@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: जनतन्तर-कथा (5) : अगिया बैताल और राजपथ पर ठाटें मारता दावानल

शनिवार, 4 अप्रैल 2009

जनतन्तर-कथा (5) : अगिया बैताल और राजपथ पर ठाटें मारता दावानल

हे! पाठक,
 परदेसी बनियों के चले जाने भर से भारतवर्ष में जनतंतर  नहीं आया था।  परदेसी बनिए तो भारतवर्ष जैसा था वैसा छोड़ गए,  टुकड़े और  कर गए। जनतंतर आया तब जब जनतंतर का नया बिधान लागू हो गया। फिर चुनाव हुए पहली महापंचायत बनी। पहला चुनाव था,  सो ज्यादा झंझट नहीं था।  परदेसी बनिए से लिए लड़े लोग मैदान में थे।  उन्हीं में से किसी को चुना जाना था।  महापंचायत के नेता चाचा थे,  जनता ने चाचा को ही चुन डाला। जब तक चाचा रहे तब तक यह झंझट नहीं पड़ा।  विकास कैसा हो इस पर मतभेद थे।  लेकिन इतने नहीं कि चाचा को असर होता।  दस साल तक वही चलता रहा। फिर उत्तर के पड़ौसी ने दूध में खट्टा डाल दिया, बैक्टीरिया पनपने लगे।  लड़ाई हारे तो चाचा और पार्टी दोनों का ओज कम हो गया।  फिर दक्षिण से कामराज दद्दा को बुला कर पार्टी की कमान पकड़ाई गई।  उसने बहुत सारे मंतरियों से इस्तीफा दिलवा कर बैक्टीरिया को निकाल बाहर किया, सरकार की छवि को सुधारने की कोशिश की।  फिर खुदा को चाचा की जरूरत हुई उन्हें अपने पास बुला लिया।  उन के पीछे कामराज दद्दा की रहनुमाई में सास्तरी जी ने देश संभाला।  बड़े नेक आदमी थे।  रेल मंत्री थे, तो एक ठो रेल दुर्घटना के चलते ही इस्तीफा दे बैठे थे।

हे! पाठक,
आज कल वैसा बीज खतम हो गया,  काठिया गेंहूँ की तरह।  चाचा सिंचाई का बहुत इंतजाम कर गए थे, सो कोरवान धरती का काठिया कहाँ बचता।  उस के स्थान पर उन्नत संकर बीज आ गया। सास्तरी जी  के रहते जनता को चुनने का मौका मिल पाता उस के पहले ही खुदा के घर उन की जरूरत हो गई।  बिलकुल अर्जेंट बुलावा आया।  बेचारे घर तक भी नहीं पहुँच सके।  सीधे परदेस से ही रवाना होना पड़ा।  फिर चाचा की बेटी आई मैदान में।  तब तक चुनावी अखाड़ा पक्का हो चला था।  पूरे बीस बरस से पहलवान प्रेक्टिस कर कर मजबूत हो चुके थे।  तगड़ा चुनाव हुआ।  क्या समाजवादी, स्वतंत्रतावादी, क्या साम्यवादी और क्या जनसंघी सारे मिल कर जोर कर रहे थे।  सास्तरी जी के खुदा बुलावे पर संशय, गऊ हत्या का मामला, तेलंगाना आंदोलन का दमन और भी बहुत सारे दाव-पेंच आजमाए गए।  पर कामराज दद्दा के रहते बात नहीं बननी थी सो नहीं बनी। पार्टी को बैक्टीरिया विहीन करने की पूरी कोशिश थी, पर बैक्टीरिया तो बैक्टीरिया हैं,  कितना ही स्टर्लाईजेशन करो बचे रह जाते हैं, बैक्टीरियाओं के परताप से राज्यों में दूसरी पार्टियों की सरकारें बनने लगीं।

हे! पाठक,
फिर भरतखंड से अलग हो कर बने लड़ाकू पच्छिमी पडौसी देश में भी जनतंतर का बिगुल बजा।  वहाँ पहले ही पूरब-पच्छिम दो  टुकड़े थे।  पूरब वाले जीते तो पच्छिम को नहीं जँचा।  पूरब वालों ने आजादी का बिगुल बजा दिया।  जुद्ध हुआ और चाचा की बेटी ने आजादी का साथ दिया और पूरब-पच्छिम अलग हो गए।  लाख फौजी समर्पण कर भारत लाए गए।  जनसंघियों को ताव आ गया।  उन्हों ने चाचा की बेटी को, बेटी से भवानी और चंडिका बना दिया,  भावना का ज्वार उत्ताल तरंगे ले रहा था।

हे! पाठक,
तरंगों को शेर समझ भवानी ने चुनाव की रणभेरी बजा दी, कि वह गरीबी मिटाएगी।  भवानी तीन चौथाई बहुमत ले कर सिंहासन पर जा बैठी।   बैक्टीरिया गए नहीं थे भावना की तरंगों के बीच ही भ्रष्टाचार, बेरोजगारी ठाटें मारने लगी।  जनता का हाल बेहाल हो गया।  क्या पूरब, क्या पच्छिम? क्या उत्तर क्या दक्खिन?  जनता रोज-रोज राजपथ पर आने लगी तो सरकारी दमन भी बढ़ने लगा।  जनता को खंडित करने वाले पंछी काम बिगाड़ते थे।  तब अगिया बैताल की तरह एक बूढ़ा सामने आया।  सब को साथ ले कर राजपथ पर बढ़ने लगा।

हे पाठक!  
तब ऐसा लगता था कि जनता का राजपथ पर ठाटें मारता दावानल सारे भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों को लील लेगा।  तभी अदालत ने दावानल में घी डाला।  चाचा की बेटी की सवारी को ही गलत बता दिया।  चाचा की बेटी  कुपित हुई तो सब को डाला जेल में और अकेली दावानल बुझाने लगी।   दो बेटे थे, एक हवाई जहाज उड़ाता था, दूसरा था फालतू।  वह दावानल बुझाने साथ हो लिया।  चुनाव होने थे।  पर आग की लपटों में चुनाव कराएँ तो लपटे ही जीतें।  पहले चुनाव एक साल पहले करा लिए थे, अब की एक साल आगे बढ़ा लिए, तीन चौथाई नुमाइंदे साथ जो थे। धीरे-धीरे लपटें ठंडी हो चलीं, वे समझे आग बुझ गई।  पर आग तो आग होती है।  राख के नीचे सुलगती रहती है, वह सुलगती रही।  भारतवर्ष में जनतन्तर था उसे चचा खानदान के राजतन्तर में तो बदला न जा सकता था।  आखिर चुनाव कराने थे। 
आज की कथा यहीं तक, आगे की कथा अगली बैठक में।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

14 टिप्‍पणियां:

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

बहुत सुंदर पोस्ट ,तस्वीरें और जानकारी .

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

तब अगिया बैताल की तरह एक बूढ़ा सामने आया।
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हां उस समय गूंज रहा था - दूर समय के रथ के घर्घर नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
सिंहासन खाली हुआ, पर कौन बैठा। जनता तो नहीं बैठी।

अजय कुमार झा ने कहा…

kya baat hai dwivedi jee, kamaal kee post hai, ekdum faad kar rakh diyaa hai aapne . abhee tak itnee badhiyaa raajnitik post nahin padhee dekhee.

Udan Tashtari ने कहा…

जनतंतर भी एक ठो अजूबा ही है!! :)

बेनामी ने कहा…

कथा रोचक है महाराज, अगली कथा में भी हम हाजिरी लगायेंगे

बेनामी ने कहा…

हे सूत जी,
कथा जारी रखी जाए....परसादी बगैरा का विराम ले सकते हैं....
जनतंतर की चुनाव व्यथा-कथा, सत्यनारायण-कथा का आनंद दे रही है....ढा़क के वही तीन पात।

बेनामी ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
राज भाटिय़ा ने कहा…

वाह मजा आ गया आप की यह कथा सुन कर, आगे की कथा के लिये प्राणी बेताब है ! महाराज जल्द ही अगली कथा भी सुनाये.
जै सिया राम

अजित वडनेरकर ने कहा…

चलते रहिए, चलते रहिए इस राजमार्ग पर ...
कभी हम ही काबिज होंगे सिंहासन पर...

Himanshu Pandey ने कहा…

हम तो इस जनतन्तर कथा के श्रवण के पुण्य से वंचित ही रह गये थे अभी तक ।

मैं मुग्ध हुआ कथा की इन पंक्तियों को सुन/पढ़ -
"आज कल वैसा बीज खतम हो गया, काठिया गेंहूँ की तरह। नेहरू चाचा सिंचाई का बहुत इंतजाम कर गए थे, सो कोरवान धरती का काठिया कहाँ बचता। उस के स्थान पर उन्नत संकर बीज आ गया।"

इस कथा शैली का भी मुरीद हो गया मैं । पिछ्ले चार अध्याय भी अभी पढ़ूंगा ।

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

अच्‍छा वंदन है

सच्‍चाई का नंदन है

आपने वन बना दिया

आपका अभिनंदन है।

Gyan Darpan ने कहा…

रोचक कथा

Arvind Mishra ने कहा…

पटकथा बहुत तेजी से आगे बढ़ रही है -कर्नल नियाजी और मानेकशा की संधि -लौह महिला इंदिरा सभी बाईस्कोप में घूम रहे है -पूरा बायस्कोप लगा दिया आपने !

Shastri JC Philip ने कहा…

दिनेश जी, आप ने चिट्ठालेखन में एक नई विधा को जन्म दे दिया है. इसे जारी रखें.

हां उस वैताल को जरा यदाकदा मेरी ओर भी भेज दें तो उन दिनों बडी मदद मिल जायगी जब सारथी पर लिखने के लिये विषयों का अभाव हो जाता है.

अब आते हैं मूल विषयवस्तु की ओर -- आपने हिन्दुस्तान, इसकी जरूरतें, इसकी समस्या, एवं समस्या के कारकों पर काफी विस्तार से चर्चा की है एवं मैं आप से एकदम सहमत हूँ.

कुछ बातें जो पुरानी होने के कारण यादों के गर्त में खो गई थीं (जैसे कामराज के बारें में) वे सब "उठ" कर जानकारी को तरोताजा कर गये.

भाषा का प्रयोग (जैसे, जनतंतर) अच्छा लगा! लिखने का अच्छा "मंतर" मिल गया है आपको!!

सही विश्लेषण !!

सस्नेह -- शास्त्री