- दिनेशराय द्विवेदी
अब छोड़ो भी
बार बार उदास होना
जिन्दगी में आया कोई
लाल गुलाब की तरह
दे गया बहुत सी खुशियाँ
उस के जाने से
न हो उदास
याद कर
उस की खुशबू
और खुश हो
कि वह आया था जिन्दगी में
लाल गुलाब की तरह
चाहे लमहे भर के लिए
लमहे आ कर चले जाते हैं
पीटते रहना
लमहों की लकीर
जिन्दगी नहीं
खुशहाल लमहे
फिर से आएँगे
उठ, आँखे धो
स्वागत की तैयारी कर
लौट न जाएं वे
देख कर
तुम्हारी उदास आँखें
जल्दी कर, देख
वे आ रहे हैं तेजी से
चले आ रहे हैं
महसूस कर
नजदीक आती
उन की खुशबू
__________________________________________________________________________________
चुनाव व्यथा-कथा पर विराम लगा। कुछ व्यस्तता के कारण। इस बीच सोचा तो इस का नाम परिवर्तित कर दिया। इसे जनतन्तर-कथा नाम दे दिया है। जनतंतर-कथा जारी रहेगी। लेकिन निरंतर नहीं। बीच में कुछ विषय ऐसे आ जाते हैं कि उन पर लिखना जरूरी समझता हूँ। आज की यह कविता फिर से प्रतिक्रिया से उपजी है। पर इसे ब्लाग पर डालना भी सोद्देश्य है। आशा है पसंद आएगी। कल फिर जनतन्तर-कथा के साथ।
____________________________________________________________________________________
17 टिप्पणियां:
उठ, आँखे धो
स्वागत की तैयारी कर
लौट न जाएं वे
देख कर
तुम्हारी उदास आँखें
बहुत ही आशा देती प्रेरणादायक पंक्तियाँ लगी यह सुन्दर सामयिक रचना
इसी आशा और विश्वास पर तो दुनिया कायम है !
जय सिया राम !
राम नवमी शुभ हो - जनतँत्र आख्यान के मध्य आशा के प्रतीक सुँदर फूल और कविता
भली लगी जी
स स्नेह,
- लावण्या
पसंद आई
प्रेरणादायक पंक्तियाँ
मुझे तो खूब पसंद आयी.. इसका एक कारण यह भी है की आप इसे मेरे लिये लिखे थे.. :)
उठ, आँखे धो
स्वागत की तैयारी कर.........
बहुत सुंदर .
बहुत ही भावपूर्ण सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।
बहुत उर्जावान रचना.
रामराम.
उम्मीद लगाये हम भी बैठे ही हैं. सुन्दर रचना. आभार.
फिर से आएँगे खुशहाल लमहे" बहुत सुंदर,
दुनिया इसी उम्मीद पर तो जीवत है.
धन्यवाद
बहुत खूब! मुझे पता नहीं था कि आप कवितायें भी बहुत अच्छी लिख लेते हैं! साधुवाद!
अतीत की मरम्मत नहीं की जा सकती। भविष्य के प्रति आशावान और आश्वस्त ही हुआ जा सकता है। सो, आपका कहना ही सही है-वर्तमान को प्रसन्नतापूर्वक जीओ।
सुन्दर! इसी पोस्ट की जरूरत थी मुझे।
और सही में आंखें धो-पोंछ ली हैं। आगे के नये संकल्प के साथ!
aashaon se bhari rachna
मेरा अपना जहान
'उसके जाने से न हो उदास
याद कर उसकी ख़ुशबू और ख़ुश हो…'
बहुत ही सुन्दर और प्रेरक।
बधाई।
मुंह धो कर आती हूँ फ़िर बात करती हूँ। खुशहाल लम्हें कहां तक पहुंच गये?
द्विवेदीजी, आपको पढ़ते तो रहते हैं लेकिन आज अगर टिप्पणी न देंगे तो बेमानी होगी...आपकी कविता को कई बार पढ़ा और हाथ से निकलते लम्हों को फिर से पाने की उम्मीद जाग उठी..बहुत खूबसूरत जीवंत रचना.. आभार
एक टिप्पणी भेजें