अखबार में खबर है, कोटा के जानकीदेवी बजाज कन्या महाविद्यालय को एक वाटर कूलर भेंट किया गया। पढ़ते ही वाटर कूलर के पानी का स्वाद स्मरण हो आता है। पानी का सारा स्वाद गायब है। लगता है फ्रिज से बोतल निकाल कर दफत्तर की मेज पर रख दी गई है। बहुत ठंडी है लेकिन एक लीटर की बोतल पूरी खाली करने पर भी प्यास नहीं बुझती। मैं अंदर घर में जाता हूँ और मटके से एक गिलास पानी निकाल कर पीता हूँ। शरीर और मन दोनों की प्यास एक साथ बुझ जाती है।
इधर होली के पहले और बाद में बाजार में निकलते ही मटकों की कतारें लगी नजर आने लगती हैं। शहर की कॉलोनियों में मटकों से लदे ठेले घूमने लगती हैं। गृहणी ठोक बजा कर चार मटके खरीद लेती है। मैं आपत्ति करता हूँ -चार एक साथ? तो वह कहती है पूरी गर्मी और बरसात निकालनी है इन में। सर्दी के बने मटके हैं पानी को ठंड़ा रखेंगे। दो मटके मैं उठा कर घर में लाता हूँ और दो गृहणी। घर में फ्रिज है उस में बोतलें रखी हैं, पानी ठंडा रखा है। पर शायद ही कभी उन का पानी पीने की नौबत आती हो। मटके का ठंडा पानी हरदम हाजिर है। वही प्यास बुझाता है, मन की भी। उस में मिट्टी का स्वाद है, ऐसा स्वाद जिस के बिना मन की प्यास बुझती ही नहीं।
गर्मी आरंभ होती थी कि शहर में सड़क के किनारे प्याउएँ नजर आने लगती थीं। वे अब भी लगती हैं लेकिन पहले की अपेक्षा कम। बहुत सी समाज सेवी संस्थाओं ने उन के स्थान पर बिजली से चलने वाले वाटर कूलर फिट कर दिए हैं। कूलर के ऊपर पांच सौ/हजार लीटर की पानी की टंकी है जिस में पानी नलों से पहुँच जाता है। फिर वही पानी कूलर में आता रहता है। महीनों शायद ही उस टंकी और कूलर की स्टोरेज की सफाई होती हो। अदालत में भी पाँच सात कूलर लगे हैं। दो प्याऊ भी हैं,एक नगर निगम की और एक किसी समाजसेवी संस्था की। कूलर में पानी ठंडा है। लेकिन फिर भी उन प्याउओं पर दिन भर भीड़ लगी रहती है। वहाँ मटके का ठंडा पानी मिलता है।
इधर गर्मियाँ हों या सर्दियाँ हमेशा बिजली की कमी बनी रहती है। गर्मी में तो मांग से कम पड़ती है बिजली। सर्दी में बिजली की जरूरत सिंचाई के लिए किसानों को अधिक होती है। पावर कट आम बात है। इस के बावजूद हमारी निगाह इस बात पर नहीं जाती कि मटका और सुराही पानी ठंडा करते हैं और बिना बिजली के। पानी पीने में स्वादिष्ट होता है। यदि हम पीने के पानी के ठंडा बनाने के लिए मटकों और सुराहियों का ही उपयोग करें तो कितनी ही हजार लाख यूनिट बिजली बचा सकते हैं। साथ ही मटका -सुराही निर्माण में जुटे लोगों को साल भर रोजगार देते रह सकते हैं।
25 टिप्पणियां:
आपकी बात गौर तलब है ! वाटर कूलर की तुलना में घड़े और सुराही की निर्मिती प्रकृति के अधिक निकट है अतैव पानी के ट्रीटमेंट /शीतलीकरण /स्वाद में भी यही बात लागू होती होगी !
मटके के पानी का अपना ही स्वाद है , राजस्थान में तो अच्छे मटके मिल जाते है पर यहाँ तो नाम मात्र के ही मिलते है |
कभी प्याऊ के बारे में भी लिखिए |
राम राम सा
पहले हम एक बैलगाड़ी मटके लेते थे जिसमें 40 मटके आते थे। अब शायद 15 लेते होगें,वह भी इसलिए कि साल में कई पर्वों पर बदलने पड़ते हैं।
फ़्रिज के पानी से प्यास बुझती कहां है? लेकिन क्या करें मजबूरी है। मटके के पानी का स्वाद कोई विकल्प नहीं है। मंहगाई के कारण साईज भी छोटा होते जा रहा है
अच्छी पोस्ट। आभार
इस के बावजूद हमारी निगाह इस बात पर नहीं जाती कि मटका और सुराही पानी ठंडा करते हैं और बिना बिजली के। पानी पीने में स्वादिष्ट होता है।'
और फिर मटका सुराही बनाने वाले को रोजगार भी तो मिलता है
सुन्दर पोस्ट
। यदि हम पीने के पानी के ठंडा बनाने के लिए मटकों और सुराहियों का ही उपयोग करें तो कितनी ही हजार लाख यूनिट बिजली बचा सकते हैं। साथ ही मटका -सुराही निर्माण में जुटे लोगों को साल भर रोजगार देते रह सकते हैं।
आपसे सहमत।
बहुत सुंदर आप ने बहुत याद दिला दिया, हमारे घर मै उस समय फ़िज नही था, इस लिये हमे मटके ओर सुराही काम पानी ही स्वाद लगता था, ओर अब फ़िर्ज है तो उस से प्यारा हमे मटका ही लगता है, ओर अगली बार एक मटकी साथ लानी है.
धन्यवाद इस सुंदर लेख के लिये
बचपन याद आ गया ...कोरे घड़े में एक बूँद केवड़ा या खास टपका देती थी दादी फिर ...पूरी गर्मी मज़े से खुशबूदार ठंडा पानी
पानी की मिठास के साथ साथ बहुत सी चीज़ें खोती जा रही है, जब छोटी थी तो सफ़र में सुराही होती थी अब तो मिनरल वाटर की बोतल होती है, सही में मिठास नहीं होती
मटका अच्छा विकल्प है । मटके के पानी की ठंडक ठीक ठीक होती है, न कम न अधिक ।
बेशक , मटके और सुराही के पानी का स्वाद लाज़वाब होता है।
और अब तो मटके भी हाई टेक हो गए हैं । टोंटी वाले !
लेकिन शहरी लोगों को अब आर ओ सिस्टम की आदत पड़ गई है।
मटका और सुराही पर फिदा हैं हम। वो सोंधी गंध और वो निराला स्वाद।
सामयिक पोस्ट
सुराही का पानी पिये जमाना बीता..बचपन की याद है..रस्सी के कवर में रले में साथ सुराही चला करती थी. :)
कितनी खूबसूरत पोस्ट की देखकर ही प्यास लग आयी -हम फ्रिज के बगल में यही रखते हैं .....फ्रिज पानी केव लिए थोड़े ही है !
अरे! आप भी हमारी ही तरह घामड, देहाती निकले। हमारे यहॉं भी फ्रिज है, उसमें रखी बोतलें भी हैं किन्तु पानी मटके का ही पीते हैं।
मटके के पानी में मिट्टी की महक और पसीने का चन्दन अपने होने का अहसासा कराता है।
जो तृप्ति मटके के पानी में है वह फ्रिज और कूलर के पानी के आसपास भी नहीं फटकती।
आजकल कुम्हार और गधे भी तो कम होने लगे है।
राजस्थानी मटके एक ब्राण्ड हो गए है. यहाँ भी मटके राजस्थानी के नाम पर बिकते है. घर में मटकी का पानी ही पीते है. फ्रीज में वह मजा कहाँ?
हम १२ महिनों मटके का पानी पीते हैं. किसी मेहमान को मांगने पर ही फ़्रीज का पानी पिलाते हैं.
रामराम.
हम १२ महिनों मटके का पानी पीते हैं. किसी मेहमान को मांगने पर ही फ़्रीज का पानी पिलाते हैं.
रामराम.
@ नीरज जाट
कुम्हार अब ताऊ बन गये हैं और गधा अब हाईटेक होकर रामप्यारे उर्फ़ "प्यारे" होगया है. जरुरत हो तो भिजवाऊं क्या?
रामराम.
बहुत सही बात कही है....प्रेरणा दायक पोस्ट
इस बार तो मैं भी एक सुराही खरीद कर लाया हूं, गर्मियों में इसी से पानी पीयूंगा।
प्रणाम
आपने बढ़िया और सही बात लिखी है ... मैं आपसे सहमत हूँ ...
आपके इस बढ़िया लेख से उत्साहित होकर मैंने नीचे मटके इस्तमाल करने के फायदे सूचीबद्ध किये हैं ...
१. बिजली की बचत
२. पैसे की बचत (एक मटका तीस से पचास रुपैये तक आता है, जबकि एक फ्रिज करीब सात हज़ार रुपैये के). अगर एक साल में चार मटके लगते हैं तो एक फ्रिज के दाम में हम ५० साल तक मटके का ठंडा पानी पी सकते हैं !
३. स्वाद - आपने इसका ज़िक्र कर दिया है
४. गरीब कुम्हारों की जीविका चलने में मदद
५. फ्रिज से "green house gas" निकलता है जो हमारे पर्यावरण को क्षति पहुंचाता है
६. वाटर कूलर की सफाई समय पर नहीं होती है
हम तो बिजली वाला ले आये हैं !
ऐसी गर्मी में आपके लेख ने मन को ठंडक दी ....... मटके के पानी की याद दिला दी ...हम तो चले एक गिलास पानी पिने ...आपके के लिए भी लाते है ....अच्छा लेख.... धन्यवाद
http://athaah.blogspot.com/
"सर्दी के बने मटके हैं पानी को ठंडा रखेंगे ।"
यह बात किसी ग्रंथ मे नही लिखी है मगर गृहणियाँ इसे जानती हैं ।
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