कल एक गलती हो गई। भुवनेश शर्मा अपने गुरू श्री विद्याराम जी गुप्ता को बाबूजी कहते हैं। मैं समझता रहा कि वे अपने पिता जी के बारे में बात कर रहे हैं। भुवनेश जी के पिता भी वकील हैं। कल की पोस्ट में मैं ने उन के पिता का उल्लेख कर दिया। आज शाम भुवनेश जी ने मुझे फोन कर गलती के बारे में बताया। अब गलती हटा दी गई है।
आज मैं उस घटना के बारे में बताना चाहता हूँ जो मेरे कॉलेज जीवन में घटित हुई। यह सन् 1971 का साल था। बांग्लादेश का युद्ध हुआ ही था और अटलबिहारी जी ने इंदिरागांधी को दुर्गा कहा था। कम्युनिस्टों के बारे में वही धारणाएँ मेरे मन में थीं जो भारत में उन के विरोधी प्रचारित करते रहे हैं। मैं समझता था। कम्युनिस्ट बहुत लड़ाके किस्म के लोग होते हैं। विरोधियों को बात-बात में चाकू छुरे से घायल कर देते हैं, जेब में बम लिए घूमते हैं। ईश्वर को नहीं मानते। लिहाजा वे अच्छे लोग नहीं होते और उन की परछाई से भी दूर रहना चाहिए। एक दिन मैं अपने कालेज से लौट रहा था। मार्ग में वैद्य मामा जी का घर पड़ता था। उसी में नीचे की मंजिल में उन का औषधालय और औषध-निर्माणशाला थी। मन में आया कि मामाजी से मिल चलूँ। औषधालय में अंदर घुसा तो वहाँ अपने पिताजी और तेल मिल वाले गर्ग साहब को वहाँ पाया। मामा जी भी वहीं थे। गर्ग साहब किसी के लिए दवा लेने आए थे। आपस में बातें चल रही थीं। मैं भी सुनने लगा।
गर्ग साहब कुछ बातें ऐसी कर रहे थे कि मुझे वे तर्कसंगत नहीं लगीं। मैं उन से बहस करने लगा। हालांकि मैं अपने पिताजी के सामने कम बोलता था। लेकिन उस दिन न जाने क्या हुआ कि गर्ग साहब से बहस करने लगा। गर्ग साहब बहस के बीच कहीं निरुत्तर हो गए। मेरी बात काटने के लिए बोले तुम-कम्य़ुनिस्ट हो गए हो इस लिए ऐसी बातें कर रहे हो। मैं भी तब तक कुछ तैश में आ गया था। मैं ने कहा - आप यही समझ लें कि मैं कम्युनिस्ट हो गया हूँ। लेकिन उस से क्या मेरी किसी तर्कसंगत और सच्ची बात भी मिथ्या हो जाएगी क्या?
खैर! वहाँ बात खत्म हो गई। गर्ग साहब भी उन की दवाएँ ले कर चल दिए। कुछ देर बाद मैं और पिताजी भी वहाँ से एक साथ घर की ओर चल दिए। रास्ते में पिताजी ने पूछा -तुम कम्युनिस्ट हो? मैं ने कहा -नहीं। तो फिर जो तुम नहीं हो कहते क्यों हो?
मेरे मन में यह बात चुभ गई। मेरा प्रयत्न रहने लगा कि किसी तरह मैं जान सकूं कि आखिर कम्युनिस्ट क्या होता है। कुछ समय बाद मेरे हाथ गोर्की का उपन्यास 'माँ' हाथ लगा। उसे मैं एक बैठक में पढ़ गया। उस ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मेरी गोर्की के बारे में अधिक जानने की जिज्ञासा हुई तो मैं दूसरे दिन उस की जीवनी के तीनों भाग खरीद लाया। इस तरह मैं ने जानने की कोशिश की कि कम्युनिस्ट क्या होता है? हालांकि यह सब कम्युनिस्टों के बारे में जानने के लिए बहुत मामूली अध्ययन था। बाद में जाना कि भगतसिंह कम्युनिस्ट थे। यशपाल कम्युनिस्ट थे, राहुल सांकृत्यायन कम्युनिस्ट थे, मुंशी प्रेमचंद कम्युनिज्म से प्रभावित थे। बहुत बाद में कम्युनिस्ट मेन्युफेस्टो मेरे हाथ लगा भी तो समझ नहीं आया। उसे समझने में बरस लग गए। पहला कम्युनिस्ट अपने शहर में देखने में तो मुझे चार बरस लग गए। जब उसे देखा तो पता लगा कि कम्युनिस्ट भी एक इंसान ही होता है, कोई अजूबा नहीं। उस के शरीर में भी वही लाल रंग का लहू बहता है जो सब इंसानों के शरीर में बहता है। उस के सीने में भी दिल होता है जो धड़कता है। लेकिन यह भी समझ आया कि उस का दिल अपने लिए कम, बल्कि औरों के लिए अधिक धड़कता है। खुद को जाँचा तो पाया की मेरा दिल भी वैसे ही धड़कता है जैसे उस कम्युनिस्ट का धड़कता था।
फर्क था तो इतना ही कि वह उन लोगों के लिए जिन के लिए उस का दिल धड़कता था, चुनौतियाँ लेने को तैयार रहता था। वह शायद बहुत मजबूत आदमी था, शायद फौलाद जैसा। मैं उसी की तरह यह तो चाहता था कि दुनिया के चलन में कुछ सुधार हो लेकिन उस के लिए चुनौतियाँ स्वीकार करने में मुझे भय लगता था। मुझे लगता था कि मेरे पास अभी एक खूबसूरत दुनिया है और मैं उसे खो न बैठूँ। यह डर उस कम्युनिस्ट के नजदीक भी न फटकता था। कई बार तो मुझे उसे देख कर डर भी लगता था कि कैसा आदमी है? कभी भी अपनी जान दे बैठेगा। मुझे उसे देख कर लगा कि मैं शायद जीवन में कभी भी कम्युनिस्ट नहीं बन सकता, मुझ में इतनी क्षमता और इतना साहस है ही नहीं। मैं ने तभी यह तय कर लिया कि खुद को कभी कम्युनिस्ट नहीं कहूँगा। हाँ, यह जरूर सोचने लगा कि कभी मेरा मूल्यांकन करने वाले लोग यह कह सके कि मुझे कम्युनिस्टों से प्रेम था, तो भी खुद को धन्य समझूंगा।
चित्र- भगतसिंह, राहुल सांकृत्यायन और यशपाल
21 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर लेख लिखा आप ने, वेसे हम सब मै कही ना कही कुछ अंश कम्युनिस्ट के गुण या अवगुण पाये जाते है
द्विवेदी सर,
मेरा दिल भी दूसरे का दर्द देखकर धड़कता है...कहीं मैं भी...
जय हिंद...
""मैं ने तभी यह तय कर लिया कि खुद को कभी कम्युनिस्ट नहीं कहूँगा। हाँ, यह जरूर सोचने लगा कि कभी मेरा मूल्यांकन करने वाले लोग यह कह सके कि मुझे कम्युनिस्टों से प्रेम था, तो भी खुद को धन्य समझूंगा। ""
ख़ास बात यही तो है सर जी.
हर सहज तार्किक मन कम्युनिस्ट हो ही जाता है मगर कहलवाना शायद राजनीति है .
राहुल सांकृत्यायन बाद में कम्युनिस्ट नहीं रहे .आप भी...... हम भी ...
हमें नहीं लगता कि हम हैं...
न होता आखराँ कोई आखिरी मंजर।
सवाद चलते रहना चाहिए।
अपनी एक पोस्ट का लिंक दे रहा हूँ, हालाँकि सुना है इसे अच्छा नहीं माना जाता।
पढ़िएगा फिर टिप्पणी मिटा दीजिएगा:
http://kavita-vihangam.blogspot.com/2010/01/blog-post_06.html
आपकी फीलिंग्स अच्छी लगीं ! टिप्पणी में कुछ और भी लिखता पर सुमन जी सब कुछ कह गए !
बात रखने के सलीका और तरीका पसंद आ गया
। बहुत खूब।
बहुत लाजवाब प्रस्तुति रही इस पोस्ट की, बसंत पंचमी की घणी रामराम..
रामराम.
यह तो इस बात पर निर्भर करता है कि हम कम्युनिज्म को कैसे परिभाषित करते हैं? जैसी परिभाषाएं पूंजीवादी देते हैं उस पर चलें तो हम तो नहीं हुए... आप जिस परिभाषा की बात कर रहे हैं उस हिसाब से थोडा अंश तो जरूर है हमारे अन्दर भी. निर्विवाद रूप से.
यह पोस्ट पढ़कर बहुत देर तक सोचता रहा...। 'कम्युनिस्ट' शब्द आप ही की तरह मेरे लिए भी बहुत बड़ा शब्द है। मुझे लगता है कम्युनिस्ट यानी विराट असीम तार्किक मानवीय व्यक्तित्व का बनना जितना मुश्किल है उतना ही आसान भी है। आसान इस तरह कि इसके लिए आपको चाहिए सिर्फ और सिर्फ लोगों के लिए प्यार से लबरेज, गर्मजोशी से धड़कने वाला दिल। लेकिन यह दिल पाना इतना आसान नहीं होता है। अक्सर लोग अपनी कमजोरियों से लड़ नहीं पाते हैं और लोगों से उस शिद्दत से प्यार नहीं कर पाते है। आपने जिस जान देने वाली हिम्मत की बात की है वो इसी प्यार से पैदा होती है। मेरा मानना है कि जिंदगी में किसी असली कम्युनिस्ट से मिल लिए तो मानवता और प्यार के असली मायने आप समझ जाएंगे। (हालांकि इस दौर में कम्युनिस्टों के नाम पर रंगे सियार इस विचार को कलंकित भी कर रहे हैं।) लेकिन इंसानियत हारेगी नहीं और न 'कम्युनिज्म' पराजित होगा। लोगों से प्यार करने वाली और इस प्यार के लिए कुछ भी कर देने वाली एक पीढ़ी कारखानों-खेतों, गांवों-शहरों-कस्बों में अंगड़ाई लेने लगी है और क्म्युनिस्ट क्या होते हैं, यह सिर्फ मां जैसे उपन्यासों या पुराने किस्सों (जैसा अभी आपने लिखा है) में ही नहीं असल में हमारे आस-पास दिखने लगेंगे। इसी भरोसे को नाजिम हिकमत के शब्दों में कहें तो...
आएंगे, उजले दिन
जरूर आएंगे।
द्विवेदीजी ऐसी झंझावाती पोस्ट लिखते रहिए...
अत्यंत राहसपूर्ण स्वीकारोक्ति। दरअसल कम्यूनिस्टों के अलावा सुंदर संसार की कल्पना को दुनिया में कोई सच कर ही नहीं सकता, मगर इसके लिए सच्चा कम्यूनिस्ट होना जरूरी है जो कि एक बहुत ही कठिन संघर्ष का परिणाम होते हैं । ज्योतिबसु जैसे कम्यूनिस्टों से तो यह दुनिया सुंदर होने से रही।
दृष्टिकोण
www.drishtikon2009.blogspot.com
बहुत अच्छा लगा ये आलेख ऐसे ही एक कम्यूनिस्ट हमारे शहर मे थी जो केवल दूसरों के लिये काम करते हुये दुनिया से चले गये अपनी शादी भी नहीं की। और आज के कम्यूनिस्ट उनके चेले उन्हें 100 बार कहा कि उनकी जीवनी के बारे मे कुछ जानकारियां दें मगर उनके दफ्तर से कई बार खाली लौटी हूँ कि ढूँढ कर रखेंगे। आज केवल मुखौटे हैं बस कोई किसी पार्टी का नहीं आभार
हर विचारधारा अपने समय में वर्तमान होती है व प्रत्येक के अपने अपने गुण दोष होते हैं.
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आदरणीय द्विवेदी जी,
मैं ने तभी यह तय कर लिया कि खुद को कभी कम्युनिस्ट नहीं कहूँगा। हाँ, यह जरूर सोचने लगा कि कभी मेरा मूल्यांकन करने वाले लोग यह कह सके कि मुझे कम्युनिस्टों से प्रेम था, तो भी खुद को धन्य समझूंगा।
ऐसा क्यों लिखते हैं आप... आज आईना ही दिखा दिया आपने... एक सुविधाभोगी कायर झांक रहा था उसमें से... सचमुच बहुत शर्म आई आज...
कम्युनिस्ट सरकार, सोवियत संघ में
निष्फल गयी -
साम्राज्य्वाद और भौतिक उपभोग से लैस
पश्चिम की सत्ता भी जूझ रही है
.......शायद व्यक्तिगत स्तर पे
क्म्यूनिस्ती आदर्शों का पालन
ज्यादह सही और आसान होगा
........कार्ल मार्क्स की पुस्तक
" दास केपीटल " ने, सोवियत शाशन को
अब तक सींचा और प्रभावित किया है ..
बसंत पर्व पर
माँ सरस्वती की कृपा रहे ,
स स्नेह्म
- लावण्या
राहुल मरते दम तक कम्युनिस्ट रहे।
व्यक्तिगत कम्यूनिस्ट जैसा कुछ नहीं होता…एक प्रयोग असफल हुआ अभी सैकड़ों और पैदा होंगे।
मै भी ख़ुद को बस मार्क्सवादी कहने की हिम्मत कर पाता हूं।
शेष कपिल जी से सहमत…
नवीं क्लास मैं कम्यूनिज्म का पहला मतलब तब पङा जब एस एफ आई की रसीद कटवाने से मना करने पर थप्पङ पङा गाल पर चार दिन तक सूजे गाल के साथ सोचता रहा कि कम्यूनिज्म क्या होता है....दूसरी बार कम्यूनिष्ट पार्टी के कुछ पदाधिकारियों ने हमारे मकान पर असफल कब्जे का प्रयास किया......और अंतिम बार जब इन नीच कम्यूनिष्टों ने मेरे दोस्त को सरेबाजार गोली मार दी....मैं भी कभी अपने आप को कम्यूनिष्ट नहीं कहूंगा.....कभी नहीं...क्यों कि इससे बङी गाली नहीं हो सकती...
@मिहिरभोज
आप के साथ जिन लोगों ने यह व्यवहार किया उन में कोई भी कम्युनिस्ट नहीं था।
कमुनिज्म की बहुत सुन्दर परिभाषा बताई है आपने। लेकिन भारत की एक परम्परा सी रही है कि यहाँ किसी के मरने के बाद हम उसे शत-शत नमन या कोटि-कोटि नमन ही करना चाहते हैं। बस खुश हुए तो तो पत्थर की मूर्ति चौराहे पर लगा दी। आपके संस्मरण ने आपके बारे में थोड़ा बताया। अच्छा लगा। पढ़कर खुश हूँ और क्या कहूँ?
23 मार्च 2010 को प्रकाशित 'वे सूरतें इलाही इस देश बसतियाँ हैं -महेन्द्र नेह' पढ़ा।
मिहिरभोज के लिए आपका सिर्फ़ एक वाक्य शानदार रहा। इस टिप्पणी पर जो तस्वीर दिख रही है वही लगाते तो अच्छा लगता।
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