अनवरत पर पिछली पोस्ट में शकुन्तला और दुष्यंत की कहानी प्रस्तुत करते हुए यह पूछा गया था कि उन दोनों के मध्य कौन सा रिश्ता था? मैं ने यह भी कहा था कि भारतीय पौराणिक साहित्य में शकुन्तला और दुष्यंत के संबंध को गंधर्व विवाह की संज्ञा दी गई है। मेरा प्रश्न यह भी था कि क्या लिव-इन-रिलेशनशिप गंधर्व विवाह नहीं है? इस पोस्ट पर पाठकों ने अपनी शंकाएँ, जिज्ञासाएँ और कतिपय आपत्तियाँ प्रकट की हैं। अधिकांश ने लिव-इन-रिलेशनशिप को गंधर्व विवाह मानने से इन्कार कर दिया। उन्हों ने गंधर्व विवाह को आधुनिक प्रेम-विवाह के समकक्ष माना है। सुरेश चिपलूनकर जी को यह आपत्ति है कि हिन्दू पौराणिक साहित्य से ही उदाहरण क्यों लिए जा रहे हैं? इस तरह तो कल से पौराणिक पात्रों को ....... संज्ञाएँ दिए जाने का प्रयत्न किया जाएगा। मैं उन संज्ञाओं का उल्लेख नहीं करना चाहता जो उन्हों ने अपनी टिप्पणी में दी हैं। मैं उन्हें उचित भी नहीं समझता। लेकिन इतनी बात जरूर कहना चाहूँगा कि जब मामला भारतीय दंड विधान से जुड़ा हो और हिंदू विवाह अधिनियम से जुड़ा हो तो सब से पहले हिंदू पौराणिक साहित्य पर ही नजर जाएगी, अन्यत्र नहीं।
पिछले दिनों भारत के न्यायालयों ने जो निर्णय दिए हैं उस से एक बात स्पष्ट हो गई है कि हमारा कानून दो वयस्कों के बीच स्वेच्छा पूर्वक बनाए गए सहवासी रिश्ते को मान्यता नहीं देता, लेकिन उसे अपराधिक भी नहीं मानता, चाहे ये दो वयस्क पुरुष-पुरुष हों, स्त्री-स्त्री हों या फिर स्त्री-पुरुष हों। इस से यह बात भी स्पष्ट हो गई है कि इस तरह के रिश्तों के कारण एक दूसरे के प्रति जो दीवानी कानूनी दायित्व और अधिकार उत्पन्न नहीं हो सकते। कानून की मान्यता न होने पर भी इस तरह के रिश्ते सदैव से मौजूद रहे हैं। परेशानी का कारण यह है कि समाज में इस तरह के रिश्तों का अनुपातः बढ़ रहा है। अजय कुमार झा ने अपनी पोस्ट लिव इन रिलेशनशिप : फ़ैसले पर एक दृष्टिकोण में बहुत खूबसूरती से अपनी बात को रखा है। लिव-इन-रिलेशनशिप स्त्री-पुरुष के बीच ऐसा संबंध है जिस में दोनों एक दूसरे के प्रति किसी कानूनी दायित्व या अधिकार में नहीं बंधते। जब कि विवाह समाज विकास के एक स्तर पर विकसित हुआ है, जो पति-पत्नी को एक दूसरे के प्रति कानूनी दायित्वों और अधिकारों में बांधता है। जहाँ तक पितृत्व का प्रश्न है वह तो लिव-इन-रिलेशन में भी रहता है और संतान के प्रति दायित्व और अधिकार भी बने रहते हैं। इस युग में जब कि डीएनए तकनीक उपलब्ध है कोई भी पुरुष अपनी संतान को अपनी मानने से इंन्कार नहीं कर सकता।
पिछले दिनों भारत के न्यायालयों ने जो निर्णय दिए हैं उस से एक बात स्पष्ट हो गई है कि हमारा कानून दो वयस्कों के बीच स्वेच्छा पूर्वक बनाए गए सहवासी रिश्ते को मान्यता नहीं देता, लेकिन उसे अपराधिक भी नहीं मानता, चाहे ये दो वयस्क पुरुष-पुरुष हों, स्त्री-स्त्री हों या फिर स्त्री-पुरुष हों। इस से यह बात भी स्पष्ट हो गई है कि इस तरह के रिश्तों के कारण एक दूसरे के प्रति जो दीवानी कानूनी दायित्व और अधिकार उत्पन्न नहीं हो सकते। कानून की मान्यता न होने पर भी इस तरह के रिश्ते सदैव से मौजूद रहे हैं। परेशानी का कारण यह है कि समाज में इस तरह के रिश्तों का अनुपातः बढ़ रहा है। अजय कुमार झा ने अपनी पोस्ट लिव इन रिलेशनशिप : फ़ैसले पर एक दृष्टिकोण में बहुत खूबसूरती से अपनी बात को रखा है। लिव-इन-रिलेशनशिप स्त्री-पुरुष के बीच ऐसा संबंध है जिस में दोनों एक दूसरे के प्रति किसी कानूनी दायित्व या अधिकार में नहीं बंधते। जब कि विवाह समाज विकास के एक स्तर पर विकसित हुआ है, जो पति-पत्नी को एक दूसरे के प्रति कानूनी दायित्वों और अधिकारों में बांधता है। जहाँ तक पितृत्व का प्रश्न है वह तो लिव-इन-रिलेशन में भी रहता है और संतान के प्रति दायित्व और अधिकार भी बने रहते हैं। इस युग में जब कि डीएनए तकनीक उपलब्ध है कोई भी पुरुष अपनी संतान को अपनी मानने से इंन्कार नहीं कर सकता।
हम इतिहास में जाएंगे तो भारत में ही नहीं दुनिया भर में विवाह का स्वरूप हमेशा एक जैसा नहीं रहा है। 1955 के पहले तक हिन्दू विवाह में एक पत्नित्व औऱ विवाह विच्छेद अनुपस्थित थे। यह अभी बहुत पुरानी बात नहीं है जब दोनों पक्षों की सहमति से वैवाहिक संबंध विच्छेद हिन्दू विवाह अधिनियम में सम्मिलित किया गया है। भारत में जिन आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है। वस्तुतः वे सभी विवाह हैं भी नहीं। स्त्री-पुरुष के बीच कोई भी ऐसा संबंध जिस के फलस्वरूप संतान उत्पन्न हो सकती है उसे विवाह मानते हुए उन्हें आठ विभागों में बांटा गया। जिन में से चार को समाज और राज्य ने कानूनी मान्यता दी और शेष चार को नहीं। गंधर्व विवाह में सामाजिक मान्यता, समारोह या कर्मकांड अनुपस्थित था। यह स्त्री-पुरुष के मध्य साथ रहने का एक समझौता मात्र था। जिस के फल स्वरूप संतानें उत्पन्न हो सकती थीं। सामाजिक मान्यता न होने के कारण उस से उत्पन्न दायित्वों और अधिकारों का प्रवर्तन भी संभव नहीं था। मौजूदा हिन्दू विवाह अधिनियम इस तरह के गंधर्व विवाह को विवाह की मान्यता नहीं देता है।
लिव-इन-रिलेशन भी अपने अनेक रूपों के माध्यम से भारत में ही नहीं विश्व भर में मौजूद रहा है लेकिन आटे में नमक के बराबर। समाज व राज्य ने उस का कानूनी प्रसंज्ञान कभी नहीं लिया। नई परिस्थितियों में इन संबंधों का अनुपात कुछ बढ़ा है। इस का सीधा अर्थ यह है कि विवाह का वर्तमान कानूनी रूप समकालीन समाज की आवश्यकताओं के लिए अपर्याप्त सिद्ध हो रहा है। कहीं न कहीं वह किसी तरह मनुष्य के स्वाभाविक विकास में बाधक बना है। यही कारण है कि नए रूप सामने आ रहे हैं। जरूरत तो इस बात की है कि विवाह के वर्तमान कानूनों और वैवाहिक विवादों को हल करने वाली मशीनरी पर पुनर्विचार हो कि कहाँ वह स्वाभाविक जीवन जीने और उस के विकास में बाधक बन रहे हैं? इन कारणों का पता लगाया जा कर उन का समाधान किया जा सकता है। यदि एक निश्चित अवधि तक लिव-इन-रिलेशन में रहने वाले स्त्री-पुरुषों के दायित्वों और अधिकारों को नि्र्धारित करने वाला कानून भी बनाया जा सकता है। जो अभी नहीं तो कुछ समय बाद बनाना ही पड़ेगा। यदि इस संबंध में रहने वाले स्त्री-पुरुष आपसी दायित्वों और अधिकारों के बंधन में नहीं बंधना चाहते तो कोई बाद नहीं क्यों कि वे वयस्क हैं। लेकिन इन संबंधों से उत्पन्न होने वाले बच्चों के संबंध में तो कानून तुरंत ही लाना आवश्यक है। आखिर बच्चे केवल उन के माता-पिता की नहीं समाज और देश की निधि होते हैं।
8 टिप्पणियां:
IS BARE MAIN AB KYA KHUN.MAI AISE SMBHNDO KO AHMIYAT N DENE KA PAKSH MEMN HUN.
बहुत बहुत शुक्रिया सर मेरा प्रोत्साहन करने के लिए , और बिल्कुल ठीक कहा है आपने मुझे लगता है कि यदि एक बार इसे विधिक मान्यता मिल जाए तो ही इसका आकलन , इसके प्रभाव का विश्लेषण करना ही उचित होगा , वैसे इस विषय पर ब्लोगजगत में सबसे उच्च स्तर का मंथन होता देख खुशी और गर्व हो रहा है लग रहा है जैसे यकायक हिंदी ब्लोग्गिंग परिपक्व सी हो उठी है । आपके इस प्रतिष्टित ब्लोग पर अपना जिक्र पाकर गर्व महसूस कर रहा हूं ।
अजय कुमार झा
सन्तुलित विवेचना.
कानूनी जमा पहनाने से क्या फर्क पड़ेगा... रहने वाले तो अभी भी रहते ही हैं. हाँ उत्तराधिकार सम्बन्धी समस्याओं में जरूर फर्क आएगा.
अपनी आवश्यकतानुसार समाज, समय-समय पर अपने लिए व्यवस्थाऍं बनाता रहता है। लिव इन रिलेशनशिप के बढते चलन को देखते हुए आपका यह कहना सही है कि इस पर कोई कानून बनाना ही पडेगा। किन्तु फिलहाल तो 'लोक देवता' इसे जल्दी स्वीकार करता नजर नहीं आता।
जो दुष्यन्त या शकुन्तला बनने पर आमादा हैं उनके लिये कौन सा कानून ।
अच्छा, दुष्यन्त और शकुन्तला की परम्परा चल क्यों न पाई? क्यों यह चिरकुट दहेज मूलक तथाकथित वल्गैरिटी कायम है?
असल में पांच हजार साल के बहुमत के नियम लंठई पर आर्धारित हैं।
नये पण्डितों की सुनी जाये। हिन्दू विवाह प्रथा चूल्हे में जाये। और किसी धर्म के बारे में कहने के लिये तो किसी में दम है नहीं! :)
divedi jee mai to sirf namaskar karane aayee hoon kai din se time nahin nikal paa rahi thee. sab log datey rahen bahut bahut shubhakamanayen.
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