.................. भगवान भागा जा रहा
जिस में फँसाई जा रही
हर रोज भोली छोकरी
नंगी नचाई जा रही ?
क्या देव दासी की प्रथा
भू फोड़ कर है आ गई ?
द्विज-ग्राह्य दुहिता सबों की
वैदिक -ऋचा कब गा गई ?
दीवार में शिव लिङ्ग औ
भग क्या स्वयं ही खिंच गए ?
औ स्वप्न सब को मिल गया--
आ जाइये औ पूजिए ?)
अब रहा ईश्वर ही कहाँ
कटु तर्क के तूफान में
विज्ञान के आलोक में
इतिहास के अभियान में
तब शान्त हो कवि ने कहा
.................. भगवान भागा जा रहा
यादवचन्द्र पाण्डेय |
6 टिप्पणियां:
हुजूर की लय पर मन्त्र-मुग्ध हूँ !
मनुष्य है अब आ रहा ,भगवान् भागा जा रहा ...
काल बोध इतिहास बोध और भविष्य बोध की त्रिवेणी समटे एक कालजयी कृति !
अद्भुत रचना पढ़वाई आपने!
'अब रहा ईश्वर ही कहाँ
कटु तर्क के तूफान में
विज्ञान के आलोक में
इतिहास के अभियान में
तब शान्त हो कवि ने कहा
.................. भगवान भागा जा रहा'
उनकी चिंतन द्रष्टि के पक्षधर हैं हम!अच्छी कविता !
'अब रहा ईश्वर ही कहाँ
कटु तर्क के तूफान में
विज्ञान के आलोक में
इतिहास के अभियान में
तब शान्त हो कवि ने कहा
.................. भगवान भागा जा रहा'
उनकी चिंतन द्रष्टि के पक्षधर हैं हम!अच्छी कविता !
काव्यमय दार्शनिक उद्घोष ।
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